Friday, November 21, 2014

तस्लीमा नसरीन

कहां ले जाएगी यह कट्टरता


बांग्लादेश के पूर्व डाक और दूरसंचार मंत्री अब्दुल लतीफ सिद्दीकी ने पिछले दिनों कहा कि वह हज और तबलीगी जमात के विरोधी हैं। इस तरह की टिप्पणी के बाद स्वाभाविक ही उनका मंत्री पद चला गया है। उनके खिलाफ बांग्लादेश की सड़कों पर कट्टरवादियों के जुलूस निकले हैं। उनकी फांसी की मांग की गई है, और उनका सिर कलम करने की कीमत पांच लाख टाका रखी गई है। सिद्दीकी की लानत-मलामत करने में बांग्लादेश की राजनीतिक पार्टियां भी पीछे नहीं हैं। वे कह रही हैं कि लतीफ सिद्दीकी को बांग्लादेश में घुसने नहीं दिया जाएगा। वहां का मीडिया भी उन्हें निशाना बना रहा है।
बांग्लादेश की नब्बे फीसदी आबादी मुस्लिम है। इनमें से ज्यादातर का मानना है कि लतीफ सिद्दीकी ने मुसलमानों की धार्मिक भावना को चोट पहुंचाई है। किसी व्यक्ति को ऐसी टिप्पणी नहीं करनी चाहिए थी, जिससे किसी की भावनाओं को चोट पहुंचे। मंत्री पद पर होते हुए तो व्यक्ति से और भी संवेदनशीलता की उम्मीद की जाती है। पर उनके खिलाफ सड़कों पर अचानक जो भीड़ उमड़ आई, उसके बारे में क्या कहें, उसे किस तरह जायज ठहराएं? मुस्लिम कट्टरवादी पत्थर मारकर महिलाओं की हत्या कर दे रहे हैं। एक वार में लोगों का सिर धड़ से अलग कर दे रहे हैं, और उसे दुनिया भर में लाइव दिखा भी रहे हैं। ट्राउजर पहनने के जुर्म में लड़कियों पर कोड़े बरसाए जा रहे हैं। कार चलाने के जुर्म में महिलाओं को पीटा और दंडित किया जा रहा है। पूरी दुनिया के लोग इस बर्बरता के साक्षी हैं। एक समय पूरे विश्व में इस किस्म की बर्बरताएं थीं। पर कमोबेश सभी जगह इन्हें गैरकानूनी घोषित किया गया है।
कोई माने या न माने, लेकिन सच यह है कि पिछले दो दशकों में कट्टरवादियों और आतंकवादी संगठनों की संख्या चिंताजनक रूप से बढ़ गई है। तालिबान, अल कायदा, लश्कर-ए-तैयबा के बाद बोको हराम और आईएस जैसे अनेक छोटे-बड़े आतंकी संगठनों ने अपनी जड़ें जमाई हैं। ये संगठन पूरी दुनिया को दारूल इस्लाम बनाने का ख्वाब पाले हुए हैं। इस दारूल इस्लाम में सिर्फ मुसलमान रहेंगे, दूसरे मजहबों को मानने वालों के लिए इसमें जगह नहीं होगी! प्यू रिसर्च की ताजा रिपोर्ट बता रही है कि दुनिया के अधिकांश मुसलमान शरिया कानून चाह रहे हैं। आज पूरी दुनिया में मुस्लिमों के प्रति एक अजीब किस्म की धारणा बन रही है। मुसलमानों के साथ दोस्ती करने, उन्हें नौकरी देने, उन्हें कारोबार में भागीदार बनाने या उनके साथ सामाजिक रिश्ते रखने के मामले में एक किस्म की हिचक देखी जा रही है। पूरे विश्व में मुस्लिम समुदाय के प्रति अविश्वास जन्म ले रहा है। चूंकि पश्चिमी देशों में मानवाधिकार कानून सख्त हैं, इसलिए मुसलमान वहां अपने रीति-रिवाजों का पालन करते हुए भी रह पा रहे हैं। मानवाधिकार कानूनों का यह सहारा नहीं होता, तो पश्चिम में मुस्लिम समाज का क्या हश्र होता, इसकी सिर्फ कल्पना की जा सकती है।


