‘खुलते किबाड़’ पर पहली बार इनकी कुछ गजलें प्रस्तुत हैं। आखिरी गजल को छोड़कर बाकी सभी पंजाबी में हैं जिनको देवनागिरी में लिखा हुआ है। हो सकता हैं इस प्रयास में कुछ त्रुटियां रह गई हों, इसके लिए पहले से ही क्षमा। वह पाठक जो पंजाबी नहीं जानते अगर वह इन गजलों को ध्यान और सब्र से पढ़ें तो शे’र के भाव और बलविंद्र सिंह ‘दीप’ के तेवर समझ में आ जाएंगे।
गजलतय सफर करदा जिवें है कोयला अंगार तक
मश्क कर कर पहुंचना है मिसरेआं आशार तक।
रिश्तेआं दी तर्ज मानी ऐस तों वद्द कुज नहीं
जिस्म नूं नोचन तों ले के रूह दे लंगार तक।
लाज़मी सी उस दा गल्ल करना मेरे किरदार ते
पहुंच ना पाया जदों औ शख्स मेरे मियार तक।
कागज़ी किश्ती समुंदर रेत दा, पर फेर वी
होंसला छड्डआ नहीं जाना ही जाना पार तक।
ज़िदंगी दा फ़लसफा समझो तां बस ऐना के है
हार दी सिखिआ तों ले के जित दे अहंकार तक।
पारदर्शी सोच वाले तुर पए चंन तों अगाहं
‘दीप’ कट्टरवाद सीमत रह गया हथियार तक।
गजल
की दस्सां की जरदा हां नित
ख्वाईशां हथ्थों हरदा हां नित।
इश्क़ तेरी दा निग मानन लई
सिखर दोपहरे ठरदा हां नित।
जिंदा रहना सोखा केहड़ा
जीने दे लई मरदा हां नित ।
याद तेरी दी बेड़ी ले के
हिज्र तेरे विच तरदा हां नित।
एक वी मिसरा कहन तों पहलां
अर्थां नाल विचरदा हां नित ।
आस मुढ़न ज़िंदे तां ही
‘दीप’ बनेरे धरदा हां नित।
गजल
दिलां दे रिश्तआं अंदर नफा नुकसान नईं वहदें*
जे सजना फड़ लिआ है लड़ ते इज्जत मान नईं वहदें ।
ज़मी तों अर्श तीकर जे सफ़र करना तां रख्खीं याद
परां नूं तोल तूं पहलां इवें असमान नईं वहदें।
जमीरां दा ही मर जाना असल विच मौत है यारो
जदों अनखां ते आ जावे ऊदों सम्मान नईं वहदें।
रवानी तक जरुरी है ग़ज़ल विच अरूज ते पिंगल
जिना करनी है दिल दी गल रुकन अरकान नईं वहदें।
बगावत करनी जायज़ है जदों हक ना मिलन ऐ ‘दीप’
जिना रचने नवे इतिहास ओह फ़रमान नईं वहदें।
*वहदें : देखे नहीं जाते
गजल
पुज्जे ना ओस तीकर किन्ने मुकाम बदले
सब आजमाए रहबर रस्ते तमाम बदले।
राजे अजे वी राजे कामें अजे वी कामें*
बस फर्क पीढि़यां दा किथ्थें गुलाम बदले।
हुंदी रही सिआसत इंसाफ पर ना मिलआ
मिलिआं तरीखां बस हाकम निज़ाम बदले।
वद दा ही जा रिआ ऐ ज़ुलमो सितम दिनो दिन
किदरे सवेर बदले किदरे तां शाम बदले।
वख वख तकाज़े सब दे वख वख ने कायदे ‘दीप’
हुन हक हलाल बदले हुन हक हराम बदले।
कामां: लगभग बंधुआ मजदूर
गजल
फिजाओं में दुआओं में रवानी किसकी है
नहीं है गर खुदा तो पासबानी किसकी है।
ये किस के कहने से चलते हैं यहां रस्मो निजाम
मुसलसल चल रही ये हुक्मरानी किसकी है।
बहुत कुछ करना पड़ता है कभी न चाह कर
अगर किरदार हैं हम सब कहानी किसकी है।
मेरी तामीर से लेकर मेरे बिखर जाने तलक
अरे छोड़ो मियां ये मेहरबानी किसकी है।
जहां ने पढ़ लिए हर्फे मोहब्बत अबके ‘दीप’
छुपाउं क्या लबों पर ये निशानी किसकी है।
संपर्क: सिंबल कैंप, टेकरी मख्खनपुर गुज्जरां
आरएस पुरा, जम्मू।
ईमेल: deep@gmail.con
मोबाइल: 9796565517
प्रस्तुति व फोटोग्राफ: कुमार कृष्ण शर्मा