Saturday, October 8, 2016

खुद से लड़ता, खुद को गढ़ता मूर्तिकार



रियासत जम्मू व कश्मीर के विश्व विख्यात मूर्तिकार रविंद्र जम्वाल पर हाल ही में कला, संस्कृ​ित और भाषा अकादमी के केएल सहगल हाल पर झरोखाश्रंखला के तहत कार्यक्रम का ओयाजन किया गया। कार्यक्रम अकादमी तथा रेडियो कश्मीर जम्मू  की ओर से किया गया था। इसमें विभिन्न सम्मान हासिल कर चुकी प्र​ितष्ठित साहित्यकार योगिता यादव ने जम्वाल के व्यक्तित्व एवं कृतियों पर पेपर पढ़ा। 
हार्दिक आभार और  अनंत शुभकामनाओं सहित योगिता यादव का पेपर सहर्ष पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है। उम्मीद है कि पेपर पाठकों को रविंद्र जम्वाल के कर्म के साथ साथ उनकी विचारधारा, चिंताओं और व्यक्तित्व के  और पास ले जाएगा। 


('खुलते किबाड़' पर योगिता यादव का स्वागत इस उम्मीद के साथ भविष्य में भी उनका सहयोग ऐसे ही प्राप्त होता रहेगा।)






