कविता दरहक़ीक़त क्या है? किसके लिए है? लिखी क्यों जाती है? कविता से होगा क्या? कविता बुनी, बनाई जाती है, कहीं ऊपर से उतरती है अथवा स्वतः प्रस्फुटित होने वाली कोई क्रिया है? कविता के बीज - सूत्र कौन से होते हैं? क्या कविता निज तत्व को पुनः प्राप्त करने की प्रक्रिया है? कविता कहां मानीखेज है कहां नहीं? कविता, कवि को कितना धारण करती है? क्या कविता कोई फार्मूला हो सकती है? ऐसे बीसियों प्रश्न हैं। कविता को किसी सरलीकृत परिभाषा में ढालना लगभग कठिन है।
यदि कविता की परंपरा में जाएं, आदि - कविता को उठाएं, तो कविता उससे भी पहले मनुष्य के होश में विद्यमान मिलती है। वह उल्लास में रही, तो रुदन में रोयी भी। वह संस्कारों में रही, तो हरेक धर्म की पूजा - अर्चना, उपासना इत्यादि में रही। वह लोक - संस्कार है। लोक - मानस में महकती है।
हिंदी - कविता ने बहुत युग देखे हैं और एक सुदीर्घ परंपरा इसके पास है। मेरा मंतव्य हिंदी - कविता के इतिहास को पुनः उलीकना कतई न है। मैं चाहता हूं, मौजूदा दौर में कविता के बहाने से अपने विचार साझा करूं।
इस समय विश्व में एक ओर युद्ध व हथियारों की बेच का माहौल है, तो दूसरी ओर दक्षिणपंथी ताकतें, पूरी तरह से मुस्तैद हैं। नित्य नयी बीमारियां फैल रही हैं। हर जगह मंहगाई चरम पर है। एक महामारी जो निर्मित की गयी; उसने जीवन ही नहीं ग्रसे, लोगों के जीवनुपार्जन के साधन तक ध्वस्त कर दिए। इतनी चीखो - पुकार के बावजूद बौद्धिक - समाज शांत सा है। मीडिया के पास तयशुदा कार्यक्रम हैं। सोशल - मीडिया भी ख़ास तरह से संचालित किया जा रहा है। स्कूल, चिकित्सालय, कचहरियां, धार्मिक - संस्थान वगैरह दोहन केंद्रों में बदल चुके हैं, और कहीं कोई सुनवाई अब नहीं होती। ज़ुर्म बढ़ते जा रहे हैं। आत्ममुग्धता, राजनेताओं की पहचान बन चुकी है। ऐसा ही और भी बहुत कुछ है, तो कविता क्या कर रही है ? मूलतः कवि शीर्षक अपनी कविता में; अविनाश मिश्र इसका उत्तर देते हैं:
| मूलतः कवि |
आततायियों को सदा यह यक़ीन दिलाते रहो
कि तुम अब भी मूलतः कवि हो
भले ही वक़्त के थपेड़ों ने
तुम्हें कविता में नालायक़ बनाकर छोड़ दिया है
बावजूद इसके तुम्हारा यह कहना
कि तुम अब भी कभी-कभी कविताएँ लिखते हो
उन्हें कुछ कमज़ोर करेगा।
| लाल बेर और मोटा नमक |
लाल बेर और मोटा नमक सभ्यता के दायरे में नहीं
उन्हें अब भी डूँगर और रेत पसंद हैं
कम पानी वाली जगहों और तमाम कच्चे रास्तों पर
वे अपने आप उग आते हैं
सिर्फ़ बकरियाँ और ऊँट उन तक पहुँच पाते हैं
और वे जो स्कूलों में नहीं
उमस भरी गर्मियों, मेलों और सरकारी स्कूलों के बाहर
पार्कों के आवारा और बच्चे
पानी में भीगे लाल बेर और मोटा नमक
चटखारे ले-लेकर खाते
आत्मा के उस छोर की ओर लौटते हैं
जहाँ बीहड़ अब भी ज़िंदा हैं
कोई नदी इस आमंत्रण पर उफान में आती है
उसके किनारे गोता लगाना
स्फिंक्स की प्रतिमा के ठीक नीचे पहुँचना है
स्फिंक्स की नाक टूटी है और आँखों में दया नहीं
है तो सिर्फ़ प्रचंड कौतूहल
उसकी पहेलियाँ अब भी
उन रास्तों की ओर धकेलती हैं
जहाँ घर छोड़ते हुए भी,
घर ही की ओर लौटना है।
कविता, जनपदों की परिभाषा है। यह 'मैटाबोलिक रिफ्ट' को भाषा के ज़रिए तोड़ते हुए लोकधर्मी संवेदना की ओर बढ़ना है। जब चेतना तक का पदार्थीकरण किया जा रहा हो, तब कविता ही स्त्रियों, किसानों, दलितों, श्रमिकों के हित में संवाद करती है। सत्तारूढ़ सामाजिक ताकतों के ख़िलाफ़ विरोध रचती है। कालजयी है। इसे नष्ट नहीं किया जा सकता। यह जीवनानुभव है और जीवंत तर्क भी है। हिमाचल में रहने वाले प्रदीप सैनी की एक कविता पढ़ें:
