Saturday, May 4, 2013

मनोज शर्मा


हिंदी साहित्य के लिए मनोज शर्मा कोई नया नाम नहीं है। 'बीता लौटता है'  इनका बहुचर्चित काव्य संग्रह है। उनकी प्रकाशित और अप्रकाशित कविताओं पर समय समय पर लेख पढ़ने को मिलते रहे हैं। जम्मू कश्मीर के युवा हिंदी कवि कमल जीत चौधरी ने भी मनोज शर्मा की रचनाओं पर आधारित एक लेख लेह से खासतौर पर भेजा है। लेख सहर्ष पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है। उम्मीद है कि लेख पाठकों को मनोज शर्मा के काव्य कर्म के साथ साथ उनकी विचारधारा, चिंताओं और व्यक्तित्व के  और पास ले जाएगा। 



मनोज शर्मा : आटा पकने की गंध सा बेखौफ कवि



केदारनाथ सिंह की छोटी सी कविता ' दिशा ' से बात शुरू करते हैं -
हिमालय किधर है ?
मैंने उस बच्चे से पूछा जो स्कूल के बाहर
पतंग उड़ा रहा था
उधर उधर उसने कहा
जिधर उसकी पतंग भागी जा रही थी
मैं स्वीकार करूँ
मैंने पहली बार जाना
हिमालय किधर है !
 

यह कवि का आत्मस्वीकार है। जब यही आत्मस्वीकार पाठक और आलोचक का भी हो जाए तो समझिये कविता सार्थक है।  मनोज शर्मा की कविताएँ पढ़ते हुए आप जान जांएगे की हिमालय कहाँ है। बड़े अफसोस की बात है की हिन्दी की शीर्षस्थ साहित्यिक पत्रिकाओं के सम्पादक और तथाकथित समीक्षक - आलोचक भी नहीं जानते की हिमालय किधर है। कहानी  को केन्द्रीय विधा बताकर कविता के हिमालय को खारिज किया जा रहा है। कविता को आज हाशिए पर बताया जा रहा है। उस में  गतिरोध की बातें की जा रही हैं। यह सुविधाजनक है। केंद्र तथा सत्ता प्रतिष्ठानों में खड़े रहना आसान है। हाशियों पर चलना खतरे तथा साहस का काम है। कविता आज हाशिये पर नहीं हाशिये आज कविता में हैं। यही कविता की दशा है यही सही दिशा भी। मनोज शर्मा इस कम जगह पर खड़े होकर विपरीत हवाओं को रोकने वाले हिमालय को बनाने में लगे हैं।
हिन्दी कविता के प्रसिद्ध हस्ताक्षर  मनोज शर्मा एक एक्टिविस्ट कवि हैं। इनका शब्द संस्कार जनान्दोलनों के सामूहिक  सपनों से पैदा हुआ है। यही कारण है की वे किसी तरह के झुण्ड का झंडा लेकर नहीं चलते। भीड़ में एकांत के लिए लड़ते  हैं। अपने पत्थरों से वे एक सेतु बनाते हैं। यह सेतु अलग-अलग हाशियों को जोड़ता केंद्र की टोह लेता है। यहाँ खड़े होकर देखा जा सकता है कि आज़ादी के बाद कितना पानी बोतलों में बंद कर दिया गया है। यही से पता चलता है कि छाया में कौन साधिकार सुस्ता सकता है।

समाज अलग - अलग कोणों से समय का रूप धारण करके इनकी कविताओं में आता है। एक बानगी देखें -
कानफोड़ शोर के बावजूद
चुप मत बैठो कभी
गाओ कुछ , कैसा भी
गाओ अपनी माँ को करते  याद
गाओ बेसुरा से बेसुरा
अपने कंठ से गाओ कुछ भी
सृष्टि की लय के कर्ज़दार हो तुम
साँसों की धौंकनी ताकती है तुम्हे
मत चुप रहो
मुहँ जुठारो समय के सब्र का
और उचारो अब
अपना सबद।
 


