Friday, December 18, 2015

ध्यान सिंह




जन्म - दो मार्च 1939 को घरोटा (परताड़ा) 
शिक्षा - एमए (इतिहास, राजनीति शास्त्र), बीएड शिरोमणी। सेवानिवृत्त जिला शिक्षा योजना अधिकरी, जम्मू (31-03-1997)
संस्थापक प्रधान - डुग्गर संस्कृति संगम बटैह्ड़ा, जम्मू (1986)

ध्यान सिंह डोगरी साहित्य के लिए जाना माना नाम है। बारह के करीब रचनाएं छप चुकी हैं जिनमें फिलहाल, सिलसला, रूट्ट-राह्डे, पढ़दे गुढ़दे रौहना, सरिशता, सोस, रमजी मिसल, ज्ञान-ध्यान, पिंड कुन्ने जोआड़ेआ, झुसमुसा, अबज समाधान, परछामें दी लोs आदि शामिल हैं। इसके अलावा अनुवाद कल्हण भी चर्चा में रहा। डोगरी के साथ साथ दबे और हाशिए पर खड़े इंसान की बात जोर से करते हैं। डोगरा संस्कृति को बचाने में अहम भूमिका निभा रहे। अहम डुग्गर पर्वों पर अपने स्तर पर कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं। पाठकों के लिए उनकी तीन रचनाएं पेश कर रहा हूं। 
साहित्य अकादमी पुरस्कार मिलने पर 'खुलते किवाड़' की ओर से हार्दिक बधाई।


(मेरे वह दोस्त जो डोगरी नहीं जानते हैं का सुझाव है कि डोगरी या अन्य भाषा की रचनाएं देते समय अगर उनका हिंदी में भावार्थ दिया जाए तो रचनाओं को ज्यादा लोग समझ पाएंगे और इन भाषाओं  के साहित्यकारों की सोच, चिंताओं, चुनौतियों समेत अन्य पहलुओं से रूबरू हो पाएंगे। इसलिए इस बार डोगरी रचनाओं का उनका हिंदी भाषा में भावार्थ भी दे रहा हूं। यह सिलसिला आगे भी जारी रहेगा।)




ऐगड़ (भेड़ों का झुंड)

चिट्टी काली भिड्डें दा
(सफेद काली भेड़ों का)
बैह्कल ऐगड़
(व्याकुल झुंड)
कुत्तें दे पैहरै च
(कुत्तों के पहरे में)
धुन्ध भरोची काली पक्की छिड़का पर
(धुंध से भरी काली पक्की सड़क पर)
सज्जै खब्बै आपूं चं खैरदे
(दाएं बाएं आपस में टकराते हुए)
बज्जा सज्जा टुरदा
(बंधे बंधाए चलता)
जा करदा ऐ बूचड़ खाने
(बूचड़खाना जा रहा है)
दलाल रबारे बलगता दे जित्थे
(दलाल अगुआ जहां इनका इंतजार कर रहे हैं)
इंदा अपना कोई मुल्ल नहीं
(इनका अपना कोई मूल्य नहीं)
होन्द दा अह्सास बी नेईं
(अस्तित्व का अहसास भी नहीं)
त्रिंबा द्रुब्बां चुग्घने कारण
(घास-दूब चुगने के कारण)
इन्दी मुंडी ढिल्ली रेही थल्ले
(इनकी गर्दन नीचे ढीली रही)
जीने दा कदें हक्क जतान एह्
(कभी यह जीने का हक जताएं)
भगयाड़ें गी नत्थ पान एह्
(भेडियों को ये नकेल डालें)
ऐहड़ बैह्कल बैत्तल होई जा
(व्याकुल भेड़ों का समूह विद्रोही हो जाए)
हर बूचड़खान्ना करन तबाह्।
(हर बूचड़खाने को तबाह कर दें)







जकीन करो (यकीन करो)

