जन्म - एक जुलाई उन्नीस सौ बहात्तर
शिक्षा - कला स्नातक, स्नातकोत्तर (हिन्दी)
प्रकाशन - विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में लगातार रचनाएं प्रकाशित।
साहित्य धरा अकादमी से "जीवन राग" एवं न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन से चयनित कविताओं का संग्रह 'समकाल की आवाज' प्रकाशित।
दस साझा काव्य संग्रहों में कविताएं प्रकाशित।
कुछ कविताओं का अंग्रेजी, उर्दू, पंजाबी, गुजराती और नेपाली भाषा में अनुवाद।
आकाशवाणी और अन्य मंचों से काव्य पाठ का प्रसारण।
प्रगतिशील लेखक संघ और इप्टा इकाई अशोकनगर में सक्रिय सदस्य।
कुछ नाटकों में अभिनय।
संप्रति - कृषि कार्य
|| दुःख ||
सुई की नोक पर धरा जा सके
या मवाद सा रिसता हो घाव से,
यह भी दुःख ही है कि
अपना दुःख व्यक्त करने के लिए
दुःख बहुत छोटा शब्द है मेरी भाषा में।
जब भी सोचता हूं
दुःख को कुछ और न लिख पाने के
पहाड़ हो चुके इस दुःख को
कोई नया नाम दूं, गढ़ू कोई नया शब्द।
पर दुःख है की,
पहाड़ से भी बड़ा हो जाता है
नया नाम गढ़ने तक।
दुःख यह है
कि यही सबका दुःख है।
|| दुःख ||
आओ दुःख!
मेरे जीवन में चले आओ।
सांझ ढले रास्ता भूले बटुक की तरह आओ
और बस जाओ उम्रभर के लिए
प्रेम की चाहत में मेरे हिस्से आई
घृणा की तरह आओ,
कुएं की तलहटी में हीरा खोजते
गोताखोर के हाथ आये अपने
प्यासे पूर्वजों के कंकाल से मिल जाओ
आओ तो इस तरह ही आना
जैसे लौटने की बाट जोहती विरहनी को आये
प्रियतम की मौत की खबर
बेलपत्र और महुआ से नहीं
आना और बरगद हो जाना
दूध के दांतों से नहीं
लौटने की सारी संभावनाओं को नकारते हुए
ढलती उम्र के चेहरे पर झुर्रियों से आना
तुम आना,
सुख की संभावनाओं के अंधेरे कमरे में
चमदागड से लटक जाना
आस के अमरूदों को खाना
और हगना मेरे ऊपर ही,
तप्त हृदय के रेगिस्तान पर आग बन के बरसना
बेआवाज़ कभी न रहना
जेठ की दुपहरी में सीटी से बजते रहना
मघा नक्षत्र की बारिश की तरह आना
बूंद-बूंद टपकते रहना
दालान और रसोई में
पतझड़ से पहले आना और ठहरना
पतझड़ के बाद भी
मैं देखना चाहता हूं ,अपने जीवन में
तुम्हारा वसंत हो जाना।
|| भीतर कौन है ||
न जाने किसकी आवाज है यह,
कौन फिक्रमंद है
जो पूछता है मुझसे
देश में क्या चल रहा है ?
नींद टूटती है तो अकेला पाता हूं
अपने आप को
दिल्ली से छह सौ किलोमीटर दूर
जमीनें छिन जाने के डर से पूरी तरह
भयमुक्त न हो सके किसानों के
इस छोटे से गाॅंव में,
जहॉं हर साल थोड़ी और जर्जर होती
कच्ची दीवारों पर लिख जाता है कोई
-हर परिवार के सिर पर होगी पक्की छत।
बारिश आते ही धुल जाते हैं सारे इश्तहार
सारी योजनाएं नालियों से बह निकलती हैं
रोजगार गारंटी को साथ लेकर।
मुफ्त राशन की थैली पर छपी
तस्वीर में मुस्कुराता आदमी
मेरे भूखे पेट की ओर इशारा करते हुए
कहता है कि बोलो
भुखमरी पड़ोसी मुल्क की किस्मत है।
कि - यह नवनिर्माण का स्वर्णिम काल है।
अरे, मैं तो सो रहा हूं !
उन तमाम लोगों की तरह जिन्होने अंधेरे को
जीवन की नियति मान लिया।
फिर यह कौन है जो जाग रहा है,
जो मुझे
नवनिर्माण का समय कहने से रोक रहा है,
अंधेरे को नियति मानने पर धिक्कार रहा है,
जो ख़बरों की विश्वसनीयता पर
प्रश्नचिन्ह लगा रहा है?
भीतर कौन है
जो बार-बार कहता है मुझसे
कि मुझे जानना चाहिए
दिल्ली में क्या चल रहा है?
मणिपुर क्यों जल रहा है?
