भानु कहते हैं :
"... अब,
***
समय, समझ और संस्कृति के जीवंत सरोकारों की देहरी
|| घर ||
- एक -
कभी कहीं से
लौटता हूं तो लगता है
माँ अपनी बाहों में भर रही है।
- दो -
|| समय ||
|| अकारण ||
|| कैसे बच पाएगा संसार ||
|| काठ की कुर्सी ||
|| अपराध और दंड ||
|| सर्वहारा हंसी ||
|| कबीरा ||
|| दूसरों के कहने पर ||
|| जूते के बिना यात्रा ||
|| तारीफ आपकी ||
'चतुर कवि तो कविता में गाल बजाएगा
नदी का मर्सिया तो पानी ही गाएगा'
केशव तिवारी हिंदी - कविता के सशक्त हस्ताक्षर हैं। 04 नवम्बर, 1963 में प्रतापगढ, अबध में जन्मे , उनके चार कविता - संग्रह, "इस मिट्टी से बना", "आसान नहीं विदा कहना", " तो काहे का मैं ", "नदी का मर्सिया तो पानी ही गाएगा ", प्रकाशित हुए हैं । अन्य भारतीय भाषाओं में कविताएं अनूदित होकर प्रकाशित हुई हैं / हो रही हैं ।
उनके इस संग्रह ( नदी का मर्सिया तो पानी ही गाएगा ) की कविताएं परिपक्व तो हैं ही, ये जीवन में व्याप्त तमाम तरह की उठा - पटक, सालों - साल के सहन - दर -सहन के बावजूद, लेखन की ताकत को साधिकार पाठक के हक में खींच लाती हैं। इस संग्रह की भाषा, प्रत्येक कोण से इसे मौलिक बनाती है। यह एकालाप का नहीं, संवाद का संग्रह है। इसमें कवि मात्र बखान नहीं, स्थिति - विशेष को पाठक तक ले जाने के उपक्रम रचता है। उनकी शैली का जादू यह भी है कि इसे मात्र आभास नहीं समझ सकते। पाठक यहां , सोच व विचार को अपनी तरह से देखता - परखता है । यहां एक देशज भाषा का आलोक व्याप्त है ।
" पाठा में चैत "
गली- गली अटी पड़ी है
महुआ की महक
उतर रही है
पहली धार की
घोपे के पीछे------
***
' ... दुःखों की गांठ
और कसती जा रही है
फागुन के उद्धत होते
लाल गमछे से
चैत पोंछ रहा है
अपने पसीने में डूबा धूसर माथ ...'
***
' चूल्हे पर चढ़ी खाली बटुई - सा
धिक रहा मन
रात से ...'
***
' रात खेतों पर मचानों पर सोती है
दिन कहीं मेड़ -डाँड़ खटता है ...'
इस संग्रह की रेखांकित करने वाली खूबी यह भी है कि यहां उन विषयों को छुआ गया है , जो अभी तक अछूते रहे । जैसे कि यहां महानद चंबल साक्षात विद्यमान है ।
' ... चंबल की घाटियों में
तुम्हारा विचरना
तुम्हारी बाँकी चाल
बुंदेलखंड की प्यास से तुम्हारा
क्या रिश्ता है
पुराणों का दर्शाण
हमारी धसान
हमारे रक्त
हमारी जिह्वा में घुला है
तुम्हारा नमक ...,'
' उर्मिल ' , ' जेमनार ' जैसी कई अन्य कविताएं भी इसी की गवाही देती मिलती हैं ।
हमारे वर्तमान की शिनाख़्त करता यह संग्रह कतरा - कतरा हमारी धमनियों में उतरता चला जाता है।
' ...एक शराबी पुलिया पर बैठा
शिकायत कर रहा था
उसे भी किसी ख़ास शाम का इंतज़ार था ...'
***
' इंतज़ार की रस्सी में लटका
एक मुल्क था
जिसे बस एक नट के इशारे का इंतज़ार था ।'
***
' ...जिसे जो दिख रहा है
वो औरों को दिखा नहीं पा रहा है ...'
