Monday, July 13, 2015

सुशील बेगाना



सुशील बेगाना रियासत के साहित्यिक जगत में अपना अलग स्थान रखते हैं। रचनाओं में अलग शिल्प और बिंब उनको हर दिल अजीज बनाता है तो अलग अंदाज-ए-बयां भीड़ से अलग खड़ा करता है। इनकी रचनाएं पढ़ने या सुनने वाले को अपने बहाव में बहा ले जाती है। कवि कहानी गोष्ठियों में अकसर उनसे मिलना होता है। बेहद सादा और मिलनसार तबीयत के मालिक बेगाना कुछ ही मुलाकातों में किसी को भी अपना बना लेते हैं। 

'खुलते किबाड़' पर पहली बार सहर्ष उनकी तीन कविताएं (दो हिंदी ओर एक डोगरी ) प्रस्तुत कर रहा हूं।  उम्मीद है कि यह प्रस्तुति पाठकों को सुशील बेगाना के काव्य कर्म के साथ साथ उनकी विचारधारा, चिंताओं और व्यक्तित्व के  और पास ले जाएगी।  




किसान

किसान
जिस नगरी का मैं बासी हूं
उस नगरी के हाथों में ,
 मेंहदी का रँग चढ़ा है
 भाग्य की रेखा है।
उस नगरी का रँग है माटी
माटी की दो आँखों ने ,
पिछले कल से अगले कल तक
एक ही मौसम देखा है।
उस नगरी के दो नयनों से
ममता रोज़ बरसती है ,
तुम कहते हो उस नगरी का
हर सावन हरजाई है।
भूख-नगर के जलते सावन
की , गरिमा क्या जानो तुम ,
ओड़ के इसको बर्षों मैंने
पेट की आग बुझाई है।
फ़ाकों के चुल्हे पर जब-जब
मौसम भूख पकाता था ,
खुद को मैंने बर्फ़ बनाकर
आग की डलियां चाटी हैं।
दिनकर को पिघला कर मैंने
प्यास बुझा ली अधरों की ,
धूप के मौसम बो कर मैंने
ओस की फ़सलें काटी हैं।
वेद-क़ुरान से उनका नाता
जिन के पेट में रोटी है ,
भूख के मारों की इस जग में
 दादी  नानी है।
रिश्ते जिनको मैंने जाना
सपने हैं कुछ ग़ुरबत के ,
ममता जिसको मैंने समझा
आँख का कोसा पानी है।
उस कोसे पानी के पीछे
आशाओं का झरना है ,
उस झरने की कुछ बूंदों से
मेरी खेती चलती है।
उस खेती से रक्त-सनी
कुछ फ़सलें भी उग आती हैं ,
उन फ़सलों पर मेरे रिश्तों
की यह दुनिया पलती है।
जिस्मों की दुनिया के रिश्ते
सोना-चांदी मांगे हैं ,
खेती का माटी से रिश्ता
माटी में सब माटी हैं।
दिनकर को पिघला कर मैंने
प्यास बुझा ली अधरों की ,
धूप के मौसम बो कर मैंने
ओस की फ़सलें काटी हैं।




गूंगी भाषा 

सिंधू हूं मैं बिंदु होकर
नवचेतन की धारों में
अवचेतन के गीत चुराकर
स्वर-स्वर बहने आया हूं।
शब्दों के अंबर से लेकर
अर्थों की इस भूमि तक
अक्षर-अक्षर मौन पिरोकर
कविता कहने आया हूं।
कविता, जिसकी आंख में आकर सपनों को आराम मिले।
कविता , जिसकी दृष्टि में ही
सृष्टि का प्रमाण मिले।
कविता, जिसकी सांसें पीकर
जीवन को हैं प्राण मिले।
कविता , जिसका शीशा होकर
मानव को पहचान मिले।
कविता , जिसकी परिभाषा में,
तुझ में , मुझ में भेद नहीं।
उस कविता का मन रूपहला
तन पर पहने आया हूं।
शब्दों के अंबर से लेकर
अर्थों की इस भूमि तक
अक्षर-अक्षर मौन पिरोकर
कविता कहने आया हूं।
कविता , जिसके पंख लगाकर
चांद गगन में उड़ता है।
कविता , जिसका आंचल ओढ़े
मौसम रंग बदलता है।
कविता , जिसके तन को छूकर
पानी आग पकड़ता है।
कविता , जिसके आलिंगन में
दिनकर रोज़ पिघलता है।
कविता , जिसके अग्निपथ पर
पग-पग मुझको चलना है।
उस कविता के जलते तन की
अग्नि सहने आया हूं।
शब्दों के अंबर से लेकर
अर्थों की इस भूमि तक
अक्षर-अक्षर मौन पिरोकर
कविता कहने आया हूं।
कविता , जिसका हाथ पकड़ कर
बदली भी इतराती है।
कविता , जिसके सात- सुरों पर
वायु भी बल खाती है।
कविता , जिसकी कोमलता से
मन-बगिया मुस्काती है।
कविता जिसके तन में घुलकर
ख़ुशबू भी शरमाती है।
कविता , जिसका राग लजाता
कोयल की सुर-लहरी को।
उस कविता की छंद-लहर में
में भी बहने आया हूं।
शब्दों के अंबर से लेकर
अर्थों की इस भूमि तक
अक्षर-अक्षर मौन पिरोकर
कविता कहने आया हूं।
कविता , जिसके गौण-मौन में
शोर तो घोर तमाशा है।
अंतस के गुंगे शब्दों में
कविता की परिभाषा है।
मौन सृजन की पट्ठशाला है
मौन प्रेम की भाषा है।
कविता संपूर्ण उसकी है
जिसने मौन तलाशा है।
तू '' बेगाना '' तू क्या समझे
मूक प्रेम की भाषा को ,
मूक-नगर की इस बस्ती में
मैं ही रहने आया हूं
शब्दों के अंबर से लेकर
अर्थों की इस भूमि तक
अक्षर-अक्षर मौन पिरोकर
कविता कहने आया हूं।



