Sunday, June 7, 2020

पीयूष कुमार


निवासी: बागबाहरा, छत्तीसगढ़
उपसंपादक: सर्वनाम
संप्रति: सहायक प्राध्यापक
साहित्य की विभिन्न विधाओं में लेखन। विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशन
संपर्क: 8839072306
मेल: piyush3874@gmail.com

छत्तीसगढ़ निवासी पीयूष जितने अच्छे कवि हैं उतने ही अच्छे  इंसान भी हैं। सरलता, सहजता, संवेदना और पंक्ति में सबसे पीछे खड़े व्यक्ति की चिंता करना इनके मानवीय व्यक्तित्व का हिस्सा है। चिंता इतनी कि लॉक डाउन के दौरान जब इनको पता चला कि कश्मीर के एक हिस्से में छत्तीसगढ़ के कुछ मजदूर फंसे हुए हैं तो चिंतित हो कर मुझे जम्मूे में फोन किया कि अगर किसी प्रकार से मदद हो सकती है तो की जाएं। खैर, कश्मीर के मेरे मित्रों ने हमेशा की तरह मुझे इस बार भी निराश नहीं किया। पीयूष 
छत्तीसगढ़  की लोक संस्कृति के साथ साथ अन्य  मुद्दों और विभिन्न पहलुओं की जानकारी नियमित रूप से सोशल मीडिया के माध्यकम से देते रहते हैं। इनकी अपनी रचनाओं में अगर रोजमर्रा के घटनाक्रमों को लेकर रोष और लूट व मुनाफे की नींव पर टिके बाजार के खिलाफ खड़े होने का साहस है तो वहीं प्रेम के लिए सूक्ष्मता और संवेदना भी। छत्तीसगढ़ के लोक  बिंबों के साथ साथ आधुनिक जीवन शैली को पीपूष अपनी रचनाओं में पिरोना बहुत अच्छे तरीके से जानते हैं। हार्दिक शुभकामनाओं के साथ ‘खुलते किबाड़’ पर पहली बार सहर्ष प्रस्तुत हैं उनकी कुछ रचनाएं।


 
बारिश मे सेमरसोत

हर साल
आषाढ़ की पहली नमी सोखकर
सेमरसोत का प्यासा जंगल
बिखेर देता है जमीन पर 'पुटू'
ताकि सोनापति उसे दोने में लेकर
पाढ़ी के मोड़ पर
चालीस रुपये में बेच सके

सवारी बस की रफ्तार
कम होती है पाढ़ी मोड़ पर
खिड़की से सिर निकालकर
जोर से पूछता है कंडक्टर
बीस में देगी ?
महुए के नीचे भीगती बैठी सोनापति
इनकार में सर हिलाती है
किराए में पांच रुपये भी
कम नही करनेवाला कंडक्टर बडबडाता है
इन लोगों का भी भाव बढ़ गया है

बस में बैठा कवि सोचता है
विकसित सभ्यता की चमक में
सस्ते में मिले संसाधनों
और श्रम के लूट का
मिट्टी और पसीना शामिल है
ऐसे वक्त में सोनापति का
इनकार में सिर हिलाना
एक जरूरी घटना है

मंथर सेमरसोत से कवि पूछता है
यह इनकार जरूरी था ?
वह सहमति में सिर हिलाती
उछाह लेने लगती है
और भीगता हुआ जंगल मुस्कुराता है
आषाढ़ की इस बारिश में

(सेमरसोत वन अभ्यारण्य छत्तीसगढ़ के उत्तरी हिस्से सरगुजा मे अवस्थित है। इसका
नाम यहाँ बहनेवाली सेमरसोत नदी पर पड़ा है। 'पुटू' साल के जंगलों में आषाढ़ में
उगनेवाला एक फंगस है जिसकी सब्जी बनती है और यह बहुत महंगा बिकता है।)


 
वापसी

काश! मुमकिन हो पाता
मेहनतकश के लिए भी
तीन पग में तीन लोकों को नापना
और स्वामी बन जाना सकल का
पर वह नहीं हो सकता
उनका मालिक जरूर हो सकता है
जिसने लौटा दिया है उन्हें