इसी तथ्य को और गहराई से आंकने के लिए , ' डोर टू डोर सामान बेचती लड़कियां' में स्पष्ट: देखा जा सकता है :
' ये किसी महानगर से नहीं
किसी आसपास के कस्बे से आकर डोर टू डोर
बेच रही हैं सामान
जिस बाज़ार ने इन्हें वस्तु बनाया
उसी ने दी है यह आज़ादी...'
अब देखें की निचली कविता हमारे समाज की कैसी तर्जुमानी कर रही है :
' चीज़ें दूर ही नहीं थी
वे दूर और दूर होती जा रही हैं
उन्हें पाने की इच्छाएं प्रबल और प्रबल
जो ज्ञान उन्होंने जीवन से अरजा था
वह बड़ी चतुराई से लगभग पुराना
और व्यर्थ साबित किया जा चुका था
जीना किसी को था
उम्र कोई और तय कर रहा था ...'
इस संग्रह की कुछ और बेहद ज़रूरी कविताएं हैं , 'ये आवाज़ें' और 'एक कवि के पास' ।
अब कवि 'छूटने' को ही किन - किन अर्थों में रचता है, यहां उनके कहन के कमाल को प्रत्यक्ष: देखा जा सकता है।यहां ऐसा संश्लेषण, ऐसा गुंफन है, जो पाठक को अपने साथ बहा ले जाता है ।
'अनुवाद में जैसे कभी - कभी
शब्दों के मोह में
कुछ अर्थ छूट जाते हैं
कटे गेहूं के खेत में सीला बीनते
कुछ बालें कुछ दाने छूट जाते हैं ...'
इस संग्रह की कविताएं फोटोजेनिक बिंब भी रचती हैं, इसी के साथ यहां एक भौगोलिक संकल्पना मूर्त होती है ।
"आवाज़ "
' रनगढ़ पर उतर रही है शाम
नीचे प्राचीर पर पीठ टिकाए
बैठे हैं हम ...'
यह संग्रह कविता के विद्यार्थियों के पुस्तकालय में बेहद ज़रूरी है।
केशव तिवारी जी को हार्दिक बधाई ।
प्रकाशक :
हिन्द युग्म ,सी - 31 ,सेक्टर 20 ,नोएडा ( उ. प्र .)
पिन - 201301
फोन : 91-120- 4374046
— मनोज शर्मा
दशमेश सिंह गिल “फ़िरोज़”
पैदाइश : फ़िरोज़पुर, पंजाब
रिहाइश: वैंकूवर, कनाडा
■ ग़ज़ल
रात से लगता है दिन में डर मुझे
दिन से डर लगता है फिर शब भर मुझे
छोड़ कर तुझ को चला जाऊँ कहीं
ऐ ज़माने तंग इतना कर मुझे
पूछता है क्यूँ हुई अपनी शिकस्त
घेर कर अक्सर मिरा लश्कर मुझे
कांपता साया मैं देखूँ और वो
देखता है कांपते थर थर मुझे
ज़िंदगी करती है मेरी मिन्नतें
इक दफ़ा फिर से मुहब्बत कर मुझे
बदगुमाँ होने के दिन फिर आ गए
फूल फिर लगने लगे पत्थर मुझे
रूह की बरसों पुरानी ज़िद वही
बस निकालो जिस्म से बाहर मुझे
जब तलक सय्याद छोड़ेगा फ़िरोज़
छोड़ देंगे तब तलक तो पर मुझे
■ ग़ज़ल
आँख मिला कर बात नहीं करता मुझसे
सूरज दिन भर बात नहीं करता मुझ से
बात नहीं करता मुझ से वो चारागर
ज़ख़्मे दिल पर बात नहीं करता मुझ से
तारे तो फिर दूर नगर के वासी हैं
चाँद भी अक्सर बात नहीं करता मुझ से
अब भी है सीने में मेरे बरसों से
लेकिन ख़ंजर बात नहीं करता मुझ से
वादी चुप है, बादल चुप हैं दरिया चुप
सारा मंज़र बात नहीं करता मुझ से
जितने भी फैंके थे तुम ने उन में से
इक भी पत्थर बात नहीं करता मुझ से
सारे कमरों पर दस्तक दे आया हूँ
सारा ही घर बात नहीं करता मुझ से
बात न करती है बेदारी अब कोई
और दर्दे सर बात नहीं करता मुझ से
ऐ मेरी तन्हाई, घर में कोई भी
तुझ से बेहतर बात नहीं करता मुझ से
■ ग़ज़ल
कोई यख़पोश मौसम गर चमन को घेर ले तो?
