Wednesday, October 22, 2014

नील कमल


जन्म :- १५ अगस्त १९६८ को वाराणसी के भलेहटा गाँव में
शिक्षा :- गोरखपुर वि० वि० से प्राणी विज्ञान में परास्नातक
संग्रह :- हाथ सुन्दर लगते हैं , यह पेड़ों के कपड़े बदलने का समय है
अन्य :- महत्वपूर्ण ब्लॉग ' बीच बहस में कविता ' का संचालन करते हैं, महत्वपूर्ण ब्लॉगों और पत्र - पत्रिकाओं में कविताएँ कहानियाँ और आलेख प्रकाशित होते रहते हैं

हुत ज़रूरी युवा कवि नील कमल को मैं केवल उनकी कविताओं से जानता हूँ .ऐसा जानना आज बहुत ज़रूरी है . कम ही लोग ऐसा जानना चाहते हैं . साहित्यिक मठाधीशों और चमचावाद को ठेंगा दिखाने वाले नील कमल की कविताओं पर दस्तख़त कर सकते हैं . उनको जान भी सकते हैं . वे प्रतिबद्ध और परिपक्व हैं .इनके यहाँ कला जीवन के लिए और कला कला के लिए, दोनों सिद्धांतों में क्रमशः ईमानदारी और मौलिकता हैं . इनकी कविताएँ विचार को जनेऊ की तरह धारण नहीं करती . वे जानते हैं कि कविता की रचना प्रक्रिया के बहाने सुन्दर दुनिया को कैसे दिखाया जा सकता है . सपना यही से शुरू होता है .जो बदलाव की पहली शर्त है . गुलेल को खतरनाक और निर्दोष बताने वाली दृष्टि साँड को भी नया सौन्दर्य देती है . ऋत्विज प्रकाशन से प्रकाशित उनके काव्यसंग्रह ' यह पेड़ों के कपड़े बदलने का समय है ' की दस्तक सीधे पाठकों के दिलों पर पड़ी है . इसके लिए उनको हार्दिक बधाई . पूरे संग्रह पर फिर कभी ... फिलहाल आभार सहित यहाँ प्रस्तुत हैं उनकी कुछ कविताएँ -




गोदना

सबसे महफूज पनाहगाह
हूँ मैं
बोलती है एक स्त्री की त्वचा
गोदना गुदवाते हुए

दुनिया के तमाम मर्द
जब कहीं नहीं पाते ठौर
तो शरण पाते हैं मुझमें

और जोर देकर कहती है
जो दमक रहा है
मेरी त्वचा के भीतर
उसे सिर्फ काली सियाही
न समझा जाए .



सुना आपने

कभी आप विचार को
जनेऊ की तरह धारण करते हैं

कभी आप जनेऊ को
विचार की तरह धारण करते हैं

दोनों ही स्थितियों में सुविधानुसार
विचार को कान पर टाँग लेने की सुविधा है
कविता की दुनिया में बस यही सुविधा नहीं है

फिलहाल
कविता के कान पर
टंगा हुआ है एक धागा
ख़ता मुआफ़ हो मेरे दोस्तो
आप जो बनते हैं कविता के हिमायती
सबसे ज्यादा साँसत में कविता की जान
आप से .. हाँ आप ही से है ..सुना आपने ?



माचिस

मेरे पास एक
माचिस की डिबिया है
माचिस की डिबिया में कविता नहीं है

माचिस की डिबिया में तीलियाँ हैं
माचिस की तीलियों में कविता नहीं है

तीलियों की नोक पर है रत्ती भर बारूद
रत्ती भर बारूद में भी नहीं है कविता

आप तो जानते ही हैं कि बारूद की जुड़वा पट्टियाँ
माचिस की डिबिया के दाहिने - बाँए सोई हुई हैं गहरी नींद
ध्यान से देखिये इस माचिस की डिबिया को
एक बारूद जगाता है दूसरे बारूद को कितने प्यार से
इस प्यार वाली रगड़ में है कविता.



गुलेल

यह
रोमन लिपि का
पच्चीसवाँ वर्ण है
हिन्दी की हथेली में कसा हुआ

दो उँगलियों  के
फैलाव में बना वह
विजय सूचक चिन्ह है
जिसे संसद की हर बहस के बाद
दिखाते हैं जनप्रतिनिधि

एक खिंची हुई प्रत्यंचा हैं
एक कसा हुआ विवेक
चुटकी में कसमसाता

एक गोली बराबर पत्थर
तना हुआ किसी एक आँख
किसी एक सर पर

सिर्फ गोपियों की मटकी
ही नहीं फोड़ती है गुलेल
वह तोड़ती है पेड़ पर पका
सबसे मीठा आम ..

कितनी खतरनाक है गुलेल
फिर भी कितनी  निर्दोष .

