हाल ही में पंडित विद्या रत्न आसी के गजल संग्रह ‘जिंदगी के मारे लोग’ (चेतना प्रकाशन लुधियाना) का विचोमन जम्मू में अभिनव थिएटर में किया गया। जिस संख्या में लोगों ने कार्यक्रम में हिस्सा लिया, उसने दिखा दिया कि आसी हर दिल अजीज शायर हैं, उनका कितना सम्मान किया जाता है। 152 पन्नों के संग्रह में कुल 93 गजलें हैं।
‘खुलते किबाड’ पहली बार आसी की गजलों को सहर्ष प्रस्तुत कर रहा है। गजलें इसी संग्रह से हैं। प्रस्तुति के लिए बेहद छोटी बहर की गजलों का ही चयन किया गया है।
गजल
जरा सा आदमी हूं
बला का आदमी हूं
कहा ना आदमी हूं
सुना क्या आदमी हूं
कहां का आदमी हूं
मैं दिखता आदमी हूं
तेरे ही फजल से मैं
खुदाया आदमी हूं
न जिंदा न मुर्दा
डरा सा आदमी हूं
मुझे क्या जाब्तों से
मैं घर का आदमी हूं
खुदा वाले तो तुम हो
मैं सीधा आदमी हूं
निहायत कम हूं इंसा
जियादा आदमी हूं
जुबां, किरदार कुछ है
मैं कैसा आदमी हूं
यह दो ही सूरतें हैं
खुदा या आदमी हूं
कभी मिल कर तो देखो
मैं अच्छा आदमी हूं
मगर बा होश मिलना
मैं जिंदा आदमी हूं
सिवाए सब्र आसी
करूं क्या आदमी हूं
गजल
यह हाहाकार कुछ है
गलत सरकार कुछ है
सियासत, यार कुछ है
वतन से प्यार कुछ है
मुहब्बत, प्यार कुछ है
हमें दरकार कुछ है
ये इस उस पार कुछ है
मजा मंझदार कुछ है
कहीं इसरार कुछ है
उफक के पार कुछ है
दवा, तीमार कुछ है
मुझे आजार कुछ है
न तुम वो हो न मैं हूं
समय की मार कुछ है
किसे तेरी खबर दूं
कहीं घर बार कुछ है
दिलों में रब्त-ए-बाहम
अगर दुशवार कुछ है
सुकुं से, चैन से हूं
यकीनन हार कुछ है
मुहब्बत और आसी
पस-ए-दीवार कुछ है
गजल
तेज रफ्तारियां
भूख बीमारियां
नेक किरदारियां
झूठ मक्कारियां
इक सुकूं के लिए
उम्र भर ख्वारियां
चांदनी धूप में
कब रही यारियां
जिंदगी जी के मर
छोड़ लाचारियां
आसमां से उतर
छोड़ सरदारियां
हम भले या बुरे
तेरी फनकारियां
घर से उंची न कर
चार दीवारियां
कुछ मुसाफिर गए
कुछ की तैयारियां
तू भी आसी संभल
छोड़ खुद्दारियां
गजल
रात अच्छा लगा
चांद तुम सा लगा
आ गया जिस पे दिल
कौन कैसा लगा
हीर रांझा लगी
हीर रांझा लगा
जिस किसी से मिले
कम जियादा लगा
खुद को पहचानते
इक जमाना लगा
अपनी अपनी नजर
कौन कैसा लगा
कुछ पकड़ में नहीं
सब हवा सा लगा
खेल खेला कोई
घर किसी का लगा
बस कि रिसता रहे
जख्म ऐसा लगा
कल की छोड़ो मियां
आज कैसा लगा
तुम मेरे हो गए
वक्त कितना लगा
जब कि तैराक तुम
पार मैं जा लगा
शख्स आसी फजूल
शायर अच्छा लगा
गजल
इक जमाना था
आशियाना था
क्या छुपाना था
गुम पुराना था
दिल से मिलते थे
क्या जमाना था
जान भी देते
आजमाना था
फूल कर रोए
मुस्कुराना था
जी लिया जब तक
आब-ओ-दाना था
जान जानी थी
दिल को आना था
क्या गिले शिकवे
दोस्ताना था
आबरू कैसी
घर बचाना था
इश्क करतब था
कर दिखाना था
हम तो थे नादां
तू तो दाना था
सौ ठिकाने थे
बे-ठिकाना था
कौन क्या आसी
इक दीवाना था
गजल
वो भूलता थोड़े ही है
इतना बुरा थोड़े ही है
तेरा नसीब, मेरा नसीब
मेरा तिरा थोड़े ही है
ऐ जिंदगी है जिंदगी
कब करबला थोड़े ही है
शायर बला का तू सही
लेकिन चला थोड़े ही है
आसी मियां, मोमिन गलत
पागल हुआ थोड़े ही है
मंदिर में तू मस्जिद में तू
तू, हर जगह थोड़े ही है
तेरा खुदा, तेरा खुदा
मेरा खुदा, थोड़े ही है
दूर का ढोल सुहाना मैं
पाला पड़ा थोड़े ही है
दोजख से जन्नत मुंतकिल
आसी मरा थोड़े ही है
गजल
क्या कहा, जिंदगी
बद्दुआ जिंदगी
इब्तदा, जिंदगी
इंतहा, जिंदगी
जिंदगी है खुदा
है खुदा जिंदगी
बेखुदी चाहिए
कुछ पिला जिंदगी
जिस बहाने से आ
रास आ, जिंदगी
तेरा आशिक हूं मैं
कुछ सुना जिंदगी
छोड़ शिकवे गिले
खिलखिला जिंदगी
आ बताएं तुझे
है ये क्या जिंदगी
कूचा गर्दी ये छोड़
मेरे आ जिंदगी
झूठ सच ही सुना
कुछ सुना, जिंदगी
तेरा मकरूज हूं
मैं तिरा, जिंदगी
खूब नाचूंगा मैं
तू नचा, जिंदगी
अपना आसी संभाल
मैं चला, जिंदगी
साभार
जिंदगी के मारे लोग, चेतना प्रकाशन लुधियाना
जिंदगी के मारे लोग, चेतना प्रकाशन लुधियाना
फोटो: राजकुमार बहरूपिया
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