Thursday, December 25, 2014

शायक आलोक


शायक आलोक कैमरे से कविताई और कविताई से जीवन के विविध रंग देखते हैं.वे युवा हिन्दी कविता के सशक्त हस्ताक्षर हैं. इनकी कविता कोरी भावुकता, खोखले राजनीतिक नारों और कवि होने के प्रयास से मुक्त सिर्फ और सिर्फ कविता है. सघन संवेदना, मौलिकता और सहजता ही इनकी पहचान है. इसी को इनका एक बड़ा पाठक वर्ग पसन्द करता है . आप भी पढ़ें और अपनी राय रखें. शायक आलोक को धन्यवाद व शुभकामनाओं सहित प्रस्तुत हैं उनकी तीन कविताएँ -




सर्दी और एक ट्रेन यात्रा

1.
[ ट्रेन की खिड़की से बाहर झांकते हुए ]

मुझे ठण्ड लग रही है
और मेरी उँगलियाँ सर्द हो गयी हैं
कल की ही तरह
आज भी
घिर आई है शाम
और मेरे हिस्से का आकाश
सिकुड़ता जा रहा है..
कुहासे की पतली चादर
चीरती महानंदा एक्सप्रेस
जब भी सिहरती है
चरवाहे बच्चे तालियाँ बजाते हैं
घर को लौट जाओ बच्चों
गोबर का बोरसी सुलगाये
इन्तजार में होगी माँ....


2.
[लेमनचूस वाला बच्चा]

उसे घर नहीं लौटना
किसी जल्दबाजी में नहीं है
गोती बांधे किसी मंगोल सेनानायक सा दिखता है वह
खिड़की से अभी अभी टकराई सर्द हवा
उसे थर्रा गयी है
लेमन्चुस्स्स्सस्स्स्स...
लेमनचूस बेचने वाले बच्चे की आवाज़ सर्द हो गयी है
अपनी महँगी जैकेट में
थोडा और सिकुड़ आया हूँ मैं
मुझे घर की याद आ रही है
क्या उसे नहीं आती ?


3.
[बोरियत और किर्र किर्र ]

मैं इन्तजार में हूँ ..
अभी अभी गुजरा है
भूले बिसरे गीत गाने वाला भिखारी
मेरे चेहरे पर जमी सर्दी की तरह
जमे हुए हैं चाय वाले
पिछले डब्बे की मछली रोटी की गंध
मेरे डब्बे तक आ रही है
आधी गंजी पर दुपट्टा डाली नेपाली लड़की
पांच बार थूककर सो गयी है
सनपापरी वाला नौगछिया में उतर गया
मेरी खिड़की से उलटी दिशा में भागते पेड़
अब भी भाग रहे हैं
..वह अब तक नहीं आई
मैं इंतजार में हूँ ...
उबासी में खुद से ही पूछा है मैंने
क्या सर्दियों में नहीं बिकता
किर्र किर्र वाला खिलौना ?


4.
[लौट आना घर को ]

सुबह के ३ बजे भी रिक्शा चलता है
मेरी ही तरह साढ़े पांच फुट का एक इंसान चलाता है उसे
मेरी ही तरह उसकी आँखें लाल होती हैं
उसकी भी एक मोटी चादर होती है
वह भी मनमोहन और अन्ना को जानता है
उसे भी बुर्जुआ सर्वहारा का मार्क्स संघर्ष पता होता है
उसे भी मेरी ही तरह ठण्ड लगती है
मेरी ही भाषा भी बोलता है वो
......
अपने गर्म बिस्तर में घुस आया हूँ मैं
वह अब भी सड़क पर है ..





मरे हुए बच्चे

मैं तुम्हारी ही उम्र का हूँ
तुम मेरी भाषा समझ सकते हो
मेरे साथ खेल भी सकते हो
तुम अपनी गेंद मेरी ओर उछालोगे
और मैं उसे वापस तुम्हारी ओर फेंक दूंगा
हम देर तक यूँ खेल सकते हैं
अब मुझे स्कूल जाने की जल्दी नहीं होती
मैं पेशावर का मृतक बच्चा हूँ
मैं अपनी कब्र में लेटा रहता हूँ
मैं तुम्हें ख़त लिख रहा हूँ क्योंकि
मेरे बाकी सब दोस्त भी मेरे साथ कब्र में लेटे हैं
और हमें खेल के लिए जिंदा बच्चे चाहिए
जवाबी ख़त मिला
जिस दिन तुम मरे
उस दिन से नहीं लौटे हैं पिता मेरे
लिया गया उनसे मौत का बदला
मैं गेंद जेब में लिए यहाँ छुपा बैठा हूँ
कब्र सी ठंडक, अँधेरा है यहाँ
और अम्मी कहती है
डूब गया है हमारी धरती का सूरज
कि यह खेल अब बंद होना चाहिए.


द प्रपोजल

उसने शादी के लिए नहीं पूछा
नहीं बैठा घुटने के बल और
नहीं निकाल लाया हीरे जड़ी अंगूठी
नहीं कहा उसने कि कि रखूँगा संभाल कर
तुम्हारा दिल
उम्र भर मेरे शहद भरे अंतरात्मा के भीतर
कुछ नहीं बुदबुदाया
चिल्ला कर कहा भी नहीं कि
करता हूँ तुम्हें जहाँ भर का प्रेम
उसने नहीं कहा हिंदी फ़िल्मी तर्ज पर कि
चलो मेरी माँ चाय के बहाने देखेगी तुम्हें
उसने इधर उधर देखा
आसमान से लिए शब्द उधार
या अपने ही कलेजे को खंगाल कुछ हर्फ़ जुटाये
और जितना बेतरतीब था वह उतने ही सलीके से
कहा उसने उसे है अब खुद की जगह की तलाश
कि उसे चाहिए अब अपना एक घर
जिसमें हो वाकई एक अदद रसोई भी
और लड़की ने मुस्कुराकर 'हाँ' कह दिया.



शायक आलोक इतिहास व मनोविज्ञान के छात्र रहे हैं. कस्बाई पत्रकारिता से जुड़े रहे. उनकी कविताएं कहानियां कुछ प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं.
सम्प्रति :- दिल्ली में रहकर स्वतंत्र लेखन व फोटोग्राफी करते हैं. आजीविका के लिए अनुवाद का कार्य करते हैं.
दूरभाष :- 85270-36706 
ई मेल :- shayak.alok.journo@gmail.com



प्रस्तुति :- 
 
कमल जीत चौधरी
काली बड़ी , साम्बा { जे० & के० }
दूरभाष - ०९४१९२७४४०३

ई मेल - kamal.j.choudhary@gmail.com

(सभी चित्र गूगल की मदद से विभिन्न साइट्स से साभार लिए गए हैं)