त्रकालें (कविता)

साढ़ी बक्खी खबरै कैहली फरदा नेईं त्रकालें।
कोह्का नैन प्याला साकी भरदा नेईं त्रकालें।
कुस दिन तेरा चेता अड़ेआ हट्ट मना दी टप्पी ,
सोह्ल-पनीरी सुखनें आह्ली चरदा नेईं त्रकालें।
मेरा पीना जुर्म गै मित्थो पर मीं हिरखी दस्सो ,
ओहका जेह्का नैन समुंदर करदा नेईं त्रकालें।
उस केह् भाखी सार नशे दी , उस केह् मस्ती वरनी
पैर कदें जो मन - मैख़ाने धरदा नेईं त्रकालें।
सोह्ल - कलेजा बदले तिक्कर गु 'बरें फट्टी जंदा ,
जेकर हिरख तुसाढ़ा नैनें बरदा नेईं त्रकालें।
बट्टे-गीह्टे खेडी दिन भर मन परचाई लैंदा
सोह्ल ञ्यानां भुक्ख-कलैह्नी जरदा नेईं त्रकालें।
दिन-भर ओह्बी जीने ते गै लक्ख सबीलां करदा ,
ओह् फक्कड़ जो मरने शा बी डरदा नेईं त्रकालें।
सत्त-सबेलें फूकी अस बी अपनी कारा लगदे ,
जेकर बापू साढ़ा अड़ेआ मरदा नेईं त्रकालें।
पैर सबेरा-सजरा उसदे तलियें चुक्की फिरदा ,
जो न्हरें दी जंग घनेरी हरदा नेईं त्रकालें।
ओह् सुखना जो चढ़दा सूरज नेंनें घाली पींदा ,
ओह् दुक्खें दे कड़क सियाले ठरदा नेईं त्रकालें।
पुच्छ '' बगान्ना '' उसगी बड्डला किन्नें हीलें पलदा ,
टिक्कड़ इक्क सबल्ला जिसगी सरदा नेईं त्रकालें।



सम्पर्क :

सुशील बेगाना
7-ए/1, भगवती नगर, जम्मू
180013
मोबाइल नंबर: 9796242022



(सभी चित्र गूगल की मदद से विभिन्न साइट्स से साभार लिए गए हैं)

Wednesday, July 8, 2015

लोक मंच जम्मू व कश्मीर द्वारा एकल काव्य पाठ


बू से लथपथ 
उसकी सांसे
जिस्म हो जाने को बेताब
जब घुटन देना चाहती है मुझे
रोज की तरह
मुक्ति की छटपटाहट में
मैंने चाहा
नदी हो जाऊं
बाढ़ में बदल जाऊं
उठाऊं तूफ़ान
बह जाए दर्द सारा
कारण सारा
फिर
एक दिन मैं माफ कर देती हूँ उसे
...
और मुक्त हो जाती हूँ .