रुख अपने
(पेड़ अपने)
पीले भुस्से पत्तर
(पीले मुरझाए पत्ते)
तुआरी जार'दे न
(उतारते जा रहे हैं)
पत्तर भुज्जां दे पैर बंदी
(पत्ते जमीन के पांव छू कर)
शीरबाद लै दे न
(आशीर्वाद ले रहे हैं)
पौन पुरै दी बी तौले
(पुरवाई भी जल्दी)
पत्तर झाड़ा दी ऐ
(पत्ते झाड़ रही है)
रुख नंगे मनुंगे
(नंगे पेड़)
सुच्चे होई
(शुद्ध हो कर)
धुप्प शनान करा दे न
(धूप स्नान कर रहे हैं)
डाहलियां काहलियां
(डालियां कलियां)
डू.र खुंडा दियां न
(अंकुरित हो रही हैं)
जकीन करो
(यकीन करो)
पौंगर पवा दी ए
(कोंपलें फूट रही हैं)
जकीन करो ब्हार अवा दी ऐ
(यकीन करो बहार आ रही है)
थकेमा तुआरने आस्तै
(थकावट उतारने के लिए)
राह् राहून्दुयें गी
(रास्ते पर निकले राहगुजारों को)
घनी छां थ्योनी ऐ
(घनी छाया मिलनी है)
जकीन करो
(यकीन करो)
फुल्ल बी ते खिड़ने न
(फूल भी तो खिलेंगे)
खश्बोs भी तो बंडोनी ऐ
(खुशबु भी तो बंटनी है)
पक्खरुएं डुआरियां भरनियां न
(पक्षियों ने उड़ान भरनी है)
जनौरें छड़प्पे लाने न
(दीवानों ने नाचना है)
जकीन करो
(यकीन करो)
सुर संगम दी लैहरें बिच
(सुर संगम की लहरों के बीच)
ब्हार पक्क औनी ऐ
(बहार जरूर आएगी)
जकीन करो
(यकीन करो)
असें-तुसें नंद लैना ऐ
(मैंने-आपने आनंद लेना है)
सारें ई नंद थ्होना ऐ
(सभी को आनंद मिलेगा)
जकीन करो
(यकीन करो)
ब्हार पक्क औनी ऐ
(बहार पक्का आएगी)







चन्नै बनाम (चांद बनाम)

न्हेर मनेहरै चन्न चढ़ेआ
(अंधेरे गुप्प अंधेरे में चांद निकला)
तां उसगी पुच्छेआ
(तब उसको पूछा)
चन्न दिक्खेया ई?
(चांद देखा है?)
किन्ना शैल दिक्ख हां उप्पर
(कितना सुंदर देखो तो ऊपर)
तां ओह् दिखदे सार गै आक्खै
(तब उसने देखते ही कहा)
मक्कें दा ऐ पीला ढोडा!
(यह मक्की की पीली रोटी है!)
सही कीता जे ओह् भुक्खा ऐ
(मालूम हुआ कि वह भूखा है)
में झट-पट अंदर जाई
(मैंने झट-पट अंदर जा कर)
ढोडा उसी पूरा खलाया
(उसको मक्की की पूरी रोटी खिलाई)
ते गलाया चन्न कैसा ऐ
(फिर कहा चांद कैसा है)
तां उसने अग्गी दा गोला गलाया
(फिर उसने आग का गोला कहा)
तां मे उसकी ठंडा पानी पलाया
(इसलिए मैंने उसको ठंडा पानी पिलाया)
ते फ्ही पुच्छेया चन्न कैसा ऐ
(तब फिर पूछा चांद कैसा है)
उन्ने झट सुखना गलाया
(उसने झट से सपना सा कहा)
तो मैं झट उसी सुआली दित्ता
(तब मैंने उसे झट सुला दिया)
बाकी ढोडा जां अग्ग लब्भै उसगी
(बची मक्की की रोटी या आग दिखे उसको)
में सुखने ने मन परचाया
(मैंने सपने से मन को संतुष्ट किया)
सुखने नै गै मन पत्याएआ
(सपने ने ही मन को बहलाया)
 


संपर्क-
ग्राम- बटैह्ड़ा (अखनूर रोड)
तहसील और जिला- जम्मू
मोबाइल-0-94-192-59879
 

  
(इस्तेमाल किए गए कुछ चित्र गूगल से साभार लिए गए हैं)