■
|| आखिर कब तक ||
जैसे शब्दों में रही कविता
वैसे नहीं रहा मैं
तुम्हारे हृदय में/जुबान पर,
अपने सपनों के इर्दगिर्द भी
न भटकने दिया कभी तुमने मुझे।
मैं तुम्हारी ऑंखों का
पानी बनकर भी न बह सका
एकांत क्षणों में गिरते ऑंसुओं ने
नहीं दी किसी रिश्ते की दुहाई।
जैसे फूलों में बसती है सुगंध
कहाॅं बस पाया मैं तुम्हारी देह में,
खुद से ही महकते रहीं तुम
जुदा रहकर।
मैं तो पेड़ों की तरह भी न रहा
तुम्हारी उड़ान में शामिल
तुमने जब पंख फैलाए
देखा सिर्फ़ अनन्त विस्तार
आकाश का।
मैं वह ख़त हूं जिसे खोलना भी
मुनासिब न समझा तुमने।
बिस्तर की सिलवटें ठीक करतें हुए
रोज सुबह फेंक दिए तुमने
उस पारदर्शी, महीन काॅंच के पर्दे के टुकड़े
जो टूटकर भी बच जाता है साबुत
हटता नहीं हमारे बीच से।
हमें अपने सिर इस रिश्ते को ढोने के इल्ज़ाम से
कब तक/आखिर कब तक
बचाती रहेंगी बिस्तर की सिलवटें ?
■
|| किसान ||
मैं, सिर्फ एक शब्द हूं
जिसके दम पर बनती - गिरती हैं सरकारें।
मैं एक योजना हूं
जिसे लागू करते ही सवर जाता है
कितने ही राजनेता, प्रशासनिक अधिकारी
कर्मचारी और चपरासियों का भविष्य।
ठूंठ होता जा रहा एक पेड़ हूं मैं
जिसकी जड़ों से चूस लेता है कोई और
मेरे हिस्से की नमी
ओढ़ लेता है मेरे हिस्से का उजास।
मैं एक बाजार हूं
जहां नयी-नयी कंपनियां, नये-नये आविष्कार आते हैं
लोन पाॅलिसी के काॅंधे पर चढ़कर,
विधवा के ब्लाउज का ऊपरी बटन हूं
जिसके जल्द टूटने की आस लगाए
बैठा रहता है साहूकार।
तिरंगे में सबसे नीचे
मध्य चक्र की कई तीलियों का भार सहता
हरे रंग की पट्टी हूं मैं,
मैं इस भूमि पर
आबादी का सत्तर प्रतिशत भार हूं।
अन्नदाता...?
नहीं! नहीं!!
किसान हूं मैं।
■
|| कल्पना के घोड़े का असवार ||
कल्पना के घोड़े पर सवार था वह
जिधर चाहा मोड़ दिया
एड मारी लात से
घोड़ा दौड़ने लगता मनचाही दिशा में
वह कभी-कभी अनजान रास्तों पर भी
चला जाता
जाने में लगता भी क्या था
पलक झपकते ही होता था वह
अपनी इच्छित मंजिल पर
उसके पास कोई टाइम मशीन थी शायद
किसी भी युग में जला जाता/अपने घोड़े के साथ
और लौट भी आता इसी युग में
पर वह वर्तमान में नहीं लौट सका कभी
कल्पना का घोड़ा मर गया एक दिन,
एक दिन यथार्थ की कठोर जमीन पर
अपने घोड़े के साथ मृत पाया गया वह
कल्पना के घोड़े का असवार।
■
|| चिठ्ठियां ||
ममियारे से आई सारी चिट्ठियां
मुनिया ही पढ़कर सुनाती थी, मां को
उसके टूटे-फ़ूटे शब्दों के सेतू से
जुड़ते थे दो घर
दो परिवार/दो गाॅंव
जैसे नदी के दोनों किनारे।
जब मुनिया ब्याह कर ससुराल गई
तो चिट्ठियां आने का दौर चल पड़ा
माॅं को आने वाली चिट्ठियां पढ़ते-पढ़ते
मुनिया कुशलतापूर्वक चिट्ठियां लिखना भी
सीख गई थी
जब वह चिट्ठी की अंतिम पंक्ति में लिखती
- थोड़ा लिखे को बहुत समझना।
या
- और क्या लिखूं आप खुद समझदार हैं।
चिठ्ठी पढ़कर पिता के कुछ दिन
उदासी में गुजरते
माॅं की आंखे भर आतीं
वह अनपढ़ थी पर इन पंक्तियों का मतलब
खूब समझती थी।
प्रेमपत्र लिखना भी सबके वूते की बात
नहीं थी उन दिनों
कि सुंदर लिखावट और शब्दों की गहराई में डूबकर
कोई गवां बैठे रातों की नींद
दिन का चैन/दिल का करार
तब, इस कला में निपुण मित्रों के