  





साँड

उसे
सचमुच नहीं
मालूम , कि यह
है शांत हरा रंग , और
वह लाल रंग भड़कीला

उसे दोनों का फर्क तक
नहीं पता , यकीन जानिए

वह निर्दोष बछड़ा है
किसी निर्दोष गाय का
जिसके हिस्से का दूध
पिया दूसरों ने हमेशा

वह बचता बचाता
आ गया है सभ्यता के
स्वार्थलोलुप चारागाह से
जहां बधिया कर दिए गए तमाम
बछड़े , खेतों में जोते जाने के लिए ,
उन्हें पालतू मवेशी में बदल दिया गया

साँड को बख्श दीजिए
अफ़वाहें न फैलाइए कि
भड़क जाता है वह लाल रंग देखकर

यह कैसा भाषा - संस्कार है आप का
कि जिसमें बैल कहलाए , जो पालतू हुए , और
जिन्हें पालतू नहीं बना सके आप , वे साँड कहलाए .


सम्पर्क :-
२४४ , बाँसद्रोणी प्लेस
कोलकाता - ७०००७०
दूरभाष - ०९४३३१२३३७९
ई मेल - neel.kamal1710@gmail




प्रस्तुति :- 
 
कमल जीत चौधरी
काली बड़ी , साम्बा { जे० & के० }
दूरभाष - ०९४१९२७४४०३

ई मेल - kamal.j.choudhary@gmail.com

(सभी चित्र गूगल की मदद से विभिन्न साइट्स से साभार लिए गए हैं)




Friday, October 3, 2014

तस्लीमा नसरीन

आतंकवाद पर खलती है यह चुप्पी



वामपंथी राजनीति को मैं बचपन से ही पसंद करती थी। इस विश्वास में विश्वासी होकर बचपन में मैं सबके लिए रोटीकपड़ा और मकान की मांग करती थी। अकाल पीड़ित लोगों की मदद करती थी। मेरे बड़े मामा कम्युनिस्ट और नास्तिक थे। मैं उनसे बहुत डरती थी। मेरे लिए जुलूस में जाना और बहसों में हिस्सा लेना तो मुमकिन नहीं था। हांकिताबें पढ़ने का नशा था। फिर समता और समान अधिकार के लिए मैंने लिखना शुरू कर दिया।
मैं वामपंथ में विश्वास करती हूं। पर मेरे लेखन की शुरुआत से ही वामपंथियों ने मुझे खारिज किया है। महिलाओं की बराबरी के बारे में जब मैं लिखती थीतब ये लोग मुझे टोकते थे। कहते थेतुम सिर्फ वर्गशत्रु को चिह्नित करो। कम्युनिस्टों के सत्ता में आने पर महिलाओं को बराबरी का अधिकार तो मिल ही जाएगा। पर जहां भी कम्युनिस्ट सत्ता में आएवहां महिलाओं को समान अधिकार नहीं मिला। कहां के पोलित ब्यूरो में कितनी महिलाएं हैंजरा बताइए तो!
बाद में वामपंथियों ने एक अजीब-सी वजह से मुझे दोष देना शुरू किया। बांग्लादेश में हिंदुओं के साथ जो अत्याचार हो रहा थाउसका विरोध करते हुए मैंने लज्जा नाम से एक तथ्य आधारित उपन्यास लिखा था। जब भारत में भारतीय जनता पार्टी मेरी बगैर अनुमति के लज्जा की नकल छाप-छापकर रेलबस और फुटपाथ पर थोक के भाव बेचने लगीतब कम्युनिस्टों ने मुझे दोषी ठहराना शुरू किया। भारत में दक्षिणपंथी मेरा समर्थन कर रहे थेइसके लिए मैं ही दोषी थीआज भी वामपंथी मुझे लज्जा लिखने का दोषी ठहराते हैं। उनका आरोप था कि लज्जा के जरिये मैंने भारत के दक्षिणपंथी कट्टरवादियों के हाथों में हथियार थमा दिया है। भारत के वामपंथी अल्पसंख्यकों पर अत्याचार होने की स्थिति में उनके साथ खड़े होते हैंजबकि बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों पर होने वाले अत्याचारों के खिलाफ मैं खड़ी हुईतो मैं दोषी हूंमैंने लज्जा बांग्लादेश में बैठकर लिखा थाभारत में नहीं। फिर भी दोषी थीक्योंकि बांग्लादेश के कम्युनिस्ट तो कट्टरवादियों के साथ हैं। अपने संगी-साथियों के खिलाफ कोई बात वे भला कैसे सुन सकते थे?
कम्युनिस्टों ने मेरे जीवन का सबसे बड़ा नुकसान तब कियाजब उन्होंने भारत में मेरी किताब पर प्रतिबंध लगा दिया। आत्मकथा का तीसरा खंड द्विखंडितो भारत में प्रतिबंधित हैक्योंकि इसमें मैंने इस्लाम की आलोचना की हैजिससे उनकी धार्मिक भावना पर आघात लगने का आरोप है। जबकि किसी भी मुस्लिम ने मेरी इस किताब को प्रतिबंधित करने के लिए आवाज नहीं उठाई थी। इसके बावजूद पश्चिम बंगाल की कम्युनिस्ट सरकार ने आगे बढ़कर मेरी किताब पर प्रतिबंध लगाया। इस प्रतिबंध के बाद भारतीय उपमहाद्वीप में मेरा जीवन पूरी तरह बदल गया। इसकी वजह यह है कि कम्युनिस्ट सरकार ने मुझे इस्लाम-विरोधी बताकर कट्टरवादियों के हाथ में एक हथियार थमा दिया। मुस्लिम कट्टरवादी आज भी मेरे खिलाफ इस हथियार का इस्तेमाल कर रहे हैं।
किताब पर प्रतिबंध लगाने के बाद कट्टरवादियों ने मेरे खिलाफ फतवा जारी किया। मेरे सिर की कीमत लगाई। मुझ पर हमले किए। मेरे खिलाफ जुलूस निकाले गए। इसी दौरान कम्युनिस्ट सरकार ने पश्चिम बंगाल से मुझे निकाल बाहर किया। मुझे भगाने का कारण वोट था। मैं इस्लाम विरोधी हूंमुझे भगाने से मुस्लिम मतदाता वाम मोर्चे को वोट देंगेइस उम्मीद में मुझे बाहर किया गया।
जब एक राज्य ने मुझे भगायातो दूसरे ने इसी नीति का अनुसरण किया। कोई सरकार वोट खोने का जोखिम नहीं ले सकती थी। पश्चिम बंगाल से मुझे राजस्थान भेज दिया गया। लेकिन राजस्थान की तत्कालीन भाजपा सरकार ने मुझे वहां छह घंटे भी नहीं रहने दिया। राजस्थान से मैं दिल्ली आई। केंद्र की तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने भी मुझे वहां से बाहर करने की कोशिश कीपर ऐसा नहीं हुआ।


