29 जनवरी 1975 को पटना में जन्मे और पले बढ़े। पटना विश्वविद्यालय से उर्दू साहित्य में एम ए। पटना इप्टा के साथ जुड़ कर रंगकर्म। लखनऊ के भारतेंदु नाट्य अकादमी से नाट्य कला में दो वर्षीय प्रशिक्षण।
पिछले कई वर्षों से मुम्बई में फ़िल्म और टीवी के लिए व्यवसायिक लेखन। डॉक्टर चंद्रप्रकाश द्विवेदी के साथ "उपनिषद गंगा" नामक धारावाहिक का लेखन।
कई पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ-कहानियाँ प्रकाशित हुईं जिनमें कृत्या, दो आबा, कथादेश, तद्भव, समावर्तन, आलोचना, अक्षर, समालोचन, इंडियन लिटरेचर (साहित्य अकादमी), उद्भावना, माटी, हंस, वनमाली कथा, राग [पंजाबी], रेखांकन आदि प्रमुख हैं।
साझा कविता-पुस्तकों में कविताएँ : "लिखनी होगी एक कविता" संपादक : प्रेमचंद सहजवाले (2013), "पांचवां युवा द्वादश" संपादक : निरंजन श्रोत्रिय (2017), "दूसरी हिंदी" संपादक : निर्मला गर्ग (2017), “प्रतिरोध में कविता” संपादक : रणजीत वर्मा (2021) और “कंटीले तार की तरह” संपादक : संजय कुंदन (2021)।
प्रकाशित पुस्तकें : ‘अपनों के बीच अजनबी’ [कथेतर गद्य], वाम प्रकाशन। ‘गीली मिट्टी पर पंजों के निशान’ [कविता संग्रह], सेतु प्रकाशन। ‘मास्टर शॉट’ [कहनी संग्रह], लोकभारती प्रकाशन।
अंग्रेजी, मलयाली, मराठी, पंजाबी और नेपाली में कहानी और कविताओं का अनुवाद और प्रकाशन।
कविता संग्रह 'गीली मिट्टी पर पंजों के निशान ' से कुछ कविताएं -
एक और बाघ
गीली मिट्टी पर पंजों के निशान देख कर लोग डर गये।
जैसे डरा था कभी अमेरिका ‘चे’ के निशान से।
लोग समझ गये,
यहाँ से बाघ गुज़रा है।
शिकारियों ने जंगल को चारों ओर से घेर लिया।
शिकारी कुत्तों के साथ डिब्बे पीटते लोग घेर रहे थे उसे।
भाग रहा था बाघ हरियाली का स्वप्न लिये।
उसकी साँसे फूल रही थीं,
और भागते भागते
छलक आई उसकी आँखों में उसकी गर्भवती बीवी।
शिकारी और और पास आते गये
और वह शुभकामनाएँ भेज रहा था अपने आने वाले बच्चे को,
कि “उसका जन्म एक हरी भरी दुनिया में हो”।
सामने शिकारी बन्दूक लिये खड़ा था
और बाघ अचानक उसे देख कर रुका।
एकबारगी सकते में धरती भी रुक गई,
सूरज भी एकटक यह देख रहा था कि क्या होने वाला है।
वह पलटा और वह चारों तरफ़ से घिर चुका था।
उसने शिकारी से पलट कर कहा,
“मैं तुम्हारे बच्चों के लिए बहुत ज़रूरी हूँ, मुझे मत मारो”।
चारों ओर से उस पर गोलियाँ बरस पड़ीं।
उसका डर फिर भी बना हुआ था।
शिकारी सहम सहम कर उसके क़रीब आ रहे थे।
उसके पंजे काट लिये गये, जिससे बनते थे उसके निशान।
यह उपर का आदेश था,
कि जो उसे अमर समझते हैं उन्हें सनद रहे कि वह मारा गया।
आने वाली पीढ़ियाँ भी यह जानें।
उसके पंजों को रखा गया है संग्रहालय में।
दूर देश की कथा
देश बहुत दूर है उसके स्कूल से.
