Thursday, December 8, 2022

फरीदा खानम- सुर सरहद की बंदिशों के मोहताज नहीं

 

सन 1988-89 की बात होगी। उस समय रियासत जम्‍मू कश्‍मीर में दूरदर्शन के अलावा पाकिस्‍तान टेलीविजिन देखा जाता था। कारण भी साफ था। उस समय टीवी सिग्‍नल ही इन्‍हीं दोनों चैनेलों के ही आते थे। वहीं, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि दूरदर्शन की तुलना में रियासत के अधिकांश घरों में पाकिस्‍तान टीवी के सीरियल ज्‍यादा मकबूल थे।

सीरियल के अलावा पीटीवी पर ऐसे कई कार्यक्रम चलते थे जिनमें पाकिस्‍तान के मशहूर गायक गजलें या नज्‍में पेश करते थे। मल्लिका-ए-तरन्‍नुम बेगम अख्‍तर, उस्‍ताद मेंहदी हसन, उस्‍ताद अमानत अली खान, इकबाल बानो, हामिद अली खान, मल्लिका पुखराज, गुलाम अली, शौकत अली खान, ताहिरा सईद, आबिदा परवीन, उस्‍ताद नुसरत फतेह अली, अत्‍ताउल्‍लाह खान, महनाज़, आरिफा सिद्दिकी कुछ आदि ऐसे नाम हैं जिनसे पहली बार मेरी मुलाकात पीटीवी के माध्‍यम से ही हुई। 

ऐसी ही एक गजल गायिका जिससे पीटीवी के माध्‍यम से मेरा राबता हुआ वह थीं क्‍वीन आफ गजल कही जाने वाली फरीदा खानम। फ़य्याज़ हाशमी की लिखी गजल- आज जाने की जिद न करो, अतहर नफ़ीस की लिखी- वो जो इश्‍क हमसे रुठ गया, फैज अहमद फैज की लिखी- शाम--फिराक अब न पूछ आदि फरीदा खानम की कुछ गाई ऐसे गज़ले थीं जिनको मैं अकसर गुनगुनाता रहता था। उस समय कभी सोचा भी नहीं था कि जिन चेहरों को मैं पड़ोसी देश के टीवी चैनेल पर देखता रहता हूं, उनमें से किसी एक से भी मिलना कभी नसीब होगा।



सुर सरहद की बंदिशों के मोहताज नहीं

बात तीस मार्च 2007 की है जब मुझे खबर मिली कि फरीदा खानम मंदिरों के शहर जम्‍मू में पहुंची हुई हैं। उस समय मैं अमर उजाला के साथ पत्रकार के तौर पर काम करता था। मुझको जब इस बात का पता चला कि वह हरि निवास पैलेस पर रुकी हुई हैं तो मैं दोपहर बाद करीब एक बजे हरि पैलेस पहुंच गया। वहां पहुंचा तो पता चला कि फरीदा जी शहर देखने निकली हुई हैं, जल्‍द आ जाएंगी। फरीदा जी का इंतजार मेरी सोच से भी ज्‍यादा लंबा निकला। वह चार बजे के करीब होटल पहुंचीं।

आप जमीन के उस हिस्‍से पर खड़ी हैं जो दोनों देशों के बीच तनाज़े का सबब है, उनसे मिलते समय दुआ सलाम के बाद मैंने आपनी बातचीत की शुरुआत सीधे इसी प्रश्‍न से की। इस सवाल पर उनका कहना था कि वह इस तल्‍खी से दुखी है। सियासत उनका मज़मून नहीं है। फिर भी वह यह कहना चाहती हैं कि सियासत दूरियां पैदा करने की चाहे जितनी कोशिश करे, सुर सरहद की बंदिशों के मोहताज नहीं होते। कलाकार को जो मोहब्‍बत और इज्‍जत अपने देश में मिलती है, उससे ज्‍यादा अपनापन और दीवाने दूसरे मुल्‍क में मिलते हैं। फनकार हर धर्म, जाति और देश से उपर होता है। दोनों देशों को चाहिए कि वह अपने झगड़े आपस में बैठ कर सुलझाएं।

 

