फ़िलहाल 2- कुमार कृष्ण शर्मा का पहला संकलन ' लहू में लोहा'

' वह पेड़

जिसको मैं

सबसे ज़्यादा प्रेम करता था

विकास के नाम पर

उस समय काटा गया

जब मुझे

उसकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी '

कुमार कृष्ण शर्मा का पहला कविता - संग्रह 'लहू में लोहा' देरी से आया है,पर जो आया है तो ' हिंदी - कविता ' में एक नयी मशाल की तरह से है । यह कई उपमाएं ध्वस्त करता है, सीधे संवाद में उतरता है,रिश्तों को जीता - जीता अपने चौगिरदे को भी अपने निकट ले आता है।इसमें भरपूर जीवन है। कवि को वर्तमान में पसरे भद्देस की व भावी की चिंता है।कथित ईश्वरों के प्रति विद्रोह है।उसके पास जो भी है,उसे अंश - अंश होम कर डालने की ललक भी यकसां मौजूद है।

हालांकि, इस संग्रह का ब्लर्ब मैंने लिखा है ,किंतु ब्लर्ब की अपनी शब्द- सीमाएं होती हैं। कृष्ण ने जीवन में बेहद संघर्ष झेला है।जम्मू - कश्मीर में विस्थापन एक ऐसी विडम्बना है, जिसे प्रांत के लगभग प्रत्येक निवासी ने आकंठ झेला है। कहना न होगा यह सुर्खियों में आए कश्मीरी-पंडितों के विस्थापन से अलग प्रकृति का विस्थापन है ।इसे कभी उलीका ही न गया। कवि साथियों में चाहे ' कमलजीत चौधरी ' हों या जम्मू के अन्य युवा साहित्यकार हों,इसी विस्थापन की अगली पीढ़ी हैं। कृष्ण के पैतृक गांव में कई बार,विस्थापितों के कैम्प लगे। उन्होंने विस्थापित लोगों की पीड़ा को बार-बार बहुत करीब से देखा है ,महसूस किया है।विस्थापन एक उम्र के साथ चुकता नहीं होता, बल्कि कई- कई पीढ़ियों को शापग्रस्त बनाए रखता है। मैंने जम्मू में रहते इसे बहुत निकट से अनुभव किया है।शर्म की बात यह है कि इस पर हमारा समाज,हमारी राजनीति मौन साधे रही है,जो तंग करता है, कुरेदता है।

कृष्ण अपनी कविता में डुग्गर और कश्मीर की माटी की/लोक की ठेठ शब्दावली को बेहिचक अंगीकार करता है,  वरण करता है। उसकी कविताएं बहुधा रुलाती हैं।तैयार करती हैं। जिजीविषा से भर - भर जाती हैं। हिंदी - आलोचना के प्रथम स्तंभ ' आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ' यथार्थ को काव्य के लिए आवश्यक मानते थे। सन 1901 में उन्होंने ' सरस्वती ' में लिखा था ,"... हिंदी कवि का कर्त्तव्य यह है कि वह लोगों की रुचि का विचार रखकर अपनी कविता ऐसी मनोहर रचे कि साधारण पढ़े - लिखे लोगों में भी पुरानी कविता के साथ - साथ नई कविता का उत्साह उत्पन्न हो जाए ।"

कृष्ण ,इसी लोकभाषा व  साधारणता का कवि है,जो रूचि जगाए रखता है।

' उसके लोकगीतों जैसे

चेहरे को पढ़कर ही

मैंने लिखी है

कविता

उसकी तुंबकवारी(पारम्परिक कश्मीरी वाद्ययंत्र) जैसी...'

मैंने ब्लर्ब में लिखा है," मेरे निकट कोई कवि यदि अपनी ज़मीनअपनी लोक-संस्कृति सहित क्षेत्रीय भाषा को अंगीकार करता है, तो मौलिक उपस्थिति दर्ज़ कराता है ।"

कृष्ण में ईमानदार चेतना है।उसकी विकलता, गहरा विमर्श रचती है,सवाल उठाती है, खुला प्रतिरोध करती है।कवि,हर तरह के अंधकार को लताड़ता है।

'मैं ले आऊंगा

तितलियों से रंग

क्या तुम दे पाओगे

वह गुलाबी मौसम

जिसमें मैं

सभी रंग उड़ेल सकूं ...'

यह कविता कहीं से भी इकहरी नहीं है।चूंकि इसमें कलावाद के लिए कोई स्थान नहीं,तो इसमें आती लाक्षणिकता को स्वीकारना बनता है। अलग से रेखांकित करता हूं कि स्त्री के प्रति कवि की संवेदना किसी प्रचलित कविता-स्कूल की देन नहीं है। यह गहरे में राजनीतिक-बोध की कविता है।जहां कुछ भी वायवीय नहीं है। यह कविता अपने समय की शिनाख्त करती है,प्रतिवाद करती है,महकाती है और विद्रोह की चिंगारी सुलगाती है। इसमें स्पष्ट वर्गीय-चेतना मौजूद है। 

' इतिहास का क्या करें

इतिहास गवाह है

उन्हीं बेटों के हथियारों के निशाने

सही जगह लगे हैं

जिनकी माताओं के पास

त्रकले तक का लोहा नहीं था '

किसी जटिल समय को खोलने के अपने ख़तरे होते हैं।यह अनिश्चतता की ओर ले जा सकता है। जिज्ञासाएं ,टूट सकती हैं। वास्तविकताएं,ओझल हो सकती हैं , लेकिन यहीं राजनैतिक-पक्षधरता हाथ थामती है। हम जिस बौद्धिक विफलता, सूचनाओं के अंबार,छद्मताओं, दमन,हिंसा,सत्ता की मुँहजोरी, उलझाव के दौर में हैं,वहां अभी भी सुंदरतम का सपना देखने वाले हैं ।

अपनी बात समेटता हुआ ,अंततः यही कि कोई अपनी कविता में किस हद तक ईमानदार, साफ़, स्पष्ट और खरी -खरी कहने वाला हो सकता है,यह ' कुमार कृष्ण शर्मा' की कविता से बखूबी पता चलेगा।इस कविता को तहेदिल से सलाम।

प्रकाशक: दख़ल प्रकाशन
ईमेल: dakhalprakashan@gmail.com
मूल्य रू 175/-


प्रस्‍तुति:
मनोज शर्मा
संपर्क: 97805-24251, 78894-74880

1 comment:

  1. इस ब्लॉग को निरंतर चलाएं,प्रिय भाई।

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