Monday, February 26, 2024

फ़िलहाल 7 - ध्यान सिंह

डोगरी लोक - कविता की परंपरा में 'दीनू भाई पंत' के उपरांत जो कवि सर्वाधिक ध्यान आकर्षित करते हैं, वे हैं अग्रज 'ध्यान सिंह' जी। वे लोक - मानस के चितेरे हैं। उनकी कविता जैसे लोक के लिए ही बनी है। वे डुग्गर ग्रामीण परिवेश को रचते हुए एक विस्तृत आलोक रचते हैं, जो अवार कवि 'रसूल हमजातोव' की याद दिलाता है। वे कला की कमोडिटी को तोड़ते हुए, बखूबी राजनैतिक - कंटेंट भी रचते हैं। जम्मू के दिनों में उनसे एकाधिक बार बैठकी हुई तथा उनकी ठसक व मौलिकता ने प्रभावित किया। एक उदाहरण ही पर्याप्त है कि उन्होंने लुप्त होती जा रही ग्रामीण - कला-'रुट - राहड़े' को सुरजीत किया व कई महिलाओं को इसके साथ जोड़ा। एकबार मैं 'रँजूर' साहिब के साथ किसी गाँव में इसे देखने गया तथा 'दैनिक कश्मीर टाईम्स' के अपने स्तंभ में इसकी चर्चा भी की।

विगत दिनों से साथी - कवि 'कमल जीत चौधरी' ने डोगरी के कुछ प्रमुख कवियों की कविताओं का हिन्दी - अनुवाद करते हुए, इन्हें विस्तृत पटल/मंचों पर रखने का बेहद महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। ऐसा सामूहिक रूप से सोचने - करने का पहले किसी ने नहीं ही सोचा। इसी अनुवाद - क्रम में उन्होंने 'ध्यान सिंह' जी की भी कविताएँ अनूदित की हैं, जो सदानीरा, हिन्दवी, इण्डिया टुडे, अनुनाद, पहलीबार जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं। उन्हीं में से तीन यहाँ दर्ज़ कर रहा हूँ :



● स्पर्श 
 
वा का स्पर्श 
लौ का स्पर्श 
जल का स्पर्श
आवाज़ का स्पर्श 
नज़र का स्पर्श 
देह से आत्मा को 
होने - जीने का अहसास करवाता: 
इसे समझकर बरतना। 

यहाँ खालीपन को भरने की चाह रची गयी है। अंत तक आता कवि जो कहता है, इसे सीखना होगा ।
दूसरी कविता देखें, जो सामाजिक अप्रसांगिकता पर सीधे - सीधे अंगुल रखती है
:

● जेबें

मेरी जेबों में अक्सर हवा रहती है 
इन्हें टटोलूं तो 
हवा कम लगने लगती है 
शायद इनके कोनों में छुप जाती है 
मेरे हाथों को शर्मिंदा होकर 
खोटे पैसे की तरह वापस लौटना पड़ता है 
मेरा अभावग्रस्त प्यासा मन 
बहलाए नहीं बहलता 
मैं उस दर्ज़ी की निंदा करता हूँ 
जिसने यह जेबें बनाई हैं। 

सच के पक्ष में खड़ी इस कविता को धुंधलाया नहीं जा सकता। यह एक ही कविता, संघर्ष है, राजनीति भी। यहाँ वे वास्तविकताएँ हैं, जिन्हें षड्यंत्र से झुठलाया जा रहा है। यहाँ हासिल नहीं, सच पकड़ना है। चहुं ओर पसरे अभिशाप को लताड़ना है।
तीसरी कविता देखें :

लौ की आस 

क पक्षी बोले स्याह अँधेरे में 
लौ कब होगी 
बार-बार पूछे 
लौ कब होगी 
लौ होगी तो दाना मिलेगा 

एक पशु बोले स्याह अँधेरे में 
लौ कब होगी 
बार-बार पूछे 
लौ कब होगी 
लौ होगी तो घास मिलेगा 

एक पेड़ बोले स्याह अँधेरे में 
लौ कब होगी 
बार-बार पूछे 
लौ कब होगी 
लौ होगी तो साँस मिलेगी 

एक आदमी बोले स्याह अँधेरे में 
लौ कब होगी 
बार-बार पूछे 
लौ कब होगी 
लौ होगी तो रास्ता मिलेगा : 

यह ‘होने’ और ‘मिलने’ की बात है 
यह बात बड़ी निराली है 
अति ज़रूरी 
बड़ी प्यारी— 

यह होगी तो कुछ 'मिलेगा' 
कुछ मिलेगा तो यह 'होगी'। 

इस कविता का मूल ऐसा परिवेश है, जहाँ संस्कार तो हैं ही, माटी की गंध है, उम्मीद, लालसा है। जीवन जीने की तमन्ना है। हक से खड़ी प्रकृति है। भरोसा टटोलना है। अंधकार मथना है। इस कविता का भाव व शिल्प क्या नेरूदा की याद नहीं दिलाता?