यदि मनुष्य को अभिव्यक्ति का अधिकार न मिले, तो लोकतंत्र का अर्थ नहीं है। और समाज को बदलने के लिए लोगों की सोच और भावनाओं को भी कई बार निशाना बनाना पड़ता है। राष्ट्र से धर्म को अलग करने और महिला-विरोधी कानूनों को खत्म करने के क्रम में भी लोगों और संस्थाओं की सोच पर चोट करने की जरूरत पड़ती है। बल्कि इतिहास के आईने में देखें, तो समाज के हित में उठाए गए ज्यादातर कदम धर्म को निशाना बनाने के बाद ही संभव हुए। यूरोप में धर्म का वर्चस्व खत्म करते समय भी कई लोगों की धार्मिक भावनाओं को आघात लगा था। गैलीलियो की स्थापनाओं और डार्विन के निष्कर्षों ने भी धार्मिक भावनाओं को आहत किया था। विज्ञान ने तो अंधविश्वासों को लगातार आघात पहुंचाया है। पर यदि हम समाज के आहत होने की चिंता कर अभिव्यक्ति पर रोक लगा दें, विज्ञान के आविष्कार और उसके इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाकर सभ्यता के पहिये को रोक दें, तो हमारा समाज बंद तालाब जैसा हो जाएगा।
मजहबी कट्टरता आज बांग्लादेश में खूब फल-फूल रही है। कट्टरवादियों की इसमें पौ बारह हैं। जब-जब वे सड़कों पर उतरकर किसी की फांसी की मांग करते हैं, कुछ लोगों की संपत्ति और घर नष्ट करने की शुरुआत करते हैं, तब-तब सरकार उनका पक्ष लेकर भिन्न धर्मावलंबियों का उत्पीड़न शुरू करती है। ऐसा करके जहां कट्टरवादियों के हाथ मजबूत किए जाते हैं, वहीं समाज को दशकों पीछे धकेल देने का काम किया जाता है। मेरे मामले में भी सरकार ने तब यही किया था। अगर तत्कालीन खालिदा जिया सरकार तब कट्टरवादियों का पक्ष नहीं लेती, तो उनका दुस्साहस आज इतना नहीं बढ़ता, और मैं भी अपने वतन में रह पाती। बांग्लादेश की मजहबी कट्टरता के लिए सिर्फ मौलवी नहीं, सरकारें भी जिम्मेदार हैं। अगर प्रधानमंत्री शेख हसीना ने लतीफ सिद्दीकी को बर्खास्त नहीं किया होता, तो वह वतन लौट सकते थे। लोगों का गुस्सा भी धीरे-धीरे ठंडा हो ही जाता। तब मजहबी कट्टरवादियों को भी यह एहसास होता कि शेख हसीना के दौर में उन्हें अपनी मर्जी के मुताबिक चलने की छूट नहीं मिल सकती। इससे बाहर भी बेहतर संदेश जाता।
लतीफ सिद्दीकी के बारे में मुझे किसी ने अच्छी बात नहीं बताई। हो सकता है, वह अच्छे आदमी नहीं हों। यह भी हो सकता है कि सरकार में रहते हुए उन्होंने अच्छा काम नहीं किया हो। हालांकि सत्ता से बाहर होने पर किसी की छवि खराब करने में भला कितना समय लगता है! इसके बावजूद लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का इस्तेमाल कर उन्होंने गलती नहीं की थी। उनकी टिप्पणी से असहमति थी, तो उसे अभिव्यक्त करने का भी लोकतांत्रिक तरीका है। लेकिन उसका इस्तेमाल न कर उनकी फांसी की मांग करने या उनके सिर की बोली लगाने का इस आधुनिक सभ्य युग में क्या कोई औचित्य है?
लतीफ सिद्दीकी की टिप्पणी से यदि असहमति थी, तो उसे अभिव्यक्त करने का लोकतांत्रिक तरीका है। मगर उसका इस्तेमाल न कर उनकी फांसी की मांग करने या उनके सिर की बोली लगाने का आधुनिक युग में क्या औचित्य है?

(अमर उजाला से साभार)

(चित्र गूगल की मदद से विभिन्न साइट्स से साभार लिए गए हैं)