कम से कम दस किलोमीटर दूर उसको
अपने मोबाइल पर मिलता है सिग्नल
और साथ में थोड़ा सा एक देश.
देश उसके चूल्हे से बहुत दूर है.
कम से कम एक हज़ार किलोमीटर दूर से
उसे सुनाई देता है थोड़ा थोड़ा एक प्रधानमंत्री का भाषण
और दिखाई देता है थोड़ा थोड़ा एक देश.
देश के मानचित्र से बाहर जा चुकी है वह औरत
जिसके पति की जान ले चुका है उसका खेत.
जिसका बेटा मिट्टी में मिल चुका है
और बेटी रूप के हाट की मल्लिका है.
बहुत दूर अंतरिक्ष से
उसके कानों तक पहुँच रहा है
मुश्किल से एक राष्ट्र गान.
अँधेरे में दीवार टटोलती खड़ी होती है वह
उस के लिए जो उसके साथ नहीं खड़ा है.
यह उस देश के कथा है
जहाँ आम लोगों तक नहीं पहुँचता नेटवर्क.
दादा जी साईकिल वाले
मैं ज्यों ज्यों बड़ा होता गया,
मेरी साईकिल की ऊंचाई भी बढ़ती गई।
और उन सभी साईकिलों को कसा था,
पटना कॉलेज के सामने वाले “दादा जी साईकिल वाले” नाना ने।
अशोक राजपथ पर दौड़ती, चलती, रेंगती ज़्यादातर साईकिलें
उनके हाथों से ही कसी थीं।
पूरा पटना ही जैसे उनके चक्के पर चल रहा था।
हाँफ रहा था।
गंतव्य तक पहुँच रहा था।
वहाँ से गुज़रने वाले सभी, वहाँ एक बार रुकते ज़रूर थे।
सत सिरी अकाल कहने के लिए।
चक्के में हवा भरने के लिए।
नए प्लास्टिक के हत्थे या झालर लगवाने के लिए।
चाय पी कर, साँस भर कर, आगे बढ़ जाने के लिए।
पछिया चले या पूरवईया,
पूरी फ़िज़ा में उनके ही पंप की हवा थी।
हमारे स्कूल की छुट्टी जल्दी हो गई थी।
हम सबने एक साथ दादा जी की दुकान पर ब्रेक लगाई।
पर दादा जी की दुकान ख़ाली हो रही थी।
तक़रीबन ख़ाली हो चुकी थी।
मुझे वहाँ साईकिल में लगाने वाला आईना दिखा,
मुझे वह चाहिए था, मैंने उठा लिया।
इधर उधर देखा तो वहाँ उनके घर का कोई नहीं था।
शाम को छः बजे दूरदर्शन ने पुष्टि कर दी
कि इन्दीरा गाँधी का देहांत हो गया।
चार दिन बाद स्कूल खुले और हमें घर से निकलने की इजाज़त मिली।
शहर, टेढ़े हुए चक्के पर घिसट रहा था। हवा सब में कम कम थी।
स्कूल खुलने पर हम सब फिर से वहाँ रुके, हमेशा की तरह।
मैंने आईने का दाम चुकाना चाहा,
पर दादा जी, गुरु नानक की तरह सिर झुकाए निर्विकार से बैठे थे।
उनके क्लीन शेव बेटे ने मेरे सिर पर हाथ फेर कर कहा, “रहने दो”।
एक दानवीर दान कर रहा था आईना।
उसके बाद लोग अपने अपने चक्के में हवा अलग अलग जगह से भरवाने लगे।
उसके बाद हर गली में पचास पैसे लेकर हवा भरने वाले बैठने लगे।
गंगा मस्जिद
[बाबरी मस्जिद ध्वंस के अट्ठारहवें साल]
यह बचपन की बात है, पटना की।
गंगा किनारे वाली ‘गंगा मस्जिद’ की मीनार पर,
खड़े होकर घंटों गंगा को देखा करता था।
