Tuesday, June 11, 2024

ग्रामीण-चेतना के कवि : भानु प्रकाश रघुवंशी


'न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन' ने ' समकाल की आवाज़' श्रृंखला के अंतर्गत, हमारे समय के एक ज़रूरी कवि, 'भानु प्रकाश  रघुवंशी' की चयनित कविताएँ प्रकाशित की हैं। आज इसी पर बात करूँगा। आलोच्य कवि का जन्म 01 जुलाई 1972 को गाँव 'पाटई' (जिला अशोकनगर) में हुआ। भानु सभी महत्त्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर छपे हैं। इसके अलावा अनेक साझा संकलनों में इनकी कविताएँ दर्ज़ हैं। विगत वर्ष इनका कविता-संग्रह, 'जीवन राग' आया, इस पर बात होनी चाहिए। भानु प्रकाश 'इप्टा' व 'प्रलेस' से जुड़े हैं। स्वयं भी अभिनय करते हैं। इस सब के आलोक में इनके संग्रह से गुजरना हुआ। इस गुजरने के उपरांत, एक तथ्य स्पष्ट रूप से उभरता है कि भानु प्रकाश की कविताएँ चाक्षुष हैं। यहाँ संवेदना की बारीकी व्याप्त है। वे धरतीपुत्र हैं। सामान्य जन के कवि हैं। यही उनका वर्ग-चरित्र-बोध है। यहाँ एक ग्रामीण साहस हुंकार भरता है तथा जीवन का ओज, अपने ठेठ व स्थानीयता में मिलता है।

'एक उड़ान में न पहुँची हो हज़ारों मील
पर चिड़िया चुनौती देती है वायुयान को
पहाड़ की दुर्लभ चोटियों पर
चीटियां पहुँच गई रेंगते हुए
आँधी में उठकर ही सही
कीट-पतंगों ने छू लिया आसमान
सदियों से चूहे बगैर उकताए
खोद रहे हैं पाताल पहुँचने के लिए सुरंग...' 
(चुप रहना शालीनता नहीं)

वे अपने आत्मकथ्य में लिखते हैं, "मेरे जेहन में यह बात कभी नहीं आई कि मुझे आत्मकथ्य भी लिखना चाहिए। जो धरती की पीठ पर हल की नोक से जीवनराग लिखता हो, जिसे अन्न के दानों की महक से सुख-दुःख का आभास होता हो उसका कैसा आत्मकथ्य... मुंशी प्रेमचंद जी ने आज़ादी के पूर्व के जिस ग्रामीण भारत की जागृति के लिए साहित्य-सृजन किया; वह ग्रामीण-भारत आज भी उसी दमघोंटू आवोहवा में सांस ले रहा है। ज़मींदारी चली गई, ज़मींदार मर गए पर उनके वंशज तो अब भी यहीं हैं। श्रमिक-वर्ग आज भी उपेक्षित है। आज भी एक विद्यार्थी अपने शिक्षक के मटके से पानी पीने की सज़ा पाता है। ... कोई कवि या रचनाकार अपनी लेखनी से दुनिया को नहीं बदल सकता पर इतना तो ज़रूर कर सकता है कि वह लोगों को नई सोच, नई दृष्टि प्रदान करे। लेखक कुछ हद तक विपक्ष की भूमिका निभाता है। ..."

"... तुम्हारे हृदय की घिनौची पर रखे
उदारता के घड़े रीत चुके हैं
तुम्हारी रसोई में
हमारे पसीने से ही गूंथा जा रहा है आटा
चुराई जा रही है दाल
और सिर्फ़ तुम जानते हो
यह राज की बात
कि गन्ने की तरह निचोड़ी गई
हमारी देह के नमक से
बढ़ती जा रही है तुम्हारे रक्त में
शूगर की मात्रा
जबकि दुनिया की तमाम सेठानियों को भी
रोटियां चबाते हुए नहीं आया
हमारे पसीने का स्वाद
नमकीन सा, खारा... खारा..."
(इस सत्य को कभी स्वीकारा नहीं गया)

