Saturday, September 14, 2024

फिलहाल: सदी का बेजोड़ कवि–सुरजीत पातर



(सन 2022 में  पंजाबी यूनिवर्सिटी पटियाला में आयोजित एक कार्यक्रम में हिस्‍सा लेने पहुंचे सुरजीत पातर। )


'ये जो धमनियों में उलीके धुल जाएँगे
जो संगमरमर पे खुदे हैं मिट जाएँगे
जलते हाथों ने जो हवा में लिखे
शब्द वही हमेशा लिखे जाएँगे।'

पातर, नक्सली - लहर से उठे कवियों में से हैं। इसी लहर में पंजाबी - कवि; लाल सिंह दिल, संतराम उदासी, पाश, अमरजीत चंदन, दर्शन खटकड़ आते हैं, किंतु पातर का एक अपना स्वर भी है। 

पंजाबी - साहित्य पर; विशेषकर पंजाबी - कविता पर 1967 से लेकर 1972 - 73 तक के कालखंड ने मानवीय मूल्यों, दृष्टिकोण, एस्थेटिक - सेंस इत्यादि को गहराई से प्रभावित किया। यह कविता काफी वाद - विवाद का विषय भी रही। पश्चिमी  - विचारधारा से उपजे व्यक्तिवादी दर्शन के समर्थकों ने इस प्रखर - बोध का खुला विरोध किया। फिर भी यह कविता आम नागरिक के हक में स्थापित होती चली गयी। यह सृजन - प्रक्रिया का भी नया दौर सिद्ध हुआ। जहाँ कविता में समस्याएँ उठाकर बिलखा नहीं जाता; बल्कि एक नयी तरह की काव्य - भाषा संग उनसे टकराया जा सकता है। इस कविता ने सिद्ध किया कि कैसे नया सौन्दर्य - बोध रचा जा सकता है। इसने व्यक्तिवाद को पूरी तरह से नकार दिया व पूंजीवाद के प्रचलन को तार - तार कर दिया। पंजाब में 'हरित - क्रांति' ने जो धनाढ्य ज़मींदार - बड़े किसानों को और बलशाली बनाया था, वहाँ यह लहर, आर्थिक - सामाजिक - राजनैतिक स्तर पर एक ज़बरदस्त रूझान लेकर उठी। वर्ग - संघर्ष मुखर हुआ। इस दौर की  पंजाबी - कविता ने पुराने रोमांटिसिज्म को भंग करके, नयी मौलिक भूमिका की संरचना की।

सुरजीत पातर इस प्रवृत्ति की कविता के मुख्य स्वरों में से एक रहे हैं। वे शोषक और पीड़ित, तानाशाही व मानवता, लूट - खसूट व मूल्य - बोध को आमने - सामने रखकर एक निरपेक्ष पड़ताल करते कवि हैं। वे प्रकृति को औज़ार के रूप में उठाकर, अपनी कविता को जन - साधारण की सोच में उतारते गए।

'मैं बनाऊँगा हज़ारों बांसुरियां
मैंने सोचा था
देखा तो दूर तक बांस का जंगल जल रहा था
आदमी की प्यास कैसी थी कि सागर कांपते थे
आदमी की भूख कितनी थी कि जंगल डर गया था।'

कहना न होगा कि जैसे पंजाबी - कवि 'पाश' विश्व - कविता में अपना विशेष स्थान रखते हैं, वैसा ही स्थान ' पातर ' भी बनाते हैं। जहाँ उनकी शुरूआती कविताएँ पीड़ित जन - समाज को एक चित्रात्मक भाषा में बुनती हैं, वहीं कालांतर में उनकी कविता में व्यक्ति का अकेलापन, पंजाब से रोज़ी - रोटी की तलाश में विदेशों में भटकते युवक, उनका वापस लौटना व बेबसी, उदासी वगैरह मुखर होने लगते हैं। वे मूलतः गीत / प्रगीत के कवि हैं और इस कविता में वृक्ष, राह, कब्रें नया मेटाफर सृजित करते हैं। वे 'स्व' को भी अपनी तरह से परिभाषित करते, निजता को नवीनता प्रदान करते हैं।

'मेरा सूरज डूबा है तेरी शाम नहीं है
तेरे सर पे तो सेहरा है, इल्ज़ाम नहीं है।'

इस तथ्य को पुनः रेखांकित करना बनता है कि वे, गहन यथार्थ - बोध के कवि हैं। संघर्षशील संकल्प के दौर ने उन्हें जो चेतना दी, वहाँ जीवन की त्रासदी, उनकी कविता में ऐसा तनाव रचती है, जो जीवन को अर्थबोध तो प्रदान करता ही है, परिवर्तन की ओर भी अग्रसर करता है, ऐतिहासिक बनाता है।