खान साहिब की हूं मुरीद, फराज-फैज महबूब शायर

भारत रत्‍न बिस्मिल्‍लाह खान की फरीदा खानम खासतौर पर मुरीद हैं। उनका कहना था कि उनके बारे में जो भी कहा जाए वह कम है। उनको सुनना सबके नसीब में नहीं है। वह उन चंद खुशनसीब लोगों में से हैं जिनको खुदा ने खान साहिब की शहनाई सुनने का मौका बख्‍शा है। उनको सुनना अलग ही जोन में चले जाने जैसा है। फरीदा खानम जो की एक गजल गायिका हैंसे उनके महबूब शायरों के बारे में पूछना बनता था। इस बाबत उनका कहना था कि फैज अहमद फैज और फराज अहमद उनके महबूब शायर हैं। 

जब मेंहदी हसन का जिक्र करते लगाए कानों को हाथ

मैं खुद उस्‍ताद मेहंदी हसन का दीवाना हूं। इसलिए मैंने फरीदा खानम से मेंहदी हसन के बारे में खास तौर पर पूछा। उस समय उस्‍ताद जी छाती के संक्रमण के चलते बीमार थे। उनका जिक्र करते समय फरीदा खानम की आवाज भर आई। सम्‍मान में फरीदा खानम ने दोनों कानों का हाथ लगाते और अपनी कुर्सी से थोड़ा उठते हुए मेंहदी हसन का नाम लिया। उन्‍होंने दुआ में हाथ उठाते हुए कहा कि खुदा उनका जल्‍द आराम फरमाए। उस समय मैंने जो बात सीखी वह थी कि कैसे एक बड़ा कलाकार दूसरे बड़े कलाकार का सम्‍मान करता है।

बात बात में मैंने उनसे काफी देर से आने का जिक्र भी किया। उनका कहना था कि जम्‍मू में वह शॉपिंग के लिए गईं थीं। इस शहर में इतना कुछ अच्‍छा है कि उनको समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्‍या कुछ खरीदें और क्‍या नहीं। उनको समय का ध्‍यान ही नहीं रहा और उन्‍होंने चार घंटे इसमें लगा दिए।

 

प्रस्‍तुति और फोटोग्राफ: कुमार कृष्‍ण शर्मा

94191-84412

फरीदा खानम का फोटो उनके फेसबुक पेज से साभार लिया गया है। ) 

 

Thursday, November 3, 2022

जगजीत 'काफ़िर'

जगजीत 'काफ़िर' पंजाबी, हिंदी और उर्दू में लिखते हैं। तीस जुलाई 1979 को पंजाब के लुधियाना शहर में जन्‍मे जगजीत की किताब जल्‍द प्रकाशित होने वाली है। कमाल के शायर और इंसान जगजीत विभिन्‍न मंचों, दूरदर्शन और आकाशवाणी पर काव्‍य पाठ कर चुके हैं। उनकी कुछ रचनाओं को पूरे सम्‍मान के साथ पहली बार 'खुलते किवाड़' पर साझा कर रहा हूं। 


