Saturday, June 14, 2014

मुदस्सिर अहमद भट्ट


यह फर्क नए पंखों को तय करने दो -

अपने एक नए परिचित हुए कश्मीरी दोस्त मुदस्सिर अहमद भट्ट के लिखने का पता  चला। जिन्होंने २०१० में लिखना शुरू किया . इनका जन्म २५ नवम्बर १९८७ को हुआ। इनके पिता का नाम गुलाम रसूल भट्ट तथा माँ का नाम फातिमा है। जब उनसे कविताएँ मांगी तो उन्होंने सहर्ष एकदम प्रेषित कर दी।  कश्मीर पर कोई भी दृष्टी बहुत महत्वपूर्ण है। एक युवा इस पर क्या सोचता है यह  जानना ज़रूरी है। मेरी जानकारी में कश्मीर में रहकर हिन्दी कविता लिखने वालों में निदा नवाज़ और सतीश विमल के बाद यह तीसरा नाम है। मुदस्सिर कश्मीर वि० वि० के हिन्दी विभाग में एम० फिल० के शोधार्थी हैं। उनसे बात  करके यह अनुभव हुआ कि उनमें साहित्य का विद्यार्थी होने की अतिरिक्त संवेदनशीलता , पर्याप्त अपेक्षित समझ है। इनकी कविताओं में एक तरह की नाराज़गी है। व्यवस्था ने इनके बचपन को ठगा है। आतंकवाद के उतार चढ़ाव और राजनीतिक दलों की उठा पटक के बीच यह बड़े हुए। लिखने को लेकर उनका कहना है कि यहाँ हिन्दी कविता पर बात करने वाला कोई नहीं है लेकिन सोशल नेटवर्किंग से कुछ वातावरण बनता दिख रहा है। यहाँ मुदसिर की चार कविताएँ प्रस्तुत हैं जिनमें आप नए पंखों की उड़ान की प्रतिबद्धता देख सकते हैं। प्रेम के स्व संवाद देख सकते हैं।  निर्दोष होने के परिणाम देख सकते हैं। व्यवस्थाजनित पलायन की प्रवृत्ति को हावी होता भी देख सकते हैं।
'खुलते किवाड़' पर इनकी काव्य यात्रा का हार्दिक स्वागत व अनंत शुभकामनाएँ !



जानता हूँ

हाँ ! यह जानता हूँ
निर्दोष हूँ
निर्धन युवा की तरह
जिसे अक्सर
नकारा जाता है
नौकरी में
धनवान को देखते हुए.

हाँ ! यह जानता हूँ
निर्दोष हूँ
उस कन्या भ्रूण की तरह
जिसे अक्सर
नष्ट कर दिया जाता है
गर्भ में
लड़के को देखते हुए

हाँ ! यह जानता हूँ
निर्दोष हूँ
बूढ़े – बुजुर्ग  की तरह
जिसे  अक्सर
पीटा जाता है
घर में
पत्नी को देखते हुए

हाँ! यह जानता हूँ
निर्दोष हूँ
बगिया की कलियों की तरह
जिन्हें अक्सर
मसला जाता है
पैरों तले
धार्मिक अंधश्रद्धाओं में
बारात देखते हुए

हाँ ! यह जानता हूँ
निर्दोष हूँ
गंगा जल की तरह
जिसे अक्सर
मलिन किया जाता है
स्वार्थ  में
अपने हित को दखते हुए

हाँ ! यह जानता हूँ
निर्दोष हूँ
उस कश्मीरी की तरह
जिसे अक्सर
मरवा दिया जाता है
जंगल में
जंगल राज में
सोने की थाली देखते हुए  ...



मशाल

यह भारत का सिरमोर
यहाँ हावी है
लोक पर तंत्र

यहाँ गरीबों निरक्षरों
बेरोजगारों व असहायों पर
अभियोग हैं
संगबाजी के
अलगाववाद के
आतंकवाद के
इस असमान निष्ठुर
दुर्दशा की स्थिति में
सत्ताधारी
तिजोरियों को तोलते हैं
तो दूसरी ओर
आक्रमक गौण षड्यंत्रों से
फँस
रक्तपात पंजों में
कबूतर
सूली झूलते हैं
यहीं से
जलती आग ...