गंगा छेड़ते हुए मस्जिद को लात मारती,
कहती, “अबे मुसलमान, कभी मेरे पानी से नहा भी लिया कर”।
और कह कर बहुत तेज़ भागती दूसरी ओर हँसती हँसती।
मस्जिद भी उसे दूसरी छोर तक रगेदती हँसती हँसती।
परिन्दे ख़ूब कलरव करते।
इस हड़बोम में मुअज़्ज़िन की दोपहर की नीन्द टूटती,
और झट से मस्जिद किनारे आ लगती।
गंगा सट से बंगाल की ओर बढ़ जाती।
परिन्दे मुअज़्ज़िन पर मुँह दाब के हँसने लगते।
मीनार से बाल्टी लटका,
मुअज़्ज़िन खींचता रस्सी से गंगा जल।
वुज़ू करता।
आज़ान देता।
लोग भी आते,
खींचते गंगा जल,
वुज़ू करते, नमाज़ पढ़ते,
और चले जाते।
आज अट्ठारह साल बाद,
मैं फिर खड़ा हूँ उसी मीनार पर।
गंगा सहला रही है मस्जिद को आहिस्ते आहिस्ते।
सरकार ने अब वुज़ू के लिए
साफ़ पानी की सप्लाई करवा दी है।
मुअज़्ज़िन की दोपहर,
अब करवटों में गुज़रती है।
गंगा चूम चूम कर भीगो रही है मस्जिद को,
मस्जिद मुँह मोड़े चुपचाप खड़ी है।
गंगा मुझे देखती है,
और मैं गंगा को।
मस्जिद किसी और तरफ़ देख रही है।
इंसाफ़
अगर लोग इंसाफ़ के लिए तैयार न हों।
और नाइंसाफ़ी उनमें विजय भावना भरती हो।
तो यक़ीन मानिए,
वे पराजित हैं मन के किसी कोने में।
उनमें खोने का अहसास भरा है।
वे बचाए रखने के लिए ही हो गये हैं अनुदार।
उन्हें एक अच्छे वैद्य की ज़रूरत है।
वे निर्लिप्त नहीं, निरपेक्ष नहीं,
पक्षधरता उन्हें ही रोक रही है।
अहंकार जिन्हें जला रहा है।
मेरी तेरी उसकी बात में जो उलझे हैं,
उन्हें ज़रूरत है एक अच्छे वैज्ञानिक की।
हारे हुए लोगों के बीच ही आती है संस्कृति की खाल में नफ़रत।
धर्म की खाल में राजनीति।
देशभक्ति की खाल में सांप्रदायिकता।
सीने में धधकता है उनके इतिहास।
आँखों में जलता है लहू।
उन्हें ज़रूरत है एक धर्म की।
ऐसी घड़ी में इंसाफ़ एक नाज़ुक मसला है।
देश को ज़रूरत है सच के प्रशिक्षण की।
महादेव
जैसे जैसे सूरज निकलता है,
नीला होता जाता है आसमान।
जैसे ध्यान से जग रहे हों महादेव।
धीरे धीरे राख झाड़, उठ खड़ा होता है एक नील पुरुष।
और नीली देह धूप में चमकने तपने लगती है भरपूर।
शाम होते ही फिर से ध्यान में लीन हो जाते हैं महादेव।
नीला और गहरा .... और गहरा हो जाता है।
हो जाती है रात।
लकड़-सुंघवा [बच्चों के लिए रचा गया एक मिथ कि वह बेहोश करने वाली लकड़ी सुंघा कर बच्चों को ले जाता है।]
रात में भी लोगों में रहने लगा है अब,
लकड़-सुंघवा का डर।
लू के मौसम में,
जब सुबह का स्कूल होता है,
दोपहर को माँ अपने बच्चे से कहती है,
“सो जा बेटा, नहीं तो लकड़-सुंघवा आ जाएगा”।
“माँ, लकड़-सुंघवा को पुलिस क्यों नहीं पकड़ लेती?”