# लोगों की असली फितरत से मयखाना ही वाकिफ हैं
बेहतर बेहतर लोग वहां पर कितना बदतर खुलते हैं


ग़ज़ल

ख़्वाबों की ऐशगाह में मख़मूर मस्त लोग
और इक तरफ़ हयात से बेज़ार पस्त लोग

हैरत है इतने इल्म ज़हानत के बावजूद 
अपनी अना से खा गए कैसे शिकस्त लोग 

इनको नहीं पता कि कमाई भी चाहिए 
सांसों को खर्च करने में ही हैं व्यस्त लोग 

अच्छे दिनों के ख़्वाब की कीमत तो देख ले
कैसे चुका सकेंगे भला तंग दस्त लोग

इनमें सलाहियत है कि ज़ंजीरें तोड़ लें 
अपनी फना से दूर हैं बस एक जस्त लोग

आओ जो मेरे पास तो सीने में आग हो
रहते हैं इस दयार में आतिश-परस्त लोग

काफ़िर को अब भी याद हैं, मोमिन भुला ना दें 
अपना कफ़न पहन के खड़े सर-ब-दस्त लोग





ग़ज़ल

वस्ल की रात ढल गई, चांद भी घर चला गया
वक्त को रोकते मगर… महव-ए-सफ़र चला गया

कितनी अजीब बात है, हम पे ये सानिहा हुआ 
दर्द-ए-हयात रह गया, दर्द-ए-जिगर चला गया

वो भी तो एक दौर था, जबकि हिरास-ए-कब्र थे
अब जो फ़ना शनास हैं, मौत का डर चला गया

हमसे वो सुर्खरू हुआ हाय इस इत्मीनान से 
उसने बस अलविदा कहा और वो घर चला गया

तुमसे है इल्तिजा मेरी, कुछ तो ख़्याल-ए-यार हो
शम्मअ बुझाई जाए अब, एक पहर चला गया

हम भी ग़ज़ल सरा रहे, हमने भी शे'र कह लिए 
जिस पे उबूर था कभी, अब वो हुनर चला गया 

काश वो देख ले कभी काफ़िर-ए-कम-नसीब को
जिसकी अना भी मर गई और ये सर चला गया




ग़ज़ल

दुनिया भर में रोज़ ही कितने इल्म के दफ़्तर खुलते हैं
लेकिन अब तक जान ना पाए, कहां मुकद्दर खुलते हैं

हासिल और महरुमी में सब फ़र्क पता चल जाता है
दरिया वाले लोगों को जब सहरा के दर खुलते हैं


इश्क़ यकीनन हमको ऐसी आंख अता कर देता है
पस-मंज़र के पीछे हैं जो, वो भी मंज़र खुलते हैं

सजदे आंसू और निदामत चौखट तक महदूद रहे
किस्मत वाले होते हैं जो उन पर ही दर खुलते हैं

अंबर को तकते रहते हैं आशिक शाइर और फ़क़ीर
ये वो खिड़की दरवाजे हैं जो बस पल भर खुलते हैं 

लोगों की असली फितरत से मयखाना ही वाकिफ हैं
बेहतर बेहतर लोग वहां पर कितना बदतर खुलते हैं

इल्म, रियाजत और इबादत जब अपनी तक़मील चुनें
रफ्ता रफ्ता नफ़्स की इस कश्ती के लंगर खुलते हैं

मूसा होना हम जैसों के बस की बात नहीं काफ़िर
नूरी हो जो उस पर ही उस नूर के पैकर खुलते हैं




ग़ज़ल

अभी भी झिझक? ये सोच विचार? वहशत-ए-दिल?
तड़प के अभी सनम को पुकार, वहशत-ए-दिल

ये रंग-ए-हिरास और निखार वहशत-ए-दिल
उसे भी सुने ये चीख़ पुकार वहशत-ए-दिल

तू चल तो सही हम उसकी गली में रक्स करें 
अब और कहां मिलेगा क़रार वहशत-ए-दिल

वो जान-ए-ग़ज़ल कहीं तो मिले, कभी तो मिले
कि जिसके लिए हम आज हैं ख़्वार वहशत-ए-दिल

