Sunday, February 9, 2014

अनामिका शर्मा


जन्म :- ०६ अक्तूबर १९९१ में शाहजहांपुर ,उत्तरप्रदेश में 
शिक्षा :- उत्तरप्रदेश तकनीकी वि०वि० लखनऊ से स्नातक 
लेखन :- १९९९ में लघु कथा से आरम्भ , बाद में कविताओं और आलेख की और भी अग्रसर 
प्रकाशित :- अमर उजाला , स्वतन्त्र भारत , जन जन तक आदि पत्र - पत्रिकाओं में कविताएँ तथा आलेख प्रकाशित
प्रिय लेखक / कवि :- तसलीमा नसरीन , सआदत हसन मंटो , जय शंकर प्रसाद , निराला आदि 
अन्य :-  समकालीन कलाओं में भी रूचि , साहित्य के प्रचार प्रसार हेतु सोशल नेटवर्किंग को बहुत उपयोगी मानती हैं
 
अनामिका की यह कविताएँ प्रेम और आलोकिकता की सच्ची आंकाक्षा व्यक्त करती हैं। यह प्रेम धुएं से दूर जिस राजकुमार के महल की कल्पना करता है वह किसी क्रूर शासक और सत्ता की सहभागिता की इच्छा नहीं है। कद्धू का रथ और चूहों के घोड़े जैसा बिम्ब एक आम लड़की के प्रेम का सच्चा प्रतिनिधित्व करता है। जो इस बाज़ारवाद में अपने लम्हों तक को कैद होने देने  से बचाना चाहता है। अपना अस्तित्व तलाशती इस युवा कवयित्री को अनंत शुभकामनाओं सहित प्रस्तुत हैं उनकी कुछ कविताएँ। 


सिन्ड्रेला 

सिन्ड्रेला..!
तुम आती रहना
सपनों, कल्पनाओं और आशाओं के घर में
पतझड़ में वसन्त की उम्मीद की तरह
ताकि लगता रहे मुझे
कि कद्दू बन जाएगा रथ
चूहे घो़ड़े बन उसे चलायेंगे
ले जायेंगे समय से पार
चूल्हे के धुएँ से दूर
किसी राजकुमार के महल में
उस समारोह में
जिसके चर्चे सुने हैं
हर किसी ने लम्बे समय से
और चमकनें लगेंगी मेरी जूतियाँ..


अस्तित्व
आती थी
समन्वय के समय में
वसन्त लेकर 
पतझड़ के बीतने पर
खिलतें थे
नवागंतुक
कोमल बागों की
सब्ज शाखों पर मिलती थी
नव ऊर्जा
प्राणिमात्र को
प्रकृति के इस परिवर्तन पर
परिवर्तित हुए
पृष्ठ
परिवर्तन के निमित्त
समय की पुस्तिका पर
विलुप्त हुए चिन्ह
मधुमास के सभी
अचानक प्रस्थान पर
प्रतीत हुआ
अस्तित्व
जीवन का
अग्रसर लुप्तता के पथ पर
दृष्टिगत हुआ
अवशेष
चिन्ह जीवन का
मस्तिष्क एवम् दृष्टिपटल पर
प्रतीत हुआ
प्रयासरत
वो शजर अस्तित्व हेतु
आज भी अपनी जगह पर।


लड़की, फ्रेम और यादें

वो लड़की कहती थी
तस्वीरें लेने से लम्हें ज़िन्दा नहीं रहते
उस ज़िन्दादिली के साथ
यादें फ्रेम हो जाती हैं

खुलकर जी नहीं पातीं 
हँसती हुई बड़ी-बड़ी आँखों से
रोती थी छिप-छिप कर
वो लड़की कहती थी
कैसे गल़त हूँ मैं
जो किसी और से तुम्हें माँगा है
मैनें भी तो अपना हिस्सा बाँटा है
अकेले में पहनती थी कभी साड़ी
सिंदूर लगा माथे पर
खामोशी से खुद को देखती जाती थी 
वो लड़की अक्सर यूँ ही
कल्पना के आईने पर
उतारी बिंदिया लगाती थी,
वो लड़की कहती थी 
तस्वीरों में मत कैद करो
मेरी तरह मेरे लम्हों को
मुझे तो न दे सके
इन्हें तो आजादी दो 

सिलती थी चादर
भावनाओं की कतरनों से
और ओढ़कर उसे मिलनें आती थी
इस तरह लड़ती-झगड़ती खुद से
हँसती हुई सिसकियों में
वो लड़की जीती जाती थी।


तुम्हारी आँखें

तुम्हारी ये आँखें
जब भी कोशिश करती हूँ
इनमें देखने की
इन्हें समझने की
तो दिखता है इनमें मुझे सम्पूर्ण सागर
जिसमें कुछ कश्तियाँ
छोटी-बड़ी
अपने गन्तव्य को अग्रसर
कुछ मंजिल को पाती हुई
कुछ विनष्ट होती हुई
कुछ अब भी अग्रसर अपने पथ पर
दिखते हैं कुछ माँझी
हौसला देते हुए
पहुँचने का तट पर
दिखती हैं कुछ लहरें
या लहरों का भ्रमजाल
खो जाती हूँ मैं इनमें कहीं
देखने लगती हूँ मैं खुद को इनमें
कि झुका लेते हो तुम अपनी पलक
और सिमट जाता है सब कुछ
नाट्यशाला के परदे की तरह ।


अपारगम्य

सावन के महीने में
जब फुहार बरसी
खिंच आई मैं आँगन में
बचपन की उत्सुकतावश किसी
भीग गया तन मेरा फुहार में
पहुँच सकी परन्तु आत्मा तक वो नहीं
बचपन की सहजता से...
जैसे बन गई है एक दीवार कहीं
शरीर और आत्मा के बीच
एक परत अपारगम्य...


सम्पर्क :-
नज़दीक कबीर धन बाबा मन्दिर
मोहल्ला - गढ़ी 
पोवायाँ , शाहजहांपुर , उत्तर प्रदेश 
दूरभाष - +91-9999-103-420

प्रस्तुति :-
कमल जीत चौधरी 
काली बड़ी , साम्बा [ जे०& के० ]
दूरभाष - ०९४१९२७४४०३ 


(कुछ चित्र गूगल की मदद से विभिन्न साइट्स से साभार लिए गए हैं)