' लोमज 'ने साहित्य सांस्कृतिक गतिविधियों में एक नयी कड़ी जोड़ते हुए युवा कवि डॉ० शाश्विता के एकल काव्य पाठ का सफल आयोजन करवाया . उमस भरे रविवार के दिन हर बार की तरह साथियों का उत्साह देखते ही बनता था . अध्यक्ष , मुख्य अतिथि , मीडिया आदि तामझाम से परे यह विशुद्ध रूप से श्रोताओं एक्टिविस्ट साथियों का कार्यक्रम था . डेढ़ घंटे के इस कार्यक्रम से नई ऊर्जा का संचार हुआ . आलम यह था कि कार्यक्रम खत्म होने के बाद भी जानीपुर चौक पर साथियों ने बाद दोपहर तक साहित्य की भूमिका सीमा को लेकर जोरदार विचार विमर्श किया . साथियों की यही राय रही कि चुपचाप हाशियों पर रहकर हाशिए के लिए ही काम किया जाए ...
बिना किसी औपचारिकता के कविता पोस्टरों के बीच १२ बजे काव्य पाठ शुरू हुआ . डॉ . शाश्विता ने अपने प्रभावी काव्य पाठ से श्रोताओं को ४५ मिनट तक बाँधे रखा . उन्होंने - वह स्त्री , तीली भर रोशनी , सहवेदना , जन्मजात अन्धी , तुम इक कोशिश करना , कागज की नाव , वही मैं हूँ वही तुम हो , मेम साहब , उम्मीद से है रात , मैंने उसे छुआ , स्पर्श , तीसरा आदमी समेत १५ कविताओं का पाठ किया . काव्यपाठ के बाद उपस्थित श्रोताओं ने अपने अपने विचार रखे . रवि कुमार ने कहा कि डॉ० शाश्विता की कविताओं पर त्वरित टिप्पणी नहीं की जा सकती . इनकी कविताएँ अधिक पाठ मांगती हैं . संजीत सिंह चौहान ने शाश्विता की कविताओं को कोमल भावों और सशक्त भाषा की कविता कहा . उन्होंने यह भी कहा कि साथियों को यह भी विचार करना होगा कि ऐसे आयोजन का सन्देश कहीं गलत जाए , क्योंकि लोक मंच की भूमिका कहीं कहीं शहर की दूसरी सभी संस्थाओं से अलग है . कमल जीत चौधरी ने कहा कि डॉ शाश्विता की कविताएँ सहवेदना , अँधेरे , लोक - अलोक और आत्मसाक्षात्कार की कविताएँ हैं . ये व्यष्टि से समष्टिपरकता की ओर ले जाती हैं . अस्तित्व की तलाश करती ये कविताएँ अपने सामाजिक दायित्व को भी नहीं भूलती . उन्होंने कहा कि इनकी कविताएँ चौंकाती नहीं है . कोई पंच नहीं मारती हैं . बिम्ब सृजन का अति उत्साह इनके यहाँ नहीं है . जैसे कि इधर की हिन्दी कविता ध्यान आकर्षण के चक्कर में अनबुझे बिम्बों और चमत्कार प्रदर्शन में फंसती जा रही है . ईश्वर पर लिखी एक कविता के सन्दर्भ में उन्होंने कहा कि कविता शुरू में जिस ईश्वर पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करती दिखती है अंत में उसी की गोदी में बैठ जाती है . आदर्श और आस्था की ऐसी अभिव्यक्ति से कला और कविता को अधिकाधिक बचना चाहिए . कहीं कहीं इनकी कविताओं में दोहराव है . इससे भी बचना होगा .उन्होंने कहा कि अपनी परम्परा को पहचान कर कवि समृद्ध होता है . इनकी सूक्ष्म संवेदना , मार्मिकता और विषय इन्हें महादेवी वर्मा की परम्परा से जोड़ते हैं . नरेश कुमार खजुरिया ने कहा कि कविता महसूस करने की चीज है . आज यही किया है . उन्होंने यूटोपिया की बात करते हुए भी ईश्वर पर लिखी कविता को कमज़ोर कहा . रविन्द्र सिंह ने कहा कि विज्ञान का यह विद्यार्थी भी समझ रहा है कि अराजकता के इस युग में कविता कितनी ज़रूरी है . मोहित शर्मा ने उनकी कविताओं की दार्शनिकता पर विचार रखे . रविन्द्र ने कहा कि जम्मू में ऐसे मुहावरे की कविता कोई नहीं लिख रहा . पम्मी शर्मा ने कहा कि मेरे जैसे श्रोता के लिए यह सुखद आश्चर्य है कि एक डॉक्टर के अन्दर ऐसी कविता है . उन्होंने उनकी कविताओं की कुछ पंक्तियों को पढ़कर उन्हें बधाई दी . ज्योति शर्मा ने शाश्विता की कविताओं को बहुअर्थी कहते हुए कहा कि इसे आदिवासी संवेदना से जोड़कर भी देखा जा सकता है . उन्होंने अनाथ बच्चे , अव्यवस्था , और अंधेपन पर लिखी कविताओं को खुलकर रेखांकित किया . लोक मंच जम्मू कश्मीर के संयोजक कुमार कृष्ण शर्मा ने आयोजन हेतु सभी साथियों का धन्यवाद किया . उन्होंने कहा कि हम में से कोई आलोचक नहीं है . आम पाठक की समझ से किसी का मूल्यांकन होना बड़ी बात है . इसी रूप में समग्रता से डॉ शाश्विता की कविता पर चर्चा हुई है . यह सुन्दर और सार्थक बात है . उन्होंने कहा कि स्त्री संसार की ऐसी कविताएँ एक स्त्री ही सृज सकती है . उन्होंने सुझाव देते हुए कहा कि इन्हें कविता के अनावश्यक विस्तार से बचना चाहिए . कुमार ने साथी संजीत के उठाये प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा की वैचारिक ईमानदारी और प्रतिबद्धता बनी रहनी चाहिए . फिर किसी भी तरह के आयोजन गलत नहीं हैं . डॉ० मनीषा ने कहा कि शाश्विता अपनी कलम से स्वजागरण की बात करती हैं . समाज में सुधार हो सकता है , मठ और सत्ताएं बदली जा सकती हैं . बस स्व के जागने में देरी है . इनकी कविता आदमी होना सिखाती है . कार्यक्रम में सुनीता कपूर , अमित पुरी , बी० सी० कपूर , असीम पुरी , आसमी , आशुतोष शर्मा , अंकुर सेठी , सुरेश मिश्र , गजेन्द्र सिंह रावत , मंजीत कौर रावत आदि साहित्यिक प्रेमियों की गरिमामय उपस्थिति रही
.