Saturday, October 10, 2015

तस्लीमा नसरीन

वह आतंकी नहीं है


अहमद मोहम्मद रातोंरात सेलिब्रिटी बन गया है। पूरी दुनिया से चौदह साल के अहमद को सहानुभूति, समर्थन, अभिनंदन और प्यार मिल रहा है। इसकी वजह निश्चय ही लोगों का अपराध बोध है। अहमद जो नहीं है, उसके बारे में वही सोचा गया। वह आतंकवादी नहीं है, लेकिन उसे आतंकवादी मान लिया गया। इसी कारण यह अपराध बोध है। अहमद ने एक घड़ी बनाई थी, जिसे उसके शिक्षक ने बम समझ लिया। उन्होंने पुलिस बुलाई, पुलिस हथकड़ी लगाकर उस किशोर को ले गई थी। थाने में पूछताछ के बाद अहमद को छोड़ दिया गया, इसके बाद भी लोगों में व्याप्त अपराध बोध कम नहीं हुआ। उदारवादियों का मानना था, ज्यादातर मुसलमान अच्छे होते हैं, इसके बावजूद मुस्लिम समुदाय से लोग डरते हैं, उन पर संदेह करते हैं, उन्हें आतंकवादी मान लेते हैं। इसी कारण उदारवादियों में यह अपराध बोध है। सच यही है कि मुसलमानों में, ईसाइयों में, यहूदियों में, हिंदुओं में गलत लोग कम ही होते हैं। यह सच सबको पता नहीं है। उदारवादियों की शर्म और अपराध बोध का कारण यही है।
कितने-कितने निरपराध लोगों को रोज हथकड़ी लगाई जा रही है, जेलों में बंद किया जा रहा है, उम्रकैद की सजा दी जा रही है। हम इनमें से कितनों को सेलिब्रिटी बनाते हैं? किंतु पुलिस हिरासत में कुछ समय रखने के बाद ही निरपराध अहमद मोहम्मद को हमने सेलिब्रिटी बनाया। अहमद मोहम्मद सेलिब्रिटी क्यों बना? इसलिए कि वह मुस्लिम है। अहमद अगर ईसाई, हिंदू या यहूदी होता, तो दुनिया के अच्छे लोग अमेरिका के वर्णवाद के खिलाफ इतना प्रतिवाद या अहमद का इतना समर्थन नहीं करते।


दुनिया भर के श्वेत लोगों में अधिकतर मुस्लिम-विद्वेषी हैं। लेकिन वे हिंदू, बौद्ध, जैन या सिख विद्वेषी नहीं हैं। इसकी वजह है। ज्यादा दिन नहीं हुए, जब हमारी आंखों के सामने अमेरिका के ट्विन टावर ध्वस्त हुए थे। अभी बहुत समय नहीं गुजरा, जब बोस्टन मैराथन की भीड़ में दो लड़कों ने प्रेशर कुकर बम फोड़े, जिसमें कुछ लोग मारे गए, कुछ घायल हुए। इस्लामिक स्टेट द्वारा हाल के दिनों में लोगों के कत्ल के रोज विवरण आते हैं। आईएस के आतंकी सैकड़ों लोगों को घुटनों पर झुकाकर, सिर में गोली मारकर उनकी हत्या कर रहे हैं, बच्चियों और किशोरियों का अपहरण कर बलात्कार कर रहे हैं। हम देखते हैं कि बोको हराम इस्लाम के नाम पर किस तरह लोगों की हत्या कर रहा है, औरतों का बलात्कार कर उन्हें बाजार में बेच रहा है, अल शवाब कैसे सामूहिक हत्या की कैसी तजवीजें तलाश रहा है। ये तमाम संगठन इस्लाम के नाम पर बर्बरता, नृशंसता, भयावहता का प्रदर्शन कर रहे हैं।
इस्राइल की सड़कों पर, बस और रेलगाड़ियों में यहूदियों की हत्या के अभियान में उतरे मुस्लिम अपने शरीर पर बम बांधकर खुद को खत्म कर देने से भी नहीं हिचकते। डेनिस कार्टून के कारण मुस्लिम आतंकवादियों ने देश-देश में आग लगाई है। इस्लाम की आलोचना का बहाना बनाकर मुस्लिम कट्टरवादियों ने बांग्लादेश के ब्लॉगरों की हत्या की है। इन घटनाओं के बारे में सबको पता है। इसी कारण लोग मुस्लिम समुदाय से डरते हैं, उनसे दूरी बनाकर चलते हैं। इसी कारण हवाई अड्डों पर मुस्लिम यात्रियों की जांच-पड़ताल में अतिरिक्त सतर्कता बरती जाती है। संभवतः इसी वजह से किसी मुस्लिम बच्चे के हाथ में घड़ी या उस तरह की कोई चीज देखने पर लोग पुलिस बुला लेते हैं। अमेरिका में स्कूली बच्चे बंदूक लेकर कक्षाओं में आते हैं और वे लोगों की हत्या भी करते हैं। वहां कई बार ऐसी घटनाएं हुई हैं। अगर टेक्सास के उस स्कूल में, जहां से अहमद मोहम्मद की गिरफ्तारी हुई, कोई श्वेत छात्र खिलौना राइफल लेकर घुसता, तो सभी भयभीत होकर सिर्फ इसीलिए पुलिस बुलाते कि उस राइफल की जांच की जाए कि वह असली है या नहीं। यह मैं इसलिए भी कह सकती हूं कि अमेरिका में इस तरह की घटनाएं भी कई बार हुई हैं। लेकिन अहमद मोहम्मद श्वेत नहीं था, इसलिए उसके हाथ में संदिग्ध वस्तु देखते ही शिक्षक ने उसकी गिरफ्तारी के लिए पुलिस बुला ली।
अहमद मोहम्मद से बराक ओबामा ने मुलाकात की, अनेक नामी-गिरामी लोगों ने उसका समर्थन किया। अहमद कितना बुद्धिमान है, यह मैं नहीं जानती। वह बड़ा होकर कितना बड़ा वैज्ञानिक होगा, इसका मुझे पता नहीं। मैंने सुना है, घड़ियों के अलग-अलग पार्ट्स खरीदकर उसने उन्हें जोड़ा भर है। पर उसने जो भी किया, जितना भी किया, मैं उसे धन्यवाद देती हूं, क्योंकि उसने बम न बनाकर घड़ी बनाने की कोशिश की। अमेरिका के अनेक मुस्लिम किशोर आईएस से जुड़ चुके हैं, जो इराक और सीरिया में आतंकवादियों के साथ मिलकर लोगों की हत्या कर रहे हैं।

