Sunday, August 9, 2020

बलविंद्र सिंह ‘दीप’

बलविंद्र सिंह ‘दीप’ मूल रूप से पंजाबी में लिखते हैं। कभी कभी हिंदी में भी बात कह लेते हैं। गजल इनका मुख्‍य हथियार है। इनकी गजलों में प्रेम है, बगावत है और कुछ कर गुजरने की ललक। बलविंद्र शेयर मार्केट से जुड़े हैं, लेकिन‍ यह इनके व्‍यक्तित्‍व का पूरा अनुवाद नहीं है। बलविंद्र मानवीय पीड़ा को पूरी संवेदना के साथ जीते हैं। भेदभाव और अन्‍याय के खिलाफ आवाज उठाना इनकी लेखनी का अभिन्‍न हिस्‍सा है। इनसे पहली बार मुलाकात कुछ साल पहले रियासत की कल्‍चरल अकादमी के जम्‍मू स्थित केएल सहगल हाल के बाहर हुई थी। साथी स्‍वामी अंतरनीरव भी हमारे साथ थे।

‘खुलते किबाड़’ पर पहली बार इनकी कुछ गजलें प्रस्‍तुत हैं। आखिरी गजल को छोड़कर बाकी सभी पंजाबी में हैं जिनको देवनागिरी में लिखा हुआ है। हो सकता हैं इस प्रयास में कुछ त्रुटियां रह गई हों, इसके लिए पहले से ही क्षमा। वह पाठक जो पंजाबी नहीं जानते अगर वह इन गजलों को ध्‍यान और सब्र से पढ़ें तो शे’र के भाव और बलविंद्र सिंह ‘दीप’ के तेवर समझ में आ जाएंगे।

गजल


तय सफर करदा जिवें है कोयला अंगार तक

मश्‍क कर कर पहुंचना है मिसरेआं आशार तक।


रिश्‍तेआं दी तर्ज मानी ऐस तों वद्द कुज नहीं

जिस्म नूं नोचन तों ले के रूह दे लंगार तक।


लाज़मी सी उस दा गल्‍ल करना मेरे किरदार ते

पहुंच ना पाया जदों औ शख्स मेरे मियार तक।


कागज़ी किश्ती समुंदर रेत दा, पर  फेर वी

होंसला छड्डआ नहीं जाना ही जाना पार तक।

 

ज़िदंगी दा फ़लसफा समझो तां बस ऐना के है

हार दी सिखिआ तों ले के जित दे अहंकार तक।


पारदर्शी सोच वाले तुर पए चंन तों अगाहं

‘दीप’ कट्टरवाद सीमत रह गया हथियार तक।

 गजल


की दस्सां की जरदा हां नित

ख्‍वाईशां हथ्थों हरदा हां नित।


इश्क़ तेरी दा निग मानन लई

सिखर दोपहरे ठरदा हां नित।


जिंदा रहना सोखा केहड़ा

जीने दे लई मरदा हां नित ।


याद  तेरी  दी  बेड़ी ले  के 

हिज्र तेरे विच तरदा हां नित।


 एक वी मिसरा कहन तों पहलां

अर्थां नाल विचरदा हां नित ।


आस  मुढ़न  ज़िंदे  तां  ही

‘दीप’ बनेरे धरदा हां नित।


 गजल


दिलां दे रिश्‍तआं अंदर नफा नुकसान नईं वहदें*

जे सजना फड़ लिआ है लड़ ते इज्जत मान नईं वहदें ।


ज़मी तों अर्श तीकर जे सफ़र करना तां रख्खीं याद

परां नूं तोल तूं पहलां इवें असमान नईं वहदें।


जमीरां दा ही मर जाना असल विच मौत है यारो

जदों अनखां ते आ जावे ऊदों सम्‍मान नईं वहदें।


रवानी तक जरुरी है ग़ज़ल विच अरूज ते पिंगल

जिना करनी है दिल दी गल रुकन अरकान नईं वहदें।


बगावत करनी जायज़ है जदों हक ना मिलन ऐ ‘दीप’

जिना रचने नवे इतिहास ओह फ़रमान नईं वहदें।


*वहदें : देखे नहीं जाते

गजल


पुज्जे ना ओस तीकर किन्ने मुकाम बदले

सब आजमाए रहबर रस्ते तमाम बदले।


राजे अजे वी राजे कामें अजे वी कामें*

बस फर्क पीढि़यां दा किथ्थें गुलाम बदले।


 हुंदी रही सिआसत इंसाफ पर ना मिलआ

मिलिआं तरीखां बस हाकम निज़ाम बदले।


वद दा ही जा रिआ ऐ ज़ुलमो सितम दिनो दिन

किदरे सवेर बदले किदरे तां शाम बदले।


वख वख तकाज़े सब दे वख वख ने कायदे ‘दीप’