गुलाबे सुर्ख़ की रंगत अगर पीली पड़े तो?
लहू दिल के किसी ग़ोशे से फिर रिसने लगे तो?
हमारे ज़ख़्म तन्हाई में उस ने छू लिए तो?
जिसे अपनी हिफ़ाज़त के लिए ऊँचा बनाया
मिरे घर की वही दीवार मुझ पर आ गिरे तो?
दिखाई क्यूँ नहीं देती मुझे उलझन कहाँ है
अगरचे मिल गए दोनों ही रस्सी के सिरे तो
हमारी आपसी दिलचस्पियाँ कम हो न जाएँ
मिटा बैठे बदन से हम बदन के फ़ासले तो
फ़लक़ ख़ाली न कर देते मुहब्बत करने वाले
अगर उन से हक़ीक़त में सितारे टूटते तो
तही दस्ती का ये आलम है वो भी दे न पाऊँ
अगर मुझ से कुई इक दिन मुझी को माँग ले तो
शहीदाने वफ़ा का हम को ओहदा कौन देता
नफ़ा नुक़सान उल्फ़त में अगर हम सोचते तो
तिरी यादें भी इक दिन साथ मेरा छोड़ देंगी
कि आँखें फेर लीं मुझ से तिरी तस्वीर ने तो
मिरी तन्हाई ही सब से बड़ी दौलत है मिरी
तिरी सोहबत अगर मुझ से ये दौलत छीन ले तो?
■ ग़ज़ल
नाख़ुदा में और ख़ुदा में बहस होनी चाहिए
अब दवा में और दुआ में बहस होनी चाहिए
बहस होनी चाहिए बेदर्द की बेरहम से
उम्र और दशते बला में बहस होनी चाहिए
कौन सा बेहतर तरीक़ा बात मनवाने का है
ज़िद में और नाज़ो अदा में बहस होनी चाहिए
क्यूँ भटकते फिर रहे हैं देर से सहराओं में
कारवाँ और रहनुमा में बहस होनी चाहिए
मैं रहूँ पस्ती की जानिब तुम बुलंदी की तरफ़
और फिर अर्ज़ो समा में बहस होनी चाहिए
हिज्र से मय की बहस इक शाम करवाएँगे हम
ग़म में और ग़म की दवा में बहस होनी चाहिए
कौन मेरे ख़ूने दिल से सुर्ख़ ज़्यादा है फ़िरोज़
लाला ओ गुल और हिना में बहस होनी चाहिए
■ ग़ज़ल
दिल में बैठा है मिरे दरिया की तुग़ियानी का डर
बाप डूबा था मिरा सो है मुझे पानी का डर
अहले दिल को कब रहा है आलमे फ़ानी का डर
डर किसी राजा का है न ही किसी रानी का डर
बेकफ़न भी कब्र में तदफ़ीन हो सकता हूँ मैं
लाश को होता कहाँ है अपनी उरियानी का डर
नफ़सियाती माहिरों से पूछ कर मुझ को बता
ग़ैर वाजिब तो नहीं चिड़ीओं में वीरानी का डर?
