Monday, April 20, 2015

तस्लीमा नसरीन

कहां ले जाएगी यह कट्टरता


पिछले दिनों चर्चित विज्ञान लेखक अभिजीत की बांग्लादेश में नृशंस हत्या के बाद स्वदेश लौटने की मेरी दुर्दमनीय इच्छा जैसे मर-सी गई है। लंबे इक्कीस वर्षों से अपने देश में न होने के कारण मैं अपने हृदय में निरंतर दुखों का बोझ लिए घूमती हूं। वे दुख हालांकि अब हवा में मिल गए हैं। सौभाग्यवश बांग्लादेश की किसी भी सरकार ने मुझे देश में घुसने नहीं दिया। पहले भले ही यह एहसास न हुआ हो, लेकिन अब ऐसा लगता है कि अगर किसी सरकार ने मुझे स्वदेश लौटने की इजाजत दी होती, तो संभवतः मेरी लाश भी वहां किसी कोने में उसी तरह पड़ी होती। आजकल सुनती हूं, बांग्लादेश में विश्वविद्यालय के छात्र फेसबुक पर लोगों को सीधे-सीधे मार डालने की धमकी देते हैं। धमकी देने के कुछ दिनों के भीतर सचमुच हमला करके जान भी ले ली जाती है। कानून-व्यवस्था की तो जैसे किसी को परवाह ही नहीं है। पिछले कुछ वर्षों से बांग्लादेश में कट्टरता और असहिष्णुता के ये भीषण दृश्य देखे जा सकते हैं।
बाहर के लोगों को ये ब्योरे निश्चय ही भयभीत करेंगे। लेकिन यह भी सच है कि बांग्लादेश में मजहबी उन्‍माद एक दिन में पैदा नहीं हुआ है। मैंने बांग्लादेश में 1969 का आंदोलन देखा है, बांग्लादेश का मुक्तियुद्ध देखा है, मगर कट्टरवादियों की ऐसी उछल-कूद कभी नहीं देखी। अस्सी के दशक में मेरे जो कलाम बांग्लादेश की राष्ट्रीय पत्रिकाओं में छपते थे, आज उनके प्रकाशित हो पाने की कल्पना भी नहीं कर सकते। मेरे उन कलाम में मजहब के बारे में अलग राय थी। लोग उनसे असहमत होते थे, लेकिन उन्हें तवज्जो दी जाती थी। आज के बांग्लादेश में मजहब पर अलग मत की कोई जगह ही नहीं है। कोई क्या खाए, क्या पीए, कौन-सा गाना सुने, कैसे चित्र बनाए, क्या सोचे, क्या पढ़े-लिखे, क्या पहने, यह सब बताने वालों की संख्या दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है। अगर निर्देश देने वाले लोगों की अनसुनी करो, तो राजपथ पर अपने ही खून में गिरकर मर जाने के लिए तैयार होना पड़ेगा।
बांग्लादेश में यह स्थिति कोई एक दिन में पैदा नहीं हुई है। वहां के प्रगतिशील लोग अगर शुरू से ही धर्मांध कट्टरवादियों की बात मानने से दोटूक इन्कार कर देते, तब आज उनका इतना दुस्साहस न होता। मैं यह कैसे भूल सकती हूं कि नब्बे के दशक की शुरुआत में क्या हुआ था! तब मेरे सिर की कीमत लगाई गई थी, मेरी फांसी के लिए कट्टरवादी समूचे बांग्लादेश में एकजुट हो गए थे। यह स्तब्ध करने वाली बात थी कि कट्टरवादियों के खिलाफ कोई कदम न उठाकर सरकार मेरे खिलाफ कदम उठा रही थी। मेरी गिरफ्तारी के निर्देश जारी हो रहे थे-बांग्लादेश में किसी भी लेखक के लिए इतना बुरा वक्त इससे पहले नहीं आया था। तब बांग्लादेश के ज्यादातर प्रगतिशील इस घटनाक्रम पर खामोश थे। हालांकि प्रोफेसरों ने कट्टरवादियों के खिलाफ ढाका विश्वविद्यालय से जुलूस निकाला था, लेकिन उसमें किसी ने मेरे नाम का उच्चारण तक नहीं किया! वे क्यों करते? नास्तिक नारीवादी के खिलाफ सिर्फ कट्टरवादी नहीं, बल्कि वे भी थे, जो खुद को उदारवादी कहते थे।