(अमर उजाला से साभार)

(चित्र गूगल की मदद से विभिन्न साइट्स से साभार लिए गए हैं)

Wednesday, September 30, 2015

जावेद अख्तर

कहां से जन्म लेती है यह नफरत



ज्यादातर लोग, खासकर मीडिया से जुड़े लोग, फतवे को ज्यादा महत्व देते हैं। वे किसी भी बयान को फतवा बता देते हैं। लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि फतव का वास्तविक अर्थ क्या है। यह एक परंपरा है कि यदि आप किसी योग्य काजी (न्यायाधीश) के पास किसी मामले को लेकर जाते हैं, तो आपको लिखित में उनसे पूछना होता है कि इस मुद्दे पर आपकी राय क्या है और इस्लाम के मुताबिक क्या करना सही होगा। वह आपको जवाब देगा और अंत में लिखेगा, ′मेरी राय यह है, लेकिन खुदा बेहतर जानता है।′ आप उस मुद्दे को लेकर दूसरे काजी के पास जा सकते हैं और वह अलग राय दे सकता है। इसलिए हमें फतवों को लेकर इतना चिंतित नहीं होना चाहिए।
तथ्य यह है कि रजा अकादमी ने ए आर रहमान के खिलाफ (माजिद मजीदी की फिल्म मोहम्मद में संगीत देने के कारण) जो फतवा जारी किया है, वह बेतुका है। अकादमी फतवा जारी करने के योग्य नहीं है। एक संगठन होने के नाते वे केवल बयान जारी कर सकते हैं। एक टीवी चैनल ने स्टिंग के जरिये बताया था कि कैसे कुछ काजी महज दस हजार रुपये के लिए फतवा जारी करने को तैयार हो गए। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि जो बात 18 करोड़ लोगों को प्रभावित कर सकती है, उसे बाजार में दस हजार रुपये में बेच दिया गया!
मैंने फेसबुक पर ए आर रहमान की प्रतिक्रिया पढ़ी। यह साहित्य का अद्भुत नमूना है। मैं रहमान को व्यक्तिगत रूप से जानता हूं और वह अद्भुत इंसान हैं। मैं तर्कवादी और नास्तिक हूं, लेकिन यदि लोग रहमान की तरह धार्मिक हैं, तो मुझे धर्म से कोई समस्या नहीं होगी। उनके लिए धर्म और आस्था बेहद निजी मामला है। वह इबादत करते हैं और तीर्थस्थलों पर जाते हैं। लेकिन एक व्यक्ति, एक संगीत निर्देशक और कलाकार के रूप में वह धर्मनिरपेक्ष हैं। तो फिर मुझे क्यों परेशान होना चाहिए कि वह कैसे इबादत करते हैं और कितनी बार करते हैं? जब तक लोग धर्म को स्वयं तक सीमित रखते हैं और उसे दूसरों पर नहीं थोपते या समाज में उथल-पुथल पैदा नहीं करते, तो हमें उससे क्यों परेशानी होनी चाहिए? आखिरकार धर्म व्यक्तिगत पसंद की चीज है।
रहमान की तरह मैं खुद अतीत में कट्टरपंथियों के निशाने पर रहा हूं। मैं उन लोगों में से हूं, जिन्हें ट्विटर पर हिंदू और मुस्लिम, दोनों तरह के कट्टरपंथी गाली देते हैं। मुल्क के मौजूदा हालात मुझे डराते हैं। कट्टरपंथी और प्रतिक्रियावादी दिनोंदिन निडर होते जा रहे हैं। लोग हमेशा कहते हैं कि प्राचीन भारत का समाज शांतिप्रिय था। यह एक मिथक है, जो झूठ है। यह उसी तरह झूठ है, जैसे मुस्लिम कहते हैं कि इस्लाम हमेशा शांतिप्रिय धर्म रहा है। ज्ञात इतिहास में, मात्र दो देसी धर्मों, बौद्ध और जैन ने अहिंसा का प्रचार किया। भारत हमेशा से ही हिंसक समाज था। यदि आप वर्ण व्यवस्था को बनाए रखना चाहते हैं, तो हिंसा का प्रयोग करना ही होगा। यदि आप समाज के एक बड़े हिस्से को अस्पृश्य और अमानवीय बनाए रखना चाहते हैं, तो आप बिना हिंसा के इस व्यवस्था को कायम नहीं रख सकते।
इतिहास के हरेक मोड़ पर विभिन्न संप्रदायों के कट्टरपंथी प्रगति विरोधी, सुधार विरोधी, वैचारिक रूप से अनुदार साबित हुए हैं। मगर अच्छी बात यह है कि अंत में उनकी हार ही हुई है।
रहमान के खिलाफ फतवा जारी करना बेतुका है। रजा अकादमी फतवा जारी करने योग्य नहीं है।