इस तंत्र में
संकोच है
राजा और रंक के बीच

राजा स्वच्छंद होकर
भय ,आतंक , संत्रास से
दलबंदी को
प्रोत्साहित  करते हैं
इस दलाली में
स्वछन्दपूर्वक  दलाल
अपने दल हेतु
आहत को बलि चढाते हैं
तथाकथित संगबाजों में से
किसी संगबाज के सीने को
गोली से छलनी करवाते हैं
इन्हीं दलालों ने कभी
शिक्षिकाओं के शरीर की
तो कभी
बहु-बेटियों के शरीर की
दलाली की
कभी
लहुलहान कर
दुष्कर्म कर
फेंक दिया
उफनती नदी के घाट
झाड़ झंखाड़ में
इस असीम
मर्मभेदी घटनाओं ने
जन्म दिया प्रगल्भता  को
जो समय – असमय
वार करता रहता
जिससे जली  है
भभकती आग
जो कांच तोड़ती,
वाहन जलाती
भवन जलाती
राख बनाती है
यह आग मासूम
बच्चों से लेकर
बूढ़ों तक के
लहू से उठती है
लोग कहते हैं
यह बुझ  न सकेगी
जलती रहेगी

हाँ !जलाती रहेगी
तब तक
जब तक आग और मशाल में फ़र्क नहीं समझा जाता -

यह फर्क नए पंखों को तय करने दो .




वह मेरी परिचित अपरिचित

वह मेरी परिचित अपरिचित !
अचानक जब भी कभी
नज़र आती है
जानकर
जानने से इनकार  करती है
कनखियों से देखती है !

अग्नि बन
लग जाती है भयंकर अंगार
जलने लगते हैं मेरे हृदय के चिनार

बरसते नैन
धुआंता दिल
चारों ओर मातम
चारों ओर सन्नाटा

पलटता  हूँ  फिर - फिर तेरे ही पास
हे मेरी परिचित अपरिचित !
पहचान मुझे
आकर समीप जान मुझे
आशा तू  अरमान तू  सर्वस्व तू
आरज़ू तू इंतज़ार भी ...

होना चाहिये जो कुछ
पास मेरे है
बस एक चीज
रिश्वत
नहीं है
होती यह पास मेरे
तो क्या अपरिचित
परिचित होती !
पास मेरे भी होती गाड़ी
कुर्सी ,बंगला ,हीरे ,मोती !

पर क्या तब भी मुझे
मेरे ज़मीर के बिना
कनखियों से देखती
वह मेरी परिचित अपरिचित !



चलो भाग चलें

चलो भाग चले
इस छोर से उस ओर
जहाँ न किसी टोपी का
भाषण हो
और न सत्ता की भूख की गुर्राहट

जहाँ आशाओं का
उन्मुक्त समुद्र
हिलोरें मारता हो
स्नेह प्रेम के
तराने गूँजते हो
चलो भाग चले

चलो भाग चले
उस शून्य की ओर
जहाँ न किसी धर्म का
बंधन हो
और न कोई फतवा हो
जहाँ स्वर -ताल ध्वनित हो
चलो भाग चले

चलो भाग चले
उस  शांति की ओर
जहाँ न कोई कारखाना हो
और न मयकदे का शोर हो
जहाँ नदियों का राग हो
सुषमा कलियों का साथ हो
कोयल की कूक हो
दिल में न कोई हूक हो
चलो भाग चले

चलो भाग चले
उस राह की ओर
जहाँ न किसी हमराह का
अभिनय हो
और न कोई मुखौटा हो
घर चाहे छोटा हो
पर दिल न कोई खोटा हो
चलो भाग चले

चलो भाग चले
उस भोर की ओर
जहाँ न किसी धन का
सम्मान हो
न धनवान का ही मान हो
बस इंसान ही पहचान हो
जहाँ केवल अपनत्व
साम्य सम्मान हो
आत्म – अभिमान चरम – उत्थान हो
चलो भाग चले...




सम्पर्क :-
मुदस्सिर अहमद भट्ट
खानागुंड , तराल
पिन कोड - १९२१२३
जिला - पुलवामा { जे० & के० }
दूरभाष - ०९६२२४९५९३७




प्रस्तुति :- 

 
कमल जीत चौधरी
काली बड़ी , साम्बा { जे० & के० }
दूरभाष - ०९४१९२७४४०३

ई मेल - kamal.j.choudhary@gmail.com


(सभी चित्र गूगल की मदद से विभिन्न साइट्स से साभार लिए गए हैं)