स्पंज आयरन फैक्ट्री के
बन्द दरवाजे के बाहर खड़े रहकर
किया होगा जब फैसला वापसी का
आंख धुंधली हुई होगी लोहे से उड़ी राख सी
पिघले लोहे सा हो गया होगा मन
जो पसर गया होगा देह में
कि अब लौटना ही है

दिल्ली से देवरिया अलीगढ़ आरा जहानाबाद
या राजस्थान के किसी गांव के लिए
लौट रहे हैं जत्थे
रायपुर बिलासपुर कोरबा रायगढ़ से भी
निकल पड़े हैं
गढ़वा रंका और डाल्टनगंज के लिए
एक - एक जोड़ी बहुत से पांव
मुंह फेर लिया है कर्मभूमि ने
यहां मिट्टी भी अपनी न रही
जो देह को थाम ले मरने के बाद
पर जन्मभूमि तो थाम ही लेगी
इसी भरोसे का लहू पैरों में लिए
चल निकले हैं वे
पांच सौ - हजार किलोमीटर के लिए

यहां और वहां की मौत के बीच की
बाकी जिंदगी में चल रहे हैं कदम
इन कदमों के कई इम्तहान अभी बाकी है
कहीं मुर्गा बना दिये जाने का
या मां बहन की गालियों के साथ
दौड़ा दिए जाने का
वे सह लेंगे यह सब बुद्ध की तरह
संसाधनों और श्रम की लूट से चमचमाती
इस सभ्यता में
बुद्धत्व के लिए ज्ञान नही
मजबूर कमजोर और लाचार होना जरूरी है

जिस शहर को बनाया संवारा
उसकी गलियों से जाना मुमकिन नही
इसलिए शहरों के बाईपास से होकर
वापस जा रहे हैं कामगार
शहर गुजरा तो गांव आये
गांव आया तो घर आये
घरों के सामने खेलते हंसते बच्चों को देखकर
काँधे पर लदा उधड़े सीवन वाला पिट्ठू बैग
आह भरता है
जिसके भीतर इस बार
बीस रुपये की मिठाई भी नहीं है
न कोई छोटा खिलौना
और न ही किसी नन्हे का कपड़ा

वापसी नियम है
लाखों सालों में पानी वापस आ जाता है
युद्ध से भी लौट आता है जीवित बचा सैनिक
निकल आती है कटे पेड़ से कोंपल
आ ही जाता है जहाज का पंछी
बच्चों की शक्ल में आ जाते हैं पूर्वज
पेड़ का बीज जमीन पर गिरकर
उग ही जाता है फिर से

कमबख्त भूख भी आ ही जाती है बार बार
मरती नही यह
कहीं बन्द नही होती
काश भूख पर ताला लगाया जा सकता
ताकि न लौटे
कभी कोई इस तरह



गार्गी !

गार्गी !
कभी जनक की सभा में
जब याज्ञवल्क्य से
प्रतिप्रश्न किया था तुमने
ऋषि क्रोधित हो उठे थे एक बार
पर शास्त्रार्थ समुचित संम्पन्न हो गया था

गार्गी !
आज प्रश्न करके देखो
कहो - आसमान से ऊंचा
और पृथ्वी के नीचे क्या है?
तुम्हारे प्रश्न के उत्तर में
आसमान से ऊँची पताका लिए
पृथ्वी के नीचे
पतन की अनन्त गहराइयों तक
कुत्सित अट्टहास के साथ
प्रतिप्रश्न लिए
एक विराट कुपुरुष
नग्न खड़ा है

अभी व्यस्त हैं जनक
उनकी ओर उम्मीद से मत देखो
इधर देखो
याज्ञवल्क्य लिख रहे हैं
वृहदाराजक उपनिषद
नवीन आर्यावर्त का !