लोक अपने अंतस में विशाल भाव लिए होता है। यहाँ परंपरा है तो समाज भी है, जीवन - मूल्य हैं, तो खांटी सच भी है। पड़ताल है, सोचने - समझने की जांच है और ऐसी ललक भी, जिससे धरती को बेहतर से बेहतर किया जा सकता है। विभिन्न विधाओं में इनकी लगभग 55 किताबें छप चुकी हैं। कह ही चुका हूँ, इनके लेखन में प्रकृति और लोक अपना संसार रचते हैं। वे आज भी गाँव में रहते हैं और सक्रिय हैं। संरक्षण - संस्कृति पर काफी काम किया है। इन्होंने ग्रामीण-खेलकूद आयोजन भी करवाएं हैं। 2009 में 'परछावें दी लौ' संग्रह पर इन्हें साहित्य अकादमी व 2014 में 'बाल - साहित्य पुरस्कार मिला है। इनके कार्यों में 'कल्हण' का डोगरी - अनुवाद अलग से रेखांकित किया जाता है। जिला शिक्षा अधिकारी के पद से सेवानिवृत्त होकर, इधर इतिहास पर काम कर रहे हैं। अग्रज कवि को हार्दिक शुभकामनाएँ।


-मनोज शर्मा
7889474880

Wednesday, February 21, 2024

फ़रीद ख़ाँ

29 जनवरी 1975 को पटना में जन्मे और पले बढ़े। पटना विश्वविद्यालय से उर्दू साहित्य में एम ए। पटना इप्टा के साथ जुड़ कर रंगकर्म। लखनऊ के भारतेंदु नाट्य अकादमी से नाट्य कला में दो वर्षीय प्रशिक्षण।
पिछले कई वर्षों से मुम्बई में फ़िल्म और टीवी के लिए व्यवसायिक लेखन। डॉक्टर चंद्रप्रकाश द्विवेदी के साथ "उपनिषद गंगा" नामक धारावाहिक का लेखन। 

कई पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ-कहानियाँ प्रकाशित हुईं जिनमें कृत्या, दो आबा, कथादेश, तद्भव, समावर्तन,  आलोचना, अक्षर, समालोचन, इंडियन लिटरेचर (साहित्य अकादमी), उद्भावना, माटी, हंस, वनमाली कथा, राग [पंजाबी], रेखांकन आदि प्रमुख हैं। 

साझा कविता-पुस्तकों में कविताएँ : "लिखनी होगी एक कविता" संपादक : प्रेमचंद सहजवाले (2013), "पांचवां युवा द्वादश" संपादक : निरंजन श्रोत्रिय (2017), "दूसरी हिंदी" संपादक : निर्मला गर्ग (2017), “प्रतिरोध में कविता” संपादक : रणजीत वर्मा (2021) और “कंटीले तार की तरह” संपादक : संजय कुंदन (2021)।

प्रकाशित पुस्तकें :
‘अपनों के बीच अजनबी’ [कथेतर गद्य], वाम प्रकाशन। ‘गीली मिट्टी पर पंजों के निशान’ [कविता संग्रह], सेतु प्रकाशन। ‘मास्टर शॉट’ [कहनी संग्रह], लोकभारती प्रकाशन।     

अंग्रेजी, मलयाली, मराठी, पंजाबी और नेपाली में कहानी और कविताओं का अनुवाद और प्रकाशन।



विता संग्रह 'गीली मिट्टी पर पंजों के निशान ' से कुछ कविताएं -



एक और बाघ
 


गीली मिट्टी पर पंजों के निशान देख कर लोग डर गये। 

जैसे डरा था कभी अमेरिका ‘चे’ के निशान से। 

लोग समझ गये, 

यहाँ से बाघ गुज़रा है।


शिकारियों ने जंगल को चारों ओर से घेर लिया। 

शिकारी कुत्तों के साथ डिब्बे पीटते लोग घेर रहे थे उसे। 

भाग रहा था बाघ हरियाली का स्वप्न लिये। 

उसकी साँसे फूल रही थीं, 

और भागते भागते 

छलक आई उसकी आँखों में उसकी गर्भवती बीवी। 


शिकारी और और पास आते गये

और वह शुभकामनाएँ भेज रहा था अपने आने वाले बच्चे को, 

कि “उसका जन्म एक हरी भरी दुनिया में हो”।      


सामने शिकारी बन्दूक लिये खड़ा था 

और बाघ अचानक उसे देख कर रुका। 

एकबारगी सकते में धरती भी रुक गई, 

सूरज भी एकटक यह देख रहा था कि क्या होने वाला है।


वह पलटा और वह चारों तरफ़ से घिर चुका था।

उसने शिकारी से पलट कर कहा, 

“मैं तुम्हारे बच्चों के लिए बहुत ज़रूरी हूँ, मुझे मत मारो”। 


चारों ओर से उस पर गोलियाँ बरस पड़ीं। 


उसका डर फिर भी बना हुआ था। 

शिकारी सहम सहम कर उसके क़रीब आ रहे थे।


उसके पंजे काट लिये गये, जिससे बनते थे उसके निशान। 

यह उपर का आदेश था, 

कि जो उसे अमर समझते हैं उन्हें सनद रहे कि वह मारा गया। 

आने वाली पीढ़ियाँ भी यह जानें।  

उसके पंजों को रखा गया है संग्रहालय में। 




दूर देश की कथा


देश बहुत दूर है उसके स्कूल से. 

कम से कम दस किलोमीटर दूर उसको 

अपने मोबाइल पर मिलता है सिग्नल 

और साथ में थोड़ा सा एक देश. 


देश उसके चूल्हे से बहुत दूर है. 

कम से कम एक हज़ार किलोमीटर दूर से 

उसे सुनाई देता है थोड़ा थोड़ा एक प्रधानमंत्री का भाषण 

और दिखाई देता है थोड़ा थोड़ा एक देश. 


देश के मानचित्र से बाहर जा चुकी है वह औरत 

जिसके पति की जान ले चुका है उसका खेत. 

जिसका बेटा मिट्टी में मिल चुका है 

और बेटी रूप के हाट की मल्लिका है. 

बहुत दूर अंतरिक्ष से 

उसके कानों तक पहुँच रहा है 

मुश्किल से एक राष्ट्र गान. 

अँधेरे में दीवार टटोलती खड़ी होती है वह 

उस के लिए जो उसके साथ नहीं खड़ा है. 


