Tuesday, March 31, 2015

शो खत्म हुआ!




कश्मीर पर  अनिश्चतता के बादल छाने से बहुत पहले, पुराने शहर का एक स्कूल ड्रापआउट 'मकसद' के भवंरजाल में कूदता है। 'रियल लाइफ' से  'रील लाइफ 'के जवाब  ढूंढने वाले नूर मोहम्मद काटजू ने कैडर को प्रेरित किया, सीमा पार की, लड़ा, पकड़ा गया और आखिरकार छूटा। ढलती उम्र वाला नवयुवक उस समय इतिहास का अपने तरीके से वर्णन कर रहा है जब उसकी तलाश  और वह सिनेमाघर जिसका इस्तेमाल उसने सुविधित रूप उस इतिहास को पलटने के लिए किया था जिसको नफरत करने से उसको प्रेम था, पर पर्दा गिर गया है ।




काम पर लगे मजदूर दशकों पुराने सिनेमाघर को धूल बना कर जा चुके हैं। यह श्रीनगर के रीगल सिनेमाघर का अंत है। वह सिनेमाघर जिसने अस्सी के दशक के मध्य में विद्रोह की चिंगारी सुलगाई थी, पूरी तरह से तबाह कर दिया गया है।
रिगल सिनेमा पर उस समय दिखाई जा रही फिल्म ‘उमर मुख्तियार‘ के कारण, जिसको बहुचर्चित सहज प्रतिक्रिया माना जा रहा था, उसके प्रतिकूल, वह व्यक्ति जिसने शेख अब्दुल्ला के पोस्टर को आग लगाई थी, इस बात को स्वीकार करने के लिए जिंदा है कि उक्त घटना केवल एक स्वभाविक प्रतिक्रिया से ज्यादा, अच्छी तरह से तैयार की गई योजना का परिणाम था।
इन दिनों नूर मोहम्मद काटजू, उम्र 50 साल, पुराने श्रीनगर के मलारट्टा इलाके में काफी तंगी में अपने दिन गिन रहा है। ध्वस्त किए गए गए सिनेमाघर से केवल तीन किलोमीटर की दूरी पर काटजू पुराने शहर के ठेठ मध्यकालीन घर में रहता है।
एक तंग और अंधेरी सीढ़ी उसके घर के पहले तल तक लेकर जाती है। कमरे की खिड़की से अंदर आने वाला वाहनों का शोर कान फाड़ने वाला है। केवल यही नहीं, गली से गुजरने वाले तेज रफ्तार वाहन उसके घर को हिला कर रख देते हैं।
बस खिड़की के पास बैठा काटजू अपनी नजर से बाहर टिकाए हुए अपने बीते समय को याद करता है।
अपनी यातनाएं शुरू होने से पहले काटजू ‘डेयरडेविल आफ डाउनटाउन‘ के नाम से जाना जाता था। पिछले कुछ सालों से उसकी उसकी ताकतवर और साहसी छवि पूरी तरह से खत्म हो गई है।
काटजू को अभी भी याद है कि रीगल और श्रीनगर के आठ अन्य सिनेमाघरों, जिनपर उग्रवादी संगठन अल्लाह टाइगर और उसके चीफ एयर मार्शल नूर खान ने 18 अगस्त 1989 को स्थानीय समाचारपत्रों के माध्यम से सिनेमाघरों और शराब की बारों पर प्रतिबंध की घोषणा की थी, पहले बड़े बिजनेस हाउस हुआ करते थे।
प्रतिबंध के पीछे का मकसद कश्मीर में भारत शासन के खिलाफ पूर्ण रूप से विद्रोह का वातावरण तैयार करना था। लेकिन प्रतिबंध के बावजूद सिनेमाघर काम करते रहे। बढ़ते आक्रोश  और सिनेमाघरों के मालिकों को मिलने वाली धमकियों के चलते 31 दिसंबर 1989 को लोगों के मिलने के इन लोकप्रिय स्थानों को बंद कर दिया गया।
और जल्द ही वीरान सिनेमाघर गेटों पर बंकर, कंटीली तारों वाली खिड़कियों और गोलियों से छलनी दीवारों वाले कुख्यात नजरबंदी के केंद्र बन गए थे।
लेकिन सिनेमाघरों में, रीगल को विद्रोह की चिंगारी पैदा करने वाले के तौर पर जाना जाता है। सन 1985 की गरमियों में, निदेक मुस्तफा अक्कड की फिल्म, उमर मुख्तयार जिसमें एंथनी क्यून्नि ने मुख्य भूमिका निभाई थी को श्रीनगर शहर के केंद्र लाल चैक में लगाया गया था। फिल्म में लीबिया के गुरिल्ला नेता को देश पर कब्जे के खिलाफ लड़ते हुए दिखाया गया था।
उस समय गुस्से ने लाल हुए एक युवक ने रीगल सिनेमा से बाहर आ कर शेख अब्दुल्ला के पोस्टर को आग लगा दी थी। काटजू का दावा है कि यह प्रतिक्रिया सिर्फ सहज या तत्काल प्रतिक्रिया नहीं थी। यह कब्जे के खिलाफ लड़ रहे युवाओं के एक समूह की पूर्व निर्धारित योजना थी जिसका मकसद कड़ा संदेश देना था।
फिल्म जो की हाउसफुल जा रही थी, को प्रशासन ने पहले सप्ताह में ही जबरन उतरवा दिया था। लेकिन उसके बाद कहानी की जो पटकथा लिखी गई वह किसी हालीवुड ब्लाॅकबस्टर फिल्म के समांतर ही थी।



पूर्वावालोकन
मेरा नाम नूर मोहम्मद काटजू है। मेरा जन्म श्रीनगर के पुराने शहर के मलारट्टा इलाके में हुआ था। मुझे स्तनपान कराने वाली सात माताओं ने अपना दूध पिलाया है। पारंपरिक रूप से ऐसा बच्चे की लंबी उम्र, बेहतर स्वास्थ्य और अच्छी किस्मत के लिए किया जाता है। मैं छह बहनों को एकमात्र भाई था। मैंने स्थानीय निजी स्कूल में कक्षा सात तक पढ़ाई की और उसके बाद मेरा शिक्षा से मोहभंग हो गया। उसके बाद मैंने तांबे के लोहार तौर पर काम करना शुरू कर दिया। मैं तांबे के बर्तनों पर खूबसूरत पैटर्न बनाने के कौशल के लिए जाना जाता था।

पत्थरबाजी
उन दिनों डाउनटाउन में पत्थरबाजी सामान्य बात थी। मैं पत्थरबाजी में तभी शामिल होता था अगर मुझको पाकिस्तान के समर्थन में लगाए जाने वाले नारे सुनाई देते। यह सत्तर के मध्य का समय था। दो साल बाद 1977 में, जब में पुराने शहर के नैद कदल इलाके में चल रहा था, पुलिस ने मुझे पहली बार हिरासत में लिया। मुझको जैना कदल पुलिस स्टेशन में रखा गया। बाद में पुलिस अधिकारियों ने मेरे पिता को बताया कि उनका बेटा पुलिस के लिए मुसीबत बना हुआ है। बेहतर होगा कि उसको पत्थरबाजी से दूर रखा जाए, नहीं तो उनके बेटे के लिए इसके परिणाम बहुत बुरे होंगे। पुलिस अधिकारी क्या प्रवचण कर रहे थे, उस तरफ कौन ध्यान देता।




मुश्ताक लटरम से परिचय
जेल से बाहर आने के बाद, मैंने कुछ देर के लिए सामान्य जीवन जिया। और एक दिन, अस्सी के शुरूआत में, एक स्थानीय दुकानदार ने मुझसे कहा कि हमें कश्मीर की आजादी के लिए कुछ करना चाहिए। मैं उस व्यक्ति का असली मकसद नहीं समझ पाया। लेकिन हम क्या कर सकते हैं, मैंने अकस्मात ही उत्तर दिया।
'हम बहुत ही चीजें कर सकते हैं। पहले बताओ क्या तुम कुछ लड़कों का बंदोबस्त कर सकते हो'
'हां मैं कर सकता हूं'
'वाह! तब ठीक है, कुछ लड़कों के साथ जल्द ही मुझसे मिलो।' यह कह कर चह चला गया।
वह व्यक्ति बोहरी कदल का फारूक अहमद खुशु  था।
इस बीच, मैंने कुछ लड़कों को इक्ट्ठा किया। उनमे से एक मुश्ताक अहमद जरगर उर्फ मुश्ताक लटरम भी था।
लटरम मेरी तरह ही तांबे का लुहार था। मैंने उसको कहा कि देखो, हम कश्मीर की आजादी के संघर्ष के लिए स्थानीय युवाओं की भर्ती कर रहे हैं। इस पर तुम्हारा क्या कहना है। क्या तुम हमारे साथ जुड़ना चाहते हो। बिना किसी दूसरी बात पर विचार करते हुए वह जोर से बोला, हां...मुझे इसका हिस्सा बनने में खुशी होगी। मंजूरी में सिर हिलाने से पहले मैंने उसको हमारी योजना के बारे में खामोश रहने की सख्त हिदायत दी।
इस प्रकार से मेरा कश्मीर की आजादी के आंदोलन में लटरम के साथ परिचय हुआ।

कब्रिस्तान में एक बैठक
खुशु ने मुझको मलखाह जो की पुराने शहर का सबसे बड़ा कब्रिस्तान हैं, वहां पर साथी लड़कों के साथ मिलने को कहा।कब्रिस्तान की कब्रों और झाडि़यों के बीच होने वाली इस गुप्त बैठक में खुशु ने कहा कि उसको उम्मीद है कि हम सभी ने इस चुनी हुई राह पर चलने के परिणामों के बारे में अपने दिमागों को तैयार कर लिया होगा। लेकिन मैं आप सभी को यकीन दिलाता हूं कि आपको किसी भी चीज की चिंता करने की जरूररत नहीं हैं। हम योजना के अनुसार काम करेंगे।