निहोरे करना पड़ते थे
कुछ लड़के-लड़कियों को तो
अंतिम पैरा की तुकबंदियों से
वाहवाही लूटने में महारत हासिल होती थी।
सुख-दुःख की खबरें, शादीब्याह की सूचना
अपना हालचाल, शोक संदेश
मिलन और जुदाई की खट्टी मीठी यादें
एक अंतर्देशीय या पोस्टकार्ड पर
सबकुछ लिखा जाता था
कहते हैं लिखने वाले का चेहरा दिखता था
चिट्ठियों में।
जैसा कि अब मुमकिन नहीं
उन दिनों समीना को
पाकिस्तान से चिठ्ठी आई थी
उसके फुफेरे भाई अहमद की,
हफ्ते भर भटकने के बाद उसे
उर्दू का जानकार मिला
चिठ्ठी पढ़वाने के लिए।
जब भी वटवारे की बात चले
परदेशी रिश्तेदारों को याद करके
समीना रोने लगती है
जैसे मां रोती थी मुनिया को याद करके।
आते - जाते हुए
डाकघर की खिड़की पर झूलते
उपेक्षित लेटर वॉक्स की धूल झाड़ती
समीना को
पाकिस्तान से आने वाली चिठ्ठी का
आज भी इंतजार है।
■
|| जीवन राग ||
खिड़की खुलते ही
ताज़ा हवा ने किया कमरे में प्रवेश
जाला झूलने लगा हवा का स्पर्श पाकर
झूलने लगे जाले में फंसे कीट-पतंगे
कुछ जो मरणासन्न थे
छटपटाने लगे
आजमाने लगे बचाव के पैंतरे,
जिसे रचने में बहुत समय लगा मकड़ी को
हवा के एक झोंके से टूट गया वह चक्रव्यूह
खिड़की खुलते ही
उजाले ने किया प्रवेश
शिकारी छुप गया
शिकार और सावधान हो गया
अंधेरा छटते ही
घड़ी की सुईयां
जो रुकी थीं जाने कब से
एक ही ज़गह पर,
खिड़की खुलते ही टूटा मौन
घड़ी ने शुरू किया
समय से संवाद
बंद कमरों में ही बुने जाते हैं जाले
अंधेरा बहुत भाता है शिकारी को
घड़ी का रुकना
समय का रुक जाना नहीं होता
जैसे खिड़की का खुलना
मात्र खिड़की का खुलना नहीं है
बंद कमरे में लौटना है जीवन राग |
■
|| रिश्तों की उधेड़बुन ||
कोटरों में इंतज़ार करते वो हरियल हैं पिता
जिनके चूज़े पंख मजबूत होते ही
उड़ जाते हैं कहीं उनसे दूर
फिर नहीं लौटते उस कोटर में
जहां हुआ जन्म, उगे पंख
भरी पहली उड़ान जहां से
पिता बच्चों को बच्चे ही समझते हैं
और चिंता करते हुए उनके सुख दुःख की
बने रहना चाहते हैं पिता ही
पर बेटे हमेशा बेटे नहीं रहते
वे पड़ोसी बनकर भी रहने लगते हैं
पिता के घर में
या चले जाते हैं दूसरे शहर, दूसरे देश
कभी तीज त्यौहार लौटते हैं घर
तो उतावले ही रहते हैं वापस जाने को
न पूछो तब भी बताते हुए अपनी व्यस्तता की वजह,
बचपन में सिखाया गया सेवाभाव
अबतक इतना ही बचा होता है उनके पास
कि मां के घुटनों में दर्द की बात सुनकर
झोले से निकालते हुए सस्ता सा वाम
ऐसे मलते हैं कि अब छूमंतर हो ही जायेगा
बरसों पुराना रोग
पिता के मोतियाबिंद ऑपरेशन के खर्चे की
बात करते हुए बताने लगते हैं
पत्नी की बीमारी के बारे में
बच्चे की आंखों पर चढ़े हुए चश्मे का नंबर
और ज्यादा बढ़ जाने के बारे में,
मंहगाई का रोना रोते हुए बताते हैं
अगले माह से पैसे न भेज पाने की लाचारी
स्वजनों की चिंता करते भागते हुए से लौटे पिता
अगर रोजीरोटी के लिए जाना भी पड़ा हो परदेस
पर किसी खास दिन, खास मौके पर
लौटने का वादा करके गये बेटे
पिताओं की तरह कभी न लौटे
बग़ैर बच्चों के आंगन रहा सूना सूना
और मन भी,आंगन जैसा
'अपना बेटा तो नहीं है ऐसा
कि बीत जायें छह सात बरस
और खबर भी न ले हमारी,