यहाँ कवि सृष्टि की लय के साथ गाने की बात कर रहा है।  कवि  यह गाना किसी  टैलेंट हंट  , गीत -  संगीत  प्रतिस्पर्धा  या रियल्टी शो की अपेक्षा किसी खेत , मेढ़ , पगडंडी , चौपाल , रेहड़ी- खोमचे से सुनना चाहता है। यही से अनहद नाद पैदा होता है। इनकी कविताओं में समकालीन कविता के तत्व अपनी मौलिकता संग आते हैं। इनकी कविता में वाम विचार पूरी संवेदना के साथ कवि  को डीक्लास करते  हैं। प्रचलित गढ़े हुए मुहावरों से इनकी कविता अलग है। वे भली भांति जानते हैं कि लेखन की धरती कहाँ है और  धरती का लेखन क्या है। अस्तित्व को खींचकर कविता लिखना और कविता को खींचकर अस्तित्व बनाने में जो फर्क है। उसे आज पाठक समझ रहा है। वातानुकूलित कमरों में बैठकर लिखी जा रही किसी दिल्ली की कविता महँगे कालीन और तपती या बर्फीली  धरती में फर्क  महसूस नहीं कर सकती। मनोज शर्मा  जैसे गँवई चाल के  कवि यह फर्क भी महसूस करते हैं और अंगूठों से धरती कैसे मापी जाती है यह भी जानते हैं।





वे बदलते समय की चरमसीमा को गहरे में जाकर गम्भीरता से पकड़ते हैं। छटपटाहट का आलम यह कि गुस्सा भी गुस्से की तरह नहीं आता। वे अपने परिचित के खुलकर हँसने को भी शंका से देखने लगते हैं।यह हमारे समय की विडम्बना है। 'परिवर्तन' कविता में वे  समय के परिवर्तन को बड़ी सूक्ष्मता से अभिव्यक्त करते हैं। बदलती प्रतिबद्धताएँ तथा दायित्वबोध दर्शाते हुए वे लिखते हैं -
युग के सफेद कागज़ पर
विचारधाराएँ हस्ताक्षर करने से मुकर गई हैं
वक्त बदल गया है।


वक्त बदलने को वे मुर्गों - मुर्गियों के हलक तक देखते हैं। वे जानते हैं कि कविता, कहानी, उपन्यास की तो बात छोड़िए डायरियाँ तक री - राईट करके लिखी जा रही हैं। इसका पर्दाफाश करते वे लिखते हैं - " सन  दो हजार के बाद के आखिरी महीनों का कोई भी दिन / साल में एक बार ही डायरी पूरी कर जाने का / सिद्धस्त जानकर / आजकल नहीं चूकता। " ऐसे में तथाकथित डायरियों पर कौन विश्वास करेगा।