अल मकबूल का जन्म
मलखाह में होने वाली इसी बैठक में हमने ने स्वतंत्रता का समर्थन करने वाली पार्टी के गठन का फैसला लिया। हमने ने उस समय तिहाड़ जेल में बंद मोहम्मद मकबूल भट्ट के नाम पर पार्टी का नाम अल मकबूल रखा। पार्टी को चलाने के लिए हर सदस्य को हर सप्ताह तीन सौ रूपये का योगदान देना था। अगले तीन सालों तक हम भारतीय शासन  के विरोध के रूप में श्रीनगर के कई स्थानों पर पाकिस्तानी झंड़ा फहराने का सिलसिला जारी रखा। उन दिनों, आज के विपरीत, पाक झंड़ों का अर्थ कश्मीर की आजादी था। पाक नारेबाजी और झंड़ों के अलावा, बाकी हर जीच को सिर्फ संदेह के तौर पर देखा जाता था।

मिशन पाकिस्तान
सन 1982 के आखिर में खुशु ने कहा कि तैयार रहो, हमें पाकिस्तान जाना होगा। इस खबर ने हमें खुश  कर दिया। मुश्ताक लटरम और अन्य साथी को पहले दौरे के लिए चुना गया।
एक दिन का किस्सा है, दोनों पाकिस्तान के लिए रवाना हो गए। वह अपने गाइड के साथ बारामूला में मिले। गाइड ने अपने साथ ले ले जाने से पहले पैसे की मांग की। लेकिन जैसे ही लटरम ने पैसे दिए, गाइड भाग गया। इसने दोनों को वापस आने पर मजबूर कर दिया। उनको इस बात के साफ निर्दे थे कि उनको गाइड को पैसे केवल पाकिस्तान बार्डर पर ही देने हैं। लेकिन किसी कारणवश  वह अपनी योजना पर कायम नहीं रह सके। हर किसी ने इसको मानवीय गलती माना और मामले को ठंडे बस्ते में डाल दिया।
और जल्द ही एक और पाक दौरे की तैयारियां शुरू हो गईं। इस बार मैं और पार्टी के अन्य सदस्य फारूक अहमद, खुशु नहीं, का चयन दौरे के लिए किया गया। हम दोनों पूरी तरह से सावधान थे और पूरी तैयारी के साथ आगे निकल गए।

एक रहस्यमय सैन्य काम
पाकिस्तान बार्डर पर पहुंचते हमें एक कमरे के अंदर ले जाया गया जिसमें पाक सेना का एक व्यक्ति जो सिविल कपड़ों में था, हमसे मिला। ‘खैर, वह क्या है जो हम करना चाहते हैं' उस आदमी ने हमसे पूछा। ‘सर हम वास्तव में अल मकबूल के सदस्य हैं' मैंने जवाब दिया। ‘हां-हां मैं जानता हूं। लेकिन ऐसा कुछ है जिसको करने की उम्मीद आपसे है' उसने कहा।
‘हमसे क्या करने की उम्मीद है'
‘सीधी सी बात है, लाओ और ले जाओ'  उसने उत्तर दिया।
‘लेकिन सर, हम आपको क्या दे सकते हैं'
‘आप हमें काफी कुछ दे सकते हो। शुरूआत में एक चीज करें कि भारतीय सेना के वाहनों के पीछे जो नंबर लिखे होते हैं उनको नोट करके हमें भेज दो' उस व्यक्ति ने निर्दे दिए।
और उसके साथ ही हम घर को रवाना होना शुरू हो गए लेकिन उसने यह कहते हुए हमें रोका कि क्या हमें पैसे चाहिएं।
‘नहीं हमें पैसे नहीं चाहिएं। क्या आप हमें कुछ बारूद दे सकते हैं'
उसने हमें रवाना होने से पहले पेंसिल बम दिया। अपने गाइड को सात हजार देने के बाद हमने अपने पांव घाटी के अंदर रखे।
पुराने शहर में वापस पहुंच करने हमने खुशु को योजना की जानकारी दी। हम सभी इसके लिए सहमत हो गए। हम घाटी के विभिन्न हिस्सों में फैल गए और सैन्य वाहनों के पीछे लिखे नंबरों को नोट करते गए। मैं खुद बारामूला चला गया। अपनी गतिविधियों की भनक किसी को भी लगे बगैर हम पचास दिनों तक नंबरों को नोट करने के काम में लगे रहे।
फारूक खुशु को आखिरकार एक विश्वसनीय गाइड के माध्यम ने उनको पाकिस्तान बार्डर पर भेज दिया।
लेकिन आज तक, मैं इन नंबरों के प्रयोजन को समझ पाने में असफल रहा हूं।



तिहाड़ से एक सदमा
सन 1983 में, हमने अपने दो सदस्यों को डोडा में हथियार और बारूद खरीदने के लिए भेजा। वह तीन पिस्तौल और कुछ विस्फोटक ले कर आये। हम दोबारा मलखान से मिले और रणनीति पर चर्चा की। वह बैठक हम सभी के लिए बहुत गंभीर थी। मकबूल भट्ट की संभावित फांसी की खबर फैल चुकी थी। श्रीनगर के सेशन जज नीलकंठ गंजू ने उसको फांसी की सजा सुनाई थी। हम कुछ करना चाहते थे, लेकिन कुछ भी नहीं कर पा रहे थे।
11 फरवरी 1984 को, भारत ने मकबूल भट्ट को तिहाड़ जेल के अंदर फांसी दे दी। भले ही इसकी अपेक्षा थे, लेकिन हमारे नायक की फांसी हमारे लिए हिलाने वाली खबर थी।
हमने आंदोलन शुरू कर दिया। उग्र पत्थरबाजी शुरू हो गई। हमने विरोध के तौर पर बोहरी कदल में एक वाहन को आग लगा दी। उसके बाद भी हमारा गुस्सा ठंडा होने का नाम नहीं ले रहा था।
उसके बाद भट्ट की फांसी के पीछे के कारणों पर व्यापक चर्चा और बहस शुरू हो गई थी।
उसी समय के दौरान, हमने बम धमाकों की सीरिज को अंजाम देने का मन बना लिया। 22 अप्रैल को हमने तीन बम धमाके किए। पहला बम धमाका बदाम बाग में सैटलाइट के पास किया गया। दूसरा धमाका श्रीनगर हाई कोर्ट में किया गया क्योंकि शहीद मकबूल भट्ट की फांसी की  सजा उसी जगह लिखी गई थी।
कर्ण नगर में नीलकंठ गंजू के घर पर बम धमाका करने का काम मुझे सौंपा गया। इसका मकसद किसी को मारना नहीं था बल्कि कड़ा संदे देना था। गंजू की बा में सन 1990 में गोली मार कर हत्या कर दी गई। वह मारे गए शुरूआती व्यक्तियों में से एक थे।
बम धमाकों के बाद, मैं और मुश्ताक लटरम अखबार के आफिस में गए और उनको लिखित नोट दिया। हमने बम धमाकों की जिम्मेवारी ली। मुश्ताक आफताब के आफिस में जबकि मैं श्रीनगर टाइम्स के आफिस में गया। अगले दिन समाचार पत्रों ने खबर दी कि अल मकबूल से संबंधित अज्ञात व्यक्तियों ने आफिस का दौरा कर धमाकों की जिम्मेवारी ली है।

जम्मू में पाक झंड़े को फहराना
मकबूल भट्ट की पहली पुण्यतिथि से पहले, हम व्यापक असर वाली किसी घटना की योजना बना रहे थे। जैसे ही हम मिले, इस बात पर फैसला हुआ कि हम श्रीनगर और जम्मू में एक साथ पाकिस्तानी झंड़े फहराएंगे।
दस फरवरी 1985 को मैं अपनी पार्टी के अन्य सदस्य अलताफ के साथ जम्मू के लिए रवाना हो गया।
जब हम जम्मू पहुंचे तो रात हो चुकी थी। अंधेरे में पाकिस्तानी झंडों से भरे बैग को लेकर हम घूम रहे थे। जैसे ही हम पहला झंड़ा लगाने वाले थे, तभी पीछे से जड़वत कर देने वाली किसी के चिल्लाने की आवाज आई। जैसे ही हम मुड़े हमने देखा कि एक पुलिसकर्मी हमें घूर रहा है। तुम इस समय यहां क्या कर रहे, उसने पूछा। जनाब हम अपना रास्ता भूल गए हैं। हमें पता नहीं चल पा रहा है कि जामिया मस्जिद कैसे जाया जाए, हमने जवाब दिया।
उसके हाव भाव से ऐसा लग रहा था कि वह सख्त किस्म का पुलिसकर्मी है। अच्छा ठीक है, लेकिन तुम थैले में क्या लेकर जा रहे हो, उसने कठोरता से पूछा।
उसकी मांग हमारे लिए खौफनाक थी। लेकिन उसका ध्यान बांटने के लिए मैंने थैले में से एक नाशपाती निकाली और उससे खाने पर जोर देने लगा। नहीं नहीं, इसकी जरूरत नहीं है, एक काम करो, महज इस रास्ते पर चलते चलो, तुम जामिया मस्जिद पहुंच जाओगे, उसने कहा।
हमने राहत की सांस ली और चलते बने। तुरंत ही हमने अपना काम पूरा कर लिया। अगली सुबह की पौ फटने से पहले हमने झंडे चढ़ाने का काम जारी रखा।
काम पूरा होने के बाद हम जामिया मस्जिद चले गए। वहां से जल्द ही निकल कर हम घाटी जाने वाली पहली गाड़ी पर सवार हो गए।
ड्राइवर को तत्काल चलने पर मजबूर करने के लिए हमने कहा कि मेहरबानी कर जल्दी चलो, हमारी दादी बहुत बीमार है।
हमारी तरकीब काम कर गई। डाइवर ने गाड़ी को तेज चलाया। दोपहर बाद तक हम घाटी में वापस पहुंच गए थे।
अगली सुबह, जम्मू और श्रीनगर, दोनों अखबारों ने इस घटना की रिपोर्ट दी। और इसने प्रशासन को खतरनाक ढ़ंग से चौकन्ना कर दिया।