(अमर उजाला से साभार)

Monday, August 24, 2015

कोबाड गांधी

सिर्फ कुछ आजाद हैं


यह कैसी विडंबना है कि मुझको स्वतंत्रता पर तब लिखने को कहा गया है, जब मुझे पिछले छह सालों से रेंग रहें, कभी खत्म होने वाले क्रिमनल जस्टिस सिस्टम के साथ, जेल के भीतर जेल (तिहाड़ का हाई रिस्क वार्ड) में कैद करके रखा हुआ है। यहां पर कोई आजादी नहीं है, यहां तक की मुख्य जेल या बीमार होने पर अस्पताल जाने की भी।
हर हालत में, स्वतंत्रता तुलनात्मक अवधारणा है-जो आरजकता की एक चरम सीमा से लेकर लोकतांत्रिक केंद्रवाद की दूसरी चरम सीमा तक जाती है। लेकिन प्रचलित प्रणालियों में भी, कुछ दूसरों से ज्यादा आजाद हैं। भारत में, हमारे सितारे-फिल्म, क्रिकेट, बिजनेस, राजनीति-हर प्रकार की स्वतंत्रता का आनंद ले सकते हैं और वह हत्या करके भी बरी हो सकते हैं। लेकिन भूखे किसानों को दो वक्त का खाना हासिल करने या बीमार बच्चों के लिए इलाज की आजादी नहीं है। मेरे लिए, जेल में बंद रखना मेरे लिए स्वतंत्रता का claustrophobic (छोटे और निकल पाने वाले कमरे या स्थान का डर) हनन है, लेकिन यह अभ्यस्त क्रूर अपराधी के लिए नहीं है। उसको जेल के जीवन की आदत हो गई होती है और वह वहीं से अपनी आपराधिक गतिविधियों को अंजाम देते हैं। उसके लिए, जेल में स्वतंत्रता के हनन जैसा कोई अहसास नहीं होता है और कुछ जो रिहा होने के बाद जानबूझ कर वापस जाते हैं।
आजादी बहुत विकृत शब्द है-पश्चिम में मीडिया के चालाक विचार को आजादी कहा गया जबकि चीन जैसे देशोंमें नियंत्रित मीडिया के लिए कहा जाता है कि इसमें उस प्रतिबिंब का आभाव है। यूएस और भारत को सबसे ज्यादा आजादी वाले, दो सबसे बडे़ लोकतां​ित्रक देश कहा जाता है। लेकिन यूस में किसी काले व्यक्ति से पूछा जाए कि वह कैसा महसूस करता है या भारत में किसी अनुसूचित जाति के व्यक्ति से। दलित अकसर यह महसूस करते हैं कि उनके ब्राह्मणवादी शासकों से ब्रिटिश बेहतर थे क्यांेकि उस समय जाति उत्पीड़न प्रत्यक्ष नहीं था लेकिन उच्च जाति अशिष्ट, अमानवीय और अपमानजनक थी।
यह विकृति, हालांकि अगर इतनी ज्यादा अशोधित नहीं है, जीवन के अधिकतम क्षेत्रों में देखी जा सकती है। पुलिस और हमें ले लीजिए। कोर्ट में जाते समय, उनको मुझे वैन के भीतर तीन गुणा तीन के पिंजरे में, जिसमें गर्मियों में कोई मुश्किल से सांस ले पाता हो, में लाॅक करते हुए कोई दिक्कत नजर नहीं आती है। इसमें उम्र और स्वास्थ्य का कोई महत्व नहीं दिया जाता है। उसके बाद, कोर्ट लाॅक अप में पहुंचने के बाद, अपमानजनक जांच से गुजरना पड़ता है जिसमें एक पैन (एक बार तो ऐनक तक) संदेहास्पद होती है। इधर ज्यादातर इंस्पेटर हमें अपने रिश्तेदारों यहां तक कि वकीलों तक से मिलने की अनुमति नहीं देते हैं।बेशक जेलों में डाॅन कहते हैं कि उनको ऐसी कोई दिक्कत नहीं है। वैन में कोई भी अकसर पुलिसकर्मियों को भारत में आजादी और लोकतंत्र पर वाकपटुता से गपशप करते सुन सकता है। रूलबुक और अनगनित जजमेंट यह कहती हैं कि अपराधी केवल अंडर ट्रायल मानें के साथ सम्मान से पे आना चाहिए-लेकिन यह केवल किताबों के लिए होता है। कैदी के आत्मसम्मान को कुचलना क्रिमलन जस्टिस सिस्टम का एक हिस्सा है- बे अगर आप टाइकून, फिल्म स्टार या डान हैं तो फिर नहीं।