है सज़ा के ख़ौफ़ से ज़्यादा मुझे ख़ौफ़े ज़मीर
क़ैद के डर से ज़्यादा है पशेमानी का डर
चाहता कब है कुई साथी दिले ख़िलवत पसंद
है उसे महफ़िल पसंदों की मेहरबानी का डर
ख़ारिजे मतला न कर दे एक दिन उस को फ़िरोज़
मिसरा ए ऊला को है अब मिसरा ए सानी का डर
■ ग़ज़ल
नदी में जो गिरे लाज़िम नहीं पानी से मर जाए
मगर मुमकिन है वो इंसाँ परेशानी से मर जाए
लुटा कर बर्ग सारे, चाक दामानी से मर जाए
कहीं ये पेड़ सर्दी में न उरियानी से मर जाए
मज़ा आए तिरी सोहबत मिटा दे गर ग़मे दुनिया
मज़ा आ जाए गर ये बादशाह रानी से मर जाए
जले जंगल तो सारे पेड़ जल कर ख़ाक हो जाएँ
बचे जो पेड़ वो इक रोज़ वीरानी से मर जाए
ज़रूरत ही न हो उस को सज़ा ए मौत देने की
अगर हस्सास हो क़ातिल पशेमानी से मर जाए
चराग़ ऐसा फ़ना हो जाए जो ख़ुद आग में अपनी
नदी ऐसी जो ख़ुद इक रोज़ तुग़ियानी से मर जाए
■ ग़ज़ल
विसाल के लिए ये एहतिमाम रक्खा है
सजा के झील में माहे तमाम रक्खा है
किताब लिक्खी है मैंने ग़मे ज़माना पर
और उस का नाम ग़मे नातमाम रक्खा है
मैं सुब्ह शाम उसी की देखभाल करता हूँ
तुम्हारे ज़ख्म ने मुझ को ग़ुलाम रक्खा है
गली में आप की रक्खे हैं पाँव इज़्ज़त से
वहाँ प सर भी बसद एहतराम रक्खा है
रहे उम्मीद तो रक्खी है दूर दूर उस ने
पर उस ने दश्ते बला गाम गाम रक्खा है
बनाई है तिरी तस्वीर इक मुसव्विर ने
और उस का नाम गुले सुर्ख़ फ़ाम रक्खा है
नशा ए क़रब ने रक्खा ग़ज़ाल पा मुझ को
सूरूरे ग़म ने मुझे ख़ुश ख़िराम रखा है
चलो भला हुआ उस ने फ़िरोज़ और मैंने
तमाम हो चुका क़िस्सा तमाम रक्खा है
■ ग़ज़ल
कुछ परिंदे जब सरे शाख़े शजर लौटे नहीं
तो शजर पर फिर कभी बर्गो समर लौटे नहीं
जो गिरे इक बार ख़ाके कूचा ओ बाज़ार में
दामने मिज़गाँ में वो लालो गुहर लौटे नहीं
जो कफ़स को तोड़ने में छिल गए थे इक दफ़ा
जिस्म पर बुलबुल के फिर वो बालो पर लौटे नहीं
मशक भरने तुम भी मत जाना सराबों की तरफ़
तुम से पहले जो गए वो हमसफ़र, लौटे नहीं
वो न लौटे, ले गए जो छीन कर सब्रो करार
दे गए हम को जो आबे चश्मे तर लौटे नहीं
कह गए थे आएँगे वापिस मगर आए न वो
कह गए थे लौट आएँगे मगर लौटे नहीं
इस तरह बस एक आहट पर ही जम जाते हैं कान
जिस तरह दर की तरफ़ जा कर नज़र लौटे नहीं
क्या तलिसमे चश्मे साक़ी ने तुम्हें भी रख लिया?