एक सच्चा कवि ताउम्र कविता की तलाश में अभिशप्त रहता है। अपनी साढ़े तीन दशक की काव्य यात्रा के बाद भी रचनाकार की निरन्तर तलाश उन्हें सार्थक बनाती है। इनकी यात्रा किसी राजमार्ग का तथाकथित पर्व नहीं है। यह यात्रा जम्मू-कश्मीर के विस्थापन , पंजाब के आंतकवाद , खेतों - मेढ़ों , कुओं , रहट , लाले की हट्टी , बचने दिहाड़ीदार की चौखट से होते हुए चौपाल पर हेक लगाती है। उत्तरकाशी के पहाड़ों , संथालों के कबीले से होते हुए नक्सलवाद का यथार्थ दिखाती है। मुंबई जैसे महानगर  में जाकर भी वापिस अपने लोक में आती है। निरन्तर गतिशीलता वह भी प्रगतिशीलता के साथ इनके यहाँ मौजूद है। इनका रचना फलक अति विस्तृत है। प्रतिकूलताओं में वे अधिक जीवनानुभवों से भरे खड़े हैं। सुप्रसिद्ध पत्रकार , व्यंग्यकार , कवि , आलोचक विष्णु नागर ने लिखा है कि सबसे अच्छी कविता बुरे वक्त में पहचानी जाएगी। कबीर , ब्रोत्लेत ब्रेख्त, लोर्का , नाजिम हिकमत, नज़रूल इस्‍लाम, फैज़  अहमद फैज़ , गोरख पाण्डेय , धूमिल , कुमार विकल , अवतार सिंह पाश, बाबा नागार्जुन आदि आज सबसे ज्यादा इसलिए याद आते हैं क्योंकि जनतांत्रिक , और मानावाधिकारिक मूल्यों को फिर खतरा है।  अमेरिकावाद , उपभोक्तावाद , आर्थिक उपनिवेशवाद , उदारीकरण , अपसंस्कृति के इस दौर में जिसे बचने की चाह नहीं होगी वास्तव में वही बचेगा। न बचने की चाह रखने वाला ही कोई यह पूछेगा या लिखेगा कि एक सौ तीन देशों में अमेरिका के सात सौ आठ सैनिक शिविर क्यों हैं? लोकतंत्र में लोक कहाँ है ? स्त्री , दलित , किसान , मजदूर , सैनिक कहाँ हैं ? कश्मीर , पूर्वभारत , नक्सलवादी क्षेत्रों में कब तक  राजनीतिक  चालें अपने  घिनोने चेहरों के साथ खून की होली खेलेंगी ?  धरती का लोह छड़ों से बलात्कार कौन कर रहा है ?  देश का खनिज कहाँ जा रहा है ? साम्प्रदायिकता की जड़ें  कहाँ हैं ? दस - दस देशों की नागरिकताएँ किसे पास हैं ? अपने ही देश में नागरिकता से कौन वंचित है? क्यों है? सवाल और भी हैं। इनसे जूझे बिना कोई भी कवि/लेखक बड़ा नहीं हो सकता। मनोज शर्मा की कविताएँ ऐसे प्रश्नों को कलात्मक ढंग से उठाती हैं। कश्मीरी विस्थापित, बस्ता, नंदू संथाल, पंजाब, चीख आदि कविताओं में इनके सरोकार समझे जा सकते हैं। जनतांत्रिक मूल्यों की तलाश में नंदू संथाल के माथे के बीचो बीच/एक घुड़सवार/पिछली पहाड़ियों से निकलता है/जो बदचलन शान्ति से अलगाना चाहता है/रोशनी को पाना चाहता है।
कुमार विकल की एक कविता है ' अगली गलती की शुरुआत '  जिसमें शोषित के बिस्तर  में दुबक कर रोने को ही कवि सबसे बड़ी गलती मानता है। यही बात मनोज शर्मा अपने अंदाज़ में यूँ कहते हैं -  " माँ चीखती है / बाप चीखता है / भाई-बहन/साथी-दोस्त/पत्नी-बच्चे/सभी चीखते हैं/और मैं भी चीखता हूँ/सम्पूर्ण घर चीखता है/गली, मोहल्ला, शहर चीखता है/और चीखकर बिस्तरों में दुबक जाता है। " इस शोर में हम मौलिक और हक की चीख भूल जाते हैं। हड़तालें, चक्का जाम, आमरण अनशन , जनसभाएँ आदि चीख ही हैं परन्तु वह चीख नहीं कि ' फिर चीखना न पड़े ' , हमारे इर्द - गिर्द कारपोरेट मीडिया, प्रायोजित जानान्दोलन हैं। इसकी शिनाख्त होनी चाहिए। एक दहशतगर्द , सीमा आज़ाद , इरोम शर्मिला , कोबार्द गांधी, विस्थापक , निर्वासित के पैदा होने  की पड़ताल करना  ज़रूरी है। झुण्ड में दावत उड़ाते  मठाधीशों को उनके मठ , विमर्श , काव्यान्दोलन मुबारक।  समूह में विश्वास करने  वाले रचनाकारों आप राजमार्ग से इतर कोई पगडंडी तलाशो। छोटी - छोटी लड़ाई लड़ते जन के सामने सामूहिक सपने का सपना रख कर ही हम दुनिया को सुन्दर बना सकते हैं। आचार्य राम चन्द्र शुक्ल जी ने लिखा था कि जैसे- जैसे समय बीतता जाएगा काव्यकर्म कठिन होता जाएगा। आज ऐसा ही है।  अपना प्रतिद्वन्दी , रकीब , शत्रु , शोषक या मित्र कौन है यह सही-सही उकेरते हुए कविता लिखना आज सबके बस की बात नहीं है।





