Wednesday, June 15, 2016

महाराज कृष्ण संतोषी



जन्म : कश्मीर, 1954
शिक्षा: एमए अंग्रेजी साहित्य
विधिवत काव्यलेखन सन 1975 के आसपास शुरू किया। पहला काव्य संग्रह 'इस बार शायद' 1980 में प्रकाशित। पहल, साक्षात्कार, समकालीन भारतीय साहित्य, वागर्थ, हंस, आलोचना, कथादेश, विपाशा, जनसत्ता सहित देश की लगभग सभी महत्वपूर्ण पत्र प​ित्रकाओं में कविताएं और कहानियां प्रकाशित।
कुछ रचनाओं के अनुवाद अंग्रेजी, पंजाबी, डोगरी, बंगाली और कश्मीरी में।

प्रमुख कश्मीरी कवियों की प्र​ितनिधि कविताओं के हिंदी में अनुवाद।

प्रकाशित कृ​ितयां 

काव्य: 1. इस बार शायद (1980) 2. बर्फ पर नंगे पांव (1993, पुरस्कृत) 3. यह समय कविता का नहीं (1996) 4. वितस्ता का तीसरा किनारा (2005, पुरस्कृत)
कहानी संग्रह: हमारे ईश्वर को तैरना नहीं आता (2009)

सम्प्र​ित: स्वतंत्र लेखन

हार्दिक आभार और  अनंत शुभकामनाओं सहित प्रस्तुत हैं अग्रज संतोषी जी की कुछ कविताएँ।




व्यथा

अभी भी जिंदा है मेरे भीतर
गुरिल्ला छापामार
बेहतर दुनिया के लिए लड़ने को तैयार

पर एक कायर से
उसकी दोस्ती है
जो उसे यही समझाता रहता है
दूसरों के लिए लड़ोगे
तो मारे जाओगे

सच कहता हूं
यही है मेरे जीवन की व्यथा
सपना देखा उस गुरिल्ला ने
जीवन जिया इस कायर ने




बेरहम

पहाड़ ने मान रक्खा
मेरे हौंसले का
घाटी ही बेरहम निकली
पेड़ से गिरा दिया
मेरा घौंसला





एक अच्छा दिन

बहुत अच्छा दिन बीता आज

न पढ़ा अखबार
न देखा टेलिविजन ही

सुबह सुबह ओस की बूंदों में
मैंने देखा लिया अपना प्र​ितबिंब
फिर अच्छा लगा यह सोचना
कि ओस ही है हमारे जीवन की आत्मकथा

बहुत अच्छा दिन बीता आज

न मंत्र
न ईश्वर
न मित्र याद आए

आज अकेला ही
हरी हरी घास पर
लंगे पांच चलते हुए
मैंने पृथ्वी का प्यार नाप लिया
और पेड़ों से लिया मौन

बहुत अच्दा दिन बीता आज

ने किसी ने नाम पूछा
न जात
ना गांव

आज ऐसा लगा
दुनिया का सबसे बड़ा अमीर
वहीं हो सकता है
जो सारी पृथ्वी से कर पाए प्यार
और यह बात
मुझे किसी किताब से नहीं
हरी घास की एक पत्ती ने समझाई


काठ की तलवारें

हम काठ की तलवारें हैं
हमें डर लगता है
माचिस की छोटी-सी तीली से भी

हम मंच पर कलाकार का साथ
तो दे सकते हैं
पर सड़क पर किसी निहत्थे की रक्षा नहीं कर सकतीं

हम काठ की तलवारें हैं
हमारा अस्तित्व छद्म है
हमारी निय​ित में कोई युद्ध नहीं
कोई जोखिम नहीं
किसी का प्यार नहीं
हम रहेंगे हमेशा
मौलिकता से वंचित

हम काठ की तलवारें हैं
हमें आग से ही नहीं
छोटे से चाकू से भी डर लगता है।



आतंक और एक प्रेम कविता

अभी जैसे कल की बात हो
जब मुझे उसने चूमा था इस पार्क में

उसके चुंबन का सुख
भीतर ही भीतर छिपाते हुए
मैंने उससे कहा था
और मत करना साहस

अभी जैसे कल की बात हो
जब मौसम था बसंत
और पेड़ फूलों से भरे हुए
इन्हीं फूलों की महक में
हम बातें करते रहे
भूलते हुए समय को
और लौटते हुए घर
जब उसने मुझे भर लिया बाहों में
मैंने उसे चेताया
कहा
यहां हवा जासूस हे
कुछ भी छिपा नहीं रहता

अभी जैसे कल की बआत हो
जब उस ने
पुल और नदी को गवाह बनाकर
मुझे अपने प्यार का विश्वास दिलाया था
उस समय बहुत डर गई थी मैं
कहीं कोई दुश्मन चेहरा
हमें देख तो नहीं रहा था

पर अब जैसे थम गया हो समय
मारा गया मेरा प्यार
बीच सड़क पर
अपनी असीम संभावनाओं के साथ
क्या इसलिए वह मारा तो नहीं गया
कि वह प्यार के सिवा
कुछ जानता ही न था

ऐ मेरे वतन की हवाओं
सचमुच यहां खतरनाक है
प्यार करना
फिर भी कहना
मेरे हमउम्रों से
जोखिम उठाकर भी प्यार करना
जैसे हमने किया
समय के खिलाफ
समय को भूलते हुए।


संपर्क-
फोन: 0-94-190-20190
ई-मेल:  mksantoshi7@gmail.com 

(चित्र गूगल की मदद से विभिन्न साइट्स से साभार लिए गए हैं)