यह उस देश के कथा है 

जहाँ आम लोगों तक नहीं पहुँचता नेटवर्क. 



दादा जी साईकिल वाले


मैं ज्यों ज्यों बड़ा होता गया, 

मेरी साईकिल की ऊंचाई भी बढ़ती गई। 

और उन सभी साईकिलों को कसा था, 

पटना कॉलेज के सामने वाले “दादा जी साईकिल वाले” नाना ने। 


अशोक राजपथ पर दौड़ती, चलती, रेंगती ज़्यादातर साईकिलें 

उनके हाथों से ही कसी थीं। 

पूरा पटना ही जैसे उनके चक्के पर चल रहा था। 

हाँफ रहा था। 

गंतव्य तक पहुँच रहा था। 


वहाँ से गुज़रने वाले सभी, वहाँ एक बार रुकते ज़रूर थे। 

सत सिरी अकाल कहने के लिए। 

चक्के में हवा भरने के लिए। 

नए प्लास्टिक के हत्थे या झालर लगवाने के लिए। 

चाय पी कर, साँस भर कर, आगे बढ़ जाने के लिए। 


पछिया चले या पूरवईया, 

पूरी फ़िज़ा में उनके ही पंप की हवा थी। 


हमारे स्कूल की छुट्टी जल्दी हो गई थी। 

हम सबने एक साथ दादा जी की दुकान पर ब्रेक लगाई। 

पर दादा जी की दुकान ख़ाली हो रही थी। 

तक़रीबन ख़ाली हो चुकी थी। 

मुझे वहाँ साईकिल में लगाने वाला आईना दिखा,

मुझे वह चाहिए था, मैंने उठा लिया। 

इधर उधर देखा तो वहाँ उनके घर का कोई नहीं था। 


शाम को छः बजे दूरदर्शन ने पुष्टि कर दी  

कि इन्दीरा गाँधी का देहांत हो गया।  


चार दिन बाद स्कूल खुले और हमें घर से निकलने की इजाज़त मिली। 

शहर, टेढ़े हुए चक्के पर घिसट रहा था। हवा सब में कम कम थी। 


स्कूल खुलने पर हम सब फिर से वहाँ रुके, हमेशा की तरह। 

मैंने आईने का दाम चुकाना चाहा, 

पर दादा जी, गुरु नानक की तरह सिर झुकाए निर्विकार से बैठे थे। 

उनके क्लीन शेव बेटे ने मेरे सिर पर हाथ फेर कर कहा, “रहने दो”। 

एक दानवीर दान कर रहा था आईना।  


उसके बाद लोग अपने अपने चक्के में हवा अलग अलग जगह से भरवाने लगे। 

उसके बाद हर गली में पचास पैसे लेकर हवा भरने वाले बैठने लगे। 



गंगा मस्जिद

[बाबरी मस्जिद ध्वंस के अट्ठारहवें साल]

 

ह बचपन की बात है, पटना की।

गंगा किनारे वाली ‘गंगा मस्जिद’ की मीनार पर,

खड़े होकर घंटों गंगा को देखा करता था।


गंगा छेड़ते हुए मस्जिद को लात मारती, 

कहती, “अबे मुसलमान, कभी मेरे पानी से नहा भी लिया कर”। 

और कह कर बहुत तेज़ भागती दूसरी ओर हँसती हँसती।

मस्जिद भी उसे दूसरी छोर तक रगेदती हँसती हँसती। 

परिन्दे ख़ूब कलरव करते। 


इस हड़बोम में मुअज़्ज़िन की दोपहर की नीन्द टूटती, 

और झट से मस्जिद किनारे आ लगती। 

गंगा सट से बंगाल की ओर बढ़ जाती। 

परिन्दे मुअज़्ज़िन पर मुँह दाब के हँसने लगते। 


मीनार से बाल्टी लटका, 

मुअज़्ज़िन खींचता रस्सी से गंगा जल। 

वुज़ू करता। 

आज़ान देता। 


लोग भी आते, 

खींचते गंगा जल, 

वुज़ू करते, नमाज़ पढ़ते, 

और चले जाते। 


आज अट्ठारह साल बाद, 

मैं फिर खड़ा हूँ उसी मीनार पर।    

गंगा सहला रही है मस्जिद को आहिस्ते आहिस्ते। 

सरकार ने अब वुज़ू के लिए 

साफ़ पानी की सप्लाई करवा दी है।  

मुअज़्ज़िन की दोपहर, 

अब करवटों में गुज़रती है। 


गंगा चूम चूम कर भीगो रही है मस्जिद को, 

मस्जिद मुँह मोड़े चुपचाप खड़ी है।


गंगा मुझे देखती है, 

और मैं गंगा को।

मस्जिद किसी और तरफ़ देख रही है।  



इंसाफ़
 


गर लोग इंसाफ़ के लिए तैयार न हों।

और नाइंसाफ़ी उनमें विजय भावना भरती हो।

तो यक़ीन मानिए,  

वे पराजित हैं मन के किसी कोने में।

उनमें खोने का अहसास भरा है।

वे बचाए रखने के लिए ही हो गये हैं अनुदार।

उन्हें एक अच्छे वैद्य की ज़रूरत है।

 

वे निर्लिप्त नहीं, निरपेक्ष नहीं,

पक्षधरता उन्हें ही रोक रही है।

अहंकार जिन्हें जला रहा है।

मेरी तेरी उसकी बात में जो उलझे हैं,

उन्हें ज़रूरत है एक अच्छे वैज्ञानिक की।

 

हारे हुए लोगों के बीच ही आती है संस्कृति की खाल में नफ़रत।

धर्म की खाल में राजनीति।

देशभक्ति की खाल में सांप्रदायिकता।

सीने में धधकता है उनके इतिहास।

आँखों में जलता है लहू।

उन्हें ज़रूरत है एक धर्म की।  

 