मनोज शर्मा लोक में शपथ का महत्व जानते हैं। उनको पता है कि  कितनी ऊँचाई के बाद ढलान शुरू हो जाती है। वे डर को जांघ में दबा कर उसकी औकात पूछने की इच्छा रखते हैं। कविता के मोरपंख से सीमेंट और रेत का चारा बन चुकों का पसीना पोंछना चाहते हैं। वे जानते  हैं कि हमारे हक में कौन खड़ा है। मिची आँखों से बूढ़ी कहानियाँ सुनाते  लोगों , खुले में सोने वालों, सपनों में चाँद उतारने वालों ,  बहता जल अच्छा लगने वालों ,  मछलियों को आटा डालने वालों, कमर पर हाथ रख कर खांसने वालों, हांफने वालों पर मनोज शर्मा विश्वास करते हैं। कवि  उन  लोगों की एकता में हैं जिनके पास महान स्मृतियाँ उलीकते गीत हैं।
इन्ही लोगों के कारण वे दुनिया को किसी दूसरे  कोण से देखते हैं। बदलाव की बयार इन्ही से आयेगी।  इनकी कविताएँ बाज़ार के बीच अंगद पाँव हैं। इसे कोई दशानन हिला नहीं सकता। जब वे यह लिखते हैं - ' जब दीवारों पे फड़फड़ाते कैलेण्डर तक/ गाहक-गाहक चिल्लाते, उकताए लटके हैं/रोशनी और अन्धकार के मध्य/जब लोगों के समीप/अपनी पसन्द का कहने को कुछ नहीं बचा।' तब मनोज को बचे खुचे पर यकीन है। वैसे कैलेण्डर पर मॉडल के वस्त्र मौसमी हवा से नहीं पंखे से उड़ाए जा रहे हैं। यह बाज़ार की चाल है। आज संचार क्रान्ति में आदमी आदमी से ही नहीं घर में साधिकार  रहने वाली चिड़िया भी हमसे दूर हो गईं है। बाज़ार और सत्ता के पोषक धर्म पर गहरे कटाक्ष इनके यहाँ मिलते हैं। यहाँ लोक की आस्थाएँ और जीवनसौंन्दर्य भी है और अंधविश्वास तथा रूढ़ियाँ भी। बकरा शीर्षक से लिखी इनकी कविता में बलि प्रथा को बहुत संवेदनशीलता के साथ मार्मिक बिम्बों से दर्शाया है। बलि के बकरे की पूँछ खींचते हँसते बच्चों की हँसी बनाए रखने की कामना वास्तव में कवि की गहराई को दर्शाती है। शोरबे में पोर - पोर डूबी मेल की उँगलियों के बीच वे पूछते हैं-
सभी हैं , कौए भी
सभी की उपस्थिति दर्ज हो रही है
देवता तुम कहाँ हो अंतता: ?


सत्ता , धर्म और बाज़ार की पोल खोलते हुए वे लिखते हैं -
हमने
पत्तों से लेकर पत्थरों तक को पूजा है
जानवरों तक को भगवान् बनाया है
पुरातन के तर्कों से पीढ़ियों को अभ्यस्त बनाया है
भरपूर श्रद्धा से
परिवार को बू मारता चरणामृत पिलाया है
बहुत कुछ किया है हमने
कि चीख पैदा न हो


अन्धविश्वास और आस्था में फर्क करते वह लिखते हैं - ' आस्था तो वह है/जो रंगों तक की मर्यादा निर्धारित करती है/पापियों को खदेड़ती है। '

तीज - त्यौहार , व्रत , पर्व , मेले , शादी , जन्म - मरण , ही नहीं कबड्डी के इस देश में खेलों का भी बाजारीकरण हो गया है। सब कुछ बिक रहा है। राष्ट्रीय खेल हॉकी का क्या हाल है किसी से छुपा नहीं है। साम्राज्यवादी खेल क्रिकेट की पोल खोलते हुए मनोज शर्मा लिखते हैं - 
 ' उदास समय में/उपनिवेश बने मुल्कों ने/आका देश का खेल/उनके ही साथ खेलते हुए/वाहवाही  लूटी। '
 