तला पार्टी से जुड़ना
उन दिनों मैं एक और लोकप्रिय पार्टी तला पार्टी का भी सदस्य था। पार्टी कश्मीर की आजादी के लिए काम कर रही थी।यासीन मलिक, जावेद मीर, नईम खान, मुश्ताक उल इस्लाम, शकील बक्शी,  शौकत बक्शी, फिरदौस शाह , इकबाल गोंडुर, फैयाज गोंडुर और अन्य इसका हिस्सा थे। हम पुराने शहर के बोहरी कदल इलाके में मिलते थे। हमने उस स्थान का काम अकील तख्ते (Akaiel Takhte)  रखा हुआ था।
हमारे लिए पत्थरबाजी विरोध का एक प्रतीक थी।
दिलचस्प बात यह है कि 13 जुलाई को एक बार हम पुराने शहर के ख्वाजा बाजार में नेशनल कांफ्रेंस के जलसे में पत्थर फेंकने के लिए गए। लेकिन नेशनल कांफ्रेंस की भीड़ ने यासीन मलिक को पकड़ लिया और उसको बुरे तरीके से पीटा। उन्होंने उसको कीचड़ के तालाब में डुबो दिया। किसी तरह से हमने उसको वहां से छुड़ाया। धोने के बाद, हमने यासीन को एसएमएचएस  अस्ताल इलाज के लिए पहुंचाया। गिरफ्तार होने के भय से हम उसका असली नाम नहीं बता रहे थे। उन दिनों पुलिस और सीआईडी कर्मी सिविल कपड़ों में अस्पताल के चक्कर मारते थे।




उमर मुख्तियार के पीछे की योजना
सन 1985 के एक खास दिन तला पार्टी के सदस्य श्रीनगर के ईदगाह में मिले। बैठक में फैसला लिया गया कि रीगल सिनेमाघर में उमर मुख्तियार की फिल्म देखने के बाद शेख अब्दुल्ला का पोस्टर जलाया जाएगा। निर्देश दिए गए कि वह अपने जेब खर्च से फिल्म को देखे। हर किसी को यह निर्देश थे कि वह फिल्म को स्टाल, जो कि सिनेमाघर का मध्य होता है, वहां से फिल्म देखे। यह सामान्य सहमति थी कि स्टाल शोहदों से भरा होगा। पुलिस के छापे की स्थिति में वह हमारे बचाव के लिए आगे आ जाएंगे।
उस महत्वपूर्ण दिन हम शाम एक से चार बजे तक को शो देखने गए! मध्यातंर पर मैंने अपने बाकी साथियों से पूछा कि क्या किसी ने शेख अब्दुल्ला का पोस्टर लाया है। नहीं, उनका उत्तर हैरान कर देने वाला था।
बाद में मैं समझा कि हर कोई यही सोच रहा होगा कि अन्य सदस्य ने पोस्टर लाया होगा। परिणामस्वरूप किसी ने पोस्टर नहीं लाया था।
लिहाजा मैं सिनेमाघर से बाहर निकला और अन्य दो सदस्यों के साथ पोस्टर लेने के लिए चल पड़ा।
हमने रीगल लेन पार की और पैलेडियम सिनेमाघर तक पहुंचे। वहां पर हमने एक तंग गली की दुकान की दीवार पर शेख अब्दुल्ला का बड़ा लाइफ साइज पोटरेट देखा। हमने दुकानदार का अभिवादन कर उसको कहा कि आज हमारे भाई की सगाई है। वह बब शेख अब्दुल्ला के फोटो की जिद कर रहा है। वह कह रहा है कि बिना बब के फोटो के मैं सगाई में हिस्सा नहीं लूंगा। सुबह से ही हम इसकी तलाश कर रहे थे लेकिन हमें कोई फोटो नहीं मिल पाया है। अब हमें यह आपकी दुकान पर दिखा है। मेहरबानी कर हमारी मदद करें। हमें फोटो दे दीजिए। हम इसकी कोेई भी कीमत देने का तैयार हैं।
दुकानदार राजी हो गया। हमने उसको सौ रूपये दिए और चलते बने। हमने शेख के पोटरेट के शीशे के फ्रेम को तोड़ा, फोटो को फोल्ड किया और जेब में सुरक्षित रख लिया। जल्द ही सिनेमाघर में अपने दोस्तों के साथ हम मिल गए।
बाद में योजना के अनुसार, हम सिनेमाघर से शेख अब्दुल्ला के फोटो के साथ आवेश में बाहर निकले। मैं, यासीन मलिक, इकबाल गांद्रू और अन्य सदस्यों ने नारे लगाना शुरू कर दिए। सिनेमाघर से फिल्म देख कर बाहर आ रहे लोग हमारे साथ शामिल हो गए। जैसे ही हमने शेख अब्दुल्ला के फोटो को आग लगानी चाही, किसी कारणवश उसमें आग नहीं लग पाई।
मैं और जावेद मीर शक्ति स्वीटस दुकान की तरफ भागे। हमने एक स्टोव में से सारा मिट्टी का तेल एक गिलास में उड़ेल दिया। हम वापस उसी स्थान पर भागे। मैंने शेख के फोटो पर मिट्टी की बौछार की और उसको आग लगा दी।
इस से उस स्थान पर असाधारण दृश्य बन गया। लेकिन जल्द ही एक पुलिस पार्टी उस स्थान पर पहुंची और हम सभी भाग गए। मैं बंड की तरफ भागा। लेकिन पुलिस पार्टी अभी भी मेरे पीछे थी। कुछ जुआरियों ने मेरे पीछे पुलिस को लगा देखा। पुलिस को खुश करने के लिए उन्होंने चिल्लाना शुरू कर दियाः चोर चोर। उन्होंने पकड़ लिया और मुझे पुलिस के हवाले कर दिया।
मुझे कोठी बाग थाने में तीन घंटे तक बंद रखा गया। और तब, मुझे श्रीनगर के रेड 16 इंटेरोगेट सेंटर ले जाया गया। मुझे वहां पर सोलह दिनों तक रखा गया। उसके बाद मुझे दोबारा कोठी बाग थाने लागा गया और वहां से मुझे सेंट्रल जेल में ले जाया गया। वहां से मैं जमानत पर रिहा हुआ।

अल मकबूल का विघटन
जेल से बाहर आने पर मुझे पता चला कि कई युवाओं को हिरासत में लिया गया है। आजादी के लिए लड़ रही पार्टियां जैसे होली वार फाइटरस ग्रुप, अल जेहाद और अल मकबूल को पुलिस छापेमारी का सामना करना पड़ा। मैं अल मकबूल के अन्य सदस्यों के साथ गिरफ्तार कर लिया गया। हमें टाडा के तहत गिरफ्तार किया गया था। इस एक्ट के तहत सोलह माह तक जमानत नहीं हो सकती थी। बाद में हमें दो साल की जेल काटनी पड़ी। लेकिन जेल के जीवन को अधिकांश सहन नहीं कर पा रहे थे। मैंने देख सकता था कि जेल में मुश्ताक लटरम कई बार टूटा गया था। वह अपनी इस दुर्दशा के लिए मुझे जिम्मेवार ठहरा रहा था। लेकिन बाद में समय बीत गया।



सामूहिक लामबंदी
दो साल बाद मैं जब जेल से बाहर आया था तो सशस्त्र संघर्ष की तैयारियां पूरी जोरों पर थीं। मैं एक दोस्त से मिला तो उसने बताया कि कश्मीरी पाक प्रशासित कश्मीर में हथियारों की ट्रेनिंग के लिए जा रहे हैं।
उसके शब्दों ने मुझे भी प्रेरित किया। मैंने भी ट्रेनिंग के लिए अपना मन बना लिया। लेकिन मुश्ताक उल इस्लाम ने मुझे यह कह कर रोक दिया कि यहीं रहो और केवल घाटी के आकांक्षी युवाओं का मार्गदर्शन करो।
मैं मान गया। लेकिन मुझे नए सिरे से शुरू करना था। मेरा मूल संगठन अल मकबूल विघटित हो गया था। मेरे पूर्व सदस्य अपने आधार को किसी दूसरे उग्रवादी संगठन में स्थानातंरित कर गए थे। सब कुछ बहुत तेजी से हो रहा था। उस समय के वातावरण में बहुत ज्यादा तनाव भी था।

एचएजेवाई ग्रुप से दस्तक
और फिर एक दिन 1988 में जावेद मीर, अश्फाक मजीद वानी और तीन अन्य सदस्य मेरे घर आए। उन्होंने मुझे हथियार और बारूद रखने के लिए दिए। यह सशस्त्र विद्रोह की शुरुआत थी। वह नए-नए आजाद कश्मीर  का दौर करके लौटे थे। उन्होंने हथियारों की ट्रेनिंग हासिल की थी। और वह अपने साथ काफी सारा बारूद भी लाए थे। मुझको साफ हिदायत थीः उन बोरियों का ख्याल रखना। वह बमों और हथियारों से भरी हुई हैं।
उसी दिन दोपहर बाद, जावेद अहमद शाल, वह व्यक्ति जिसको बाद में बलपूर्वक गायब रखा गया, ने मेरे घर में हथियार देखे। उसने मुझे डांटा और कहा कि यह दोबारा मुझको जेल पहुंचा सकते हैं। लेकिन मैंने उसकी चिंता को एक तरफ रख दिया।
उसी दिन बाद में, जब अंधेरा शुरु होने वाला था, मैंने बोरी में से पेंसिल बम निकाला और खानियार पुलिस स्टेशन पर हमले के लिए गया। मैंने पुलिस स्टेशन पर बम फेंका और भाग गया।