ऐसी घड़ी में इंसाफ़ एक नाज़ुक मसला है।

देश को ज़रूरत है सच के प्रशिक्षण की।  



महादेव


जैसे जैसे सूरज निकलता है,

नीला होता जाता है आसमान।

 

जैसे ध्यान से जग रहे हों महादेव।

 

धीरे धीरे राख झाड़, उठ खड़ा होता है एक नील पुरुष।

और नीली देह धूप में चमकने तपने लगती है भरपूर।

 

शाम होते ही फिर से ध्यान में लीन हो जाते हैं महादेव।

नीला और गहरा .... और गहरा हो जाता है।

हो जाती है रात।



 
लकड़-सुंघवा 

[बच्चों के लिए रचा गया एक मिथ कि वह बेहोश करने वाली लकड़ी सुंघा कर बच्चों को ले जाता है।]


रात में भी लोगों में रहने लगा है अब, 

लकड़-सुंघवा का डर।  


लू के मौसम में, 

जब सुबह का स्कूल होता है, 

दोपहर को माँ अपने बच्चे से कहती है, 

“सो जा बेटा, नहीं तो लकड़-सुंघवा आ जाएगा”। 

“माँ, लकड़-सुंघवा को पुलिस क्यों नहीं पकड़ लेती?” 

“बेटा, वह पुलिस को तनख़्वाह देता है”। 


शाम को जब बच्चा सो कर उठता, 

तो मान लेता है कि लकड़-सुंघवा आया 

और बिना बच्चा चुराये चला गया। 


पर एक रोज़ बस्ती में सचमुच आ गया लकड़-सुंघवा। पर रात में।  

पूरनमासी की रात थी, पत्तों की खड़ खड़ पर कुत्तें भौंक रहे थे। 

बिल्ली सा वह आया दबे पाँव। 

 

सोये हुए लोगों की छाती में समा गई उसकी लकड़ी की महक।

जो भाग सके वे अँधे, बहरे, लूले, लंगड़े हो गये, 

लेकिन ज़्यादातर नीन्द में ही सोये रह गये। 


और धीरे धीरे जमने लगी धूल बस्ती पर। 

जैसे जमती है धूल यादों पर, अदालत की फ़ाईलों पर, 

पुलिस थाने की शिकायत पुस्तिका पर। 


एक दिन धूल जमी बस्ती, मिट्टी में दब गई गहरी।

समतल सपाट मैदान ही केवल उसका गवाह था।


ज़मीन के अन्दर दबी बस्ती उभर आई अचानक।  

जैसे पुराना कोई दर्द उखड़ आया हो।  


पचीस सालों की खुदाई के बाद निकले कुछ खंडहर, कंकाल, साँप, बिच्छू।

कंकालों ने तत्काल खोल दीं आँखें, 

खुदाई करने वाले सिहर उठे और फिर से उन पर मिट्टी डाल दी।  


पुरातत्ववेत्ताओं ने दुनिया को बताया, 

कि बस्ती प्राकृतिक आपदा से दब गई थी नीचे। 


अब किसको इसकी सज़ा दें और किसको पकड़ें धरें। 


इतिहास लिखने वालों ने अंततः वही लिखा,

जो पुरातत्ववेत्ताओं ने बताया।  

खुदाई पूरी होने के इंतज़ार में खड़े लोग,

खड़े रह गये। 


उन्होंने उतरना चाहा हालांकि अन्दर, 

कि तभी शोर उठा, 

लकड़-सुंघवा आया, लकड़-सुंघवा आया !!!! 

लकड़-सुंघवा आया, लकड़-सुंघवा आया !!!! 



मुस्कुराहटें
 


र कोई मुस्कुराता है 

अपने अपने अर्थ के साथ।


बच्चा मुस्कुराता है, 

तो लगता है, वह निर्भय है। 

प्रेमिका मुस्कुराती है, 

तो लगता है, उसे स्वीकार है मेरा प्रस्ताव।

दार्शनिक मुस्कुराता है,

तो लगता है, व्यंग्य कर रहा है दुनिया पर।

भूखा मुस्कुराता है, 

तो लगता है, वह मुक्त हो चुका है और पाने को पड़ी है 

उसके सामने पूरी दुनिया। 


जब अमीर मुस्कुराता है, 

तो लगता है, शासक मुस्कुरा रहा है,

कि देश की कमज़ोर नब्ज़ उसके हाथ में है,

कि जब भी उसे मज़ा लेना होगा, 

दबा देगा थोड़ा सा। 


मामू साहब


तिहास में अगर कहीं थकान का अध्याय होता

या थक कर भी काम करते रहने का अध्याय होता 

तो वहाँ मामू साहब का नाम ज़रूर दर्ज होता. 

पर मेहनत के इतिहास का 

अभी तक ईजाद नहीं किया किसी इतिहासकार ने. 

पर ऐसा किसी चूक से नहीं हुआ है. 

मेहनत के इतिहास में तो ज़रूरी हो जाता पसीने का ब्यौरा देना. 

फिर पत्थरों पर खुदे बादशाहों के नाम होने लगते संदिग्ध. 


मामू साहब भी लकीरें लेकर आए थे बहुत सुंदर जीवन का 

लेकिन हमारा भाग्य लिखने के क्रम में उनकी लकीरें मिट गईं. 

आप तो ठीक ठीक अंदाज़ा भी नहीं लगा सकते 

कि एक मज़दूर के लिए अपनी लकीरें उठा कर 

किसी दूसरे की हथेली पर रख देना क्या होता है. 

इस पर पूरा ब्रह्माण्ड चुप है. 


इमारत के इतिहास में कोई मिट्टी का इतिहास नहीं लिखता.