“बेटा, वह पुलिस को तनख़्वाह देता है”।
शाम को जब बच्चा सो कर उठता,
तो मान लेता है कि लकड़-सुंघवा आया
और बिना बच्चा चुराये चला गया।
पर एक रोज़ बस्ती में सचमुच आ गया लकड़-सुंघवा। पर रात में।
पूरनमासी की रात थी, पत्तों की खड़ खड़ पर कुत्तें भौंक रहे थे।
बिल्ली सा वह आया दबे पाँव।
सोये हुए लोगों की छाती में समा गई उसकी लकड़ी की महक।
जो भाग सके वे अँधे, बहरे, लूले, लंगड़े हो गये,
लेकिन ज़्यादातर नीन्द में ही सोये रह गये।
और धीरे धीरे जमने लगी धूल बस्ती पर।
जैसे जमती है धूल यादों पर, अदालत की फ़ाईलों पर,
पुलिस थाने की शिकायत पुस्तिका पर।
एक दिन धूल जमी बस्ती, मिट्टी में दब गई गहरी।
समतल सपाट मैदान ही केवल उसका गवाह था।
ज़मीन के अन्दर दबी बस्ती उभर आई अचानक।
जैसे पुराना कोई दर्द उखड़ आया हो।
पचीस सालों की खुदाई के बाद निकले कुछ खंडहर, कंकाल, साँप, बिच्छू।
कंकालों ने तत्काल खोल दीं आँखें,
खुदाई करने वाले सिहर उठे और फिर से उन पर मिट्टी डाल दी।
पुरातत्ववेत्ताओं ने दुनिया को बताया,
कि बस्ती प्राकृतिक आपदा से दब गई थी नीचे।
अब किसको इसकी सज़ा दें और किसको पकड़ें धरें।
इतिहास लिखने वालों ने अंततः वही लिखा,
जो पुरातत्ववेत्ताओं ने बताया।
खुदाई पूरी होने के इंतज़ार में खड़े लोग,
खड़े रह गये।
उन्होंने उतरना चाहा हालांकि अन्दर,
कि तभी शोर उठा,
लकड़-सुंघवा आया, लकड़-सुंघवा आया !!!!
लकड़-सुंघवा आया, लकड़-सुंघवा आया !!!!
मुस्कुराहटें
हर कोई मुस्कुराता है
अपने अपने अर्थ के साथ।
बच्चा मुस्कुराता है,
तो लगता है, वह निर्भय है।
प्रेमिका मुस्कुराती है,
तो लगता है, उसे स्वीकार है मेरा प्रस्ताव।
दार्शनिक मुस्कुराता है,
तो लगता है, व्यंग्य कर रहा है दुनिया पर।
भूखा मुस्कुराता है,
तो लगता है, वह मुक्त हो चुका है और पाने को पड़ी है
उसके सामने पूरी दुनिया।
जब अमीर मुस्कुराता है,
तो लगता है, शासक मुस्कुरा रहा है,
कि देश की कमज़ोर नब्ज़ उसके हाथ में है,
कि जब भी उसे मज़ा लेना होगा,
दबा देगा थोड़ा सा।
मामू साहब
इतिहास में अगर कहीं थकान का अध्याय होता
या थक कर भी काम करते रहने का अध्याय होता
तो वहाँ मामू साहब का नाम ज़रूर दर्ज होता.
पर मेहनत के इतिहास का
अभी तक ईजाद नहीं किया किसी इतिहासकार ने.
पर ऐसा किसी चूक से नहीं हुआ है.
मेहनत के इतिहास में तो ज़रूरी हो जाता पसीने का ब्यौरा देना.
फिर पत्थरों पर खुदे बादशाहों के नाम होने लगते संदिग्ध.
मामू साहब भी लकीरें लेकर आए थे बहुत सुंदर जीवन का
लेकिन हमारा भाग्य लिखने के क्रम में उनकी लकीरें मिट गईं.
आप तो ठीक ठीक अंदाज़ा भी नहीं लगा सकते
कि एक मज़दूर के लिए अपनी लकीरें उठा कर
किसी दूसरे की हथेली पर रख देना क्या होता है.
इस पर पूरा ब्रह्माण्ड चुप है.