वे अपने लिए कुछ रेखाएं खींचते हैं, कुछ मिट्टी जुटाते हैं, फिर उनमें भाव खोजते हैं। आस्था बनती है। फिर कोई नया ख्य़ाल, कोई नया भाव आकर अब तक की तमाम मान्यताओं को धराशायी कर देता है। अधिकतर कलाकार ऐसे ही बनते हैं और ऐसे ही बिगड़ती हैं एक के बाद एक निर्मित हुईं उनकी अवधारणाएं। जम्मू की शान, शान-ए-डुग्गर, लोकप्रिय शख्सियतों में से एक रविंद्र जम्वाल कलाकारों के मूल प्राणतत्व से भला अलग कैसे हो सकते हैं। वे भी अपने लिए मिट्टी जुटाते हैं, मजबूत धातुओं को ख्यालात की तरह खूबसूरत मोड़ देते हैं। उनकी संयोजित ऊर्जा और लगन से एक खूबसूरत कलाकृति आकार लेती है। कृति तो पूर्ण हुई पर कलाकार अब भी संतुष्ट नहीं हो पाया। रविंद्र कुछ और करना चाहते हैं। कुछ और खोजना चाहते हैं। वे अपने आसपास के उपलब्ध संसाधनों से सबसे जटिल पत्थर चुनते हैं। उसके गठन के एक-एक तंतु पर बहुत बारीकी से अनुसंधान करते हैं। फिर उसे तोड़ते हैं, ऐसे कि जैसे कोई अब तक की जघन्यतम आस्था को तोड़ रहा हो। उसमें फिर से एक नए रूप, एक नए भाव की स्थापना करते हैं। लीजिए तैयार है किसी खास स्तंभ के लिए बना अब तक का सबसे आकर्षक बुत। पर वह जो चौबीस घंटे, सातों दिन निरंतर क्रियाशील है, उसके लिए चित्ताकर्षक कृति फिनीक्स पक्षी की राख से अधिक और कुछ नहीं है। बेहतरीन कृतियों का ये अनावरण, ये तालियों की गडग़ड़ाहट, प्रशंसा के ये कसीदे.... इन पर रचनाकार घड़ी भर ठहरता जरूर है पर रुकता नहीं है। रविंद्र जम्वाल भी अपनी कल्पनाओं की ऊष्मा में इन सब को स्वाहा कर फिर से विकल हो उठते हैं कुछ और नया गढऩे के लिए। वे अभी संतुष्ट नहीं हैं। उन्हें अभी कुछ और गढऩा है। उन्हें अभी कुछ और ढूंढना है। इन रेखाओं में, रंगों में, धातुओं में, पत्थरों में वे किसी कलाकृति को नहीं ढूंढ रहे, असल में वे अपनी खोज में हैं। वह ढूंढ रहे हैं उस कौन (?) को जिसने अदृश्य होते हुए भी सभी को ऐसे जोड़ रखा है कि जैसे बिखरे पन्नों पर शीराजा बंधा हो। 
राजपूत बहुल गांव बीरपुर में जन्मे रविंद्र जम्वाल के लिए बहुत आसान था सेना में भर्ती होकर देश की माटी का कर्ज चुकाना। राज्य की राजनीतिक पहचान भले ही बदली हो पर इस गांव की परंपरा नहीं बदली। जब राजतंत्र था तब भी इस गांव के नब्बे प्रतिशत पुरुष सेना में भर्ती हुआ करते थे और अब जब देश में लोकतंत्र है तब भी इस गांव के लगभग हर परिवार से कोई न कोई पुरुष सेना में है। स्वयं रविंद्र जी के पिताजी धु्रब सिंह जम्वाल भी सेना में कैप्टन रहे हैं। पुरुषों के सेना में होने के बावजूद इस गांव के परिवारों का गठन कुछ ऐसा रहा है कि घर अकेले नहीं होते। चार भाई-बहनों में सबसे छोटे रविंद्र जम्वाल भी ऐसे ही भरे-पूरे परिवार के बीच पले-बढ़े। चार तायों के संयुक्त परिवार में पले बढ़े रविंद्र कहते हैं, ''अब जो खालीपन घरों में दिखता है, वह हमें बचपन में कभी महसूस ही नहीं हुआ। परिवार ऐसे होते थे कि घर में हर उम्र का कोई सदस्य होता था। मैं अपने बड़े भाई का अपने पिता की तरह सम्मान करता हूं क्योंकि उनसे हमेशा वही आशीर्वाद, वही सहयोग पाया जो कोई बच्चा अपने पिता से पाता होगा। हालांकि इनके पिताजी ने भी इन्हें हमेशा प्रोत्साहित किया। जब इन्होंने तय कि इन्हें मिट्टी का कर्ज नहीं चुकाना, उससे बतियाना है, तब भी इनके पिता ने इन्हें प्रोत्साहित किया। वह कृतियां जिन्हें देखकर शहरी तथाकथित पढ़े-लिखे लोग भी दाएं-बाएं देखने लगते हैं, उन्हें बनाने का प्रोत्साहन कैप्टन धु्रब सिंह ने रविंद्र जम्वाल को बीरपुर गांव में दिया। जहां तक गाडिय़ां भी घंटों इंतजार के बाद पहुंचती थीं, वहां तक प्रसिद्धी को तो जैसे ही आना था। गांव के ही स्कूल में किशोर रविंद्र जब चित्रकला की कॉपी में छोटे-छोटे चित्र बनाता था, यह तभी तय हो गया था। चित्रकला के अध्यापक बोधराज जी और फिर जगदीप सिंह जम्वाल ने इसकी परख कर ली थी। उन्हीं के मार्गदर्शन और दो साल के चिंतन मनन के बाद रविंद्र जम्वाल ने जम्मू के फाईन आर्ट कॉलेज में दाखिला लिया। शर्मीले स्वभाव के रविंद्र के लिए बीरपुर गांव से निकल कर सीधे जम्मू के कला पारखियों और बर्हिमुखी लोगों के बीच सामंजस्य बैठाना निश्चय ही मुश्किल होता यदि उन्हें हर्षवर्धन जैसा दोस्त न मिल गया होता। रविंद्र के पास हुनर था और हर्षवर्धन के पास हुनर और उसे प्रस्तुत करने का कौशल दोनों। जहां कहीं भी मुश्किल आती, कोई संकोच रविंद्र के कदम रोकता, हर्षवर्धन उनके कंधे पर हाथ धरे उन्हें वहां से निकाल ले जाते। दोस्ती किस तरह व्यक्ति को आत्मविश्वास से भर देती है यह रविंद्र ने यहां आकर जाना। वहीं जब पद्मश्री राजेंद्र टिक्कू, अरविंद्र रेड्डी और विद्यारतन खजूरिया जैसे महान कलाकारों का मार्गदर्शन मिला तो उनकी कला में और निखार आया। उनके सोचने और काम करने के ढंग में भी अप्रत्याशित बदलाव आया। कोई भी नया प्रशिक्षु गीली मिट्टी की तरह होता है। उसमें कोई भी आकार लेने की असीमित संभावना होती है। पर उसे गढऩे का कौशल कुम्हार ही जानता है। राजेंद्र टिक्कू और पीजी धर चक्रवर्ती ऐसे ही कुशल मार्गदर्शक साबित हुए रविंद्र जम्वाल के लिए। 