ज़रूर कोई मजबूरी रही होगी।'
बूढ़े मां - बाप, एक दूसरे को दिलासा देते हुए
एक बेटी भी न होने के लिए
रोते हैं अपने दुर्भाग्य पर।
■
|| समय के साथ बदलती हैं नस्लें ||
कुछ बरस पहले की ही तो बात है
कि अचानक जंगली बिलाव
गांव -गलियों में घूमते देखे गए
वे टोह लेने आते और लौट जाते
कछारों, मैदानी इलाकों में
फ़िर बढ़ता ही गया उनका आना-जाना
एक दिन वे हमारे आंगन-अटारी में
घूमते और झगड़ते देखे गए
उन पालतू बिलावों से
जो पालतू न होने पर भी बिल्लियों के साथ
रहते थे पालतू की तरह
कभी दूध दही का बर्तन न ढका
तो चट कर जाते और चिड़ाते
खपरैल की मुॅंडेर पर बैठ कर
मुॅंह पर लगी जूठन को चाटते हुए
जंगली बिलाव ने सबसे पहले
इन पालतू बिलाव को ही खदेड़ना शुरू किया
बात न बनी तो घेर घेरकर मारना
शुरू कर दिया
कई जंगली बिलाव मिलकर
किसी एक बिलाव का शिकार करते
माॅं ने हमारे घर में पले मृत बिलाव को
देखते हुए यह जाना कि वे गर्दन
दबोच कर मार रहे थे इन्हें
अब सिर्फ़ बिल्लियां ही बची रह गई थीं
गाॅंव में
और जबरन घुस आए जंगली बिलाव
फ़िर शुरू हुई जोर जबरदस्ती
आधी रात के बाद गाॅंव में बिल्लियों के
रोने-कराहने की आवाज़
चूंकि बिल्लियों का रोना अपशकुन माना जाता था
सो लोग लाठियों से खदेड़ने लगे इन्हें
हजारों साल में घटित किसी खगोलिय
घटना की तरह घटित हुई यह घटना भी
कि गांव के सारे बिल्ले-बिल्लियां
जंगली बिलावों जैसे दिखने लगे।
किसी दिन चीते भी घुस आएंगे इसी तरह
गाॅंव गलियारों में
फ़िर घरों में शुरू होगा वही आधीरात को
इन वर्णशंकर बिल्लियों का बिलाप
और हम नई नस्ल की बिल्लियां
या बदली हुई नस्ल के चीते देखेंगे।
आखिर समय के साथ नस्लें भी बदलती हैं।
■
|| बचपन का खेल अनोखा ||
गेहूॅं की पक चुकी बाली में जब
दानों की चमक और वजन का
मुआयना कर रहा था मैं
कि तभी पास आ बैठे बच्चे ने
मेरी आस्तीन में एक बाली
उलटी कर सरका दी, हौले से।
उसे निकालने के प्रयास में
मै झटकने लगा आस्तीन,
आस्तीन को जितना झटकता
बाली चढ़ती चली गई उतना ही ऊपर।
यही खेल तो मैं खेलता था बचपन मे
दोस्तों के साथ
कभी वे दिन में तारे दिखाने की बात कहकर
चिरचिटा की बाल रगड़ देते थे
मेरी हथेली पर।
बच्चा हॅंस रहा था
वैसे ही, जैसे मैं हॅंसता था
दोस्तों को कमीज उतार कर
बाली निकालते हुए देखकर।
पास ही कटाई में जुटे पिता ने
इस तरह एतराज़ जताया कि
बच्चा गुमसुम हो गया।
तत्क्षण मेरी भीतर एक बच्चा जन्मा
और मर गया।
■
|| बेनाम ||
जिसका उद्गम स्थल नहीं हुआ
विख्यात पिकनिक स्पॉट
न तटों ने पाया विस्तार,
जो तपा तूने से जन्मी
और दिसंबर आते-आते सूख गई
नया साल पुराना होकर ही आया
जिसके अल्प जीवन में हर बार।
जिसने राजस्व नक्शे में नहीं घेरी
अपने लिए इंच भर जगह
किसी ताल-तलैया की मोरी से निकली
खेतों से पनाह मांगती
विलीन हो गई
ऊबड़-खाबड़ पथरीली चट्टानों में।
वह जिस गांव से होकर गुजरी
उस गांव के लोग
अपने गांव का नाम ही
नदी का नाम बताते रहे
इस तरह एक छोटी सी नदी
हमारी मुक्कमल जरूरतों को पूरा करती हुई
सदियों से बहती रही बेनाम
कई-कई नामों के साथ,
बार-बार मरती रही
फिर-फिर जन्मती रही।
निराशा में उस दिन
तुमने ठीक ही तो कहा था प्रिय!