वे, मानव - निर्मित बांट का खुलकर विरोध करते ही हैं, इसे एक सामाजिक - सांस्कृतिक संकट भी मानते हैं। वे इसके परिणाम दूर तक देखते हुए, आने वाली उथल - पुथल की ओर बाकायदा इंगित करते हैं।

'तब वारिश शाह को बांटा था
अब शिव कुमार की बारी है।'

जो नयी काव्य - भाषा हमें इस काल की कविता में मिलती है, वहाँ भी पातर, कुछ अलग हो स्थापित होते हैं। यह मानवता के साथ, प्रकृति के साथ, सच के साथ गहन जुड़ाव के कारण संभव होता है।

'मैं तो सड़कों पे बिछी वृक्ष की छाँव हूँ,
मैंने नहीं मिटना सौ बार निकल मसल कर।'

उनकी स्मृति को बार - बार नमन।

("उदभावना" से साभार)

|| साईं जी || 

धूनी साईं जी के आगे नहीं, अन्दर सुलगती है
साईं जी, कभी कभी
बेहद उदास आवाज़ में गाते हैं
तो अपनी ही आंतों का साज बजाते हैं
गाते-गाते साईं जी चुप हो जाते हैं
उस चुप्पी में एक साज बजता सुनाई देता है
वह साज दिखता तो नहीं
पर सुनें तो महसूस होता है
कब्र से लेकर अँधेरे आसमान तक
लम्बी, काली, स्याह तारें हैं
तारों में घूमते तारे आपस में टकराते हैं
चाँद गूँजता है
हज़ारों मर गए जीते मुँहों का आलाप जागता है
कभी कभी यूँ लगता है
वृक्ष जामुनी फूलों से भर गए हैं
माताएँ अपने शिशुओं को छाती से लगाए
मर्द कांधे से
रात काट रहे हैं
फिर लगता है
किसी का चाँद धरती पर पड़ा है
वैसे वहाँ पर किसी की दुःखी देह झुकी है
उदास कई छातियां उठी हैं
खिन्न दूध की बूंदों से
क्रंदन के आसुओं में लिप्त
लोरियों व विलाप से भरे पड़े हैं
और सड़ चुके हैं फल

साईं जी
सुबह हो गई
चलें, स्कूल जाकर शिक्षा के जिज्ञासुओं को पढ़ाना है
लगता है आज नहीं जाओगे
यही सोचते हो न, जाकर क्या पढ़ाओगे...
उगते उदास पौधों में पानी पाओगे
मुरझाते फूलों को कर्तावाचक व कर्मवाचक ढंग सिखाओगे
अँधेरे की पुस्तक के किसी पन्ने को खोल
उसमें
दिल की कालिख मिलाओगे
सच बताना, साईं जी यही सोचते हो न 
लगता है आज मुझसे भी न बोलोगे
वैसे बोलने को रहा भी क्या है
हमें तो प्रतीक्षा ही रही
कि आप सुलगते हो तो एक दिन
लपटों से जलोगे भी
मशाल उठाकर चलोगे
राह दिखाओगे
उदासी की कैद से रिहाई पाओगे
अन्य लाखों को मुक्त कराओगे

पर लगता है
आप बेड़ियों, हथकड़ियों संग ही चले जाओगे
पीछे रह जाएँगी
खून से लिखी पंक्तियाँ
आप स्याही से
माथे के उजाले लिखते हो
ख्यालों को कुछ तो सुलझाओगे
दुःख के गर्भ से बाहर आओगे

इस तरह साईं जी, बड़ी देर
अपने आपको कोसते रहे
फिर चल पड़े, स्कूल की ओर
वहाँ, जहाँ शिक्षार्थी ज्ञान के कोरे कागज़ से थे
भोली, जिज्ञासु आँखें थीं 
और साईं जी ने कहा
प्यारे बच्चो, लिखो
अपनी जान का खौफ
शिशुओं के चेहरे
अपने नाम का मोह
व, नाशवान इच्छाएं
फिर चारदीवारी, जो उम्र भर व्यक्ति को
कैद में रखती है

नहीं! यह काट दो
लिखो, हमारा निज़ाम ऐसा है
कि इसमें व्यक्ति को
अपनी हज़ारों ख्वाहिशों का
दमन करना पड़ता है
यह दमन की ही उदासी है
यही दहशत है, लिखो