दोस्तो इनकी दो कविताएँ और पढ़ें -

जन्मजात अन्धी 


उसने 
तवचा के रोयें रोयें से 
दिशाओं का साक्षात्कार किया 
स्पर्श के नैसर्गिक सम्बोधन की 
हर सम्भावना को 
उसने स्वीकार किया
... 
आहट की छोटी से छोटी इकाई 
उसकी संवेदनाओं को रोमांचित कर 
देह में गूँज भर देती 
रगों में दौड़ता अन्धकार 
उसके अंतर को आकार देता रहा 
जैसे कोख के गहरे अँधेरे में 
सांस लेता है जीवन 
वह धरती की हर करवट को 
पोर पोर महसूस करती
पगडंडियों की गंध 
उसे मंजिल के करीब ले जाती -
वह लड़की 
जन्म और जात से अंधी 
नहीं समझ पाई 
जन्म से जात का सम्बन्ध 
वह दिन और रात के सौन्दर्य में निरन्तर 
निष्पक्ष बनी रही 




तीसरा आदमी
बसंत लगभग झड़ चुका है वहां
परिदों की आँखों में
सदी के ध्वंस की
दरिद्र स्मृतियाँ साफ नज़र आती हैं
पिछली सदी के लोग
उम्र की दरारों में
ठहर गया
तीसरे आदमी का तजुर्बा
बार बार दोहराते हैं
हवाओं की बदलती
तरंगों से
वह उसकी गंध
भांप लेते हैं
युवाओं की त्वचा से
शुष्क होती नमी को छूकर
वह तीसरे आदमी के संकेत समझ जाते हैं
तीसरा आदमी
धोती टोपी और पगड़ी को
पोशाक से निकालकर
मजहबी मंसूबों तक लाता है
वह उनकी मिट्टी में जीवन की जगह
बारूद रोपता है
वह उनकी हड्डियों के खनिज में
साम्प्रदायिक रसायन पिघलाकर
महंगी सिगार में कश फूंकता है
उसका इरादा महामारी की तरह फैल जाता है
यह तीसरा आदमी
हर दूसरे आदमी में
कमज़ोर कोशिकाओं की
अराजक उपज है
पिछली सदी के लोग कहते हैं
बहुत पहले हुआ करता था
सिर्फ आदमी
जो धोती टोपी और पगड़ी की जगह
बस कपड़ा पहनता था
पुराने लोग बताते हैं
देर रात
शहरों के कुओं के पास
कुछ साए मंडराते हैं
वह जलियांवाले बाग़ का सामूहिक ध्वंस सुनाते हैं
और वीरांगनाओं का जोहर भी
...
उनकी चीखों से
आज भी बच्चे जाग जाते हैं
माँ की छातियों का दूध दहल जाता है
देर रात मंडराते साए
शोक गीत गाते हैं
वह देखते हैं
बसंत लगभग झड़ चुका है
घोंसलों में
बिखरे हुए पंख
कुछ जाने पहचाने धब्बे हैं
लोरियां रुआंसी हैं
और रात की कोख में
ज़ख़्मी सन्नाटा है
सरसों की गंध
कभी भी पीलापन खो सकती है
धरती अपनी करवटों में
अब और लावा नहीं समेट पाएगी
जब जब दूसरा आदमी पाया जाएगा -
पहला आदमी
तीसरे आदमी की मौत मारा जाएगा
और बसंत पूरा झड़ जाएगा .


प्रस्तुति :-
कमल जीत चौधरी ,
सदस्य ; लोक मंच , जम्मू कश्मीर