"बेनाम स्त्री और बेनाम नदी में,
ज्यादा फर्क नहीं होता।"
■
|| मैंने वसंत को देखा ||
खेतों में/सरसों के पौधों पर
पेड़ों की नन्ही सी कोंपलों पर
उपवन में फूलों पर
वनफूलों पर निर्जन में
हर जगह आ बैठा वसंत।
सेमल की टहनियों की सुगबुगाहट में
भंवरे ने सुनी उसके आने की आहट
और भंवरे गाने लगे-
स्वागतम... सुस्वागतम।
स्वागत गीत सुनकर
गुलमोहर होने को हुआ सुर्ख लाल।
वसंत आया और छुपकर बैठ गया
आम की मंजरियो में
मधुमक्खियों ने देखा उसे सबसे पहले
और कोयल ने कुहुक-कुहुककर
पूरे गांव में फैलाई उसके आने की खबर।
गेहूॅं की बालियों और हरी दूब से
ओस कणों को झरते देखा,
इस विरहणी रात को
दिन ढलने के इंतजार में थकते देखा,
माघ की विरह वेदना में
फागुन को तपते देखा,
फगुनाये हुए आकाश की आंखों
फागवती धरती को देखा।
हाॅं, मैंने वसंत को देखा।
■
|| परछाईं ||
अगर आप अंधेरे को धकेलते हुए
सिर तक डूब चुके हैं प्रकाश में
तो छायांकित होगी तुम्हारी देह
बशर्ते पत्थर की तरह तोड़कर न करें
इसका विश्लेषण
आप जितने करीब होंगे प्रकाश पुंज के
कद उतना ही बड़ा होगा आपका ।
प्रकाश स्रोत के ठीक विपरीत दिशा में
रस-भाव, सुन्दर- असुन्दर से परे
आप इसे तीनों काल की मिश्रित तस्वीर
योगिक या खगोलीय शब्दावली में
छाया कह सकते हैं।
सजीव-निर्जीव में भेद किये बगैर
खड़ी होती है यह सबके साथ
जब अंधेरा रख दे कांधे पर हाथ
दोगला आदमी की तरह
छोड़ जाती है साथ
अपना कोई वजूद न होने पर भी
ताउम्र पीछा करती है हमारा ।
दीवार पर परछाईं को देखना
खुशी या विस्मय से भर देता है
इसकी अलग-अलग आक्रति
कोतूहल पैदा करतीं हैं
इनका इस्तेमाल बचपन को डरपोंक बनाने में भी
किया जाता है, जाने-अनजाने ।
एक अदृश्य परछाईं से ढके होते हैं हम
मां कहती है मुझमें पूर्वजों की
परछाईं दीखती है
और बेटे-बेटियों में मेरी ।
यह हमें आदिमानव से मिलाती है
और हम बार-बार लौटते हैं
अपने अंधेरों में ,
एक दिन देह के साथ ही हो जाती है विलीन
जैसे जन्म हुआ था देह के साथ ।
■
|| रिश्तों की उधेड़बुन ||
कोटरों में इंतज़ार करते वो हरियल हैं पिता
जिनके चूज़े पंख मजबूत होते ही
उड़ जाते हैं कहीं उनसे दूर
फिर नहीं लौटते उस कोटर में
जहां हुआ जन्म, उगे पंख
भरी पहली उड़ान जहां से
पिता बच्चों को बच्चे ही समझते हैं
और चिंता करते हुए उनके सुख दुःख की
बने रहना चाहते हैं पिता ही
पर बेटे हमेशा बेटे नहीं रहते
वे पड़ोसी बनकर भी रहने लगते हैं
पिता के घर में
या चले जाते हैं दूसरे शहर, दूसरे देश
कभी तीज त्यौहार लौटते हैं घर
तो उतावले ही रहते हैं वापस जाने को
न पूछो तब भी बताते हुए अपनी व्यस्तता की वजह,
बचपन में सिखाया गया सेवाभाव
अबतक इतना ही बचा होता है उनके पास
कि मां के घुटनों में दर्द की बात सुनकर
झोले से निकालते हुए सस्ता सा वाम
ऐसे मलते हैं कि अब छूमंतर हो ही जायेगा
बरसों पुराना रोग
पिता के मोतियाबिंद ऑपरेशन के खर्चे की
बात करते हुए बताने लगते हैं
पत्नी की बीमारी के बारे में
बच्चे की आंखों पर चढ़े हुए चश्मे का नंबर
और ज्यादा बढ़ जाने के बारे में,
मंहगाई का रोना रोते हुए बताते हैं
अगले माह से पैसे न भेज पाने की लाचारी
स्वजनों की चिंता करते भागते हुए से लौटे पिता
अगर रोजीरोटी के लिए जाना भी पड़ा हो परदेस