ले के तुम भी मरहमे जख़मे जिगर लौटे नहीं
जो सिपाही दफ़्न होने गाँव लौटे जंग से
जिस्म तो लौटे हैं लेकिन उनके सर लौटे नहीं
एक दिन हो जाए रुख़सत वक़्त पर शब तो फ़िरोज़
क्या बने गर वक़्त पर उस दिन सहर लौटे नहीं
संपर्क:
dashmeshgill@hotmail.com
प्रकाशित पुस्तकें
■ क्या तुम्हें याद कुछ नहीं आता (ग़ज़ल संग्रह- 2021)
■ परफ़्यूम (नज़्म संग्रह-2022)
■ दस्तक (साझा ग़ज़ल संग्रह-2014)
■ गुलदस्ता-ए-ग़ज़ल (साझा ग़ज़ल संग्रह- 2023)
■चाँद बैठा हुआ है पहलू में (ग़ज़ल संग्रह-2024)
■ कविताकोश नवलेखन पुरस्कार(2011)
■ ग़ज़ल
माना मुझको दार पे लाया जा सकता है
लेकिन मुर्दा शहर जगाया जा सकता है
लिखा है तारीख के सफ़्हे - सफ़्हे पर ये
शाहों को भी दास बनाया जा सकता है
चांद जो रूठा रातें काली हो सकती हैं
सूरज रूठ गया तो साया जा सकता है
शायद अगली इक कोशिश तकदीर बदल दे
जहर तो जब जी चाहें खाया जा सकता है
कब तक धोखा दे सकते हैं आईने को
कब तक चेहरे को चमकाया जा सकता है
पाप सभी कुटिया के भीतर हो सकते हैं
हुज़रे के अंदर सब खाया जा सकता है
■ ग़ज़ल
दरो दीवार रोशन है दरीचा मुस्कुराता है
अगर मौजूद हो मां घर में क्या-क्या मुस्कुराता है
किया नाराज मां को और बच्चा हंस के यह बोला
कि यह मां है मियां इसका तो गुस्सा मुस्कुराता है
हमारी मां ने सर पर हाथ रखकर हमसे यह पूछा
कि किस गुड़िया की चाहत में यह गुड्डा मुस्कुराता है
सभी रिश्ते यहां बर्बाद है मतलब परस्ती से
अजल से फिर भी मां बेटे का रिश्ता मुस्कुराता है
फरिश्तों ने कहा 'आम आमाल का संदूक क्या खोलें'
दुआ लाया है मां की इसका बक्सा मुस्कुराता है
लगाया था किसी ने आंख से काजल छुटा कर जो
मेरे बचपन के अल्बम में वो टीका मुस्कुराता है
दिया था हामिद ने कभी लाकर जो मेले से
अमीना की रसोई में वह चिमटा मुस्कुराता है
किताबों से निकलकर तितलियां गजलें सुनाती हैं
टिफिन रखती है मेरी मां तो बसता मुस्कुराता है
वो उजला हो की मैला हो या महंगा हो कि सस्ता हो
यह मां का सर है इस पर हर दुपट्टा मुस्कुराता है
■ ग़ज़ल
इश्क़ मेरी ज़ुबान से निकला
और मैं ख़ानदान से निकला
सब मुहाफ़िज़ जहां पे बैठे थे
भेड़िया उस मचान से निकला
मैंने ठोकर ज़मीं पे मारी तो
रास्ता आसमान से निकला
क़त्ल जब कर गए उसे क़ातिल
हर कोई तब मकान से निकला
लोग तकते रहे समंदर को
और भँवर बादबान से निकला
रूप इक अनछुआ सा ग़ज़लों का
आज मेरे बयान से निकला
■ ग़ज़ल
चाँद पर माना महल सपनों के वो बनवाएगा
जंगली-पन आदमी पर साथ लेकर जाएगा
तोड़ देगा जब तरक़्क़ी की कभी सारी हदें
आदमी तब अपनी हर ईजाद से घबराएगा
दश्त में तब्दील हो जाएँगे ज़िन्दा शहर सब
बम तरक़्क़ी का ये इक दिन देखना फट जाएगा
मुँह के बल इक दिन गिरेगी देखना कुल काएनात
तेज़-रफ़्तारी में इन्साँ ऐसी ठोकर खाएगा
ग़र्क़ कर देगी हमें इक रोज़ तहज़ीब-ए-जदीद
आदमी ही आदमी को मारकर खा जाएगा
■ ग़ज़ल
मेरा इल्म, सुख और हुनर खा लिया
मुहब्बत ने तो मेरा घर खा लिया
नहीं खाएगी ज़हर वैसे तो वो
मगर दोस्त उसने अगर खा लिया?