अगर कोई न्यापालिका का का सहारा लेते हैं, भले ही वह अन्य क्षेत्रों से ज्यादा साफ है, वहां पर कोई भी कुछ प्रश्न उठाने वाली जजमेंट को देख सकता है, यहां तक की सुप्रीम कोर्ट के स्तर तक भी। मेरा केस ले लेंः झूठे कबूलनामे के आधार पर-जिस पर मेरे हस्ताक्षर तक नहीं हैं, जिसको तेलंगाना में पुलिस हिरासत में कथित तौर पर बनाया गया है, उस भाषा को जिसमें तो मैं पढ़ सकता हूं और ही समझ सकता हूं तेलगू, जिसको मैं कोर्ट में अस्वीकार भी कर चुका हूं। दस से बारह केस मेरे उपर लगा दिए गए हैं। इसमें कोई  नहीं कि अभी तक दो चार्जशीटों में, हालांकि हाई कोर्ट ने जमानत दे दी है, अन्य केस अभी बाकी है। यह इसलिए क्योंकि दिल्ली के लेफ्टिनेंट गर्वनर ने एक आर्डर के माध्यम से दिल्ली केस पूरा होने तक दिल्ली के बाहर के केसों में हाजिर होने से मना कर दिया है। तो एलजी, असल में आंध्र प्रदेश/तेलंगाना कोर्ट के अधिकार क्षेत्र पर दावा जता रहें हैं!
इस सब का सार यह है कि स्वतंत्रता तुलनात्मक अवधारणा है और यह सनसनीखेज भी है। वास्तव में, अगर आजादी का संबंध मानवता और न्याय के साथ नहीं जुड़ा हो तो इसके कोई अर्थ नहीं रह जाते हैं। अमूर्त आजादी सिवाए पाश्चात्य शब्दकोश के कहीं पर अस्तित्व में नहीं है। वास्तव में यहां तक कि इस फ्री वल्‍​र्ड में, अधिकां लोग जो अपने आप को आजाद मानते हैं और वास्त्व में मनोग्रंथियों, आत्मसंदेह, असुरक्षा आदि से घिरे हुए हैं, एक आजाद दे बनाते हैं। और मैं इसलिए हिरासत में हूं क्योंकि मैंने उसके बदले अपने घेराव के प्रति अपनी प्रतिक्रिया दी, जैसा की खुलेपन के अभाव ने हमारे ईदगिर्द कत्रिम वातावरण तैयार किया हुआ है। और जैसा ही यह वातावरण कभी भी आजादी से संबंधित नहीं हो सकता-इसका परिणाम हर प्रकार से अपने को दूसरे से बेहतर साबित करने​ितकड़मबाजी, योजनादिखावा आदि के रूप में होता है। एक ऐसा वातावरण जिसमें एक व्यक्ति भागना तो चाहता है, लेकिन वह भाग नहीं सकता हे क्योंकि वह इसमें फांसा गया होता है।
जरूरत है कि आजादी पर कम और मानवता और न्याय पर ज्यादा बात की जाए। अगर मानवता और न्याय होगा, तो आजादी जरूर उसका उपफल होगा। न्याय और मानवता का हिस्सा जितना ज्यादा होगा, आजादी उतनी ही ज्यादा होगी।
अगर कोई वास्तव में आजादी लोगों की असली स्वभाव देखना हो तो उसके लिए छोटे बच्चे को देखा जाए। उनमें एक सहजता और सभी प्रकार की अभिव्यक्तियां जैसे खुशी, गम, तकलीफ, उदासी आदि सीधे उनके चेहरे से प्रतिबिंबित होती है। अगर इस प्रकार की वास्तविकता बड़ों में जाए तो मौजूदा सामाजि रिश्तों के व्यर्थ वातावरण में ताजा हवा फूट पड़े। अपने नजदकियों में मैंने अपनी स्वर्गवासी पत्नी अनुराधा, जो की एक पोस्ट ग्रेजुएट प्रोफेसर थी, में ऐसा स्वतंत्र (वयस्क) उत्साह देखा है, जिसमें जो कुछ भी करती थी उसके लिए अनुराग और न्याय की असाधारण समझ थी। जैसा की फिलिक्स ग्रीनी ने कहा है 'मानव बनने के लिए आजाद हो जाओ'। 