हुन हक हलाल बदले हुन हक हराम बदले।

 

कामां: लगभग बंधुआ मजदूर 

गजल


फिजाओं में दुआओं में रवानी किसकी है

नहीं है गर खुदा तो पासबानी किसकी है।

 

ये किस के कहने से चलते हैं यहां रस्‍मो निजाम

मुसलसल चल रही ये हुक्‍मरानी किसकी है।


बहुत कुछ करना पड़ता है कभी न चाह कर

अगर किरदार हैं हम सब कहानी किसकी है।


मेरी तामीर से लेकर मेरे बिखर जाने तलक

अरे छोड़ो मियां ये मेहरबानी किसकी है।


जहां ने पढ़ लिए हर्फे मोहब्‍बत अबके ‘दीप’

छुपाउं क्‍या लबों पर ये निशानी किसकी है।



संपर्क: सिंबल कैंप, टेकरी मख्‍खनपुर गुज्‍जरां

आरएस पुरा, जम्‍मू। 

ईमेल: deep@gmail.con

मोबाइल: 9796565517


प्रस्तुति व फोटोग्राफ: कुमार कृष्ण  शर्मा

Sunday, August 2, 2020

भगवती देवी


भगवती देवी की लेखन यात्रा 2011 में शुरू हुई। वे जम्मू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग से Ph.D हैं, इन दिनों वहीं अस्‍थाई तौर पर पढ़ा रही हैं। संघर्ष के इस दौर में कविता को वे निजी व सामूहिक ताकत मानती हैं। सात साल पहले इसी ब्लॉग पर उनकी तीन कविताएँ प्रकाशित हुई थीं। इस बीच उन्होंने छिटपुट शोध-आलेख और कविताएँ लिखीं। वे कुछ पत्रिकाओं और ब्लॉग्स में छप चुकी हैं। कुछ मंचों से कविता पाठ भी किया है। इन दिनों वे 'युवा हिन्दी लेखक संघ' की उपाध्यक्ष हैं। 'सन्दर्भ' नामक ब्लॉग में एक साहित्यिक स्तम्भ और 'तवी' नामक यू-ट्यूब चैनल भी चला रही हैं। लेखन में भी वे एक संयम के साथ सक्रिय हैं। 
इनकी कविताएँ मिलीं, दो-तीन बार पढ़ीं। इनकी कविताएँ व्यवस्था जनित डर के बीच स्त्री के अस्तित्व या अस्मिता की तलाश हैं। इनके सपनों और चुनौती के कदम और मज़बूत हों, भाव संसार  सघन हो, दृष्टि और पैनी हो। इससे आगे की कविताई व उज्ज्वल भविष्य के लिए अतीव शुभकामनाएँ। लीजिए इनकी चार कविताएँ पढ़ें। 


कैद के अन्दर कैद  

देखा सड़कों को उदास 
गलियों को रोते हुए 
मैंने देखा 
सड़कों को सुबकते हुए 

समय बिलकुल थम गया

हमें घर में कैद 
होना पड़ा 
और छोड़ना पड़ा
सड़कों को सड़कों पर उदास।

यह ऐसा समय था 
जिसमें सड़कों पर 
नहीं थे स्कूल जाते बच्चे
न ही अख़बार बेचते बच्चे

नहीं था ठेले वाला 
नहीं था रिक्शे वाला 
नहीं थी गाड़ी 
नहीं थी रेलगाड़ी

हवाई जहाज़ के पहिए भी 
रुक गए
ये ऐसा समय था 
जब योगी गेट*  की सांसे भी 
फूल चुकी थी 
अन्तिम यात्रा को कंधा नहीं था
सड़कों के साथ 
पूरा संसार उदास था 
ये संदेह से भरा समय था 

डर को और ज़्यादा महसूस किया

यह कैद के अन्दर 
एक और कैद की यातना का समय था।  

योगी गेट* - जम्मू में एक शमशान घाट


उसकी आँख

मुझमें वह ढूँढ़ा गया
जो मुझमें था ही नहीं
मीलों चलकर भी 
वह मुझ तक कभी न पहुँच सका

वह जिस दिशा में चलता रहा
वहाँ मेरी तलाश का एक बीज तक न था
वहाँ तो उसकी अपनी आँख टंगी थी।

इस भाषा से

मुझे दरकिनार कर
झुठलाते हो ज़िंदा प्रेम को 
दबाना चाहते हो
इस अंकुर को
तुम्हारी लाख कोशिश के बावजूद भी 
प्रेम फूटेगा ही...
इस पौधे पर 
एक ऐसी भाषा के फल लगेंगे
जिसे तुम सदियों से 
चखना चाहते हो
पर इस भाषा से तुम डरते हो।