उम्र का एक गुलाबी दौर ऐसा भी आता है जब व्यक्ति को हर शाख और हर फूल में एक ही चेहरा नजर आता है। उसने अपनी कृति दुनिया की सर्वश्रेष्ठ कृति लगती है और जो वह बना रहा होता है, उसके प्रति वह इतना अधिक आसक्त होता है कि उसी स्टाइल को अपना सिग्नेचर बना लेना चाहता है। हर कलाकार के जीवन में ऐसा दौर आता है। जो इससे असहमत होंगे, वे अपने बारे में कुछ अधूरा जानने और मानने वाले लोग होंगे। ऐसे दौर में जब रविंद्र एक खास स्टाइल की तरफ बंधने लगे थे, तब राजेंद्र टिक्कू जी की एक हल्की सी थपकी ने उन्हें जैसे नींद से जगा दिया। जैसे कुम्हार जब पात्र गढ़ रहा होता है, तो वह उसे बाहर से थाप देता है और अंदर से सहारा। इसी थाप और सहारे ने रविंद्र को फिर से खुद पर काम करने, अपनी रचनात्मकता पर मनन करने के लिए प्रेरित किया। यह रविंद्र के जीवन और रचनात्मकता का तीखा मोड़ था। इस मोड़ से गुजर कर वे अंतर्राष्ट्रीय स्तर के कलाकार बने। इस दौरान वे बड़ौदा के सायाजी राव विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर कर चुके थे। बड़ौदा के उदार और रचनात्मक माहौल ने भी उनके सोचने के ढंग में उत्तरोत्तर वृद्धि की। कई बार वे चौंकते, तो कभी सुकून भी महसूस करते कि बीरपुर का लड़के का काम बड़ौदा में भी किसी से कमतर नहीं है। यहीं से उनके पास कई तरह के प्रस्ताव आने शुरू हो गए थे। कुछ नौकरी के थे, तो कुछ विदेशों के भी प्रस्ताव थे। पर रविंद्र ने जैसे मन में ठान लिया था कि मुझे अपने गांव की मिट्टी को अंतर्राष्ट्रीय मंच पर लाना है। तमाम प्रस्तावों को नजरंदाज करते हुए उन्होंने वापस अपने जन्मभूमि अपने गांव लौटने की ठानी और यहीं पर ध्रुबसत्य नाम की अपनी कार्यशाला बनाई। यही रविंद्र की जन्म भूमि है, यही तपोभूमि भी है। यह उनका तपोसाधना ही है कि वे एक साथ व्यवसायिक और रचनात्मक दोनों मंचों पर डटे हुए हैं। न कभी अध्यापन से कोई कोताही की, न कभी रचनात्मक काम से पीछे हटे। दिल्ली, मुंबई, बड़ौसा सहित देश और पेरिस, कोरिया सहित विदेशों में दर्जनों एकल और समूह प्रदर्शनियों में रविंद्र का काम प्रदर्शित होता रहता है। हर काम उन्हें कुछ नया सबक देकर जाता है। हर अनुभव उन्हें रचनात्मकता के स्तर पर फिर से ताजा कर देता है। ऐसा ही एक अनुभव साझा करते हुए वे कहते हैं, ''यह दक्षिण कोरिया की यात्रा थी। वहां की एक उच्चाधिकारी एयरपोर्ट पर उनका स्वागत करने पहुंची थी। अभी कार में बैठे वे कोरिया की सड़कों, वहां की स्वच्छता को देख अभिभूत थे। इसी मुग्ध भाव में वे अनायास ही बोल उठे, 'यहां की सड़कें कितनी साफ हैं। धूल मिट्टी का नामो निशान नहीं है। हमारे यहां तो बहुत गंदगी है।Ó कोरियाई उच्चाधिकारी कुछ क्षण के लिए खामोश रहीं। फिर बोलीं, 'जम्वाल हम अपने देश के लिए कभी ऐसी बात नहीं कह सकते।Ó मेरे लिए यह जिंदगी का सबसे बड़ा सबक था कि देश प्रेम क्या होता है। हम जरा सा छैनी हथोड़े पर हाथ सधते ही देश से ऊपर हो जाते हैं। यहां मैंने देश भक्ति का सबक सीखा। आज मुझे गर्व है कि मैं बीरपुर की मिट्टी में जन्मा हूं और भारत देश का नागरिक हूं।
रविंद्र अपने देश पर जान छिड़कते हैं। देश में घटी कोई भी घटना, दुर्घटना उन्हें उसी तरह उद्वेलित करती है, जैसे किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को उद्वेलित करती है। जब घाटी से कश्मीरी पंडितों का जबरन विस्थापन किया गया, तब रविंद्र के मन को गहरा आघात पहुंचा। अभी तक रविंद्र जम्वाल की कृतियों में डुग्गर की लोक आस्था, विश्वास और कलाएं स्थान पा रहीं थीं वहीं अब विस्थापन की पीड़ा, घुटन भरे माहौल की यंत्रणा और जन्मभूमि से दर बदर कर दिए जाने की पीड़ा अभिव्यक्त होने लगी। लंबे समय तक यही भाव उनकी कृतियों का प्रधान स्वर रहे। रणबीर नहर में सबसे लंबी तैरती कलाकृति बनाकर उन्होंने लिमका बुक ऑफ वल्र्ड रिकॉर्ड में अपना नाम भी दर्ज करवाया। 