(लेखक इस समय तिहाड़ जेल में हैं जिन पर अनलाॅफुल एक्टिविटीज ​िप्रवेंशन एक्ट के तहत दिल्ली में मकुदमा चल रहा है)

साभार : इंडियन एक्सप्रेस, अनुवाद : कुमार कृष्ण शर्मा
(चित्र गूगल की मदद से विभिन्न साइट्स से साभार लिए गए हैं)

Monday, July 13, 2015

सुशील बेगाना



सुशील बेगाना रियासत के साहित्यिक जगत में अपना अलग स्थान रखते हैं। रचनाओं में अलग शिल्प और बिंब उनको हर दिल अजीज बनाता है तो अलग अंदाज-ए-बयां भीड़ से अलग खड़ा करता है। इनकी रचनाएं पढ़ने या सुनने वाले को अपने बहाव में बहा ले जाती है। कवि कहानी गोष्ठियों में अकसर उनसे मिलना होता है। बेहद सादा और मिलनसार तबीयत के मालिक बेगाना कुछ ही मुलाकातों में किसी को भी अपना बना लेते हैं। 

'खुलते किबाड़' पर पहली बार सहर्ष उनकी तीन कविताएं (दो हिंदी ओर एक डोगरी ) प्रस्तुत कर रहा हूं।  उम्मीद है कि यह प्रस्तुति पाठकों को सुशील बेगाना के काव्य कर्म के साथ साथ उनकी विचारधारा, चिंताओं और व्यक्तित्व के  और पास ले जाएगी।  




किसान

किसान
जिस नगरी का मैं बासी हूं
उस नगरी के हाथों में ,
 मेंहदी का रँग चढ़ा है
 भाग्य की रेखा है।
उस नगरी का रँग है माटी
माटी की दो आँखों ने ,
पिछले कल से अगले कल तक
एक ही मौसम देखा है।
उस नगरी के दो नयनों से
ममता रोज़ बरसती है ,
तुम कहते हो उस नगरी का
हर सावन हरजाई है।
भूख-नगर के जलते सावन
की , गरिमा क्या जानो तुम ,
ओड़ के इसको बर्षों मैंने
पेट की आग बुझाई है।
फ़ाकों के चुल्हे पर जब-जब
मौसम भूख पकाता था ,
खुद को मैंने बर्फ़ बनाकर
आग की डलियां चाटी हैं।
दिनकर को पिघला कर मैंने
प्यास बुझा ली अधरों की ,
धूप के मौसम बो कर मैंने
ओस की फ़सलें काटी हैं।
वेद-क़ुरान से उनका नाता
जिन के पेट में रोटी है ,
भूख के मारों की इस जग में
 दादी  नानी है।
रिश्ते जिनको मैंने जाना
सपने हैं कुछ ग़ुरबत के ,
ममता जिसको मैंने समझा
आँख का कोसा पानी है।
उस कोसे पानी के पीछे
आशाओं का झरना है ,
उस झरने की कुछ बूंदों से
मेरी खेती चलती है।
उस खेती से रक्त-सनी
कुछ फ़सलें भी उग आती हैं ,
उन फ़सलों पर मेरे रिश्तों
की यह दुनिया पलती है।
जिस्मों की दुनिया के रिश्ते
सोना-चांदी मांगे हैं ,
खेती का माटी से रिश्ता
माटी में सब माटी हैं।
दिनकर को पिघला कर मैंने
प्यास बुझा ली अधरों की ,
धूप के मौसम बो कर मैंने
ओस की फ़सलें काटी हैं।