पर किसी खास दिन,खास मौके पर
लौटने का वादा करके गये बेटे
पिताओं की तरह कभी न लौटे
बग़ैर बच्चों के आंगन रहा सूना सूना
और मन भी,आंगन जैसा
'अपना बेटा तो नहीं है ऐसा
कि बीत जायें छह सात बरस
और खबर भी न ले हमारी,
ज़रूर कोई मजबूरी रही होगी।'
बूढ़े मां-बाप,एक दूसरे को दिलासा देते हुए
एक बेटी भी न होने के लिए
रोते हैं अपने दुर्भाग्य पर।
■
|| मनोरोगी ||
अति धर्मांधता एक मनोरोग है
राजा पीड़ित है इस रोग से
पीड़ित है राजवैद्य भी।
इसी रोग की पीड़ा और उन्माद में
जीत लिया है उसने
सुलगते हुए जंगल का
आधे से ज़्यादा हिस्सा,
भाग खड़े हुए हैं निरीह जीवजंतु।
मनोरोगी को डर बहुत लगता है
थकान महसूस करता है कुछ ज़्यादा ही,
अब थककर सो रहा है वह
जाग रहे हैं लोमड़ी, सियार और लकड़बग्घे
और लंबी रेस के बाद थके हारे/सुस्ता रहे
घोड़ों का मांस नोच-नोचकर
खा रहे हैं, बेधड़क।
कमजोर घोड़े अब विरोध में
सिर्फ़ हिनहिनाते हैं
और उनकी हिनहिनाहट कुत्तों के
भौंकने की आवाज़ में दब जाती है,
अरदलिया कुत्ते घोड़ों के धराशाई
होने के इंतज़ार में हैं।
कुछ अड़ियल टट्टू खड़े हैं
कुत्तों की पाला में
उन्हीं की करते तरफदारी
भौंकते उन्हीं की तरह।
यही सब रखवाले हैं रियासत के,
यही जयकारे लगाने वाले
राजा के जागने और जीतने पर।
जब इंद्रियां शिथिल पड़ रही हैं
यही हैं उसके आंख, नाक, कान
इन्हीं से है राजा का वजूद।
■
|| बीज रोपने वाला ||
वह दबाता रहा
बंजर भूमि में एक-एक बीज
दुआओं में मांगता रहा
रिमझिम बारिश।
थोड़ी सी तपिश
और सतरंगी किरणों के दुलार से
फूटेंगे नवांकुर,
आवाह्न किया उसने इस उम्मीद पर
कि लौट आयेगा सूरज
जैसे सोते से झिरने लगता है बूंद-बूंद पानी
बारिश के दिनों ।
सियासत ने इसे साजिश कहा,
बीज रोपने वाले पर
देशद्रोह का मुकदमा है।
■
|| तुम्हारे कवि होने पर ||
अगर तुम्हारे रास्ते में पेड़ नहीं आते
पगडंडियां नहीं आतीं
पत्तों की सरसराहट नहीं डराती तुम्हें
तुम्हारे सिर पर आसमान
और पैरों मे नहीं चिपकी है धूल-मिट्टी
टखना-टखना भीगते हुए
पार नहीं किया कोई नदी-नाला
तलवों में नहीं लगा कीचड़
कोई कांटा नहीं चुभा कभी
नहीं गुजरे किसी तालाब के किनारे से
कंकड़ नहीं उछाला ठहरे हुए पानी में
लहरों के वृत्त में खड़ा महसूस नहीं किया
अपने आप को
तुम्हारे बड़ा होने के अंहकार को ध्वस्त करते पहाड़
विकास की परिभाषा से इतर जंगल
और वन्यजीवों ने लुभाया नहीं है तुम्हें
स्वाति नक्षत्र की बारिश आने तक
रा.. प्यासा- रा.. प्यासा रटते पपीहे की पुकार ने
करुणा से नहीं भर दिया तुम्हारा हृदय
बाग - बगीचे, खेत - खलिहान सप्रयास आते रहे
तुम्हारी कविता में
सिर्फ कागजों में देखते और लिखते रहे तितलियों का
उड़ना-बैठना, फिर-फिर उड़ना-बैठना
अगर तुम्हारी मुग्धता का कारण बासी फूल हैं
यदि फिलीस्तीन कोई और देश है तुम्हारी नज़र में
कोई दूसरा, या पड़ोसी राज्य है मणिपुर
कि छह दिसंबर को नहीं मानते काला दिवस
अफ़ग़ान तर्ज पर सत्ता हस्तांतरण के पक्षधर हो तुम
जब बातों-बातों में कह देते हो मन की बात
तब भी लिखते रहो कविताएं
तुम्हारे कवि होने पर मुझे कोई संदेह नहीं है।
■
|| कल कुछ तो बेहतर होगा ||
हर दिन अगले दिन के इंतजार में
हर महीना अगले महीने ,और साल