एक नया वारंट
एक माह बाद, मुझको पता चला कि मेरे खिलाफ नया वारंट जारी हुआ है। यह उमर मुख्तियार घटना से जुड़ा हुआ था। मुझ पर सेक्शन 112 थोपी गई थी। उसी दिन, मैं श्रीनगर की निचली अदालत में वकील से मिलने गया। जिस समय मैं अपने केस की संभावनाओं पर चर्चा कर रह था उसी समय किसी के पीछे से चिल्लाने की आवाज आई: ‘हैंडस अप'
जैसे ही मैं पीछे मुड़ा, मैंने पुलिस और अर्द्धसैनिक बलों की एक टुकड़ी को मेरे और घूरते हुए देखा। मुझे हथकड़ी लगा दी गई और कोर्ट से बाहर लेकर कर गठरी की तरह पुलिस जीप में फैंक दिया गया। मुझे राजबाग पुलिस स्टेशन ले जाया गया जो एक इंटेरोगेशन सेंटर में तबदील हो गया था।
पहले दो दिनों तक मैं खामोश ही रहा। लेकिन मुझे झटका उस समय लगा जब एक पुलिस अधिकारी ने मुझसे कहा कि वह तुम ही जो जिसने खानियार पुलिस स्टेशन पर बम फेंका था। मैंने अज्ञानता का बहाना बनाया।
तुम क्या समझते हो, हम तुम्हारे बारे में कुछ नहीं जानते, पुलिस अधिकारी ने मुझे घेरना शुरु किया। उसके बाद कई प्रश्न पूछे गए।
मुझे जल्द ही पता चल गया कि सीआईडी के कुछ अधिकारियों ने बम फेंकने के बाद मुझे दौड़ते हुए देखा था। लेकिन मैं बेकसूर होने की दलील देता रहा।
मुझे तोड़ने के लिए, उन्होंने मेरी मां को हिरासत में ले लिया। उसको तीन दिनों तक सलाखों के पीछे रखा गया। उसके बावजूद, मैंने कुछ स्वीकार नहीं किया। मुझको छत के साथ टांग दिया गया। मेरी सहनशक्ति के जवाब देने से पहले, यातना तीन दिनों तक चलती रही: ‘ठीक है, मेहरबानी कर मुझे छोड़ो, हां मैंने ही बम फेंका था!'
लेकिन उसके बावजूद मुझको तब तक नीचे नहीं उतारा गया जब तक मैंने उनको यह नहीं बताया कि हथियार और बारूद मेरे घर पर रखे  है। मुझको तेजी से नीचे उतारा गया और सवालों का एक और दौर शुरु हो गया।
‘तुझको वह कहां से मिले'
प्रतिहिंसा से डरते हुए मैंने स्वीकार किया कि वह मुझको जावेद मीर और अन्य ने रखने के लिए दिए थे।
इससे पहले की पुलिस मेरे घर पर छापा मार कर हथियार और बारूद बरामद करती, मेरी मां ने उनको जैना कदल से झेलम में बहा दिया था।
आखिकार उन्होंने मेरी मां को छोड़ दिया। मुझको सेंट्रल जेल ले जाया गया और मुझ पर पब्लिक सेफटी एक्ट लगा दिया गया। जल्द ही मुझे हीरानगर जेल ले जाया गया।
मैं  वहां पर मोहम्मद अशरफ  सहराई, गुलाम नबी भट्ट आदि से मिला। सहराई को भी पीएसए के तहत बुक किया गया था। उसने जेल को बर्दाश्त करने में मेरी मदद गई। जब भी मुझे घर की याद आती, वह सुरा यूसुफ को सुनाता।
एक साल बाद, मेरे लिए जो बहुत हैरानगी की बात थी, शबनम गनी लोन ने जमानत के साथ अपना बकील मेरे लिए भेजा था। मुझे जेल अधिकारियों ने जानकारी दी कि मेरा पीएसए खारिज कर दिया गया है। सन 1990 के शुरुआत में, मैं जेल से बाहर आ गया।

सरहद पार जाना
जेल से बाहर आने के बाद मैंने अपने आप को आजादी के आंदोलन की गतिविधियों को दूर रही रखा। लेकिन मैं ज्यादा देर तक इससे अलग नहीं रह सका। बेकार नहीं बैठो, युवाओं को आजाद कश्मीर के लिए तैयार करो, मेरे दोस्त और सशस्त्र  संगठन अल जेहाद के अध्यक्ष ने मुझ से कहा। उसने मुझे घूमने और खाने के खर्च के लिए दस हजार रुपये दिए। पहले ही मेरे इलाके के कुछ युवा इस बात पर जोर दे रहे थे कि मैं उनको ट्रेनिंग के लिए आजाद कश्मीर लेकर जाउं। मैंने उनको बुलाया और हम अपनी मंजिल के लिए रवाना हो गए।
घर छोड़ने से पहले मैंने अपनी मां को कहा कि मैं कुपवाड़ा में लकड़ी के कायले की खेप लेने जा रहा हूं। मैं जल्द वापस आ जाउंगा।
कुपवाड़ा में हम उस गाइड से मिले जिसने हमें सुरक्षित आजाद कश्मीर ले जाना था। मैंने वहां पर कश्मीरियों का समुद्र देखा जो सशस्त्र ट्रेनिंग के लिए अपना मन बना चुका था। मैं और अन्य नौ कश्मीरियों को चालीस दिनों की सशस्त्र ट्रेनिंग के लिए ‘अलएकायी गैर' (Alaqaaye Gair)  पर भेज दिया गया। वह इलाका लाल पहाडि़यों से घिरा हुआ था। हमारी ट्रेनिंग पाकिस्तानी सेना के समान थी।
ट्रेनिंग के बाद हमें मुजफ्फराबाद स्थित कैंप में ले जाया गया। मुझे जल्द ही इसका पता चल गया कि समूहों को लांच करने से पहले यहीं पर रोक कर रखा जाता है। हर किसी को प्रतिदिन खाने के अलावा बीस रुपये जेब खर्च के तौर पर दिए जाते थे।



सलाउद्दीन और ग्रीन आर्मी
लगभग एक साल गुजर गया था जब मैं सईद सलाउद्दीन को पाक कैंप में मिला था। वह मेरा पुराना अच्छा दोस्ता था। इससे पहले हम दोनों पत्थरबाजी में साथ रह चुके थे। इसके अलावा मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट के सन 1987 के चुनाव में मैं उसकी मदद कर चुका था। उसने मुझे बताया कि क्या मैं नई पार्टी का नेतत्व करना चाहता हूं।
‘कौन सी पार्टी'।
‘ग्रीन आर्मी' उसने कहा।
‘मैं तुमको बीस गुरिल्ला दूंगा, उसके चीफ बने, वापस घाटी में जाओ और भारत के कब्जे के खिलाफ लड़ो'।
मैंने उसकी पेशकश  पर विचार किया। और जल्द ही मुझे इसका अहसास हो गया कि कश्मीर में वापस जाने का यही एकमात्र रास्ता है। मैंने वह पेशकश स्वीकार कर ली।
मुझे करना क्या होगा, मैंने पूछा।
ग्रीन आर्मी के नाम पर तुमको सिंगल एक्शन करना होगा, सलाउद्दीन ने कहा।
उसने मुझे एक पत्र दिया। इसके अलावा उसने मुझे वापस जाने के सफर के लिए चालीस हजार रुपये भी दिए।
लेकिन मुझे पिस्तौल की भी जरूरत है, मैंने मांग की।
चिंता मत करो, उसने यकीन दिलाया, पीएके बार्डर पर तुमको एक दे दी जाएगी।
मुझे उस समूह का अमीर या अध्यक्ष चुना गया और हम पाक सीमा की तरफ रवाना हो गए। हमने वहां पर पहले दो दिन गुजारे।
मैंने युवा कश्मीरियों का एक समूह देखा जो सीमा की तरफ आ रहा था। वह हथियारों की ट्रेनिंग के लिए आ रहा था। मैंने उस समूह में मुश्किल से तेरह साल  के आठवीं कक्षा के एक छात्र को भी देखा। बातचीत के बाद वह बच्चा रोने लगा और उसने मुझे कहा कि मेहरबानी कर मुझे मेरी मम्मी के पास वापस ले जाओ। मैं वापस अपनी मम्मी के पास जाना चाहता हूं।
लड़का आग्रह करता रहा। जोखिम भरे सफर ने श्रीनगर के रैनावारी इलाके के उस बच्चे का मोहभंग कर दिया था।
सीमा पर कश्मीर से आने वाले समूहों का स्वागत कर रहे एक पाकिस्तानी अधिकारी से मैं मिला। मैंने उसको उस बच्चे के बारे में बताया। जरा खुद ही देखो, वह हथियारों की ट्रेनिंग के लिए किनको भेज रहे हैं, उस अधिकारी ने मुझसे कहा।
अच्छा हमें अब करना होगा, मैंने पूछा।
जो भी तुम कहो, उस अधिकारी ने जवाब दिया।
मैं उसको वापस कश्मीर अपने साथ लेकर जाना चाहता हूं, मैंने कहा।
अधिकारी सहमत हो गया।
जैसा कि हम अभी तक निर्देशोें का इंतजार करते हुए पाक सीमा पर ही थे, मैंने उस लड़के से कहा : घर वापस लौटने से पहले क्या तुम पाकिस्तान देखना चाहते हो।
हां, उसने जवाब दिया।
मैंने अपने समूह के एक सदस्य को दो हजार रुपये दिए और उससे कहा कि बच्चे को लाहौर लेकर जाओ और उसे शाही मस्जिद और अन्य स्थान दिखाओ।
दो दिन बाद सीमा पर वह वापस हमारे साथ मिल गए। बच्चा बहुत खुश था।
इसी बची हमें हथियार और बारूद जमा करने के निर्देश मिले। हमें पांच गाइड मुहैया करवाए गए। और हममे से हर किसी को पंद्रह सौ रुपये दिए गए।
बच्चे को भी हथियार दिए गए। उसके लिए वह बहुत भारी थे। मैंने अधिकारी से बात की: देखो, कम से कम बच्चे को भी हथियारों से छूट मिलनी चाहिए। यह अनिवार्य है, उसका जवाब था।
बच्चे को गन के बोझ से राहत देने के लिए मैंने बच्चे के हथियार उठाने के लिए हमारे पांच में से एक गाइड को पंद्रह सौ रुपये दिए। पाक सेना ने पहाड़ी के पास हमें अलविदा करते हुए कहा कि तुम्हारी यात्रा अब शुरू होती है!