क्रिकेट का नशा इस देश में ऐसा है कि पाकिस्तान से एक मैच जीत कर हम भूखे सो सकते हैं। यह वृत्ति घातक है। यह आँखों पर पट्टी बांधती है। मीडिया की भूमिका इसमें सबसे अधिक घिनोनी है। राष्ट्रीयता के झंडेवाद में सबसे अधिक हनन राष्ट्रीयता का ही हुआ है। राष्ट्रवाद का परचम फहराने वाले यह बताएँ कि राष्ट्रभाषा का क्या हाल है? मोर कहाँ नाच रहा है? कमल कहाँ पर खिले? तालाब किसने भर दिए हैं? वाघ कहाँ जा रहे हैं? ऐसा क्यों है कि केवल राष्ट्रगीत अथवा राष्ट्रध्वज के लिए शोर मचाया जाता है। अन्य राष्ट्रचिन्हों पर हम चुपी क्यों ओढ़ लेते हैं? खैर।

थोड़ा नीचे उतरने पर इनकी कविता में एक बच्चा खेलता नज़र आता है।  ' बस्ता ' शीर्षक से लिखी इनकी कविताओं में बच्चे के रूप में  इनके अपने जीवनानुभव हैं। कवि के बस्ते  में बिना बिरादरी का टिफिन बॉक्स भी है , ब्लेड भी और नया संसार भी है। एक बानगी -
' बस्ते बन जाते हैं शस्त्र/बच्चों की लड़ाई में/बस्ते प्रहार की/ढाल बनने की अदभुत क्षमता रखते हैं। '  बस में सफर करते हुए एक बच्चे के रूप में किसी की दुनिया में प्रवेश करना इनकी कविताई को सार्थक बनाता है।




इनकी कविताओं में दुनिया के अन्दर दुनिया है जैसे भारत के अन्दर इंडिया। एक फटेहाल, अभाव की चादर ढांपता सर ढकता है तो पाँव नंगे हो जाते हैं। पाँव ढकता है तो सर नंगा हो जाता है। दूसरा मखमली गलीचों पर पसरा है। एक के बच्चे का जन्मदिन याद नहीं रहता दूसरे के कुत्ते का जन्मदिन अखबार-न्यूज़चैनल की सुर्खी बन जाता है। ' बचे खुचे का बजूद' , 'बंटी दुनिया के लोग', 'दूसरी सृष्टि' जैसी कविताएँ ऐसी ही दुनिया को दर्शाती हैं। शाम की आवारगी में झोपड़पट्टी, पुलियों, खोमचों, रेहड़ियों, फुटपाथ से बतियाने का ही परिणाम है कि वे अमीर कोठी से गरीब झोपड़ी को नहाते हुए देखने को पकड़ लेते हैं।  काम पर जाते हुए मजदूर पति की थाली में महकते हुए भात संग सूरज परोसते हैं। वे जानते हैं कि इनकी छपरैल से ही चाँद ताका जा सकता है। इतिहास के रूप में वे जानते हैं कि बाँसुरी की धुन किसे सुनाई पड़नी बंद हो गई है। अपने ही घर का रास्ता कौन भूल गया है। इतिहास को गाने वाले भी हैं। बनाने वाले भी हैं। कवि मनोज शर्मा पूछते हैं - ' बुजुर्गो-सियाने लोगों/आपको भी ऐसा ही/सुझायी पड़ता है क्या ... '

इतिहास कभी सत्ता से टकराने वाले का नाम स्वर्णिम अक्षरों में नहीं लिखता। पहाड़ी पर खड़े होकर और सुदूर नीचे खड़े होकर पतंग उड़ाने में बहुत अंतर है। पतंग को काटना उससे भी कठिन। एक बानगी देखें -
' बोला बेटा
पतंग लूटने वाले का नाम नहीं है
लिखा वहाँ
क्या उतरते होंगे इसी खाई में
अपने बाँस , झाड़ , धागों के सिरों पर
लटकते पत्थर लेकर
और राजा तो
कट जाने परएकदम बनवा लेते होंगे
नया पतंग
पर , उनसे पेंच कौन लड़ाता होगा पापा ? '