अगर किसी इतिहासकार में कभी हिम्मत होगी 

तो वह इमारत को ज़मीन से निकाल कर उलटा रखेगा, फिर लिखेगा इतिहास. 


चुपचाप काम करने वालों ने अभी भी मुँह नहीं खोला है. 

किसान, मज़दूर, मोची, मेहतर का इतिहास लिखा जाना बाकी है अभी. 

वनस्पति शास्त्र के छात्रों की तरह सबको पता होना चाहिए 

कि धरती के ऊपर जो दिख रहा है, उसकी जड़ ज़मीन में कहाँ तक है. 




मादक और सारहीन 


तुम्हारी हर अंगड़ाई पर झरती है सोआ की गंध. 

तुम्हारी साँसों से आती है रोटी की भाप, हींग की महक. 

छौंके की छन होती है तुम्हारी हर बात. 

तुम आई, जैसे बंजर ज़मीन पर उग आई हो कोई घास. 

जीवन बन गया जैसे उसना फरहर भात. 


पर यहाँ तक लिखते लिखते थक जाते हैं हाथ. 

मादक और सारहीन हो जाते हैं शब्द. 

अपनी संस्कारगत अभिव्यक्ति पर कर-कर के कुठाराघात 

बड़ी मुश्किल से गढ़ता हूँ तुम्हारे लिए एक स्थान. 

पर अभी भी तुम्हें रसोई की उपमाओं से बाहर नहीं देखा. 

नहीं दिखा मुझे तुम्हारी तनी हुई मुट्ठी में इंकलाब. 

नहीं दिखी तुम्हारी हिस्सेदारी. 

नहीं सुन पाया अभी तक तुम्हारा कदमताल. 


तुम जेल में हो और पल रहा है तुम्हारे गर्भ में एक तूफ़ान. 

मैं सन्नाटे में खड़ा हूँ हाथ में लिए अभी भी 

तुम्हारे काकुलों की महक, चूड़ियों की खनक.   




मैंने पहली बार रसोई देखी 


मैंने पहली बार रसोई देखी, अभी.  

जब हर किसी के लिए पूरा शहर बंद है 

और कुछ लोगों का चूल्हा भी बुझ गया है. 

मैंने सत्य को सुलगता देखा.   


रसोई तो पहले भी देखी थी पर असल में देखी नहीं थी. 

जैसे हम कभी अपने उस पैर को नहीं देखते 

जिसके सहारे ही हम खड़े हैं या चल पाते. 

जब वह थक कर चूर हो जाता है,

जब वह कुछ भी करने से कर देता है इंकार.  

तब ही देखते हैं हम अपने पैर को. 


तो, मैंने पहली बार रसोई देखी, 

चूल्हे से निकलती लपटें देखीं. 

गरम गरम कड़ाही देखी. 

फूलती पिचकती रोटी देखी. 


भगौने से उठता भाप देखा. 

उसमें उबलता दूध देखा. 

धुआँ देखा. 

चिमटा देखा. 

हाथ को आग से जलते देखा. 

नल का ठंडा पानी देखा. 

सब पहली बार. सब पहली बार देखा. 


जब पोर पोर में पसीना देखा. 

उसमें अपनी माँ को देखा. 

माँ को तवे पर सिंकते देखा. 

भात के साथ उबलते देखा. 

दाल के साथ बहते देखा. 

धैर्य को देखा, धैर्य से देखा. 

एक जीवन को जलता देखा. 


मैंने पहली बार भूख को देखा.  

मुँह में घुलते स्वाद को देखा. 

पेट में उतरता अमृत देखा. 


खाते हुए, अघाते हुए 

मैंने घर के बाहर भूखा देखा. 

उसके सूखे होंठ को देखा. 

आँखों में उसके लपटें देखीं. 


मैंने इधर देखा, मैंने उधर देखा. 

मैंने ख़ुद को नज़र चुराते देखा. 



मेरे सुगना 


तुम ध्यान रखना 

यह जो बादल उड़ा है अभी बंबई से 

वह रूप बदलने में बहुत माहिर है. 

वह सन्यासी का रूप धर के द्वार खटखटाएगा. 

उस भगवाधारी जटाधारी को 

एक मुट्ठी चावल देकर मेरे बारे में बता देना 

और ऐसे बताना जैसे तुमको पहले से कुछ मालूम न हो. 


मैं छठ पर इस बार ज़रूर आऊँगा 

पथरी घाट पर तुम्हें अर्घ्य देने. 

मेरे पहुँचने तक रुकना, 

फिर उगना. मेरे सुगना. 



माफ़ी


बसे पहले मैं माफ़ी मांगता हूँ हज़रत हौव्वा से. 

मैंने ही अफ़वाह उड़ाई थी कि उस ने आदम को बहकाया था 

और उसके मासिक धर्म की पीड़ा उसके गुनाहों की सज़ा है जो रहेगी सृष्टि के अंत तक. 

मैंने ही बोये थे बलात्कार के सबसे प्राचीनतम बीज. 


मैं माफ़ी माँगता हूँ उन तमाम औरतों से 

जिन्हें मैंने पाप योनी में जन्मा हुआ घोषित करके 

अज्ञान की कोठरी में धकेल दिया 

और धरती पर कब्ज़ा कर लिया 

और राजा बन बैठा. और वज़ीर बन बैठा. और द्वारपाल बन बैठा. 

मेरी ही शिक्षा थी यह बताने की कि औरतें रहस्य होती हैं 

ताकि कोई उन्हें समझने की कभी कोशिश भी न करे. 

कभी कोशिश करे भी तो डरे, उनमें उसे चुड़ैल दिखे. 


मैं माफ़ी मांगता हूँ उन तमाम राह चलते उठा ली गईं औरतें से

जो उठा कर ठूंस दी गईं हरम में. 