इस तरह से जोखिम भरे सफर की शुरूआत
हमने चोटियों पर चढ़ना शुरू कर दिया। सुबह सात बजे से लेकर शाम आठ बजे तक, हम चढ़ाई जारी रखते। एक स्थान पर, हमारे गाइडों ने हमें निर्देश दिए कि हमें कुछ आराम कर लेना चाहिए। यह हमारे के लिए झटके वाली बात थी कि पांच में से चार गाइड हमें धोखा दे कर भाग गए। 
देखों हमारे गाइड हमें इस सुनसान जंगल में छोड़ गए हैं, मैंने अपने समूह से कहा। बेहतर होगा कि हम वापस चले जाएं। लेकिन मेरे इस विचार का तीव्र विरोध हुआ।
हमारे पास अभी भी एक गाइड है जो हमें हमारे घरों तक सुरक्षित पहुंचा देगा, हमारे समूह के एक सदस्य ने कहा।
हम एक साल बाद घर जा रहे हैं, हम वापस नहीं ज सकते। और क्या पता हमें दोबारा मौका मिले या नहीं, अन्य ने कहा।
मैं चार बहनों का एकमात्र भाई हूं। मैं पहले से ही डेढ़ साल से परिवार के बिना रहा हूं। हमें आगे बढ़ने की कोशिश करनी चाहिए, एक और ने कहा।
हर कोई घर वापसी पर जोर दे रहा था।
इससी दौरान जंगल में एक और रात व्यतीत हुई।
अगले दिन, मैंने अपने अखिरी और एकमात्र गाइड से पूछा, क्या तुम घाटी पहुंचने का रास्ता जानते हो।
आप चिंता न करें, यकीनन मैं आपको घर पहुंचा दूंगा, उसने विश्वास दिलाया।
उसके यकीन दिलाने के बाद हमने नीचे उतरना शुरू किया।
आधे रास्ते में, हमने बीस युवाओं का एक और समूह देखा जो आजाद कश्मीर से पांच गाइडों के साथ वापस आ रहा था।
मैंने उनको सावधान रहने का कहा और जानकारी दी कि किस प्रकार से गाइडों ने हमें धोखा दिया है। वह हिज्ब का समूह था। उन्होंने भी मुझको अपना अमीर बना लिया। अब मैं  कुल चालीस गुरिल्लों के दो समूहों का नेतृत्व कर रहा था।
हमारे गाइड ने हमें साफ निर्देश दिए थे कि हम सिंगल लाइन में चलें। इसके अलावा निर्देश थे कि सिगरेट नहीं पीना है।
जैसे हमने नीचे उतरना शुरू किया, हमने नीचे नौ टैंटों को सूखी नहर में डेरा डाले हुए देखा। मुझे खतरा महसूस हुआ। चलो कोई दूसरा रूट अपनाते हैं, मैंने गाइड से कहा। ‘मुझे लगता है कि आगे बढ़ना खतरनाक होगा'।
लेकिन गाइड ने यकीन दिलाया और कहा कि टैंटों के बारे में चिंता न करो। उनमें कोई नहीं रहता है।
उसके यकीन के बाद, हमने अपनी पैदल यात्रा जारी रखी।

एक घात
अंधेरा हो चुका था। मैंने नीचे उतरते हुए किसी की आगे बढ़ने की आवाज सुनी। मैं उसमें से कुछ खास नहीं पढ़ पाया। लेकिन जिस क्षण हमने वह टैंट पार किए, एक कानफोडू गोली की आवाज ने हमें हिला कर रख दिया। जैसे ही मैं पीछे मुढ़ा, हर एक मेरी नजर से ओझल हो गया था।
मैं कवर के लिए नीचे झुका। और तुरंत मैंने अपने समूह के एक सदस्य को सीधे जमीन पर गिरते हुए देखा। मेहरबानी कर मुझे बचाओ, मैं अपनी पांच अविवाहित बहनों का एकमात्र भाई हूं उसने मेरे सामने गुहार लगाई। ऐसा मैं भी हूं, उसको शांत करने की एक कोशिश में मैंने उससे कहा। हम दोनों घास के नीचे स्तब्ध खडे़ थे। मुझे पहाड़ी से नीचे उतरते समय उन आगे बढ़ने वाली आवाजों का अनुमान होने लगा था। अफसोस और गुस्से की मिलीजुली भावना मुझ पर हावी थी।
और उसी समय, मैंने अपने सिर को घुमाया और अपने एक गाइड को जमीन पर नीचे झुके हुए देखा। गोलियां चारों तरफ से हमारी पर झौंकी जा रही थीं। यह एक घात थी।
मैंने गाइड का दायां हाथ पकड़ लिया और उससे कहा कि वापस पहाड़ी पर चलना चाहिए और दूसरों की मदद करनी चाहिए। गाइड ने मुझे गाली दी और कहा कि अगर तुमको मरना है तो जाओ और वहां मरो। मुझको अब इसमें और मत घसीटो। मेरा काम तुमको पाकिस्तान से कश्मीर ले जाना था। मेरा काम पूरा हुआ। अब मेरे से किसी मदद की उम्मीद मत करो।
उसने अपमानजनक बातें कहीं। लेकिन मैंने अपने आप को शांत बनाए रखा। जल्द ही वह बोला, अच्छा होगा कि अगर तुम सफेद जूते उतार दो। नहीं तो तुम पकड़े जाओगे। मैंने वही किया जो उसने कहा। लेकिन जिस क्षण मैने अपनी नजर उससे हटाई, वह तेजी से घास की आड़ में गायब हो गया। सब कुछ इतनी जल्द हो रहा थ कि मेरे दिमाग ने काम करना लगभग बंद कर दिया था।
हम दोनों अभी भी सूखी नहर में घास की आड़ में छुपे हुए थे। कुछ समय बाद फायरिंग खत्म हो गई। अब हमने नहर को पार करना शुरू किया। और उसी समय मैंने समूह के सदस्य को नहर के मध्य में मरा हुआ देखा।
मेरे समूह के सदस्य इस बात पर जोर देने लगे कि हमें उस शहीद को नहर से बाहर ले जाना होगा। जैसे ही हम उसके पास पहुंचे, वह सांस ले रहा था। हमने उसे घास में रखा और उसको होश में लाने के लिए उसके पांव मलने लगे। जैसे ही उसको होश आई तो उसने बताया कि फायरिंग शुरू होने के समय पहाड़ी से गिर गया था। हमने वह रात घास में ही काटी।

जानलेवा घोषणा
अगली सुबह सेना की पब्लिक एडरेस सिस्टम से घोषणा ने हमें जगायाः अगर तुम आत्मसमर्पण करते हो तो हम तुम्हारी सुरक्षा और सुरिक्षत घर जाने के रास्ते का वायदा करते हैं।
मैं घास के कवर में ये भारतीय सेना के विशाल समूह को उस स्थान पर पहुंचता हुआ देख रहा था। जल्द ही उन्होंने तलाशी अभियान शुरू कर दिया। वह हमारे पास आ रहे थे। मैंने अपने दोनों समूह के सदस्यों को खामोश रहने के निर्देश दिए। लेकिन हमने अपनी बंदूकों काॅक कर ली थीं और जीवन की आखिरी दिखने वाली लड़ाई के लिए तैयार हो गए।
लेकिन साथ में ही छुपे हमारे समूह के सदस्यों ने आत्मसमर्पण के लिए हथियार उपर उठा लिए। एक ही पल में सैनिकों ने उनके शरीरों को गोलियों की बौछार से छलनी कर दिया। वह घास में मरे हुए वापस गिर गए। यह घोषणा कुछ नहीं था केवल एक फंदा था।
कुछ एक देर वाद, मैंन पास की बर्फ से ढकी पहाड़ी से समूह के तीन और सदस्यों को हैंडस अप किए देखा। उनका भी वैसा ही अंजाम रहा। हर मौत बहुत पीड़ादायक थी।

वायदा जो पूरा नहीं हो सका
लेकिन शायद जिसने मुझको सन्न करके रख दिया वह रैनावारी के उस बच्चे का दृश्य था। मैंने उसको बर्फ में खून के तालाब में मरा हुआ पड़ा देखा। उस समय, अपनी मां के लिए उसकी चीत्कार मेरे कानों में गूंजने लगी। उसकी मौत ने मेरे दिल को तोड़ कर रख दिया। उस बच्चे का उसकी मां के साथ मिलन नहीं करवा पाने के लिए मैं अभी भी अपने आप को कसूरवार मानता हूं।
अगली सुबह और रात, हम घास के नीचे छुपे रहे और फिर आगे बढ़ने का फैसला किया। लेकिन हम कहां जाएंगे, हमारे समूह के दो सदस्यों ने पूछा। चलो किसी की तलाश करते हैं, नहीं तो हमें भूख और थकान से मरना होगा मैंने कहा।
मैंने पांव के अंगूठे पर गोली से जख्म हो गया था। इसके अलावा हमारे थके हुए शरीर हथियारों का बोझ भी नहीं उठा सकते थे। इसलिए मैंने अपनी जैकेट से बंदूकों की गठरी बनाई और उसे घास के नीचे छुपा दिया। हमने अपने साथ केवल बैग और पैसे रखे।
जैसा हमने अपनी पैदल यात्रा जारी रखी, जल्द ही हमें एक गांव मिल गया। वह बहुत ही सुखदायक दृश्य था। जल्द ही हम घर वापसी की योजना बनाने लगे। चलो गांव में से किसी को चालीस हजार रुपये देंगे और वह हमें घर छोड़ देगा, मैंने अपने दो साथियों को कहा। वह मान गए, लेकिन खुशी में वह कहने लगे कि हमें वापस जाना चाहिए और हथियारों को ले लेते हैं।
उनके मुंह से निकलने वाले यह अविश्वसनीय शब्द मैंने सुने। मैंने उनको कहा कि उस मुश्किल सफर के बारे में उनका सोचना बेवकूफी वाला है। वह इसको समझ गए और हमने गांव की तरफ बढ़ना शुरू कर दिया।