पतंग बनाने तथा बनवाने वाले आज भी हैं। बनवाने वाले आज बदले हुए चेहरों के साथ ब्रान्डेड पतंगे बनवा रहे हैं। इनसे पेंच लड़ाने वालों की कमी नहीं है। ये लड़ रहे हैं।
जीवन संघर्ष को प्रेरित करती इनकी कविताएँ हथियार नहीं आदमी का विवेक बनती है। यही ज़रूरी भी है। बन्दूक की राजनीतिक संस्कृति को बताते लिखते हैं - ' कितना छोटा है बन्दूक का कद/कभी नहीं चल पाएगी/किसी भी और की बन्दूक/अपना आप। ' वे आने वाली पीड़ी को हथियार नहीं रोटी देना चाहते हैं।   मनोज शर्मा विरासत में अपने बेटे को आर्चिस गैलरी से खरीदे उपहार की अपेक्षा अपने भाव और संस्कार देना चाहते हैं। वे लिखते हैं-
' तुम
इस समय पर सोचते हुए
अपने पुरखों के बारे में ज़रूर सोचना
और पेड़ों , पहाड़ों , नदियों व उन तमाम
जीव - जंतुओं के बारे में भी 
जो मनुष्यों के हितैषी रहे हैं।'


इस कविता को पढ़ते हुए हरिशंकर परसाई जी का ' पहला सफ़ेद बाल ' निबन्ध याद आता है। 






स्त्री संवेदना , प्रेम और दोस्ती इनकी कविताओं में घनीभूत बिम्बों के साथ बहुआयामी स्मृतियों और वर्तमान भूमिकाओं में आती है। स्त्री का विलाप इनके लिए धरती पर सबसे अधिक पीड़ादायक है। इसका चित्र खींचने वाले कैमरे के लैंस पर दरार पड़ने जैसी काव्य पंक्ति लिखकर मनोज सहवेदना का परिचय देते हैं। एक अन्य बानगी देखें - ' ईंट - ईंट कहानियाँ हैं वे , वैसे उन्हें घर भी कहा जाता है। '  दोस्तों पर लिखी कविताएँ रंजूर जैसे कवि, सामाजिक कार्यकर्ता के सानिध्य में ले जाती हैं। यहाँ ढेरों स्मृतियाँ हैं।
अब आते हैं इनके प्रेम पर। प्रेम इनके लिए मात्र एकाधिकार का नाम नहीं है। कामना भी करते हैं तो लिखते हैं - ' आओ ....../ कि आती है जैसे आग में तैरती हुई तपिश ! ' इनका प्रेम समष्टिपरक है। यह दुनिया से घर में नहीं , घर से दुनिया की तरफ जाते हैं। कविता इनके लिए आरामगाह नहीं युद्धक्षेत्र है। वे अपने अंतरंग में बाहरी रंग को नहीं त्यागते। फ़ैज जहाँ यह कहते दिखते हैं कि ' मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरी महबूब न माँग'। वहीं मनोज शर्मा अपने इश्क तथा महबूब को अपने संघर्ष में शामिल कर लेते हैं। वह पूरी तनमयता से उसे सुनती है। यह प्रेम का ही प्रभाव है कि वे ' बन्दूक के सुराख की घोड़े तक गहराई खामोशी की हद' को जानते हैं। इनका रीतापन एक छाननी का रूप ले चुका है। इसमें सम्बन्धों का तरलपन हर बार छन कर गिर जाता है पर वे प्रेम करते रहने से नहीं  चूकते। ' अभी भी ', ' आना ', ' हम साध रहे हैं सत्य ', ' नींद में तुम ', ' संशय ', ' मनौती ', ' उसके लिए, जो शादीशुदा है '  आदि प्रेम कविताओं में कवि का प्रेम पूरे जीवनमूल्यों और सौन्दर्य के साथ दिखाई देता है। ' उसके लिए, जो शादीशुदा है ' कविता में कवि की अनुभूति और अभिव्यक्ति की नैतिकता प्रशंसा की पात्र है। मनोज शर्मा प्रेमिका के लिए मांसल कल्पना करते हैं ,उसे  छूते हैं, प्रेमिका में कोई हरकत न होने पर उसके माथे पर एक जोरदार प्रहार करना चाहते हैं। नायिका में पूरी सामाजिकता घर कर गई है। सीमाओं में बंधी वह इतना ही फुसफुसाती है -' तो अभी तक बोलना शुरू नहीं किया आपने। '