भानु जी के पास 'प्रेम' के विविध शेड्स भी मिलते हैं। कहना न होगा कि जो कवि प्रेम करना जानता है, वही सामाजिक-मुक्ति का सपना देख सकता है। वरिष्ठ आलोचक अरविंद त्रिपाठी लिखते हैं, "एक ऐसे दौर में जब प्रेम करने का ठेका कसाई ने ले रखा है, तब कवि की ही आवाज़ शेष बची है...।" (कवियों की पृथ्वी)

भानु कहते हैं : 

"... अब,
मैं पीपल के पत्तों पर प्रेम-पत्र लिखकर
नदी में बहा देता हूँ हर रोज़
सुना है तुम समुद्र बन गई हो
अनन्त गहराइयों में छुपा लिया है
हमारा प्रेम"
(पुराने घर का प्रेम)


***

"एक दिन उसने
कुछ तारे टांक दिए
मेरी कमीज़ में
चाँद को उसने
बालों में सजा लिया
उस रात
आसमान छप्पर में उतर आया
जब अलगनी से उतार कर
धरतीं को बिछाया हमने।"
(उस दिन)

ग्रामीण-जन को हर रोज़ कैसी-कैसी मुश्किलों से जूझना पड़ता है, इसे नागर परिवेश के अभ्यस्त नहीं जान सकते। उनके कष्ट, उनकी चिंताएँ , उनकी आशाएँ, उनके सपने हमारे महादेश के उस सच से साक्षात्कार कराते हैं, जिसके लिए एक किताबी सा मुहावरा प्रचलित है कि भारत, गावों में बसता है। भानु प्रकाश ने उच्च-शिक्षा प्राप्त करने के बावजूद किसानी-जीवन का वरण किया। तभी साधिकार कहा जा सकता है कि वे सामाजिक विडंबना के कवि हैं। वे; समय के भदेस, क्रूरता, अमानवीयता के बरक्स असहमति बुनने का हौंसला उठाते हैं।

"धूप इतनी तेज़ की कपड़ों से
उतर रहे हैं रंग
मेरे गोरेपन पर चढ़ गई गेंहुआ परत
माँ कुएँ की तलहटी में झांककर
देख अपने तलवों की बिवाइयों का अक्स खाली घड़ा उठाए लौट आई है।..."

यही साधारणता उन्हें हिंदी-कविता में विरल स्थान देती है। इस संग्रह में वे कई बार अपनी विशिष्ट मनोभूमि को शब्दों में आकार देते हैं। एक नयी आस्था की ओर अग्रसर होते मिलते हैं। ग्रामीण मिट्टी की ख़ुशबू, उनमें सम्बन्धों की सुगंध का संचार करती है। इसीलिए उनके पास प्रकृति अपने तमाम ओज सहित आती है और वे जीवन को घूंट-घूंट भरते हैं। वे; प्रतीकों के ज़रिए, स्थितियाँ स्पष्ट करते, महासवाल की मशाल दहकाते हैं।

"अनवरत बहता झरना
जो सूख चुका है
किसान के आँसुओं की तरह
बारिश के इंतज़ार में
कुछेक गड्डों में भरा पानी
रहस्यमयी आईने की तरह रहा
बच्चों के लिए
आसमान इन्हीं में झांकता रहा
कनखियों से, सबसे गर्म दिनों में..."
(बारिश के ठीक पहले का दृश्य)

कवि का देसीपन महज़ सहानुभूति ही नहीं जगाता, अनुभूति के उस तीखेपन का अहसास भी कराता है, जो गाँव-गाँवका नँगा सच है। यहाँ यातनाओं की दर्जनों निर्मित शाखाएं हैं। संग्रह में कवि इन पीड़ाओं, संत्रास, सत्ता के दोगलेपन को बिना किसी स्लोगन या घोषणा के पाठक के बोध में सरकाता, उसे अपनी यात्रा में शामिल कर लेता है।