इमारत के इतिहास में कोई मिट्टी का इतिहास नहीं लिखता.
अगर किसी इतिहासकार में कभी हिम्मत होगी
तो वह इमारत को ज़मीन से निकाल कर उलटा रखेगा, फिर लिखेगा इतिहास.
चुपचाप काम करने वालों ने अभी भी मुँह नहीं खोला है.
किसान, मज़दूर, मोची, मेहतर का इतिहास लिखा जाना बाकी है अभी.
वनस्पति शास्त्र के छात्रों की तरह सबको पता होना चाहिए
कि धरती के ऊपर जो दिख रहा है, उसकी जड़ ज़मीन में कहाँ तक है.
मादक और सारहीन
तुम्हारी हर अंगड़ाई पर झरती है सोआ की गंध.
तुम्हारी साँसों से आती है रोटी की भाप, हींग की महक.
छौंके की छन होती है तुम्हारी हर बात.
तुम आई, जैसे बंजर ज़मीन पर उग आई हो कोई घास.
जीवन बन गया जैसे उसना फरहर भात.
पर यहाँ तक लिखते लिखते थक जाते हैं हाथ.
मादक और सारहीन हो जाते हैं शब्द.
अपनी संस्कारगत अभिव्यक्ति पर कर-कर के कुठाराघात
बड़ी मुश्किल से गढ़ता हूँ तुम्हारे लिए एक स्थान.
पर अभी भी तुम्हें रसोई की उपमाओं से बाहर नहीं देखा.
नहीं दिखा मुझे तुम्हारी तनी हुई मुट्ठी में इंकलाब.
नहीं दिखी तुम्हारी हिस्सेदारी.
नहीं सुन पाया अभी तक तुम्हारा कदमताल.
तुम जेल में हो और पल रहा है तुम्हारे गर्भ में एक तूफ़ान.
मैं सन्नाटे में खड़ा हूँ हाथ में लिए अभी भी
तुम्हारे काकुलों की महक, चूड़ियों की खनक.
मैंने पहली बार रसोई देखी
मैंने पहली बार रसोई देखी, अभी.
जब हर किसी के लिए पूरा शहर बंद है
और कुछ लोगों का चूल्हा भी बुझ गया है.
मैंने सत्य को सुलगता देखा.
रसोई तो पहले भी देखी थी पर असल में देखी नहीं थी.
जैसे हम कभी अपने उस पैर को नहीं देखते
जिसके सहारे ही हम खड़े हैं या चल पाते.
जब वह थक कर चूर हो जाता है,
जब वह कुछ भी करने से कर देता है इंकार.
तब ही देखते हैं हम अपने पैर को.
तो, मैंने पहली बार रसोई देखी,
चूल्हे से निकलती लपटें देखीं.
गरम गरम कड़ाही देखी.
फूलती पिचकती रोटी देखी.
भगौने से उठता भाप देखा.
उसमें उबलता दूध देखा.
धुआँ देखा.
चिमटा देखा.
हाथ को आग से जलते देखा.
नल का ठंडा पानी देखा.
सब पहली बार. सब पहली बार देखा.
जब पोर पोर में पसीना देखा.
उसमें अपनी माँ को देखा.
माँ को तवे पर सिंकते देखा.
भात के साथ उबलते देखा.
दाल के साथ बहते देखा.
धैर्य को देखा, धैर्य से देखा.
एक जीवन को जलता देखा.
मैंने पहली बार भूख को देखा.
मुँह में घुलते स्वाद को देखा.
पेट में उतरता अमृत देखा.
खाते हुए, अघाते हुए
मैंने घर के बाहर भूखा देखा.
उसके सूखे होंठ को देखा.
आँखों में उसके लपटें देखीं.
मैंने इधर देखा, मैंने उधर देखा.
मैंने ख़ुद को नज़र चुराते देखा.
मेरे सुगना
तुम ध्यान रखना
यह जो बादल उड़ा है अभी बंबई से
वह रूप बदलने में बहुत माहिर है.