पहाड़ का होना हमारा होना है। आज पहाड़ को खनिज माफिया के चूहे कुतर रहे हैं। सैलानी भी इसके जीवन सौन्दर्य को नष्ट कर रहे हैं। इनकी पहाड़ शीर्षक कविताएँ हमें जीवन से जोड़ती हैं। पहाड़ पर खुरपे का बिम्ब कमाल का है। यह घास से जोड़ता है। घास मवेशी से मवेशी घर के आँगन से। घर के आंगन से पहाड़ अच्छे लगते हैं।
 'नए साल के बधाई सन्देश', 'पतंग', 'काम पर जाती बार गर्ल', 'विलाप करती स्त्री', 'औरत', 'आना', 'बस्ता', 'देह विदेह', 'चित्रकला के बारे में ज़रूरी नोट्स', 'नंदू संथाल', 'बंटी दुनिया के लोग', 'गुफ्तगू', 'प्रवेश', 'एक आस्था और', आदि कविताएँ इनकी बहुचर्चित, बहुपठित, बहुपाठित कविताएँ हैं। सुप्रसिद्ध कवि  केदारनाथ सिंह कहते हैं कि एक नया बिंब भी कविता संग्रह को पढ़ने का कारण हो सकता है। जो इस बात को मानते हैं उनके लिए मनोज सबसे अधिक पठनीय हैं। इनकी कविताओं में बिम्ब मानस पटल पर गहरी छाप छोड़ते हैं। कभी उनकी प्रेमिका के चेहरे पर मटमैला गुंबद दिखता है तो कहीं शब्द के अखरोट टूटते हैं। एक बानगी देखें -
' पुल के ऊपर लैंप - पोस्ट पर 
रात गए कभी चाँद जो अटके
चौकीदार छड़ी अपनी से
अटका चाँद छुड़ा देता है। '


एक जगह और क्या कमाल बिम्ब है -
' मैं ठठोरता हूँ अपनी तुनकमजाजी
तो ठंडी सी एक रात
खिड़की से, तिपुका-तिपुका टपकने लगती है। '


इनके बिम्ब भाव और  संवेदना से भरपूर हैं।  विचार इनकी कविता पर हावी नहीं है। सपाटबयानी से परे कविताई ही इनकी ताकत है। इनके छंदमुक्त में एक आतंरिक लय है। इनकी भाषा पर बात ज़रूर होनी चाहिए। ग्रामीनबोध से भरी इनकी भाषा पंजाबीयत सरदारी ठोकती नज़र आती है। इनका मुहावरा अपनी भाषा और पंजाबीयत रंग से भरे  प्रेम में सामाजिकता होने से अलग पहचाना जाता है। इनकी भाषा में जब सांकल, गुल्लक, हाड़ी, गेड़ा, कंचे, सरकंडे, जातर, दातुन, टालही, गुलेल, भांडे, कंडे, गंडासा, बटेरा, कांगड़ी, हेक, गश आदि शब्द आते हैं तो पूरे संस्कार से पाठक के मन में उतर जाते हैं। पर जब पालतुपने, जीने जोगा, पेंसिली गुलाब, तरेड़, जैसे शब्द आते हैं तो मस्तिष्क में चुभे रह जाते हैं। ऐसे शब्दों का  मोह  भाषा की स्वाभाविकता में विघ्न डालता है।
' स्वपन ' कविता इनकी ताकत है तो ' उतरती हुई हवा ' इनकी कमजोरी। पहली में यह अपना पूरा चाँद देखते हुए पूरी रात करवट नहीं बदलना चाहते हैं तो दूसरी में इनको पुराना चाँद याद आता है और साँस फूलने लगती है, रीढ़ को काठ मार रहा है। यह बदलते समय से, उम्र के रेशों से हारने की पीड़ा है परंतु हार नहीं। यह लेख्‍ान का ‌ह‌िस्‍सा है।

जब भी अलगपन की बात हिन्दी कविता में होगी मनोज शर्मा सामाजिक सरोकारों, अदभुत बिम्बों और पृथक भाषा के साथ उस पंक्ति में खड़े दिखाई देंगे जिसमें आज कम लोग दिखाई दे रहे हैं। उनकी यह पंक्तियाँ आश्वस्त करती हैं -
' मैं आऊँगा और
आटा पकने की गंध सा
प्रत्येक खौफ के विरुद्ध फैल जाउँगा। '