नाप

जीवन जीना सबके हिस्से में कहाँ
बेहतर सोचना सबके हिस्से में कहाँ
मन की पतंगे उड़ाना सबके बस में कहाँ
 
सबकी छाप में कहाँ-

भीड़ छोड़कर
सामूहिक गीत गाना सबके गलों की नाप में कहाँ। 


सम्पर्क:-
नरसिंह मन्दिर कॉलोनी, घग्वाल, 
तहसील व जिला- साम्बा, जम्मू व कश्मीर
मेल आई.डी.- parul1286@gmail.com




प्रस्तुति :- 

कमल जीत चौधरी
काली बड़ी , साम्बा { जे० & के० }
दूरभाष - 09419274403
ई मेल - kamal.j.choudhary@gmail.com







फोटोग्राफ: कुमार कृष्‍ण शर्मा

Sunday, July 26, 2020

रोहित ठाकुर


जन्म तिथि: 06/12/ 1978

विभिन्न प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं हंस , आजकल , वागर्थ , इन्द्रप्रस्थ भारती, बया,  दोआब, परिकथा, मधुमती, तद्भव, कथादेश आदि  में कविताएँ प्रकाशित 

मराठी, पंजाबी में कविताओं का अनुवाद प्रकाशित 

कविता कोश , भारत कोश  तथा लगभग 100  ब्लॉगों पर कविताएँ प्रकाशित। हिन्दुस्तान, प्रभात खबर, अमर उजाला आदि समाचार पत्रों में कविताएँ प्रकाशित। विभिन्न प्रतिष्ठित आयोजनों में काव्य पाठ

वृत्ति:  शिक्षक 

रूचि :  हिन्दी-अंग्रेजी साहित्य अध्ययन, विश्व सिनेमा

पत्राचार : C/O – श्री अरुण कुमारसौदागर पथ

काली मंदिर रोड हनुमान नगर कंकड़बाग़

पटनाबिहार (800026)

मोबाइल नम्बर : 6200439764

मेल आईडी : rrtpatna1@gmail.com

हार्दिक शुभकामनाओं के साथ खुलते किबाड़’ पर पहली बार सहर्ष प्रस्तुत हैं उनकी कुछ रचनाएं।



बुद्ध

 

घर से बाहर निकलता हूँ

घड़ी देखता हूँ

नहीं

समय देखता हूँ

सोचता हूँ  - कितना पहर बीत गया

बदहवास सा लौटता हूँ घर

बच्चों की तरह पूरे घर में दौड़ लगाता हूँ

मैं चाहता हूँ  - कोई घर छोड़ कर नहीं जाये |


 

घर की भीत पर निशान छोड़ जाएगा पानी

 

इस साल पानी घर की भीत पर

निशान छोड़ जाएगा

महुआ का पेड़ झुक गया है

घर के दरवाजे पर

बारिश होती रही दिन - रात

कुल बारह दिन

माँ  दीवार पर रेखाएँ खींच देती है

घर के लोग गिन कर सिहर उठते हैं

हमारी स्मृतियों में

नाव उलटने के कई किस्से हैं

कोई न कोई बह जाता था आस - पड़ोस का

बारिश की आवाज कितनी भी तेज हो

सुन ही लेते थे रोने की आवाज

पानी में गर्दन तक डूबा एक आदमी

आवाज दे रहा है

हम उस आदमी को बचा नहीं पाए

उसकी आवाज कभी-कभी

हमारे पैरों में लिपट जाती है

हम डूबने लगते हैं पानी में  |

 


भाषा के पहाड़ के उस पार एक आदमी मौन बैठा है 

 

कितने लोग खाली हाथ घर लौटते हैं

इस धरती पर

कितना तूफान मचा रहता है उनके अंदर

किसी देश का मौसम विभाग

इस तूफान की सूचना नहीं देता है

एक थके हुए देवता की परिक्रमा करते हुए

एक अनिश्चित तिथि के लिए

कौन वरदान मांग रहा है इस समय

पानी ढोने वाली औरतें जानती हैं

इन्तज़ार करना

उनके जीवन में शामिल है

पत्थरों से पानी निकलने का इन्तज़ार करना

भाषा के पहाड़ के उस पार

एक आदमी मौन बैठा है इस हताशा में

किसी हथियार से नहीं भाषा से उसकी हत्या होगी  |

 


