Thursday, November 3, 2022

जगजीत 'काफ़िर'

जगजीत 'काफ़िर' पंजाबी, हिंदी और उर्दू में लिखते हैं। तीस जुलाई 1979 को पंजाब के लुधियाना शहर में जन्‍मे जगजीत की किताब जल्‍द प्रकाशित होने वाली है। कमाल के शायर और इंसान जगजीत विभिन्‍न मंचों, दूरदर्शन और आकाशवाणी पर काव्‍य पाठ कर चुके हैं। उनकी कुछ रचनाओं को पूरे सम्‍मान के साथ पहली बार 'खुलते किवाड़' पर साझा कर रहा हूं। 


# लोगों की असली फितरत से मयखाना ही वाकिफ हैं
बेहतर बेहतर लोग वहां पर कितना बदतर खुलते हैं


ग़ज़ल

ख़्वाबों की ऐशगाह में मख़मूर मस्त लोग
और इक तरफ़ हयात से बेज़ार पस्त लोग

हैरत है इतने इल्म ज़हानत के बावजूद 
अपनी अना से खा गए कैसे शिकस्त लोग 

इनको नहीं पता कि कमाई भी चाहिए 
सांसों को खर्च करने में ही हैं व्यस्त लोग 

अच्छे दिनों के ख़्वाब की कीमत तो देख ले
कैसे चुका सकेंगे भला तंग दस्त लोग

इनमें सलाहियत है कि ज़ंजीरें तोड़ लें 
अपनी फना से दूर हैं बस एक जस्त लोग

आओ जो मेरे पास तो सीने में आग हो
रहते हैं इस दयार में आतिश-परस्त लोग

काफ़िर को अब भी याद हैं, मोमिन भुला ना दें 
अपना कफ़न पहन के खड़े सर-ब-दस्त लोग





ग़ज़ल

वस्ल की रात ढल गई, चांद भी घर चला गया
वक्त को रोकते मगर… महव-ए-सफ़र चला गया

कितनी अजीब बात है, हम पे ये सानिहा हुआ 
दर्द-ए-हयात रह गया, दर्द-ए-जिगर चला गया

वो भी तो एक दौर था, जबकि हिरास-ए-कब्र थे
अब जो फ़ना शनास हैं, मौत का डर चला गया

हमसे वो सुर्खरू हुआ हाय इस इत्मीनान से 
उसने बस अलविदा कहा और वो घर चला गया

तुमसे है इल्तिजा मेरी, कुछ तो ख़्याल-ए-यार हो
शम्मअ बुझाई जाए अब, एक पहर चला गया

हम भी ग़ज़ल सरा रहे, हमने भी शे'र कह लिए 
जिस पे उबूर था कभी, अब वो हुनर चला गया 

काश वो देख ले कभी काफ़िर-ए-कम-नसीब को
जिसकी अना भी मर गई और ये सर चला गया




ग़ज़ल

दुनिया भर में रोज़ ही कितने इल्म के दफ़्तर खुलते हैं
लेकिन अब तक जान ना पाए, कहां मुकद्दर खुलते हैं

हासिल और महरुमी में सब फ़र्क पता चल जाता है
दरिया वाले लोगों को जब सहरा के दर खुलते हैं


इश्क़ यकीनन हमको ऐसी आंख अता कर देता है
पस-मंज़र के पीछे हैं जो, वो भी मंज़र खुलते हैं

सजदे आंसू और निदामत चौखट तक महदूद रहे
किस्मत वाले होते हैं जो उन पर ही दर खुलते हैं

अंबर को तकते रहते हैं आशिक शाइर और फ़क़ीर
ये वो खिड़की दरवाजे हैं जो बस पल भर खुलते हैं 

लोगों की असली फितरत से मयखाना ही वाकिफ हैं
बेहतर बेहतर लोग वहां पर कितना बदतर खुलते हैं

इल्म, रियाजत और इबादत जब अपनी तक़मील चुनें
रफ्ता रफ्ता नफ़्स की इस कश्ती के लंगर खुलते हैं

मूसा होना हम जैसों के बस की बात नहीं काफ़िर
नूरी हो जो उस पर ही उस नूर के पैकर खुलते हैं