गूंगी भाषा 

सिंधू हूं मैं बिंदु होकर
नवचेतन की धारों में
अवचेतन के गीत चुराकर
स्वर-स्वर बहने आया हूं।
शब्दों के अंबर से लेकर
अर्थों की इस भूमि तक
अक्षर-अक्षर मौन पिरोकर
कविता कहने आया हूं।
कविता, जिसकी आंख में आकर सपनों को आराम मिले।
कविता , जिसकी दृष्टि में ही
सृष्टि का प्रमाण मिले।
कविता, जिसकी सांसें पीकर
जीवन को हैं प्राण मिले।
कविता , जिसका शीशा होकर
मानव को पहचान मिले।
कविता , जिसकी परिभाषा में,
तुझ में , मुझ में भेद नहीं।
उस कविता का मन रूपहला
तन पर पहने आया हूं।
शब्दों के अंबर से लेकर
अर्थों की इस भूमि तक
अक्षर-अक्षर मौन पिरोकर
कविता कहने आया हूं।
कविता , जिसके पंख लगाकर
चांद गगन में उड़ता है।
कविता , जिसका आंचल ओढ़े
मौसम रंग बदलता है।
कविता , जिसके तन को छूकर
पानी आग पकड़ता है।
कविता , जिसके आलिंगन में
दिनकर रोज़ पिघलता है।
कविता , जिसके अग्निपथ पर
पग-पग मुझको चलना है।
उस कविता के जलते तन की
अग्नि सहने आया हूं।
शब्दों के अंबर से लेकर
अर्थों की इस भूमि तक
अक्षर-अक्षर मौन पिरोकर
कविता कहने आया हूं।
कविता , जिसका हाथ पकड़ कर
बदली भी इतराती है।
कविता , जिसके सात- सुरों पर
वायु भी बल खाती है।
कविता , जिसकी कोमलता से
मन-बगिया मुस्काती है।
कविता जिसके तन में घुलकर
ख़ुशबू भी शरमाती है।
कविता , जिसका राग लजाता
कोयल की सुर-लहरी को।
उस कविता की छंद-लहर में
में भी बहने आया हूं।
शब्दों के अंबर से लेकर
अर्थों की इस भूमि तक
अक्षर-अक्षर मौन पिरोकर
कविता कहने आया हूं।
कविता , जिसके गौण-मौन में
शोर तो घोर तमाशा है।
अंतस के गुंगे शब्दों में
कविता की परिभाषा है।
मौन सृजन की पट्ठशाला है
मौन प्रेम की भाषा है।
कविता संपूर्ण उसकी है
जिसने मौन तलाशा है।
तू '' बेगाना '' तू क्या समझे
मूक प्रेम की भाषा को ,
मूक-नगर की इस बस्ती में
मैं ही रहने आया हूं
शब्दों के अंबर से लेकर
अर्थों की इस भूमि तक
अक्षर-अक्षर मौन पिरोकर
कविता कहने आया हूं।



त्रकालें (कविता)

साढ़ी बक्खी खबरै कैहली फरदा नेईं त्रकालें।
कोह्का नैन प्याला साकी भरदा नेईं त्रकालें।
कुस दिन तेरा चेता अड़ेआ हट्ट मना दी टप्पी ,
सोह्ल-पनीरी सुखनें आह्ली चरदा नेईं त्रकालें।
मेरा पीना जुर्म गै मित्थो पर मीं हिरखी दस्सो ,
ओहका जेह्का नैन समुंदर करदा नेईं त्रकालें।
उस केह् भाखी सार नशे दी , उस केह् मस्ती वरनी
पैर कदें जो मन - मैख़ाने धरदा नेईं त्रकालें।
सोह्ल - कलेजा बदले तिक्कर गु 'बरें फट्टी जंदा ,
जेकर हिरख तुसाढ़ा नैनें बरदा नेईं त्रकालें।
बट्टे-गीह्टे खेडी दिन भर मन परचाई लैंदा
सोह्ल ञ्यानां भुक्ख-कलैह्नी जरदा नेईं त्रकालें।
दिन-भर ओह्बी जीने ते गै लक्ख सबीलां करदा ,
ओह् फक्कड़ जो मरने शा बी डरदा नेईं त्रकालें।
सत्त-सबेलें फूकी अस बी अपनी कारा लगदे ,
जेकर बापू साढ़ा अड़ेआ मरदा नेईं त्रकालें।
पैर सबेरा-सजरा उसदे तलियें चुक्की फिरदा ,
जो न्हरें दी जंग घनेरी हरदा नेईं त्रकालें।
ओह् सुखना जो चढ़दा सूरज नेंनें घाली पींदा ,
ओह् दुक्खें दे कड़क सियाले ठरदा नेईं त्रकालें।
पुच्छ '' बगान्ना '' उसगी बड्डला किन्नें हीलें पलदा ,
टिक्कड़ इक्क सबल्ला जिसगी सरदा नेईं त्रकालें।



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सुशील बेगाना
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