"बालियों में पक चुके अन्न के दानों की महक से
लहकने लगा है पूरा गाँव
कमर में हंसिया खोंस
होली के गीत गाते चैतुआ
टोलियों में जा रहे हैं, खेतों की ओर
आंगनबाड़ी बिल्डिंग के अहाते में
एक बच्चा भूख से बिलख रहा है
दूसरा आँसू पोंछ रहा है
फटी कमीज़ की बांह से

...
फ़सल कटाई के पहले दिन ही
चील गिद्धों की तरह तपने लगे हैं
राशन चोरों के कान
कई चँदा चोर और भंडारा आयोजकों की
बांछें खिल उठी हैं अन्न के दानों की महक से
बाहरी लोगों का आना-जाना काफी बढ़ा है
इन दिनों, गाँव में..."

भानु प्रकाश, ग्रामीण-संस्कारों में व्याप्त भाषा को साधिकार अपनी कविता में स्थान देते है। 'खीसा', 'ओंठ पपड़ा जाते', 'नदी बिला गयी है' जैसी अनेक उक्तियां/ शब्द यहाँ मिलते हैं। गर्मी के फैलते हाहाकार में, एक खेतीहर कवि सुचेत करता है: 

"कई ग़ैर-ज़रूरी रिवाज़ों को छोड़
किसी के जन्मोत्सव या मृत्यु-दिवस पर
पेड़ लगाने के रिवाज़ को
कायम रखने की वकालत
करते रहे मरते दम तक
पिता जानते थे पेड़ों की कीमत ... "
(पिता जानते थे)

इन कविताओं की रेखांकित करने वाली यह बात भी है कि कवि फोटोजेनिक, दृश्यबंध बनाता है। वे, हमें उन रंगों, रूपों-भावों तक पहुँचाते हैं, जो जैसे सामने-सामने घटित हो रहे हैं: 

"... सारी भिन्नताओं के बीच भी एक समानता देखी जाती है
कि जब धरती पर मारी जाती है एक भी चिड़िया
शोक में, विलाप में
वे सब एक साथ होती हैं
शिकारियों के ख़िलाफ़ विद्रोह में...। "
(अनेकता के भाव) 

***

"कविताएँ, दुःख के समय में
पुराने मित्र की तरह आती हैं
गले मिलते ही रो पड़ते हैं हम
वे सांत्वना देती हैं
सहारा देती हैं खड़े रहने का...।"
(कविताएँ)

यूँ तो, उनकी सभी कविताएँ पढ़े जाने की माँग करती हैं, मगर 'तुम परमा को नहीं जानते', 'बचे रहना एक कला है', 'पिता को याद करते हुए' के पाठ ने मुझे बार-बार आमंत्रित किया। 

समापन करते हुए, दोहराता हूँ कि यह कविता आम के ओज व सौंदर्य-बोध की कविता है। यहाँ कवि तमाम उपस्थिति की विसंगतियों के ख़िलाफ़ ग्रामीण-चेतना में शिल्प रचता हुआ, जूझने का जोखिम उठाता है। प्रासंगिक यह है कि कवि ख़ुद को किसी भी तरह से अकेला नहीं पाता। सामूहिकता की इस भावना को सलाम: 

"मेरी उदासी में शामिल होता है
एक, बादल का टुकड़ा
तालाब का किनारा
कुछ अनमने से दूर खड़े दरख़्त
और चाँद
जो मेरे एकांत के छज्जे पर
आ खड़ा होता है उठाए अँधेरे का भार "
(मैं जब भी होता हूँ उदास)
    


चयनित कविताएँ / भानु प्रकाश रघुवंशी
प्रकाशक : न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन, नयी दिल्ली
मूल्य : रू 200 /-
मो.9893886181

- मनोज शर्मा