पर हर आघात की एक सीमा होती है, हर अनुभव का एक दायरा होता है। हमारी आस्था, हमारी नजर, रफ्तार, संहार, पृथ्वी का अपनी धुरी पर घूमना, सूरज का ताप, आकाश गंगाओं में तारों का लश्कर.... इन सभी की एक सीमा है। कोई तो दायरा है, जिसमें ये सभी बंधे हैं, यही सोचते हुए अब आपने 'दायरोंÓ पर काम करना शुरू किया। खुशियों के फ्रेम, यंत्रणाओं के फ्रेम और अनुभवों के फ्रेम इनकी कुछ उल्लेखनीय प्रदर्शनियां रहीं हैं। सब कुछ फ्रेम में बंध सकता है पर एक रचनाकार का जन्म ही होता है, इस फ्रेम को तोडऩे के लिए। निश्चित ही रविंद्र जम्वाल भी इस फ्रेम से बाहर आएंगे और कुछ नया अप्रत्याशित गढ़ेंगे। वे बड़े कलाकार हैं, उन्हें अभी और बड़ा बनना है। उनकी प्रतिस्पर्धा स्वयं से है। और यह सबसे जटिल प्रतिस्पर्धा होती है। इस प्रतिस्पर्धा में कोई संबल है तो उनका परिवार, उनकी पत्नी बीना जम्वाल। उनकी भाभियां, उनके भतीजे, भतीजियां। जो संसार में रहते हुए भी उसकी लौकिक कामनाओं से निर्लिप्त रहने वाले इस कलाकार की एक आवाज पर दौड़ पड़ते हैं। रविंद्र बिना मॉडल के कृति नहीं गढ़ पाते, तो उनके भाई जोगेंद्र सिंह वैसी ही जरूरी पोशाक पहनकर उनके लिए मॉडल बनते हैं, तो कभी दूसरे भाई नरेंद्र सिंह उनके लिए जरूरी सामान जुटा देते हैं। भला होगा कोई ऐसा सौभाग्यशाली कलाकार जिसे अपने परिवार का इतना साथ मिले। रविंद्र अपनी जन्मभूमि बीरपुर पर जान छिड़कते हैं। पर उसकी रूढिय़ों के खिलाफ किसी योद्धा की तरह डटकर खड़े हो जाते हैं। जब अपनी इच्छा से विवाह करने वाली बेटियों का राजपूती शान बहिष्कार करती है, तो रविंद्र उन्हें अपने आंगन में जगह देते हैं। जब अंधभक्तों की आस्था कनफोड़ू शोर में बदलने लगती है, तो वह उसके भी खिलाफ खड़े हो जाते हैं। फिर चाहें सारा गांव उनके खिलाफ हो जाए। कोई उन्हें सनकी ही क्यों न कहने लगे। कलाकार कुछ अलग मन लिए होते हैं। वे अपने आसपास से बहुत दूर होते हुए भी उससे बहुत गहरे से जुड़े होते हैं। हर व्यक्ति को अपने कलाकार मित्र, रिश्तेदार, पड़ोसी के प्रति अतिरिक्त संवेदनशीलता से काम लेना चाहिए। इनके हाथों में ब्रह्मा का वास है और हृदय किसी कोमल फूल की तरह है। जो जरा सी धूल, धूप से भी कुम्हला सकता है। सुख जहां ठहरे आसन की तरह है, वहीं दुख और पीड़ा औषधियों की बहती हुई नदी की तरह है। यह निश्चित ही रविंद्र जम्वाल को कुछ सकारात्मक दे कर जाएंगे। उनके हाथ मिट्टी में सने हैं, काग$ज की लुगदी भीगी हुई प्रतीक्षा कर रही है नई शक्ल और आकार की। कुछ धातुएं हैं, जो पिघल जाना चाहती हैं, उनके स्पर्श से एक नए रूप की कामना में। इनकी भाषा सिर्फ रविंद्र समझते हैं और वही इनका उत्तर भी देंगे। इन्हीं शुभकामनाओं के साथ 



Yogita Yadav

911, Subhash Nagar

Jammu – (J&K)