मैं माफ़ी मांगता हूँ उन औरतों से जिन्हें मैंने मजबूर किया सती होने के लिए. 

मैंने ही गढ़े थे वे पाठ कि द्रौपदी के कारण ही हुई थी महाभारत. 

ताकि दुनिया के सारे मर्द एक होकर घोड़ों से रौंद दें उन्हें 

जैसे रौंदी है मैंने धरती. 


मैं माफ़ी मांगता हूँ उन आदिवासी औरतों से भी 

जिनकी योनी में हमारे राष्ट्र भक्त सिपाहियों ने घुसेड़ दी थी बन्दूकें. 

वह मेरा ही आदेश था. 

मुझे ही जंगल पर कब्ज़ा करना था. औरतों के जंगल पर. 

उनकी उत्पादकता को मुझे ही करना था नियंत्रित. 


मैं माफ़ी मांगता हूँ निर्भया से. 

मैंने ही बता रखा था कि देर रात घूमने वाली लड़की बदचलन होती है 

और किसी लड़के के साथ घूमने वाली लड़की तो निहायत ही बदचलन होती है. 

वह लोहे की सरिया मेरी ही थी. मेरी संस्कृति की सरिया.  


मैं माफ़ी मांगता हूँ आसिफ़ा से. 

जितनी भी आसिफ़ा हैं इस देश में उन सबसे माफ़ी मांगता हूँ. 

जितने भी उन्नाव हैं इस देश में, 

जितने भी सासाराम हैं इस देश में,

उन सबसे माफ़ी मांगता हूँ. 


मैं माफ़ी मांगता हूँ अपने शब्दों और अपनी उन मुस्कुराहटों के लिए 

जो औरतों का उपहास करते थे. 

मैं माफ़ी मांगता हूँ अपनी माँ को जाहिल समझने के लिए. 

बहन पर बंदिश लगाने के लिए. पत्नी का मज़ाक उड़ाने के लिए. 


मैं माफ़ी चाहता हूँ उन लड़कों को दरिंदा बनाने के लिए, 

मेरी बेटी जिनके लिए मांस का निवाला है. 


मैंने रची है अन्याय की पराकाष्ठा. 

मैंने रचा है अल्लाह और ईश्वर का भ्रम. 

अब औरतों को रचना होगा इन सबसे मुक्ति का सैलाब.


फ़रीद ख़ाँ

मोबाइल 9324381704

Wednesday, February 14, 2024

मृदुला सिंह

पूर्व प्रकाशन-  वागर्थ, हंस ,सांस्कृतिक पत्रिका लोकबिम्ब, जन संदेश, छपते छपते, छतीसगढ़ आस पास, मड़ई, पाठ, प्रेरणा, लोक सृजनकविता विहान,जनपथ, छत्तीसगढ़ मित्र, समकालीन जनमतअन्विति, मधुमती तथा रचनाकार आदि में लेखकविताएँ लघुकथा का प्रकाशन

आगामी प्रकाशन - हंस के फरवरी अंक मे कविता प्रकाशित होने की एवं साहित्य अकदमी राजस्थान की पत्रिका मधुमती मे कहानी के प्रकशन की सूचना

 
Ø कोरोना काल विशेष .' दर्द के काफिले '  कविता संकलन (सं कौशल किशोर) में कविताएँ प्रकाशित
Ø जिंदगी जिंदाबाद (सं. रीमा चड्डा दीवान)  में कहानी 'ताले 'का प्रकाशन
Ø मराठी, और अंग्रेजी भाषा मे कविताओ का अनुवाद और प्रकाशन


प्रकाशित
पुस्तक

1.सामाजिक संचेतना के विकास में हिंदी पत्रकारिता का योगदान ( संपादन)
2 मोहन राकेश के चरित्रों का मनोविज्ञान ( पुस्तक)
3.पोखर भर दुख (कविता संग्रह) 2021 में प्रकाशित
4. अंधकार के उस पार (मुक्तिबोध पर केंद्रित (संपादन)
5. तरी हरी ना ना (संपादन) (छत्तीसगढ़ की स्त्री कहानीकारों की कहानियों का संकलन )
 

Ø आकाशवाणी अम्बिकापुर से वार्ताएं और साक्षात्कार का प्रसारण
Ø रायपुर दूरदर्शन  से कविता पाठ का प्रसारण
Ø महत्वपूर्ण मंचो से कविता पाठ
Ø प्रगतिशील लेखक संघ अध्यक्ष ,सरगुजा इकाई



एक
 पीली दुपहरी वसंत की

 

मेरी स्मृतियों में ठहरी है

वसंत की एक पीली दुपहरी

 जब सरसों के खेतों में 

 बिखेर दी थी तुमने अपनी उज्जर हंसी

 और कच्ची सड़क के दूसरी ओर

 गेंहूँ के खेत हरियर हो उठे थे

 तुम्हे याद है  वह बँसुहार

 जिससे खरीदी थी तुमने कंघी

 मैने कहा था क्या तुम बांसुरी नहीं बनाते

 वह हैरान देखता रह गया था

 जमीन पर सजी अपनी दुकान

 रास्ते मे अमरूद बेचती औरत ने

 ज्यादा तौला था अमरूद

 तुमने भी मूल्य समझा था

 होड़ लगी हो जैसे तुम्हारे बीच

 एक दूसरे को अधिक देने की

 सरई के पेड़ों पर मैना मुस्कुराई थी तब

 और पुटुस जगमगा रहे थे

 अमराइयों में  गईं हैं बौरें

 उमग आया है वसंत  

 आओ हम भी लौट चलें गांव

 कि बंजर होती दुनिया मे

 पीली हंसी और हरियर प्रेम

 उपजता रहे

 बनी रहे मन की नमी

 

ताकि बचा रहे नाम का अर्थ


क्षा नौ

मामूली सा सरकारी कमरा नं पांच

बारिश थमी है अभी

और खिड़की पर थिरकती

सुनहरी धूप में गुम

एक साधारण सी लड़की

हिदी के नए शिक्षक की हाजिरी में

अपने नाम की पुकार से चौंक जाती है

 
बहुत खूब!

