Monday, August 24, 2015

कोबाड गांधी

सिर्फ कुछ आजाद हैं


यह कैसी विडंबना है कि मुझको स्वतंत्रता पर तब लिखने को कहा गया है, जब मुझे पिछले छह सालों से रेंग रहें, कभी खत्म होने वाले क्रिमनल जस्टिस सिस्टम के साथ, जेल के भीतर जेल (तिहाड़ का हाई रिस्क वार्ड) में कैद करके रखा हुआ है। यहां पर कोई आजादी नहीं है, यहां तक की मुख्य जेल या बीमार होने पर अस्पताल जाने की भी।
हर हालत में, स्वतंत्रता तुलनात्मक अवधारणा है-जो आरजकता की एक चरम सीमा से लेकर लोकतांत्रिक केंद्रवाद की दूसरी चरम सीमा तक जाती है। लेकिन प्रचलित प्रणालियों में भी, कुछ दूसरों से ज्यादा आजाद हैं। भारत में, हमारे सितारे-फिल्म, क्रिकेट, बिजनेस, राजनीति-हर प्रकार की स्वतंत्रता का आनंद ले सकते हैं और वह हत्या करके भी बरी हो सकते हैं। लेकिन भूखे किसानों को दो वक्त का खाना हासिल करने या बीमार बच्चों के लिए इलाज की आजादी नहीं है। मेरे लिए, जेल में बंद रखना मेरे लिए स्वतंत्रता का claustrophobic (छोटे और निकल पाने वाले कमरे या स्थान का डर) हनन है, लेकिन यह अभ्यस्त क्रूर अपराधी के लिए नहीं है। उसको जेल के जीवन की आदत हो गई होती है और वह वहीं से अपनी आपराधिक गतिविधियों को अंजाम देते हैं। उसके लिए, जेल में स्वतंत्रता के हनन जैसा कोई अहसास नहीं होता है और कुछ जो रिहा होने के बाद जानबूझ कर वापस जाते हैं।
आजादी बहुत विकृत शब्द है-पश्चिम में मीडिया के चालाक विचार को आजादी कहा गया जबकि चीन जैसे देशोंमें नियंत्रित मीडिया के लिए कहा जाता है कि इसमें उस प्रतिबिंब का आभाव है। यूएस और भारत को सबसे ज्यादा आजादी वाले, दो सबसे बडे़ लोकतां​ित्रक देश कहा जाता है। लेकिन यूस में किसी काले व्यक्ति से पूछा जाए कि वह कैसा महसूस करता है या भारत में किसी अनुसूचित जाति के व्यक्ति से। दलित अकसर यह महसूस करते हैं कि उनके ब्राह्मणवादी शासकों से ब्रिटिश बेहतर थे क्यांेकि उस समय जाति उत्पीड़न प्रत्यक्ष नहीं था लेकिन उच्च जाति अशिष्ट, अमानवीय और अपमानजनक थी।
यह विकृति, हालांकि अगर इतनी ज्यादा अशोधित नहीं है, जीवन के अधिकतम क्षेत्रों में देखी जा सकती है। पुलिस और हमें ले लीजिए। कोर्ट में जाते समय, उनको मुझे वैन के भीतर तीन गुणा तीन के पिंजरे में, जिसमें गर्मियों में कोई मुश्किल से सांस ले पाता हो, में लाॅक करते हुए कोई दिक्कत नजर नहीं आती है। इसमें उम्र और स्वास्थ्य का कोई महत्व नहीं दिया जाता है। उसके बाद, कोर्ट लाॅक अप में पहुंचने के बाद, अपमानजनक जांच से गुजरना पड़ता है जिसमें एक पैन (एक बार तो ऐनक तक) संदेहास्पद होती है। इधर ज्यादातर इंस्पेटर हमें अपने रिश्तेदारों यहां तक कि वकीलों तक से मिलने की अनुमति नहीं देते हैं।बेशक जेलों में डाॅन कहते हैं कि उनको ऐसी कोई दिक्कत नहीं है। वैन में कोई भी अकसर पुलिसकर्मियों को भारत में आजादी और लोकतंत्र पर वाकपटुता से गपशप करते सुन सकता है। रूलबुक और अनगनित जजमेंट यह कहती हैं कि अपराधी केवल अंडर ट्रायल मानें के साथ सम्मान से पे आना चाहिए-लेकिन यह केवल किताबों के लिए होता है। कैदी के आत्मसम्मान को कुचलना क्रिमलन जस्टिस सिस्टम का एक हिस्सा है- बे अगर आप टाइकून, फिल्म स्टार या डान हैं तो फिर नहीं।