मेरा मानना है कि बांग्लादेश में कट्टरवाद के उभार की एक बड़ी वजह पढ़े-लिखे लोगों और उदारवादियों की चुप्पी भी रही है। कट्टरवादियों से समझौता कर लेने का यही हश्र होता है। इससे समाज में सड़ांध पैदा हो जाती है। मुझे लगता है, बांग्लादेश की हालत आज इस तरह है। अस्सी के दशक में तत्कालीन राष्ट्रपति इरशाद ने इस्लाम को राष्ट्रधर्म घोषित किया था, हालांकि उन्हें किसी ने इसके लिए कहा नहीं था। उसी समय से समाज में मजहब की जय-जयकार शुरू हो गई-इस्लामी बैंक, इस्लामी स्कूल, इस्लामी विश्वविद्यालय, इस्लामी नर्सिंग होम, इस्लामी अस्पताल...। जहां विभिन्न धर्मों के लोग रहते हैं, वहां आप किसी एक धर्म को राष्ट्रधर्म नहीं बना सकते। जैसे ही आप यह कदम उठाते हैं, वैसे ही दूसरे धर्म राष्ट्रधर्म की तुलना में कम महत्वपूर्ण हो जाते हैं। ऐसे में राष्ट्रधर्म से जुड़े लोगों को दूसरे धर्मों के लोगों की तुलना में स्वाभाविक ही अधिक महत्व मिलने लगता है। इस्लाम को राष्ट्रीय धर्म घोषित करने के बाद से बांग्लादेश में दूसरे धर्मों का महत्व भी घटने लगा है और उनकी आबादी भी। बांग्लादेश से गैरमुस्लिमों के चले जाने से क्या मुसलमान ज्यादा सुखी होंगे? मुझे तो ऐसा नहीं लगता। मुस्लिमों में भेदभाव से उपजी हिंसा कितनी भयावह हो सकती है, यह आईएस के उभार से समझा जा सकता है।
पहले मैं मृत्युदंड का समर्थन नहीं करती थी। लेकिन अभिजीत जैसों का हश्र देखकर मुझे लगता है कि उनके हत्यारों के लिए फांसी ही उपयुक्त सजा है। बल्कि आईएस, बोको हराम और अल शवाब के सिरफिरों तथा बांग्लादेश में मुक्त सोच की हत्या करने वालों को मृत्युदंड के सिवा कुछ और दिया ही नहीं जा सकता।
अभिजीत के हत्यारों को यदि सजा हो जाती है, तो भी वह लौटकर नहीं आने वाले। लेकिन कुछ ठोस कदम उठाकर बांग्लादेश सरकार उस हत्या के शोक को कम जरूर कर सकती है। मसलन, जिस फुटपाथ पर अभिजीत की हत्या हुई, वहां एक स्मारक बनाया जाए, जिसका नाम हो-मुक्तमना स्मारक। अभिजीत ने जीवन भर लोगों को अंधविश्वासों से मुक्त करने की मुहिम ही तो चलाई थी। मनुष्य का यह स्वभाव है कि वह बहुत जल्दी भूल जाता है। बांग्लादेश में ऐसा कोई स्मारक होगा, तो लोग अभिजीत को नहीं भूल पाएंगे। वे नहीं भूल पाएंगे कि उस शख्स ने बांग्लादेश के नागरिकों को तर्क और विज्ञान से लैस करने का आंदोलन चलाया था। इस तरह का एक स्मारक लोगों को यह याद दिलाएगा कि जब तक धर्मांधता, कट्टरतावाद, अंधविश्वास, नारी-विद्वेष और हर प्रकार की विषमता को खत्म करके मुक्तचिंता, वैज्ञानिक सोच और समानता की स्थापना नहीं होगी, तब तक बांग्ला समाज इसी तरह अपनी मौत मरता रहेगा।
बांग्लादेश के प्रगतिशील बुद्धिजीवी मजहबी उन्माद का विरोध करते, तो आज कट्टरवादी सरेआम लोगों की हत्या नहीं करते। अच्छा है कि वहां की सरकारों ने मुझे देश में घुसने की इजाजत नहीं दी, वर्ना मेरा हश्र भी अभिजीत जैसा होता।


(अमर उजाला से साभार)

(चित्र गूगल की मदद से विभिन्न साइट्स से साभार लिए गए हैं)