अगले साल के इंतजार में बीत जाता है
इस पंचवर्षीय योजना से इसलिए संतुष्ट हूं
अगली में कुछ बेहतर होगा सबके लिए
उनके लिए भी जिन्हें हर योजना में
अनदेखा किया जाता है।
जो किया जा सकता था वह नहीं किया
अब क्या किया जाये इसपर मंथन और विमर्श
के लिए जो लोग सभागारों में एकत्रित हुए
ऐसा नहीं कि असंतुष्ट रहा उसने
पर अपने चुनाव पर पछतावे के अलावा
कुछ हासिल भी नहीं होता, सोचते हुए
फिर से पहुंच जाता हूं अगले चुनाव की दहलीज पर।
जब बाजार घर में घुसकर
उघाड़ दे रहा है मेरी अर्थव्यवस्था
देश की अर्थव्यवस्था को ओढ़ाई गई
नयी चुनरी में देखकर
बलैया लेता हूं कि लग न जाए किसी की नजर
सरकार की उपलब्धियां ही पहनने ओढ़ने लगता हूं
निर्वस्त्र होने पर भी कम से कम अंतरात्मा की
धिक्कार से बच पाता हूॅं इस तरह
भूखे पेट होने की तड़प को
जय-जयकारी विज्ञापनों में छुपाकर
यह सोचते हुए सो जाता हूं आज
कि कल तो कुछ बेहतर होगा।
जिन विफलताओं से घबराकर मैं
जान देना चाहता हूं
उन्हीं विफलताओं को एक सफल आदमी
छाती पर मैडल सा चिपकाकर गुजरता है
मेरे सामने से
यह कोई षडयंत्र है मुझे चुप कराने का
एक षडयंत्र पर चुप्पी साधे
अगले षडयंत्र से बचने के उपाय खोजता हूॅं मैं।
जब धरना, ज्ञापन, गिरफ्तारियां
सबकुछ सांकेतिक होता जा रहा है
कल कुछ बेहतर होगा, इसी उम्मीद में
मैं भी सांकेतिक विरोध का झंडा उठाये
उसी भीड़ का हिस्सा हूं
जिसे भेड़ों का झुंड नहीं मानते बुद्धिजीवी।
■
|| यह तुम्हारा दूसरा वनवास है राम! ||
तुम जितने बरस रहे टाट के तिरपाल में
हमारी पीड़ा एक जैसी रहीं
तुम भी तपते रहे तेज धूप में
बारिश में भीगते और ठंड से सिकुड़ते रहे
कल तक तो सुख मृगमारीचका थे
तुम्हारे लिए भी।
तुम्हारे पांव के छाले देख
हमने भी दुर्गम रास्तों पर चलना सीखा
मित्रता से सीखा मित्रता का फर्ज़ निभाना
तुम हमारे आदर्श थे राम!
हमने अनुकरण किया तुम्हारी नीति और प्रीति का
चलना सीखा तुम्हारी उंगली पकड़कर
क्या आज तुम्हें भी सहारे की जरूरत आन पड़ी
अगर हां,
तो यह किसकी उंगली थाम ली है राम!
किसके कांधे पर धर दिया है हाथ ?
उसके कांधे पर जो सत्ता, संविधान
और तुम्हारा भी अपहरण कर चुका हैं
जीवन के अंतिम पड़ाव पर पहुंच कर
हर कोई बैठना चाहता है
तुम्हारी कृपा दृष्टि की छांव में
पर तुम्हें सत्ता की कृपादृष्टि की दरकार थी
यह कैसे स्वीकारूं राम!
जिस विराट भवन में तुम रहोगे
वहां, जब भक्तों की भीड़ नहीं होगी
तब तुम्हें भी सुनाई देगी वह चीख-पुकार
जिसे वर्षों से सुनता रहा हूं मैं
क्या अपने पैरों के नीचे गुमनाम लाशों का ढेर
देख सकोगे राम!
आज कोई मंथरा नहीं है इस षड्यंत्र में शामिल
न पुत्र मोह में पगलाई कोई मां
न वह पिता जो पत्नि को दिये वचन से विमुख न हुए
तुम्हें एकांतवास दिया जा रहा है राम!
एकांतवास और वनवास में कितना फर्क होता है
यह शोध का विषय है
पर तुम्हारा एकांतवास तो दूसरा वनवास है राम!
आज तुम्हारी नहीं उनकी जय-जयकार है
जो पत्थर को भगवान बनाने की कला जानते हैं
वही धर्म की आड़ लेकर वान घालेंगे
वालि की तरह सत्य को धराशाई करने के लिए
और तुम पत्थर ही बने रहोगे
सब तुम्हारे हैं/क्या तुम सबके नहीं हो राम!
चुप्पी तोड़ो.. कुछ बोलो...
कैसे बोलोगे, तुम्हारा तो अपहरण हुआ है राम!