समन्दर के तो होश ही उड़ गए
सफ़ीनों ने अब के भंवर खा लिया
क़ज़ा एक दो शख़्स खाती थी रोज़
सियासत ने पूरा नगर खा लिया
ये दुख खा गया है ज़मींदार को
कि बच्चों ने सब बेच कर खा लिया
नहीं...शाइरी का नहीं खाते हम
हमें शाइरी ने मगर खा लिया
बुरी ये ख़बर कोई ज़ालिम को दे
तेरे ज़ुल्म ने सबका डर खा लिया
नहीं...आप माहिर नहीं हैं हुज़ूर
ये धोका तो बस जानकर खा लिया
तुझे कुछ ख़बर है तेरे दुख ने दोस्त
मेरा ज़हन, दिल और जिगर खा लिया
बहुत सख़्त थी इस ग़ज़ल की ज़मीन
मेरा इस ग़ज़ल ने तो सर खा लिया
ये सुनने को हम तो तरस ही गए
'सिराज' आपने क्या डिनर खा लिया
■ ग़ज़ल
मसाइल का कोई हल भी नहीं है
कोई देने को संबल भी नहीं है
कहीं क़ालीन राहों में बिछे हैं
कहीं पैरों में चप्पल भी नहीं है
अभी कैसे बता दें बात दिल की
अभी मिलना मुसलसल भी नहीं है
जियोगे शहरे अय्यारी में कैसे
कि तुम में तो कपट-छल भी नहीं है
कहीं गर्दन झुकी है ज़ेवरों से
कहीं किस्मत में काजल भी नहीं है
कभी जी भर के उसको देख ही लूँ
मेरी किस्मत में वो पल भी नहीं है
उसे सोने के गहने चाहिए थे
हमारे पास पीतल भी नहीं है
तसव्वुर है फ़क़त बाहों में बाहें
अभी हाथों में आंचल भी नहीं है
जहाँ लटकी है शीतल जल की तख़्ती
वहाँ पर अस्ल में जल भी नहीं है
■ ग़ज़ल
ख़ुशी के कितने हैं सामान ख़ुश नहीं हूँ मैं
तेरे बग़ैर मेरी जान... ख़ुश नहीं हूँ मैं
है ज़हन-ओ-दिल में घमासान ख़ुश नहीं हूँ मैं
फ़रेब है मेरी मुस्कान ख़ुश नहीं हूँ मैं
ख़फ़ा न हो कि फ़रामोश कर दिया है तुझे
कहाँ है अपना भी अब ध्यान ख़ुश नहीं हूँ मैं
हूँ डूबती हुई कश्ती किनारा कर मुझसे
क़सम ख़ुदा की मेरी मान ख़ुश नहीं हूँ मैं
अदब, सिनेमा, समंदर, शराब, लड़की, फूल
ख़ुशी के कितने हैं इम्कान... ख़ुश नहीं हूँ मैं
चमकते शहर, हसीं बीच, मय-कदे, बाज़ार
मेरे लिए हैं बयाबान ख़ुश नहीं हूँ मैं
कई अज़ीज़ गंवा-कर ये ताज पाया है
सो फ़त्ह कर के भी मैदान ख़ुश नहीं हूँ मैं
■ ग़ज़ल
वो बड़े बनते हैं अपने नाम से
हम बड़े बनते है अपने काम से
वो कभी आग़ाज़ कर सकते नहीं
ख़ौफ़ लगता है जिन्हें अंजाम से
इक नज़र महफ़िल में देखा था जिसे
हम तो खोए है उसी में शाम से
दोस्ती, चाहत वफ़ा इस दौर में
काम रख ऐ दोस्त अपने काम से
जिन से कोई वास्ता तक है नहीं
क्यूँ वो जलते है हमारे नाम से
उस के दिल की आग ठंडी पड़ गई
मुझ को शोहरत मिल गई इल्ज़ाम से
महफ़िलों में ज़िक्र मत करना मेरा
आग लग जाती है मेरे नाम से
■ ग़ज़ल
तेरे एहसास में डूबा हुआ मैं
कभी सहरा कभी दरिया हुआ मैं
तेरी नज़रें टिकी थीं आसमाँ पर
तेरे दामन से था लिपटा हुआ मैं
खुली आँखों से भी सोया हूँ अक्सर
तुम्हारा रास्ता तकता हुआ मैं
ख़ुदा जाने के दलदल में ग़मों के
कहाँ तक जाऊँगा धँसता हुआ मैं
बहुत पुर-ख़ार थी राह-ए-मोहब्बत
चला आया मगर हँसता हुआ मैं
कई दिन बाद उस ने गुफ़्तुगू की
कई दिन बाद फिर अच्छा हुआ मैं
सिराज फ़ैसल ख़ान
शाहजहाँपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल: 7668666278