कम्युनिस्टों की गलत नीति आज भी खत्म नहीं हुई है। दुनिया भर में वे मुस्लिम कट्टरवादियों के हक में बोल रहे हैंक्योंकि उनका मानना है कि ये लोग अमेरिकी साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ रहे हैं। वामपंथियों की यह बहुत बड़ी भूल है। यदि वे कट्टरवादी अमेरिका के खिलाफ लड़तेतो ह्वाइट हाउस या कैपिटल को निशाना बनातेट्विन टावर को नहीं। ट्विन टावर के ध्वस्त होने से हजारों लोग मारे गएजिनमें अमेरिकी साम्राज्यवाद का खैरख्वाह शायद ही कोई था। इस्लामी आतंकवादी किसी राष्ट्र पर हमला नहीं करतेआम जनता को निशाना बनाते हैं।
तालिबान को अमेरिकी साम्राज्यवाद ने ही पैदा किया है। अनेक कट्टरवादी और आतंकवादी संगठन सऊदी अरब के पैसे से तैयार हुए हैं। सऊदी अरब अमेरिकी साम्राज्यवाद का घनिष्ठ मित्र है। इस्लामी कट्टरवादी दारूल-इस्लाम बनाना चाहते हैंजिसमें दूसरे मजहब को मानने वाले और काफिरों के लिए जगह नहीं होगी। वैसी इस दुनिया में वामपंथियों की जगह तो सबसे पहले खत्म होगी। कम्युनिस्ट नारी के समानाधिकार में यकीन करते हैं। जबकि मुस्लिम कट्टरवादी औरतों को बुर्के में छिपाकर रखते हैं। वे पत्थर मार-मारकर महिलाओं की हत्या करते हैंवे औरतों को पुरुष की संपत्ति समझकर गृहस्थी में कैद करते हैं। फिर कम्युनिस्ट किस तर्क से कट्टरवादियों का समर्थन करते हैं?
किसी अच्छी चीज के खत्म होने से कितनी दुर्गंध निकलती हैयह समकालीन वामपंथियों को देखने से समझा जा सकता है। ईसाइयों या यहूदियों से जो नए मुस्लिम बने हैंवे आईएस जैसे आतंकी संगठनों से जुड़े हैं। वे बगैर किसी दुविधा के किसी की भी गर्दन रेत दे रहे हैं। चाहे आईएस होअल कायदा होअल शवाबबोको हराम या दूसरे कट्टरवादी आतंकी संगठन-वामपंथी इन सबके समर्थन में हैं। ये कट्टरवादी संगठन मनुष्य की हत्या करके अपने ईश्वर को खुश करना चाहते हैं-उस ईश्वर कोजो उन्हें इस काम के लिए ऐशो-आराम की चीजें तो देंगे हीहर आतंकी को बहत्तर हूरों की सौगात भी बख्शेंगे। आश्चर्य है कि ईश्वर में विश्वास  करने वाले वामपंथी इस्लामी कट्टरवाद के इस पक्ष पर कुछ नहीं बोलते।

(अमर उजाला से साभार)