नहीं, यह भी नहीं
यह लिखो
फिर, साईं जी बड़ी देर, कुछ न बोले
शायद वह अपने मन की बावड़ी की
सीढ़ियां उतरने लग पड़े थे
जहाँ, उदास माताओं के आँसुओं का पानी था
वह, साईं जी का तीर्थ था
उनकी दरगाह!
जब साईं जी उदास
दरगाह से लौटेंगे
तो उदास गीत गाएँगे
फिर गाते गाते चुप कर जाएँगे

उनकी चुप्पी में
वह साज बजता सुनाई पड़ेगा
जो दिखाई तो नहीं देता
पर सुनाई पड़ता है
उस साज की
कब्र से लेकर, अँधेरे आसमान तक
लम्बी काली स्याह तारें हैं
तारों में घूमते सितारे टकराते हैं
चाँद गूँजता है
हज़ारों मृत पड़े हैं
जीवित मुँहों का आलाप जागता है।
  

|| अब घरों को लौटना मुश्किल है || 


ब घरों को लौटना बहुत मुश्किल है
हमें कौन पहचानेगा...

माथे पर मौत दस्तख़त कर गई है
चेहरे पर यार, पावों के निशान छोड़ गए हैं
शीशे में से कोई और झांकता है 
आँखों में कोरी चमकाहट है
किसी ढह गए घर की छत है
आती रौशनी सी

डर जाएगी माँ 
मेरा पुत्र मुझसे बड़ी उम्र का
कौन से साधु का श्राप
किस शरीकन* चंदरी के टूने** से हुआ
अब घरों को लौटना ठीक नहीं है

इतने डूब चुके हैं सूरज
इतने मर चुके खुदा
जीवित माँ को देख
अपने या उसके प्रेत होने का भ्रम होगा
जब कोई मित्र पुराना मिलेगा
अंतस तक से बेहद याद आएगा
अर्से का मर चुका मोह
रोना आएगा तो फिर याद आएगा
आँसू तो मेरे दूसरे कोट की जेब में रखे ही रह गए

जब ईसरी चाची
आशीषों से सर सहलाएगी
अपनी ही लाश ढोता आदमी
पति की जलती चिता पर मांस पकाती औरत
किसी हैमलेट की माँ
सर्दियों में व्यक्तियों की चिता सेंकने वाला रब्ब

जिन आँखों ने देखें हैं दुःख 
अपने बचपन की तस्वीर से
कैसे मिलाऊँगा आँखें
अपने छोटे से घर में
शाम को जब मड़ी^ पर दीपक जलेगा
गुरुद्वारे में शंख बजेगा
वह बहुत आएगा याद
वह कि जो मर गया है
जिसकी मौत का 
इस बसी बसाई नगरी में
केवल मुझे पता है

यदि किसी ने अभी मेरे मन की तलाशी ले ली
बहुत अकेला रह जाऊँगा
किसी दुश्मन देश के जासूस की तरह
अब घरों में रहना आसान नहीं है

चेहरे पर यार निशान छोड़ गए हैं
पाँवों के निशान
शीशे में से कोई और झांकता है
कौन हमें पहचानेगा!
  
*शरीकन- सम्बन्धी, जो ज़मीन, जायदाद के कारण शत्रु बन जाते हैं।
**टूना-जादू-टोना
^मड़ी- कब्र

|| शहीद ||


सने कब कहा था : मैं शहीद हूँ।
उसने केवल यह कहा था 
फाँसी का रस्सा चूमने से कुछ दिन पहले :
कि मुझसे बढ़कर कौन होगा भाग्यशाली
मुझे आजकल नाज़ है अपने आप पर
अब तो बेताबी से
अंतिम परीक्षा की प्रतीक्षा है मुझे।

वह अंतिम परीक्षा में से
वह इस शान से उत्तीर्ण हुआ
कि माँ को अपनी कोख पर फख्र हुआ

उसने कब कहा था : मैं शहीद हूँ।
शहीद तो उसे सतलुज की गवाही पर
पाँचों दरियाओं ने कहा था
गंगा ने कहा था
ब्रह्मपुत्र ने कहा
शहीद तो उसे वृक्षों के पत्ते पत्ते ने कहा था

आप अब धरती से झगड़ पड़े हो
आप अब दरियाओंं से लड़ पड़े हो
आप अब वृक्षों के पत्तों से संग्राम कर रहे हो
मैं बस आपके लिए दुआ ही कर सकता हूँ
कि ईश्वर आपको धरती की बद्दुआ से बचाए
महानदों के श्राप से 
वृक्षों के अभिशाप से!
  
मूल (पंजाबी) : सुरजीत पातर 




अनुवाद 
(हिन्दी) 
: मनोज शर्मा 
संपर्क: 7889474880