एक घुमावदार फंदा
जैसा हम गांव के नजदीक पहुंचे, भारतीय सैनिक अचानक जमीन से बाहर निकले और चिल्लाए: हैंडस अप!
यह मार देने वाली पकड़ थी। हमारी जेबों की तलाशी ली गई। उन्होंने हमारी जेब से चालीस हजार रुपये बरामद कर लिए। लेकिन हैरानगी की बात रही कि उन्होंने मेरे समूह के दोनों सदस्यों की जेबों में पंद्रह-पंद्रह सौ रुपये वापस रख दिए।
उन्होंने ट्रेनिंग हासिल करके लौट रहे पांच अन्य कश्मीरी युवाओं को भी पकड़ा हुआ था। वह हमारे समूह में से नहीं थे। उनकी जेबों की भी तलाशी ली गई। उनकी जेबों में से भी बड़ी मात्रा में पैसे बरामद किये गए।
जल्द ही सेना के एक अधिकारी ने दौरा किया। उसने उन पांच कश्मीरी युवाओं में से एक को पूछा: तुम अपने पैसे कहां रखते हुए। उस युवक ने बड़ी मासूमियत से कहा: जनाब, आपके लोग को वह पहले से ही ले चुके हैं।
उसका जवाब अधिकारी को गुस्सा दिला गया। उसने तलवार निकाली और उस युवक के गले पर जोर से दे मारी। उससे बहुत खून बह रहा था और वह मरा हुआ जमीन पर गिर गया।
मुझे सच बोलने की कीमत का अहसास हो गया था। मेरे दोनों सदस्यों ने जल्दी से पंद्रह पंद्रह सौ रुपये उस अधिकारी को सौंप दिए। लेकिन मेरे पास कोई पैसा नहीं बचा हुआ था। असल में, उस बच्चे के हथियार उठाने के लिए मैंने अपने पंद्रह सौ रुपये, जो हमे मिले थे, एक गाइड को दे दिए थे।
जनाब, मैरे पैसे जंगल में कहीं गुम हो गए हैं, मैंने उस अधिकारी से कहा। अच्छा , तो तुम्हारे पैसे गुम हो गए हैं, उसने दिखावे वाले तरीके से पूछा। मैंने हां में सिर हिलाया।
क्या तुमको यकीन है कि हममे से किसी ने तुम्हारे पैसे नहीं लिए हैं, उसने पूछा। मैंने अपना पहले वाला जवाब दोहरा दिया। अब सुनो, यह व्यक्ति क्या कह रहा है, उसने लगभग पूरे जोर से कहा। हम चोर नहीं हैं। मैंने  उस व्यक्ति को इसलिए मारा क्योंकि उसने हम पर एक गंभीर आरोप लगाया था।

एक चूक
बाद में उसी शाम, हमें टैंट के भीतर बुलाया गया। एक एक करके, हमने सेना के उच्च अधिकारी के सवालों का सामना किया। हमने अभी तक उनके सामने यह बात नहीं लाई थी कि हम आजाद कश्मीर से आ रहे हैं।
अच्छा तो तुम यहां कैसे आए, अधिकारी ने मुझसे पूछा।
जनाब, मैं अपने समूह के साथ मुजफराबाद ट्रेनिंग के लिए जा रहा था। लेकिन अचानक फायरिंग ने हमें अलग अलग कर दिया और हम जंगल में भटकते रहे।
लेकिन मेरे बाकी दो सदस्यों में से एक ने अधिकारी को बता दिया था कि हम ट्रेनिंग हासिल करने के बाद घाटी में लौट रहे हैं, हमने अपने हथियार भी जंगल में छुपा कर रखे हुए हैं।
मैं उस पर सच बताने का आरोप भी नहीं लगा सकता था। हम वास्तव में मौत को अपने पर घूरता हुए देख रहे थे।
अधिकारी ने कुछ सैनिकों को बुलाया। अधिकारी ने उनको हथियारों की बरामदगी के लिए हमारे साथ जाने के निर्देश दिए।

जंगल में एक मुर्दाघर
हम वापस जंगल में अपने रास्ते पर घकेल दिए गए। तीन दिन और तीन रातों तक हम बिना थके चलते रहे। मेरे झटके में इजाफा उस समय हुआ जब मैंने अनेक कश्मीरी युवाओं को जंगल में शहीद हुए देखा। अधिकांश शवों में से अभी भी खून निकल रहा था। कुछ शव खराब हो गए थे। कुछ को तो बुरे तरीके से काटा गया था। उस दृश्य को बयां करने के लिए मेरे पास सही शब्द नहीं हैं।
मेहरबानी कर हमें इनको दफनाने की अनुमति दें, मैंने हमारे साथ चल रहे सेना के मेजर से निवेदन किया। लेकिन उसके जवाब ने हमें और ज्यादा हैरान कर दिया: तुम कितनों को दफनाओगे, यह जंगल तो ऐसे शवों से भरा हुआ है।तैयार हो जाओ, जल्द ही तुम भी उनके साथ मिल जाओगे।
कुछ किलोमीटर आगे, हमे और बड़ा झटका लगा। हमने मारे गए कश्मीरी युवाओं के शवों को पेड़ों की टहनियों से लटकते हुए देखा। वह बहुत डरावना था, बल्कि दुःस्वपन  था।
क्या कृपया  हम इन को नीचे ला सकते हैं, मैंने मेजर से पूछा। लेकिन उसने वही जवाब दिया, उनकी मांग छोड़ो, अपने बारे में सोचो। अगर हथियार नहीं मिले तो तुमको भी इस प्रकार से लटका दिया जाएगा।

चौंका देने वाला रहस्य
आखिरकार हम उस नहर के पास पहुंच गए जिधर हम पर घात लगा कर हमला किया गया। हमने ही फायरिंग की थी और सत्ताईस सशस्त्र  ट्रेनिंग हासिल किए कश्मीरी युवाओं को मारा था, मेजर ने पर्दा उठाया। यह अप्रत्याशित रहस्योद्धाटन था। किसी प्रकार से मैंने बिंदुओं को मिलना शुरू किया। पीएके से वापस लौटते समय हादसों की जो श्रंखला हमारे साथ घटी अब पूरी तरह से समझ में आ रही थी। सब कुछ लिखित लग रहा था: हमारे चार गाइडों को भागना, नहर में उजाड़ पड़े टैंट, हमारे पांचवें गाइड का रहस्यपूर्ण तरीके से गायब होना और सेना की घात।
इसी दौरान मेजर ने बोलना जारी रखा: तुम्हारे बाकी साथी हमें चकमा देने में सफल रहे, और मैं जानता हूें कि तुम तीनों उसमें से बचे हुए हो।
हमने अपने हथियारों की तलाश की। वह नहीं मिल रहे थे। इससे सेना की टुकड़ी नाराज हो गई और उन्होंने बेस कैंप में अपने अधिकारी को वायरलैस पर कहा: जनाब, यह आदमी धोखेबाज हैं। यह सिर्फ समय लेना चाहते हैं। इनके पास कोई हथियार नही है। इस पर अधिकारी ने उनको निर्देश दिए कि मार दो और वापस आ जाओ।
हमारी रस्सियों को खोल दिया गया। हम तीनों को एक कतार में खड़ा कर दिया गया। कुछ मंत्रों को बोलने के बाद उन्होंने अपनी बंदूकों को हमारी तरफ तान दिया। वह गोली चलाने ही वाले थे कि अचानक मैं चिल्ला पड़ा: मेहरबानी कर रूको!
उन्होंने बंदूकों को नीचे कर दिया: क्या हुआ। कांपती हुई आवाज में मैंने निवेदन किया: जनाब क्या मरने से पहले हम अपनी आखिरी प्रार्थना कर सकते हैं।
हमारा निवेदन मान लिया गया। प्रार्थना के समय हम बहुत रोए। जैसा कि हम जानते थे कि यह हमारी आखिरी प्रार्थना है।
उन्होंने हमें फिर एक कतार में खड़ा कर दिया। उन्होंने दोबारा अपनी बंदूकों को काॅक किया और हमारी तरफ तान दीं। जैसे ही वह ट्रिगर दबाने वाले थे, मैं दोबारा चिल्ला पड़ा: रूको।
सेना के मेजर ने बंदूक की नाली को उपर उठा दिया। एक गोली हवा को चीरती हुई चली। मेरी यादाश्त वापस दौड़ी। मैंने घास के नीचे हथियार रखे हैं, मैंने मेजर को बताया।
लेकिन एक जूनियर स्तर के अधिकारी ने मेजर का विरोध किया और उसने कहा कि हमें इनको पहले ही दिन मार देना चाहिए था। लेकिन ऐसा लगता है कि इनके लिए आपके पास एक साफ्ट कार्नर है, डैम इट, यह पहले से ही पांचवां दिन है, अब बहुत हो गया है, हम इनको मार कर क्यों नहीं जा सकते, उसने कहा।
देखों, मैं तुम्हारे नहीं बल्कि अपने उच्च अधिकारियों के सामने जवाबदेह हूं, मेजर ने कहा, मैं जानता हूं कि यह चूतिए झूठ बोल रहे हैं, चलो इनको एक आखिरी मौका देकर देखते हैं, नहीं तो हम इनको मार देंगे, ठीक।
मेजर मुझे उस स्थान पर ले गया। और हमारे लिए राहत की बात यह थी कि हमें जैकेट में लिपटे हथियार मिल गए थे।
क्या तुझ यह देख रहे हो, मेजर ने गहरी विजयी मुस्कान फैलाते हुए अपने मातहत से कहा, मैं बेकार में ही इनको अपने पर सवार होने दे रहा था, मैं जानता था कि मैं क्या कर रहा हूं।

थूकने के आनंद का उत्सव
हमको जल्द ही मच्चैल गांव ले जाया गया। भारतीय सेना ने सभी गांव वालों को घरों से बाहर आ कर खुले मैदान में जमा होने के आदेश दिए। जब सभी इक्ट्ठा हो गए तो सेना ने गांव के हर एक व्यक्ति से हमारे मुंह पर थूकने के आर्डर दिए।
वह गांव वाले असहाय थे। उनको आदेश मानने के लिए विवश किया गया था। कुछ ने तो थूकने से पहले फुसफुसाते हुए माफी भी मांगी।
थूकने के बाद सेना ने हमें नारे लगाने के निर्देश दिए: वह जो पाकिस्तान जाने की आकांक्षा रखता है वह हरामी है। सभी गांव वालों के सामने हम तब तक यह नारे लगाते रहे जब तक हमारे गले नहीं सूख गए। बाद में हमें पास के आर्मी कैंप में घसीट कर ले जाया गया।