ग़ज़ल

अभी भी झिझक? ये सोच विचार? वहशत-ए-दिल?
तड़प के अभी सनम को पुकार, वहशत-ए-दिल

ये रंग-ए-हिरास और निखार वहशत-ए-दिल
उसे भी सुने ये चीख़ पुकार वहशत-ए-दिल

तू चल तो सही हम उसकी गली में रक्स करें 
अब और कहां मिलेगा क़रार वहशत-ए-दिल

वो जान-ए-ग़ज़ल कहीं तो मिले, कभी तो मिले
कि जिसके लिए हम आज हैं ख़्वार वहशत-ए-दिल

इसी में तुझे मिलेगी तेरी फना या बक़ा  
अलम को पकड़, सुकूं को नकार वहशत-ए-दिल

उन्होंने अगर वुजूद तेरा क़ुबूल किया 
तो क्यों ना रहे तू शुक्र गुज़ार वहशत-ए-दिल

ये हासिल-ए-इश्क काफ़िर-ए-नामुराद से पूछ
कहां की निजात? कैसी फरार? वहशत-ए-दिल



ग़ज़ल

चंद लम्हों की कहानी और बस फिर अलविदा।
आँसुओं की राएगानी और बस फिर अलविदा

एक सजदा मुन्तज़िर है आरज़ू के जा-नमाज़
इक दुआ है आज़मानी और बस फिर अलविदा

मैं अभी उलझा हुआ हूं उसके लहजे के सबब
इंकिशाफ़ उसकी ज़ुबानी और बस फिर अलविदा

आते आते आ गई है जिंदगी तक़मील पर,
एक रस्म-ए-जावेदानी और बस फिर अलविदा

ख़ुद की ही तहरीर मुझ पर एक दिन ऐसे खुले,
ओढ़ लूँ अपना मआनी और बस फिर अलविदा

ऐ ज़मीं वालो यहां पर दाइमी कुछ भी नहीं
इक इशारा आसमानी और बस फिर अलविदा

ज़िंदगी के मंच पर अशआर क़ाफ़िर पढ़ चुके,
रह गया मक्ते का सानी और बस फिर अलविदा




ग़ज़ल

मेरा ज़ब्त और ना आज़मा, मुझे मार दे
मुझे यूं ना तोड़ ज़रा ज़रा, मुझे मार दे

तेरी बेरुखी, तेरी नफरतें भी क़ुबूल हैं
तेरे सामने हूं खड़ा हुआ, मुझे मार दे

तेरे हिज्र ने मेरी वहशतों को जगा दिया
मुझे और कुछ नहीं सूझता, मुझे मार दे

ये जो मौत है, ये निजात है मेरे वास्ते
मैं हूं ज़िन्दगी से डरा हुआ, मुझे मार दे

तुझे इस अना ने जिता दिया या हरा दिया
इसे बाद में कभी सोचना, मुझे मार दे

तेरे साथ ही मेरी ज़िन्दगी भी चली गई
तो अब ऐसे जीने में क्या मज़ा, मुझे मार दे

तेरे बिन जहान में क्या करुं, मेरे हमनफ़स
तुझे कर रहा हूं ये इल्तिज़ा, मुझे मार दे

तुझे देख कर किसी रोज़ तुझपे जो मर मिटा
वही काफ़िर आज ये कह उठा, मुझे मार दे




ग़ज़ल

ये ज़मीं ये आसमां ये कहकशां कुछ भी नहीं
सब फना की क़ैद में हैं जावेदां कुछ भी नहीं
 
है, मेरे ही दूर उफ़तादा किसी गोशे में है
वुसअत-ए-कौनैन हूं मैं, ये जहां कुछ भी नहीं

मैं बड़ी मुश्किल से समझा हूं कज़ा के राज़ को
बर्क-ए-रक़्सां के मुक़ाबिल आशियां कुछ भी नहीं

ज़िन्दगी तख़रीब और तामीर का ही खेल है
इल्म वालों को जहां की गुत्थियां कुछ भी नहीं

ऐ परिंदो इन परों में ज़र्फ़ तो पैदा करो
हसरत-ए-परवाज़ को ये बेड़ियां कुछ भी नहीं

ज़हर भी गर हिकमतन लें तो दवा बन जाएगा
इस जहां में देखिए तो राइगां कुछ भी नहीं

यार की गलियों में घुंघरू बांध कर भी नाच लूं
इश्क़ में काफ़िर मेरी खुद्दारियां कुछ भी नहीं



संपर्क
जगजीत 'काफ़िर' 
मोबाइल: 9877590282
ई-मेल: jagatairtel@gmail.com

प्रस्‍तुति और फोटोग्राफ: कुमार कृष्‍ण शर्मा
94191-84412