अगर कोई न्यापालिका का का सहारा लेते हैं, भले ही वह अन्य क्षेत्रों से ज्यादा साफ है, वहां पर कोई भी कुछ प्रश्न उठाने वाली जजमेंट को देख सकता है, यहां तक की सुप्रीम कोर्ट के स्तर तक भी। मेरा केस ले लेंः झूठे कबूलनामे के आधार पर-जिस पर मेरे हस्ताक्षर तक नहीं हैं, जिसको तेलंगाना में पुलिस हिरासत में कथित तौर पर बनाया गया है, उस भाषा को जिसमें तो मैं पढ़ सकता हूं और ही समझ सकता हूं तेलगू, जिसको मैं कोर्ट में अस्वीकार भी कर चुका हूं। दस से बारह केस मेरे उपर लगा दिए गए हैं। इसमें कोई  नहीं कि अभी तक दो चार्जशीटों में, हालांकि हाई कोर्ट ने जमानत दे दी है, अन्य केस अभी बाकी है। यह इसलिए क्योंकि दिल्ली के लेफ्टिनेंट गर्वनर ने एक आर्डर के माध्यम से दिल्ली केस पूरा होने तक दिल्ली के बाहर के केसों में हाजिर होने से मना कर दिया है। तो एलजी, असल में आंध्र प्रदेश/तेलंगाना कोर्ट के अधिकार क्षेत्र पर दावा जता रहें हैं!
इस सब का सार यह है कि स्वतंत्रता तुलनात्मक अवधारणा है और यह सनसनीखेज भी है। वास्तव में, अगर आजादी का संबंध मानवता और न्याय के साथ नहीं जुड़ा हो तो इसके कोई अर्थ नहीं रह जाते हैं। अमूर्त आजादी सिवाए पाश्चात्य शब्दकोश के कहीं पर अस्तित्व में नहीं है। वास्तव में यहां तक कि इस फ्री वल्‍​र्ड में, अधिकां लोग जो अपने आप को आजाद मानते हैं और वास्त्व में मनोग्रंथियों, आत्मसंदेह, असुरक्षा आदि से घिरे हुए हैं, एक आजाद दे बनाते हैं। और मैं इसलिए हिरासत में हूं क्योंकि मैंने उसके बदले अपने घेराव के प्रति अपनी प्रतिक्रिया दी, जैसा की खुलेपन के अभाव ने हमारे ईदगिर्द कत्रिम वातावरण तैयार किया हुआ है। और जैसा ही यह वातावरण कभी भी आजादी से संबंधित नहीं हो सकता-इसका परिणाम हर प्रकार से अपने को दूसरे से बेहतर साबित करने​ितकड़मबाजी, योजनादिखावा आदि के रूप में होता है। एक ऐसा वातावरण जिसमें एक व्यक्ति भागना तो चाहता है, लेकिन वह भाग नहीं सकता हे क्योंकि वह इसमें फांसा गया होता है।
जरूरत है कि आजादी पर कम और मानवता और न्याय पर ज्यादा बात की जाए। अगर मानवता और न्याय होगा, तो आजादी जरूर उसका उपफल होगा। न्याय और मानवता का हिस्सा जितना ज्यादा होगा, आजादी उतनी ही ज्यादा होगी।
अगर कोई वास्तव में आजादी लोगों की असली स्वभाव देखना हो तो उसके लिए छोटे बच्चे को देखा जाए। उनमें एक सहजता और सभी प्रकार की अभिव्यक्तियां जैसे खुशी, गम, तकलीफ, उदासी आदि सीधे उनके चेहरे से प्रतिबिंबित होती है। अगर इस प्रकार की वास्तविकता बड़ों में जाए तो मौजूदा सामाजि रिश्तों के व्यर्थ वातावरण में ताजा हवा फूट पड़े। अपने नजदकियों में मैंने अपनी स्वर्गवासी पत्नी अनुराधा, जो की एक पोस्ट ग्रेजुएट प्रोफेसर थी, में ऐसा स्वतंत्र (वयस्क) उत्साह देखा है, जिसमें जो कुछ भी करती थी उसके लिए अनुराग और न्याय की असाधारण समझ थी। जैसा की फिलिक्स ग्रीनी ने कहा है 'मानव बनने के लिए आजाद हो जाओ'। 

(लेखक इस समय तिहाड़ जेल में हैं जिन पर अनलाॅफुल एक्टिविटीज ​िप्रवेंशन एक्ट के तहत दिल्ली में मकुदमा चल रहा है)

साभार : इंडियन एक्सप्रेस, अनुवाद : कुमार कृष्ण शर्मा
(चित्र गूगल की मदद से विभिन्न साइट्स से साभार लिए गए हैं)