लिखित चाल
कैंप के भीतर, मुझे आर्मी आफिसर के कमरे में ले जाया गया। मैंने उसके हाथ में वही पत्र देखा जो आजाद कश्मीर में ट्रेनिंग कैंप छोड़ने से पहले सईद सलाउदीन ने मुझको दिया था।
‘ओह! अच्छा तो तुम ग्रीन आर्मी से संबंध रखते हो'
मैंने अज्ञानता का बहाना किया और जवाब दिया: मैं नहीं जानता आप क्या बात कर रहे हैं।
'देखो, मेरे साथ स्मार्ट बनने की कोशिश न करो, ओके, उसने चेतावनी दी। मैंने यह पत्र पढ़ लिया है। इस पर तुम्हारा नाम है। नूर मोहम्मद काटजू उर्फ हैदर। मैं यह भी जानता हूं कि सलाउद्दीन ने यह पत्र तुमको को भी पुराने श्रीनगर के कावा मोहल्ला में एक पते पर देने के लिए कहा है।'
अधिकारी ने पूरी तरह से घेराबंदी कर मुझे पकड़ लिया। ऐसा लग रहा था कि वह योजना के बारे में सब कुछ जानता है।
उसने उस पत्र को टुकड़ों में फाड़ दिया और उसको कमरे में जल रही कोयले की आग में डाल दिया।
मैं चाहता हूं कि तुम एक बात साफ तरीके से समझ लो, आजदी को भूल जाओ, तुमको वह कभी नहीं मिलेगी, अधिकारी ने दावा किया। मैं स्थिर खड़ा रहा।
क्या तुम कुछ जानते हो, तुम को खोजने के लिए हम जंगल में तुम्हारा इंतजार कर रहे थे- उसने जानकारी दी और मेरी शंकाओं का समाधान किया। ‘लेकिन तुमने सामने आने में दो दिन ज्यादा लगाए। तुम पीएके से बीस व्यक्तियों के समूह के साथ वापस आ रहे थे...आ रहे थे ना। लेकिन तुमने हमें अचरज में डाल दिया, तुम चालीस के साथ आए। हमने तुम्हारे समूह में से सत्ताईस को नहर के पास मार गिराया, इसके अलावा दस को हिरासत में लिया। उसके बाद आप तीनों को ढूंढने के लिए जाल बिछाया।‘
लेकिन आपको हमारे और हमारी योजना के बारे में कैसे पता चला, मैंने बाधित किया।
बनावटी हंसी के बाद उसने उसने जवाब दिया- तुम्हारे अपने आदमियों के अलावा हमें और कौन सूचना देगा। तुम किस रास्ते से आते हो, हमें वह रूट भी पता है।
अधिकारी ने मेरी सारी शंकाओं को पिघला दिया। हमारे गाइड वास्तव में हमारे उत्पीड़क थे।

बर्बाद कर देने वाली यातना
हम तीनों को मच्चैल कैंप में कैद करके रखा गया था। हमको एक रस्सी से बांधा गया था। हमारे हाथ बंधे थे। खाने को सीमेंट की फर्श पर गिराने से पहले हमें निर्देश देते- कुत्तों की तरह खाओ!
कैद कोठरी के भीतर टीन का एक डिब्बा था। हम उसका इस्तेमाल पेशाब  करने के लिए करते थे। हमें पीने का पानी नहीं दिया जाता था। उसके बदले हमें करीब पंद्रह से बीस दिनों तक के उस डिब्बे में जमा पेशाब पीना पड़ा। यातना यही खत्म नहीं हुई। सेना के लोग हमें हाई टेंशन तार के साथ पीटते। इसके अलावा वह लगातार मेरा सिर दीवार के साथ पटकते। इसका परिणाम यह हुआ कि मुझे गंभीर चोटें सहनी पड़ी।
बीस दिनों के बाद, हमको दूसरे कैंप में शिफ्ट  कर दिया गया और वहां पर यातना का नया दौर शुरू हुआ। उसके बाद जल्द ही, हमें सत्तर दिनों के लिए बदामी बाग कैंट ले जाया गया। बादामी बाग में नए सिरे से पूछताछ के बाद हमें एक साल के लिए कोट भलवाल जेल शिफ्ट कर दिया गया। और फिर, हमें रामनगर स्थानांतरित किया गया और वहां से आखिरकार मैं चार माह के बाद जमानत पर रिहा हुआ।



एक खंडित डेयरडेविल
जब मैं सन 1993 के बाद के हिस्से में जेल से बाहर निकला तो मैं दिमागी तौर पर कमजोर बना दिया गया था। उन टक्करों के कारण, मैं अकसर बाजार, घर या चलते हुए अपनी चेतना खो देता।
मैं एक डेयरडेविल था, लेकिन सेना की योतना ने मुझे साफ-साफ खंडित बना दिया।
मेरी सत्तरह साल की बेटी है। मेरी मासिक आय सत्ताइस सौ रुपये है और वह भी जेकेएलएफ की ओर से दिए जाते हैं। लेकिन मेरा इलाज इससे काफी महंगा है।
हालात में सुधार दिखाने के लिए सरकार ने नव्वे के दशक के उत्तराकालीन में बंद हुए नौ में से तीन सिनेमाघरों को खोलने की कोशिश की है। लेकिन सन 1999 में रीगल सिनेमा के खुलने के पहले ही दिन बाहर ग्रेनेड धमाके ने न केवल उसके शटर गिरा दिए बल्कि एक कीमती जान को भी निगल लिया।
घटना के बाद, सरकार ने तुरंत रीगल सिनेमाघर को बंद कर दिया। जबकि नीलम और ब्रॉडवे सिनेमाघर (ब्राडवे में से होटल बनाए जाने से पहले) कड़ी सुरक्षा के बीच चलते रहे।
अब, जनसमूह में एक मिलिटेंट मूड को बनाने वाली फिल्म को दोबारा दिखाने के लिए रीगल सिनेमाघर पूरी से टूट गया है। और बगावत करने वाले भी इतने कमजोर हो गए हैं जो इसके 'अमर' कर देने वाले कर्म को दोहरा सकें।
शो समाप्त हो सकता है, लेकिन शोमैन जिंदा रहते हैं।
शायद, उमर मुख्तियार सही था, जब उसने कहा था: मैं मेरे को फांसी चढ़ाने वाले से ज्यादा देर तक जिंदा रहूंगा।



कश्मीर लाइफ से साभार (बिलाल हांडू की रिपोर्ट, अनुवाद : कुमार कृष्णा शर्मा  
(चित्र कश्मीर लाइफ और गूगल की मदद से विभिन्न साइट्स से साभार लिए गए हैं)
व्यक्त किए गए विचारों,जानकारियों और तथ्यों से 'खुलते किवाड़' का सहमत होना जरूरी नहीं





Thursday, March 12, 2015

तस्लीमा नसरीन

हम उन्हें बचा नहीं पाए


अभिजीत (राय) से मेरा परिचय पंद्रह-सोलह वर्ष पहले हुआ था। तब वह सिंगापुर में रहते थे। थोड़े दिनों की बातचीत और उनके कुछ ब्लॉग पढ़ने के बाद मुझे लगा कि ब्रह्मांड, दुनियावी परिवर्तन, दर्शन, धर्म और अंधविश्वास जैसे मुद्दों पर अभिजीत और मेरी सोच में कोई फर्क नहीं है। हम मूलतः एक ही आदर्श से चालित हैं। अभिजीत मेरी किताबें पहले ही पढ़ चुके थे, इसलिए नारीवाद, मानवतावाद और अस्तित्ववाद के प्रति मेरे नजरिये से वह परिचित थे। उस समय उन्‍होंने मुक्तमना नाम से एक ब्लॉग की शुरुआत की थी। खुली सोच और तर्कवाद का समर्थक कोई भी आदमी उस ब्लॉग में लिख सकता था। खासकर मेरे लिए इससे अच्छी चीज और क्या हो सकती थी, जिसके पास अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार तक नहीं है! तब तक बांग्लादेश के प्रकाशकों ने मेरी किताबें छापना बंद कर दिया था। हालत यह थी कि पश्चिम बंगाल में मेरी किताब आज छपती थी, तो अगले ही दिन बांग्लादेश में वह प्रतिबंधित हो जाती थी। बांग्लादेश से बाहर कर दिए जाने के बाद से ही वहां की पत्र-पत्रिकाओं ने भी एक तरह से मुझे ′निषिद्ध′ कर दिया है। ऐसे में अभिजीत का मुक्तमना मेरे लिए जरूरी प्लेटफॉर्म था। मैं देखती थी कि मुक्तमना में मेरे जैसे अनेक लोग थे। इनमें से ज्यादातर मजहबी सोच के मामले में उदार बंगाली मुसलमान थे। प्रगतिशील सोच के किसी भी व्यक्ति से मुलाकात होने पर मैं उनसे मुक्तमना पढ़ने का अनुरोध करती थी।



अभिजीत मुझसे आठ-नौ वर्ष छोटे रहे होंगे। किंतु स्नेह नहीं, मैं उन्हें श्रद्धा की नजरों से देखती थी। विज्ञान और दर्शन के दुरूह तत्वों को साधारण पाठकों के लिए सरल और उपयोगी बनाकर अभिजीत राय जिस तरह एक के बाद एक किताब लिख रहे थे, वह मेरे लिए कभी संभव नहीं था। उनकी तरह धैर्य मुझमें नहीं है। उनसे मैं रूबरू हालांकि कभी नहीं हुई। लेकिन ऐसा कभी लगा नहीं कि हमारी मुलाकात न हुई हो। अगर एक दूसरे के प्रति विश्वास अटूट हो, तो एक दूसरे से दूर होने पर भी दूरी का एहसास कभी नहीं होता।
विगत दिसंबर में ही जब उनसे फोन पर बात हुई थी, तब मैं न्यूयॉर्क में थी। उस समय उन्होंने मुझे जॉर्जिया के उनके घर पर घूमने आने के लिए भी कहा था। मैंने वायदा किया था कि एक बार वहां जरूर जाऊंगी और अभिजीत के साथ-साथ उनकी पत्नी और बेटी के साथ जमकर बातचीत करूंगी। अभिजीत के साथ मेरी कभी मुलाकात नहीं होगी, वह इस बातचीत के तीन महीने बाद जीवित नहीं रहेंगे, यह मैं भला कैसे जान पाती! अभिजीत के साथ मुलाकात भले न हुई हो, पर उनके पिता अजय राय से मेरी भेंट हुई है, जो ढाका विश्वविद्यालय में भौतिकी के प्रोफेसर थे। कोलकाता के मेरे घर पर भी वह आ चुके हैं। वह मेरे लिए हमेशा चिंतित रहते थे। उनकी चिंता यह थी कि मौका मिलने पर कट्टरवादियों का समूह मुझे काट न डाले। कट्टरवादियों ने काट तो डाला ही, पर मुझे नहीं, मुझसे बहुत अधिक प्रतिभाशाली, ज्ञानी और तर्कबुद्धि-विश्लेषक अभिजीत राय को।
पिछले दो-तीन साल से ही इस्लामी कट्टरवादी अभिजीत को मार डालने की धमकी फेसबुक पर दे रहे थे। फेसबुक से हत्यारों की शिनाख्त कर उन्हें गिरफ्तार करने में बांग्लादेश सरकार को बहुत ज्यादा समय नहीं लगेगा। एक व्यक्ति की गिरफ्तारी जरूर हुई है। लेकिन प्रधानमंत्री शेख हसीना ने इस नृशंस हत्या पर एक शब्द कहना तक जरूरी नहीं समझा। ऐसे में, अभिजीत के हत्यारों को संभवतः सजा भी न हो, आखिर इससे पहले चर्चित लेखक हुमायूं कबीर और ब्लॉगर व शाहबाग आंदोलन के संयोजक राजीव अहमद के हत्यारों को दंडित नहीं ही किया गया है।