किसने रखा है तुम्हारा नाम

जानती हो अपने नाम का अर्थ ?

तुम्हारे नाम में छुपा है भाव

बीहड़ मे कोमल के सृजन का

आगे का समय कठोरतम होगा

शब्द की तरह जीवन से

खत्म हो जाएगी कोमलता 

 

लड़की ! करना अपने नाम को सार्थक

फैलाना सब तरफ प्रेम की उजास

जहाँ नरमी  है वहां नमी है

है वहीं शेष कुछ मानवता

पूरी कक्षा हंस रही थी मन ही मन

और वह लड़की पैर के नाखूनों पर

नजरें टिकाए सोच रही

कि आगे कैसे बचाएगी वह 

प्रेम भरी ओस सी आंखें

और लोक की नरम जमीन

नाम के अर्थ तक पहुँचना

कहाँ है इतना आसान

 

अब भी जब कोई पुकारता है उसका नाम

उसे याद जाती है

वर्षों पहले गुरु की दी नसीहत

डर जाता है उसका मन

कि पत्थर होते  समय  में

जमा होती मुश्किलों की काई को धोना

कितना मुश्किल जब

 

फाइनल ईयर की लड़कियां

 

मुस्कुराती हैं

खिलखिलाती हैं

स्कूटी के शीशे में

खुद को संवारती

कॉलेज बिल्डिंग के साथ

सेल्फी लेतीं है

फाइनल ईयर की लड़कियां

 

ग्राउंड स्टाफ से सीखती हैं

जीवन का पाठ

विषमताओं से जूझने की कला

उनके मन के सपने

नीली चिड़िया के साथ

उड़ जाते हैं दूर आसमान में

 

भूगोल के पन्ने पलटते

कर लेती हैं यात्राएं असंभव की

सेमिनार और असाइंमेंट में उलझती

कविता की लय में

तिनके सी बहती

वर दे, वीणावादिनी वर दे

की तान में

सबसे प्यारा हिंदुस्तान की

लय के साथ

रस विभोर हो जाती

जी लेती है क्षणों को

 

निबंध और पोस्टर लेखन मे

नारी जीवन का मर्म अंकित करती

ये फाइनल ईयर की लड़कियां

अंतिम साल को जी लेने की

कामना से भरी

विदा के मार्मिक क्षणो में मांगती हैं

बिन बोले आशीष गुरुओं का

वे

खुश रहो ! के मौन शब्द

पढ़ लेती हैं और मुस्कुरा देती हैं

 

नीले पीले दुपट्टों वाली

गाढ़े सपनो वाली

तीन सालों की पढ़ाई के बाद

जाने कहाँ चली जाती है

ये फाइनल ईयर की लड़कियां।

 



बापू के चश्मे के पार की नायिकाएं 

 

सड़क पर देखा मैने

सच का करुण चेहरा

स्वच्छता मिशन की खाँटी नायिकाएँ

ठसम ठस्स कचरे से भरे रिक्शे

खीचते चल रही थी जांगर खटाते

क्या यह सबका पाप धोने वाली

पुराणों से उतरी गंगाएँ हैं?

नहीं ये औरतें हैं

इसलिए लोग इन्हें

कचरावाली कहते हैं

मां कहलाने के लिए तो

नदी होना जरूरी है

 

दीवार पर बना है बापू का चश्मा

वे देख रहे हैं सब

कहते हैं-

मैं ईश्वर के सबसे करीब बैठता हूँ

देखता हूँ कि ईश्वर के काम करने का ढंग

ठीक इनके जैसा है

 

स्वच्छता का

राष्टीय पुरस्कार मिला है शहर को

उसमें इनके ही पसीने की चमक है

पर पसीने की चमक से

पेट की भूख

और सम्मान का उजाला नही बढ़ता

इंसान गुजरते जाते हैं किनारे से

पर गौरव पथ के बीच लगे पौधे

करते हैं यशोगान इनका

चमचमाती सड़क

स्वागत करती है बाहें फैला कर

 

अरे देखो!

चौक की हरी बत्ती भी अब बोल पड़ी

जाओ, जल्द निकलो

मांगो अपना वाजिब हक

कि दुनिया सिर्फ

महंगे रैपरों, ब्रांडेड चीजों के कवर

और बचा हुआ खाना फ़ेंकनेवालों की नही है



खुरदुरी
हथेलियों में उगा नया ग्लोब 

 

रीता ऑटो वाली मिली थी

जब पहली बार

उस रात उसकी पहली सवारी थी मैं

उसने दिखाई थी मुझे

जीवन की कुछ परछाइयां

चौक चौराहों से भागती स्ट्रीट लाइटों के बीच

 

सादा दुपट्टा ओढ़ लूं

और मौन हो जाऊं

उसके रचे एकांत को नियति समझ लूँ

चलती रहूँ जीवन की

अंधी पगडंडियों पर

मुकर्रर हुआ था यही

उसकी आखिरी सुनवाई में

 

सड़क पर नजरें जमाये

दोनो हाथों से हैंडिल थामें

यह बताते उसे नहीं था कोई विषाद

बल्कि सुनहरा तेज था सांवले रंग पर

पानी के प्रिज्म से टकराकर

पड़ी हों जैसे धूप की किरच  

वह स्त्री नहीं

सप्तवर्णी चिड़िया नजर आई मुझे

 