वह सन्यासी का रूप धर के द्वार खटखटाएगा.
उस भगवाधारी जटाधारी को
एक मुट्ठी चावल देकर मेरे बारे में बता देना
और ऐसे बताना जैसे तुमको पहले से कुछ मालूम न हो.
मैं छठ पर इस बार ज़रूर आऊँगा
पथरी घाट पर तुम्हें अर्घ्य देने.
मेरे पहुँचने तक रुकना,
फिर उगना. मेरे सुगना.
माफ़ी
सबसे पहले मैं माफ़ी मांगता हूँ हज़रत हौव्वा से.
मैंने ही अफ़वाह उड़ाई थी कि उस ने आदम को बहकाया था
और उसके मासिक धर्म की पीड़ा उसके गुनाहों की सज़ा है जो रहेगी सृष्टि के अंत तक.
मैंने ही बोये थे बलात्कार के सबसे प्राचीनतम बीज.
मैं माफ़ी माँगता हूँ उन तमाम औरतों से
जिन्हें मैंने पाप योनी में जन्मा हुआ घोषित करके
अज्ञान की कोठरी में धकेल दिया
और धरती पर कब्ज़ा कर लिया
और राजा बन बैठा. और वज़ीर बन बैठा. और द्वारपाल बन बैठा.
मेरी ही शिक्षा थी यह बताने की कि औरतें रहस्य होती हैं
ताकि कोई उन्हें समझने की कभी कोशिश भी न करे.
कभी कोशिश करे भी तो डरे, उनमें उसे चुड़ैल दिखे.
मैं माफ़ी मांगता हूँ उन तमाम राह चलते उठा ली गईं औरतें से
जो उठा कर ठूंस दी गईं हरम में.
मैं माफ़ी मांगता हूँ उन औरतों से जिन्हें मैंने मजबूर किया सती होने के लिए.
मैंने ही गढ़े थे वे पाठ कि द्रौपदी के कारण ही हुई थी महाभारत.
ताकि दुनिया के सारे मर्द एक होकर घोड़ों से रौंद दें उन्हें
जैसे रौंदी है मैंने धरती.
मैं माफ़ी मांगता हूँ उन आदिवासी औरतों से भी
जिनकी योनी में हमारे राष्ट्र भक्त सिपाहियों ने घुसेड़ दी थी बन्दूकें.
वह मेरा ही आदेश था.
मुझे ही जंगल पर कब्ज़ा करना था. औरतों के जंगल पर.
उनकी उत्पादकता को मुझे ही करना था नियंत्रित.
मैं माफ़ी मांगता हूँ निर्भया से.
मैंने ही बता रखा था कि देर रात घूमने वाली लड़की बदचलन होती है
और किसी लड़के के साथ घूमने वाली लड़की तो निहायत ही बदचलन होती है.
वह लोहे की सरिया मेरी ही थी. मेरी संस्कृति की सरिया.
मैं माफ़ी मांगता हूँ आसिफ़ा से.
जितनी भी आसिफ़ा हैं इस देश में उन सबसे माफ़ी मांगता हूँ.
जितने भी उन्नाव हैं इस देश में,
जितने भी सासाराम हैं इस देश में,
उन सबसे माफ़ी मांगता हूँ.
मैं माफ़ी मांगता हूँ अपने शब्दों और अपनी उन मुस्कुराहटों के लिए
जो औरतों का उपहास करते थे.
मैं माफ़ी मांगता हूँ अपनी माँ को जाहिल समझने के लिए.
बहन पर बंदिश लगाने के लिए. पत्नी का मज़ाक उड़ाने के लिए.
मैं माफ़ी चाहता हूँ उन लड़कों को दरिंदा बनाने के लिए,
मेरी बेटी जिनके लिए मांस का निवाला है.
मैंने रची है अन्याय की पराकाष्ठा.
मैंने रचा है अल्लाह और ईश्वर का भ्रम.
अब औरतों को रचना होगा इन सबसे मुक्ति का सैलाब.
फ़रीद ख़ाँ
मोबाइल 9324381704