शब्दों के अरण्य में

मैं सही शब्दों की तलाश करूँगा

लिखूँगा एक मौसम

एक सत्य कहने में

दुःख का वृक्ष भी सूख जाता है

घर जाने वाली सभी रेल विलंब से चल रही है

छिलके उतार रहा हूँ मूँगफली के दानों की

यह मेरे लिए सबसे सूक्ष्म श्रम है

मैं आदमी से नहीं

शहर से पीछा छुड़ाने के लिए कविताएँ लिखता हूँ

मैंने प्रेम कविताएँ लिखी और पटना को धोखा दिया

दीवार पर धूप के टुकड़े की याद में रोता आदमी

घर से दूर आत्मीयता के किसी क्षण में

एक भीगते पत्ते की तरह हिलता है   |



कवि

आकाश को निहारते हुए

 चिड़िया हो जाना 

धरती को निहारते हुए फूल

मनुष्य को निहारते हुए

 अनाज का दाना 

भाषा को नहीं दुःख को समझना

बहस में नहीं प्रेम में शामिल होना

और

हो सके तो हो जाना कवि |

 


एक गिलहरी एकटक देखती है मुझे

 

घर की सीढ़ियों तक आती है धूप

कभी - कभी

दुःख आता है बार - बार

लौटती है धूप 

दुःख नहीं लौटता

सहमति और असहमति के बीच

 जो कोलाहल है

उसके बीच एक सुंदर घटना घटती है

एक गिलहरी

 एकटक देखती है मुझे   |

 


मेरे पढ़ने की प्राथमिकता में दोष है

 

मैंने उन लेखकों को पढ़ना चाहा

जो उन देशों में रहते थे जिसकी दिशा का ज्ञान मुझे नहीं है

उन तमाम लेखकों के बारे में

मैं  कितना जानता हूँ

मैं तो ठीक - ठीक कई नामों का उच्चारण नहीं कर सका

आधी उम्र बीत गयी

 

पढ़ना घर की दीवारों को पढ़ना

पिता ने कान में कहा था

हाथ पकड़कर माँ ने कहा था

उन तमाम चीजों को पढ़ने के लिए जो पिता नहीं कह सके

 

मैं चाह कर भी नहीं पढ़ सका उन तमाम लेखकों को

जिनका नाम लेते हुए तुम्हारा चेहरा नितांत पराया सा दिखता है

 दरवाजे पर खड़े पेड़ को पढ़ना 

आँगन में आती चिड़ियों को पढ़ना

इतना ही कहाँ पढ़ सका

 

न पढ़ने की विफलता महसूस की है इन दिनों

घर में काम करने वाली उस औरत को कहाँ पढ़ सका

कुल नौ सौ के भाड़े पर रहती थी

पाँच घरों में काम करती थी

पटना छोड़ कर गया चली गयी

 

मेरी पढ़ने की प्राथमिकता में जो दोष है

मुझे कौन माफ़ करेगा इस देश में  |

 

अकाल मृत्यु को रोते हुए

 

मैंने जान बूझ कर नहीं कहा

बस मुँह से निकल आया -

सूख जाये तो सूख जाये पेड़ - पौधे

खेती सूख जाये

पर

मनुष्य के शरीर का पानी न सूखे

अकाल मृत्यु

 को रोते हुए आदमी से 

ऐसी गलती हो जाती है  |

 


चूकने के लिए मुझे अकेला मत छोड़ो

 

चिड़िया आओ

बनाओ घोंसला मेरी आत्मा में

बरग़द आओ

उगो मेरी पीठ पर

ताल - तलैया आओ

शरीर का पानी बनो

चूकने के लिए मुझे अकेला मत छोड़ो |

  


आलोचना के शिल्प में नहीं

 

शिकार करने नहीं

बात करने गया

चिड़ियों के पास

कितनी बार तरल हुईं आँखें

दुनिया भर की बातें हुईं

आलोचना के शिल्प में नहीं 

चिड़ियों की तरह देखा संसार

और

उड़ान भरी देश की आकाश में

थक कर उस पेड़ पर बैठा

जिसकी कोई जाति नहीं थी  |

 

पृथ्वी को सबसे अधिक जानती है रेलगाड़ी

 

पृथ्वी की असीम पीड़ा में

पेड़ निरपेक्ष खड़े हैं

चिड़िया नहीं जानती है

मनुष्यों की भाषा में दुःख के गीत

पृथ्वी को सबसे अधिक जानती है रेलगाड़ी

रेलगाड़ी में बैठकर कोई दुःख से पार पाता है

कई पुलों से गुज़र कर सुख के छोर को छू कर

दुःस्वप्न की तरह

पृथ्वी की पीठ पर खड़ी है रेलगाड़ी

चलती-फिरती रेलगाड़ी के किस्से जीवन का शुक्ल पक्ष है  |


 

 प्रस्तुति व फोटोग्राफ: कुमार कृष्ण  शर्मा