 


ऑनलाइन मन

जाड़ों की इन रातों में
मैं गले तक खींचता हूँ
तुम्हारी हंसी का कम्बल
और व्हाट्स एप्प में
देखता हूँ तुम्हे ऑनलाइन
पर कुछ नही कहता
तुम भी चुप ही रहती हो
यह ऑनलाइन
हमारे बीच का पुल है

उधर जंगल में
नदी सिमट रही खुद में
और किनारों पर
छोड़ जा रही मन की नमी
ताकि सुबह
वहां तुम्हारा नाम लिख सकूं
प्रेम की यह नदी
नहीं सूखेगी गर्मियों में भी
वह भी रहेगी हमेशा
ऑनलाइन

तुम्हारा स्टेटस देखता हूँ
इमोजी में मुस्कुराता हूँ
तुम भी वैसी ही मुस्कुराती हो
दो बार...
सोचता हूँ
इस चित्रलिपि ने
क्या सिंधु सभ्यता में भी इसी तरह
इमोशन को जाहिर किया होगा ?

तुम्हारा लास्ट सीन दिख रहा है
मैं भी तीन डॉट्स छोड़कर
मोबाइल डाटा ऑफ करता हूँ
तुम्हारे ख्वाब संजोए हुए हूँ
कोई स्क्रीन शॉट लेकर
गैलरी में संजोता हो जैसे

मन रे !
हमेशा ऑनलाइन ही रहना




ढिंग एक्सप्रेस

धान के खेतों से उपजी
टखने भर मिट्टी पानी की ऊर्जा
उसकी रगों से होकर
ट्रेक पर सनसनाती भाग रही है
और उसके कदमो के नीचे की जमीन
सुनहरी होती जाती है

गूगल में खोजकर उसकी जाति
कुछ लोग निराश हो रहे हैं
उधर उत्तरकाशी में अभी तीन महीनों में
एक भी लड़की ने जन्म नही लिया है
इधर एक पूंजीवादी खेल हार कर
सुस्ता रहा है अभी
इसी समय जमीन से जुड़े दस लोग
मार दिए गए हैं जमीन की खातिर

उसके अंग्रेजी नही बोल पाने को
कमजोरी बतानेवाला प्रवक्ता चुप है आज
हैरान हैं अभिजात्य मीडिया के कैमरे
एक दुबली सांवली फर्राटा भरती देह
उन्हें खींच रही बार बार
उसकी गति इतनी तेज है कि
उनके बने बनाये फ्रेम से बाहर हो जाती है

गोल्डन गर्ल दौड़ रही है पटरियों पर
चन्द्रयान भी भेद रहा अनंत को
यह दो दृश्य एक साथ हैं
राष्ट्रगान बज रहा है
मैडल लटकाए बिटिया मुस्कुरा रही है
लड़कियां तैयार हो रही हैं भागने को
ढिंग एक्सप्रेस की तरह

(हिमा दास को ढिंग एक्सप्रेस कहा जाता है।)


प्रस्तुति: कुमार कृष्ण  शर्मा




9 comments:

  1. पीयूष जी की लेखनी का मैं कायल हूँ

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    1. शुक्रिया मनोज भाई। आप जैसे सुरुचिसम्पन्न और मनुष्यता से लबरेज मित्रों से बल मिलता है।

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  2. खुलते किवाड़ का शुकराना बहुत। बहुत सुंदर प्रस्तुति है यहां पेज पर।

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  3. बहुत बढ़िया सर !!

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  4. अप्रतिम सर

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  5. बारिश में सेमरसोत अच्छी कविता है बधाई

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  6. मैं आपके कविताएं उस समय से सुनता और पढ़ता आ रहा हूं सर जी जब आप हमारे स्कूल में हमें पढ़ाया करते थे, कविताओं में वहीं आकर्षण आज भी है...😊😊😊

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  7. आज यहां अभी साथी पीयूष कुमार जी की बहुत ही मर्मस्पर्शी कविताएँ पढ़ते हुए अच्छा लग रहा हैं ! पीयूष जी कम लिखते हैं ,लेकिन जब लिखते हैं मन -प्राण से लिखते है!यह बहुत ही सार्थक प्रस्तुति है ! मजदूरों की पीड़ा और संघर्ष को इधर जिन कवियों की कविता में अभिव्यक्त होते पढ़ी हैं ,उस क्रम में पीयूष जी की कविता गहरे उतरती है हमारे भीतर !बधाई !

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