पैंतीस वर्ष से ज्यादा की अपनी काव्ययात्रा में मनोज शर्मा हाथ पर हाथ रख कर नहीं हाथ हवा में लहरा कर कविताएँ लिखते हैं। आज भी उनका यह कर्म जारी है। आशा है कि भविष्य में भी उनकी कलम से जनपक्ष को उकेरा जाएगा। हार्दिक शुभकामनाएँ। 





कमल जीत चौधरी 







सम्पर्क : -

गाँव व डाक - काली बड़ी , साम्बा , जे० एंड के०
ई मेल - kamal.j.choudhary@gmail.com
दूरभाष - 09419274403  





9 comments:

  1. कमल साहब आपकी आलोचनात्मक दृष्टि उन सूक्ष्म पहलुओं पर भी जाती है जो आमतोर पर आलोचक बचा कर निकल जाते हैं
    मसलन विषयों के संधार्भिक अर्थों से लेकर कवि के मनोभावों तक /कविता कर्म को परिभाषित करते हुए आप तत्कालीन समय की नब्ज़ पर भी हाथ रखते हैं बधाई ---मनोज जी की कवितायेँ उस मिट्टी से हाथों को पोत देती हैं जो घरों की छत से लेकर चूल्हे चोके तक लीपी जाती है उनकी कविताओं में समय से टकराने का होंसला तथा मात्रभूमि से संवाद का सा सुख मिलता है

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  2. Congratulations Kamal Jeet ji...very beautifully analysed different dimensions of the poetry of Brother Manoj Sharma ji.Leading post modern critic T.S.Eliot wrote in his book "Sacred Wood" that poetry is the highest organized intellectual activity .It is very difficult to analyse once poetry. Indeed you have a potential of a good critic....it is encouraging and appreciating,and appreciating is the poetry of Manoj Ji.

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  3. माननीय जी आपके इस पत्र पाठ के उपरांत कालजीय कवि की कालजीय रचना "बीता लौटता है" तुरंत पढने की इच्छा हो रही है। तीन साल पहले इनके द्वारा खारिज इनका संग्रह यकीन मानो मैँ आऊगा को पढने का मोका मिला था। शर्मा जी को सुनने का अवसर दो तीन बार सुनने का मोका भी मिला है। प्रस्तुत लेख का पाठ आपके मुखारिवंद से उर्दू विभाग मेँ शर्मा जी की काव्य कीर्ति को लेकर विशेष रूप से आयोजित कार्यक्रम मेँ सुना था। कविता की स्थिती को दर्शाते हुए राष्ट्र की स्थिती के अहम प्रश्नोँ को भी पाठक के सामने रखा है। कुलमिला कर एक समीक्षक के दायित्व को निभाया है। इस सफल प्रयास के लिए वधाई और उम्मीद है आपकी कलम यूँ ही चलती रहेगी

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    1. प्रिय नरेश कुमार जी, तारीफ़ के पुल बांधना तो ठीक है।इस बात से इनकार नहीं कि मनोज शर्मा एक सुपरिचित हिन्दी कवि और गद्यकार हैं।और लम्बे समय से सक्रिय हैं।प्रबुद्ध कार्यकर्ता हैं।लेकिन उन्हें "कालजयी कवि" और उनके नवजात कविता-संग्रह को "कालजयी रचना" कहना या आपका अज्ञान या आपकी चारण-वृत्ति दर्शाता है। आशा है अन्यथा न लेंगें।

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    2. माननीय शेखर जी यह मेरी शब्द चयन की अपरिपक्वता रही है इसे तारीफ के पुल बांधना न समझा जाए

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  4. कमलजीत चौधरी तुम कवि के साथ ही साथ युवतर समीक्षक के रूप में भी ध्यानाकर्षित करते हो।अच्छा लिखा है। कहने की कला को निखारते रहो। शुभकामनायें मेरी।

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  5. Dhanyavaad Dr. Agnishekhar jee. Yah mere kavyakarm ka hi ek hissa hai . Eise prayaas jaaree rahenge . Yah manch saarthk bahaso aur saamoohik prayso ke liya hamesha khula hai . Dhanyavaad.

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  6. आज इस आलेख को फिर से पढ़ा।अपने बारे में सुनना किसे न्हें सुहाता होगा,पर कमल की मेहनत और पैनी दृष्टि कमाल है।
    यह पैनी आँख अग्निशेखर जी की आँख से कुछ हटकर है।
    उनका भी आभार।

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