करोड़ों लोगों की अंधेरी भीड़ में अभिजीत हाथ में रोशनी लिए खड़े थे। वह अमेरिका में रहते जरूर थे, पर बांग्ला में किताब और ब्लॉग लिखते थे, तथा फेसबुक पर भी सक्रिय थे। वर्षों से वह अशिक्षितों को तर्क और ज्ञान का प्रकाश बांट रहे थे। बांग्लादेश के धर्मांधों को उनका लिखा हुआ समझ में नहीं आता था, लेकिन वहां की सरकार को तो उनके लेखन का महत्व समझना चाहिए था। अभिजीत को सुरक्षा व्यवस्था मुहैया कराना उसका कर्तव्य था। इस बार अभिजीत अपनी मां को देखने, पुस्तक मेला में घूमने और अपनी दो किताबों के लोकार्पण समारोह में हिस्सा लेने बांग्लादेश गए थे। बांग्ला का कोई भी लेखक बंगाल का पुस्तक मेला देखने के लिए ललचा उठेगा। मैं दोनों बंगाल से (बांग्लादेश और पश्चिम बंगाल) बाहर कर दी गई एक बंगाली लेखिका हूं, इन दोनों जगहों में आयोजित होने वाले पुस्तक मेलों में जाने का मुझे कोई अधिकार नहीं है।
अभिजीत की हत्या के बाद बांग्लादेश के कट्टरवादी, सुना है, यह कह रहे हैं कि वह हिंदू होकर मुस्लिम धर्म की निंदा कर रहे थे, इसलिए उसकी हत्या उचित है। पर अब तक तो इन कट्टरवादियों के निशाने पर उनके मजहब के ही लोग रहे हैं। जबकि भारत में कुछ लोगों ने इस हत्या पर टिप्पणी करते हुआ कहा है कि ढाका की सड़क एक हिंदू के खून से रंग गई है। धर्म की बेड़ियों से मुक्त मानवतावादी अभिजीत सच में क्या उस अर्थ में हिंदू थे? नहीं, जिस अर्थ मैं खुद को एक मुस्लिम नहीं मानती। हमारी चिंताओं में संपूर्ण मानवता है।



(अमर उजाला से साभार)

(चित्र गूगल की मदद से विभिन्न साइट्स से साभार लिए गए हैं)

Wednesday, March 4, 2015

मृदुला शुक्ला


शिक्षा :- स्नातकोत्तर
लेखन :- एक लम्बे अंतराल के बाद २०१२ में फिर शुरू किया
प्रकाशित :- बोधि प्रकाशन से २०१४ में पहला कविता संग्रह ' उम्मीदों के पाँव भारी हैं ' प्रकाशित , वरिष्ठ कवि विजेंद्र द्वारा संपादित १०० कवियों के संग्रह ' शतदल ' तथा अनेक पत्र- पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित
पुरस्कार : - ' इला त्रिवेणी ' सम्मान प्राप्त हुआ है 
अन्य :- दिल्ली में  'अविधा' नामक साहित्यिक संस्था की सक्रिय सदस्य हैं
सम्प्रति :- शिक्षण व स्वतंत्र पत्रकारिता

जे० एन० यू० में कवि - कथाकार मित्र सईद अयूब द्वारा आयोजित ' स्वर्गीय कवि दीपक अरोड़ा स्मृति काव्यपाठ ' में जाना हुआ . पिछले साल वही पर मृदुला शुक्ला जी से मेरा परिचय हुआ . फिर इनकी कविताएँ पढ़कर जान पाया कि वे कविताओं के अन्दर और बाहर एक जैसी हैं . इनका पहला कविता संग्रह ' उम्मीदों के पाँव भारी हैं ' काफी चर्चित है . उनका लेखन कवि होने के दम्भ से परे है . इनकी कविता एक गृहणी का प्यार है . जिसमें एकाधिकार की जिद नहीं सामूहिकता का गान है .  जिसमें अलग मुहावरा बनाने का प्रयास नहीं है . कोई चौंकाने वाली बात नहीं है. वे कोरी भावुकता और गला रेतने वाले विचार से बचती हैं .सहजता से भरी कविताई की अपनी एक परम्परा है . इन्हें इसी के आलोक में देखा जाना चाहिए. वे अपनी कविताओं को संवेदना और विसंगतियों की वैध संतान मानती हैं. उनके संग्रह पर विस्तार से फिर कभी बात होगी . फिलहाल इन्हें ' खुलते  किवाड़ ' की ओर से हार्दिक धन्यवाद व बहुत - बहुत शुभकामनाएँ . 

आइये इनकी पाँच कविताएँ पढ़ते हैं -






तुम्हारा न होना

अँधेरा नहीं है ज़िन्दगी में
बस सूरज सुबह सर झुका कर निकलता है
घर के सामने से
कि मैं माँग न लूँ थोड़ा सा उजाला अपने भीतर के लिए

हवाएँ ठण्डी होती हैं मगर ...
बिना नमी की खुश्क उदासी लिए

ओस सीधा जा गिरती है ज़मीन पर
बिना मुझे छुए और कभी कभी
ठहरती भी है तो मेरी पलकों के कोर में

और चाँद ने तो आना ही छोड़ दिया इधर
कि शायद अमावस ठहरा सा है मेरे भीतर
...
वो आए भी तो भला कैसे

मैं उदास नहीं होती तुम्हारे बिना
लेकिन खुश भी नहीं हूँ शायद ...





उम्मीदों के पाँव भारी हैं

एक जहाँ हो हमारा भी
जहां तल्खियां मुस्कुरा कर गले मिलें
रुसवाइयों को मिल जाएँ पंख शोहरतों के
जब तोली जाएँ खुशियाँ बेहिसाब
तो दूसरे पलड़े पर रखा जाए थोड़ा सा ग़म

सुबहें थोड़ी धुँधली सही
शामें पुररौशन हों
बूढ़ी इमारतों के पास हो अपनी खुद की आवाज़
जो भटके मुसाफिरों को रास्ते पर लाये
सुना कर कहानी अपनी बुलंदी के दिनों की

जहां हमारी हाँ को हाँ
और न को न सुना जाए
वही समझा भी जाए

शायद मैं नींद में हूँ

मगर क्या करूँ मेरी उम्मीदों के पाँव भारी हैं
मेरे सपने पेट से हैं .





तांडव


बम भोले बम भोले बम बम बम
लट्टू की तरह नाच रहा है
जटा से निकलती गंगा की धारा
और उसमें भीग कर नाचती उन्मत्त भीड़
शिव होने का उन्माद सवार है सिर पर
कतारबद्ध औरतें पैर छूने को बेचैन
फूलों और रुपयों की भीड़ में
मुस्कुराता ठेकेदार



छनाक ! ओह आज फिर सोता रह गया
आँखों के सामने घूमती पानी की लम्बी कतार
शिव तांडव ही क्यों नाचे , कुछ आसान भी तो नाच सकते थे
कैसा टूटता है बदन ? और हर रात निकल जाता है टैंकर
तीन दिन हुए
आज रात की झाँकी में
फिर से बनेगा भोले नाथ
बिना नहाये
कोई बात नहीं !!
गंगा तो बहती रहती है उसकी जटाओं से अविरल .



यादें - एक

यादें बचपन के अंगूठे में लगी
ठेस सी होती हैं
जो भरते - भरते
फिर से ही दुःख जाती हैं अचानक
खेल खेल में

और भूलने की कोशिश
ऊन की सलाइयों पर छूट गया फंदा
जो शाम को उधड़वा देता है पूरी बुनाई
कल दुबारा बुनने के लिए

जेठ की दोपहर में डामर वाली सड़क पर
खुले सर और नंगे पाँव चलना है
जब पिघलता डामर लिपट रहा हो पैरों से
तो बस हिकारत से देख सूरज को कह देना
देखो तुम भी मत टपक पड़ना इन निगोड़ी यादों सा

भूलना और याद करना शायद
पहुँचना होता है टी पॉइंट पर
जहां ख़त्म नहीं होता पुराना रास्ता
बस दो और राहें फूट पड़ती हैं
उलझन भरी .




चाकू


खुश रहो
कामिनी के काजल की धार बनकर

पड़े रहो सब्जियों के छिलकों में
गंधाते
बजबजाते

मन नहीं करता
कि मूठ हो
मखमली म्यान हो
दीवार में एक महत्वपूर्ण स्थान हो
इतिहास में कहानियों में
वीरता का गान हो

उड़ो मत !

चाकू हो ! चाकू रहो

जरा भी कुंद हुए
घिसे जाओगे पत्थरों पर
चिंगारियाँ निकलने तक .



सम्पर्क :-
mridulashukla11@gmail.com




प्रस्तुति :- 
 
कमल जीत चौधरी
काली बड़ी , साम्बा { जे० & के० }
दूरभाष - ०९४१९२७४४०३

ई मेल - kamal.j.choudhary@gmail.com

(सभी चित्र गूगल की मदद से विभिन्न साइट्स से साभार लिए गए हैं)