| या |
लगातार गहराता है शीत
पहले से ज़्यादा गिरती है बर्फ़ हर रोज़
मैं धीरे-धीरे एक विराट और निर्जन हिमनद हुआ जाता हूँ
कुहरा घना है हर तरफ़
अँधेरा एक दूसरे अँधेरे से अँधेरे में मिलता है गले
उनकी आहट तो होती है शक्ल नहीं दीखती
बिना किसी प्रकाश के शापित है मेरी धवलता
या तो ऊष्मा का स्पर्श बचाएगा मुझे या फिर
किसी स्पर्श की ऊष्मा
उस बर्फ़ से बदनसीब कुछ भी नहीं
जिसकी क़िस्मत में नहीं है पानी होना।
इधर जब कविता - आलोचना कविता केंद्रित न होकर, चेहरा - केंद्रित हो चुकी हो। अधिकांश कवि इक - दूजे की ही पीठ खुजला रहे हों। तब मैं युवा - कविता की ओर देखता हूं और मुझे दिलासा मिलता है कि यह गहन अंधकार में दिए की लौ सा है। यहां मौलिकता है। नयी तर्ज़ व तमीज़ है। कहने के नए ढंग हैं और गहन जिजीविषा है। यह विषयों को छूकर ही नहीं निकलती, उनमें साधिकार दाखिल होती है तथा अपने लहजे में दो टूक है। यह कविता की नयी चेतना है, जो अपने संप्रेषण में मनुष्य के निकट है व उसे प्रत्येक फ्रेम में खोजती है। यह प्रकृति से सजीव जुड़ाव है। वस्तु - जगत का पुनः सृजन करती है यह हारे की उम्मीद है। इसके पाठ के साथ ही इसका सायास वरण होता है। यह हिंदी - कविता की ऐसी उम्मीद है, जो नैरेटिव बदल देती है। दिल-आकार के चेहरे वाली निम्न उद्धृत कविता तथाकथित चाँदों को आईना दिखा देती है:
| रात को होस्टल में एकदम अकेले रहते हुए |
(कमल जीत चौधरी)
अँधेरे ने मुझे अपने सुरक्षित घेरे में ले रखा है
पेड़ पर बैठे उल्लू की आँखों में नई दुनिया खुल रही है...
दो सौ सत्तर डिग्री घूमती नज़र
दिल के आकार का चेहरा
चार उंगलियाँ
तेज़ कान
बाल
दाढ़ी
और जादुई आवाज़ों की यह रात
मैं डूबती जा रही हूँ...
पत्तों से छनकर
मेरे बिस्तर पर आने वाले दिलफरेब चाँद,
देखो,
उल्लू की कलाओं ने मुझे कैसे बचा रखा है।
मेरे निकट यदि कोई कवि अपनी ज़मीन, अपनी लोक - संस्कृति के साथ अंगीकार होता है, तो मौलिक उपस्थिति दर्ज़ कराता है। यहां कविता कलात्मक नक्काशी की फार्मूला - कविता से कहीं बाहर होती है। जम्मू-कश्मीर के कवि कुमार कृष्ण शर्मा की कविता उद्धृत कर रहा हूँ:
| उसका ज़िक्र |
उसके डोगरी लोक गीतों जैसे
चेहरे को पढ़ कर ही
मैंने लिखी है
कविता
उसकी तुबंकनारी* जैसी
गुफ़्तगू सुन कर ही
मैंने समझी है
ग़ज़ल
उसका
कविता गजल का वजूद
मानो
वितस्ता का ठंडा पानी
तवी के गर्म पत्थरों से
टकरा कर उछल जाए
जैसे
लल**
के वाख को
कोई भाख*** के सुरों में
पिरो कर गा दे
जैसे
डल के ठहरे पानी में
चिनाब का यौवन मिल जाए।
उसकी
रोउफ**** जैसी चाल को
देख कर ही
मैंने किया है कुड*****
उसकी
बर्फ जैसी खामोशी को सुन
मैंने समझी है
गर्म हवाओं के थपेड़ों की भाषा
उसका रोउफ बर्फ जैसा सिरापा
जैसे
चिल्ले कलान की बर्फ में
ज्येष्ठ की लू मिल जाए
जैसे
शीन मुबारक
कोई बैसाखी के ढ़ोल की थाप पर दे रहा हो
मानो
पतझड़ के चिनार के तंबेई रंग में
कोई कच्चे आम की खटास मिला जाए
उसको पढ़ लेना
उससे बात कर लेना
संग उसके चलना
उसकी खामोशी से गुफ्तगू करना
कविता पढ़ लेना है
गजल लिख लेना है
नाच उठना है
मुस्कुराना है...
*तुंबकनारी - कश्मीर का लोक वाद्य यंत्र
**लल - कश्मीर की महान शिव भक्त
***भाख- डोगरों की लोक गायन शैली
****रोउफ- कश्मीर की लोक नृत्य शैली
*****कुड- डोगरों की लोक नृत्य शैली