ठोस इरादों वाली औरते काटती हैं इसी तरह

वर्जनाओं की बेड़ियां बिना उदास हुए

समय की मार सहते

जो नहीं टूटतीं

वे बचा लेती हैं अंतस के गीत

उड़ने नही देतीं दुपट्टे का हरा गुलाबी रंग

रेत होते सपनों पर 

रोपतीं है चुटकी भर उम्मीद

ऐसी ही औरतों की आँख मे बसंत ठहरा है

जहां पीले फूल उमगते रहते हैं

 

अपने भविष्य का हरापन बचा पाना

अकेली औरत के लिए कोई खेल नही

हर पल धोते रहना है उसे

मन की खारी परतें 

लड़ती रहना है नर पिशाचों से

 

खुद के पैरों खड़ी

! नये युग की औरतों

देखो!अपनी खुरदुरी हथेलियां 

उग आया है उन में एक नया ग्लोब

भोर चल कर रही है

तुम्हारे जागने से

सुनो उसकी मद्धिम पदचाप

सब सुनों

 

 

मन की तलछट से उगी हरी धरती

 

की तलछट में

किर्च- किर्च स्मृतियो का जुटान

होता गया समय के साथ

वे सोई पडीं रहीं

बिन करवट लिए

 

कुछ स्मृतियाँ प्रेम की तरह कोमल थी

कुछ लोक की तरह सुंदर

और कुछ संघर्ष की

जो कभी नोटिस ही नही हुईं

धूपछाही समय में ये

तरंगित होती रही

मन के किसी कोने में

 

धीरे धीरे सयानी हुईं यह स्मृतियां

एक दिन सघन हो उठीं

और सुबक कर रोते रहे पहरों तक

मन के भीगे भाव

शब्दों के कांधे रख अपना सर

 

अभिव्यक्तियाँ फूटीं

स्याही बनीं

बिखर गईं सादे कागज पर

स्याही का रंग हरा हो उठा

जिसने भी पलटा उन पन्नो को

उसे धरती दिखी हरी भरी

जिसने भी पढ़ा

कहा, भाव यही हों

जो हरियर कर दें

इस लाल होती धरती को

 


गुलबिया
!

 

सुनो स्वीटी !!

तुम गुलबिया हो ?

वही जो मिली थी मुझे 

साल के हरीले वनों में

 

तुम्हारी सेमल पात सी हंसी

गुदगुदाती रही है

मेरे निराश क्षणों को..

कैसे पलक झपकते ही

कूद गई थी

पहाड़ की तराई वाली

बर्फीली नदी में

जादूगरनी हो तुम

सोचा था मैंने

 

फेंटे में बांध सावन

बीज छीटती हो खेतों में

तो सारी प्रकृति नीली हो जाती है

अपने हिस्से की खुशी

मुट्ठी में बंद किये नापती हो दूरियां

मनुष्येतर जगत की

 

बहते पानी के दर्पण मे

संवारती हो अपनी सुंदरता

गंगा इमली की पायल पहन

जब वासंती सी नाचती हो

तब पतझड़ी मौसमों की कोख में

खिलते हैं पलाशवन

 

कटे पेड़ों की ठूंठ को

छाती से लगाकर पी लिया करती हो

उनकी पीड़ा

गुलाल सी उड़ती हो बन में

महुये सी महकती हो

तुम्हारे आदिम राग से

फूल जाती है धरती की छाती

खिल जाते हैं वनफूल

 

सुनो ! इतना ही कहना है

मत आओ शहर

यहाँ व्यर्थ ही खर्च हो जाओगी

तुम्हारी सहजता को 

सोख लेगा सीमेंट का यह जंगल

बचा लो अपना नाम

भरम है   गुलबिया से स्वीटी बनना ............

 

 


मूर्ति भंजकों के प्रति

 

मूर्तियों को तोड़ने के लिए

जुटाई गई भीड़

क्या सचमुच जानती होगी

मूर्ति के विचारों को ?

कभी देखी होगी

'राज्य और क्रांति' की जिल्द

'सत्य के प्रयोग' से

हुए होंगे रूबरू

या पन्ना भी पलटा होगा

संविधान का?

 

ये नही जानते

जातिगत अपमान का दंश

नही जानते कृतज्ञता

नही जानते करोड़ों सपनों का

पसीना लगा है

इस देश को रचने में

ये सभ्यता की सीढ़ियों को हटाते

नही सोचते

कि संस्कृति का क्षरण हो रहा है

तोड़ते जा रहे

वापस लौटने के लिए बने पुल

 

मूर्ति भंजको के अट्हास में

विध्वंस का संदेश प्रसारित होता है

वर्तमान की लड़ाई इतिहास से करते

इन्हें पता नही

भविष्य इनकी पीढ़ियों के सामने

इन्ही खंडित मूर्तियों को रखेगा

अमानत के रूप में

 

पर क्या नाश के पक्षगामी

तोड़ पाते है मूर्तियों के विचारों को ?

क्योंकि जितनी प्रचंडता से

उनके विग्रह पर चलते हैं हथौड़े

उतनी ही प्रखरता से वे

जी उठते है हर बार

पहुंचते हैं जन जन तक

 

सोचती हूँ मूर्तिभंजन की संस्कृति

किस भूमि में उपजती है

कौन सिरज रहा होता है इतनी नफरत

संवैधानिक देश में यह काली पताकाएं

कट्टरता की नई व्याख्याएं हैं

ये हवा हैं रुकेंगी नही

गुजरने दो सर ऊपर से

दिल थामे रहो

ये हवा बदलेगी एक दिन


मृदुला सिंह
सम्प्रतिअंबिकापुर
मोब. 6260304580