मैं तुम्हारी मुक्ति के लिए
उस मर्यादा पुरुषोत्तम से प्रार्थना करूंगा
तुम जिसकी प्रतिछाया हो।
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|| मेरे साथ अक्सर ऐसा होता है ||
खुद ही खुद से बात करना
बड़बड़ाते हुए खुद ही खुद को देना
अपने प्रश्नों के जवाब
खीझना खुद पर ही
और फिर
खुद ही खुद को सांत्वना देना,
ऐसा कितनी बार हुआ है आपके साथ
मैं नहीं जानता
पर मेरे साथ तो अक्सर ऐसा होता है।
दिसम्बर की सबसे ठंडी रात में
जब पाइपलाइन में पानी जम जाए
और ठिठुरन भरे हाथों से अलाव जलाने में
खत्म हो जाएं सारी तीलियां
तब खीझ पड़ता हूं बर्फ़ बन चुके पानी पर
रीत गई दियासलाई पर
गीली जलावन की लकड़ियों पर
उस लाइनमैन पर भी जो ठीक रात बारह बजे ही
करता है पावर सप्लाई ऑन।
जब एक - एक पौधे को सींचता हूं
एक - एक दाना बीनता हूं खेतों से
छटका - फटका अनाज बचाकर
पहुंचता हूं गल्ला मंडी
जब सेर दो सेर अनाज परखने के नाम पर
बिखरा दिया जाता है जमीन पर
जब लागत से भी कम दाम पर
अनाज, फल, सब्जियां खरीदने को आतुर
दिखते हैं व्यापारी
तब खीझ तो होती है न
इस दोगली व्यवस्था पर
इस व्यवस्था को चलाने वाली सरकार पर
खुद ही खुद से पूछता हूं एक सवाल कि
मांग और पूर्ति का नियम हमारी फसलों पर
क्यों हो जाता है बेअसर।
कार्पोरेट के अदृश्य षडयंत्र में उलझकर
इतना अंधविश्वासी और आस्तिक हो चुका
कि मंडी जाते हुए रीते घड़े लिए कोई स्त्री गुजरती है
सामने से
या काली बिल्ली रास्ता काट जाती है
या छींक दे कोई अगल-बगल
तो खीझ पड़ता हूं उसपर भी
या उस भगवान पर
मेरे कोसने से जिसके होने का दावा मजबूत होता है।
खुद ही खुद से बात करते हुए
कुरेदता हूं अपने जख्म
मरहम भी लगाता हूं अपने हाथों
सोचता हूं मैंने क्यों अपना हक़ नहीं छीनना सीखा,
क्यों नहीं कहा कि मेरा भी एक परिवार है खेती भरोसे
मेरे बाल-बच्चों के तन पर भी पेट है
जिसकी तस्वीर टाइम्स मैगजीन के मुखपृष्ठ पर छपती है
यदाकदा
मैंने नहीं कहा कि किसान औरतें
एक साड़ी में गुजार देती हैं दो - तीन वर्ष
खीझ तो होती है जब कोई नायिका स्क्रीन से बाहर आकर
पत्नी से पूछती है
-मेरी साड़ी तुम्हारी साड़ी से सफेद क्यों?
जबकि मैने उससे कभी नहीं कहा
कि फास्फोरस से नहीं
अपनी हड्डियां घोलने से बनते हैं
अन्न के दाने चमकदार।
खीझ तो होती है जब
चौदह - पंद्रह किताब पढ़ा बेटा घर आ बैठता है
गोबर उठाने में शरम आती है उसे
कहता है राजनेता बनूंगा, खूब पैसा कमाऊंगा।
मैं बेटे से पूछता हूं
वही बनेगा जो बंदरों सी उछल-कूद करते हैं
गालियां बकते हैं
स्वार्थ लिप्साओं और बहुमत की दम पर
कानून पलटते हैं संसद में जाकर
क्या वही बनेगा तू
जिनका आमजन के प्रति दीमकों सा आचरण हो जाता है
संविधान की शपथ लेकर।
मैं अपने खेतों में सपने बोता हूं
सपने ही काटता हूं
जो आप तय करें उस दाम पर
बेचता हूं सपने ही
पर खीझ तो होती है
जब हर उत्पाद का मूल्य
तय करता है उत्पादक ही
तब हमारी फसल के दाम
सरकार और आढ़तियों के रहमो-करम पर।
खुद ही खुद से बात करना
खुद ही खुद से जवाब पूछ्ना
मेरे साथ अक्सर ऐसा होता है
आपके साथ कितनी बार हुआ, मैं नहीं जानता
पर किसानी के भविष्य को लेकर मेरा उत्तर
आपको चिंता में डाल सकता है
कि डायनासोर के होने तक
जितनी उम्मीद डायनासोर के बचे रहने की रही होगी
मुझे इतनी ही उम्मीद है
किसानी के बचे रहने की।
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|| बचे रहना एक कला है ||
मरे हुए लोग ज़िंदा होने का
अभिनय करते हैं
चाहे न भी हों कलाकार
पर निपुण हो जाते हैं इस कला में
वे इसी तरह ज़िंदा होने का
अभिनय करते हुए गुज़ार देते हैं
पूरी उम्र,
हर प्रश्न का एक ही उत्तर होता है
उनके पास कि-
बचे रहना एक कला है |
वे, खाते-पीते हैं
हंसते - बतियाते हैं
चलते-फिरते भी हैं किसी रोबोट की तरह
वे गहरी नींद में सोये लोग होते हैं
उन्हें पता होता है कि
जागने का मतलब
थोड़ा - थोड़ा मरना होता है |
थोड़ा - थोड़ा मरना कोई नहीं चाहता
लड़ना कोई नहीं चाहता
बिगाड़ के डर से मुंह फेर लेते हैं
सच बोलना कोई नहीं चाहता
हर हाल में, हर शर्त पर
केंचुए सा लिजलिजा ही सही
मरे हुए लोग जीना चाहते हैं
पूरा का पूरा जीवन |
सम्पर्क -
ग्राम - पाटई पोस्ट - धुर्रा
तहसील - ईसागढ़ जिला - अशोकनगर (मध्यप्रदेश)
पिन - 473335
मोबाइल - 9893886181