इसी में तुझे मिलेगी तेरी फना या बक़ा  
अलम को पकड़, सुकूं को नकार वहशत-ए-दिल

उन्होंने अगर वुजूद तेरा क़ुबूल किया 
तो क्यों ना रहे तू शुक्र गुज़ार वहशत-ए-दिल

ये हासिल-ए-इश्क काफ़िर-ए-नामुराद से पूछ
कहां की निजात? कैसी फरार? वहशत-ए-दिल



ग़ज़ल

चंद लम्हों की कहानी और बस फिर अलविदा।
आँसुओं की राएगानी और बस फिर अलविदा

एक सजदा मुन्तज़िर है आरज़ू के जा-नमाज़
इक दुआ है आज़मानी और बस फिर अलविदा

मैं अभी उलझा हुआ हूं उसके लहजे के सबब
इंकिशाफ़ उसकी ज़ुबानी और बस फिर अलविदा

आते आते आ गई है जिंदगी तक़मील पर,
एक रस्म-ए-जावेदानी और बस फिर अलविदा

ख़ुद की ही तहरीर मुझ पर एक दिन ऐसे खुले,
ओढ़ लूँ अपना मआनी और बस फिर अलविदा

ऐ ज़मीं वालो यहां पर दाइमी कुछ भी नहीं
इक इशारा आसमानी और बस फिर अलविदा

ज़िंदगी के मंच पर अशआर क़ाफ़िर पढ़ चुके,
रह गया मक्ते का सानी और बस फिर अलविदा




ग़ज़ल

मेरा ज़ब्त और ना आज़मा, मुझे मार दे
मुझे यूं ना तोड़ ज़रा ज़रा, मुझे मार दे

तेरी बेरुखी, तेरी नफरतें भी क़ुबूल हैं
तेरे सामने हूं खड़ा हुआ, मुझे मार दे

तेरे हिज्र ने मेरी वहशतों को जगा दिया
मुझे और कुछ नहीं सूझता, मुझे मार दे

ये जो मौत है, ये निजात है मेरे वास्ते
मैं हूं ज़िन्दगी से डरा हुआ, मुझे मार दे

तुझे इस अना ने जिता दिया या हरा दिया
इसे बाद में कभी सोचना, मुझे मार दे

तेरे साथ ही मेरी ज़िन्दगी भी चली गई
तो अब ऐसे जीने में क्या मज़ा, मुझे मार दे

तेरे बिन जहान में क्या करुं, मेरे हमनफ़स
तुझे कर रहा हूं ये इल्तिज़ा, मुझे मार दे

तुझे देख कर किसी रोज़ तुझपे जो मर मिटा
वही काफ़िर आज ये कह उठा, मुझे मार दे




ग़ज़ल

ये ज़मीं ये आसमां ये कहकशां कुछ भी नहीं
सब फना की क़ैद में हैं जावेदां कुछ भी नहीं
 
है, मेरे ही दूर उफ़तादा किसी गोशे में है
वुसअत-ए-कौनैन हूं मैं, ये जहां कुछ भी नहीं

मैं बड़ी मुश्किल से समझा हूं कज़ा के राज़ को
बर्क-ए-रक़्सां के मुक़ाबिल आशियां कुछ भी नहीं

ज़िन्दगी तख़रीब और तामीर का ही खेल है
इल्म वालों को जहां की गुत्थियां कुछ भी नहीं

ऐ परिंदो इन परों में ज़र्फ़ तो पैदा करो
हसरत-ए-परवाज़ को ये बेड़ियां कुछ भी नहीं

ज़हर भी गर हिकमतन लें तो दवा बन जाएगा
इस जहां में देखिए तो राइगां कुछ भी नहीं

यार की गलियों में घुंघरू बांध कर भी नाच लूं
इश्क़ में काफ़िर मेरी खुद्दारियां कुछ भी नहीं



संपर्क
जगजीत 'काफ़िर' 
मोबाइल: 9877590282
ई-मेल: jagatairtel@gmail.com

प्रस्‍तुति और फोटोग्राफ: कुमार कृष्‍ण शर्मा
94191-84412

Saturday, October 1, 2022

अमन जोशी 'अज़ीज़'


नाम - 
अमन जोशी 'अज़ीज़'

शिक्षा - M.A.,M.Phil.,M.Ed.

युवा शायर अमन जोशी 'अज़ीज़' लुधियाना से संबंध रखते हैं और पंजाब शिक्षा विभाग में बतौर अंग्रेज़ी लेक्चरर के पद पर कार्यरत हैं। बेहद मिलनसार, शांत और सादा तबियत के मालिक अमन से मेरी उनसे मुलाकात लुधियाना में हुई थी। 

'खुलते किबाड़' पर पूरे सम्‍मान के साथ उनकी कुछ गजलों को सहर्ष साझा कर रहा हूं। गजल से पहले उनके कुछ अशआर 

# बात कहने के सौ तरीक़े हैं

कुछ न कहना भी इक तरीक़ा है


# आँख से देखा भी जा सकता है

वैसे रोने के लिए होती है


# पाँव के नीचे से कालीन हटाया जाए

ताजदारों को ज़रा होश में लाया जाए 


# परिंदा रोज़ क्यूँ आ बैठता है मेरी चौखट पर

मेरे दरवाज़े की लकड़ी यक़ीनन जानती होगी


# आप लायक़ नहीं मुहब्बत के

आपका दिल दिमाग़ जैसा है 




गजल


यूँ सर-ए-बज़्म तमाशा न बनाया जाए

बात मेरी है तो फिर मुझको बताया जाए

दिल ब-ज़िद था कि तेरा फ़ोन मिलाया जाए
भूलने वाले तुझे याद तो आया जाए

पाँव के नीचे से कालीन हटाया जाए
ताजदारों को ज़रा होश में लाया जाए

शायरी का ज़रा माहौल बनाया जाए
मुझे हर शेर पे इक जाम पिलाया जाए

एक महताब की आमद का भरम है मझको
बर-सर-ए-राह सितारों को बिछाया जाए

हो किसी की भी मगर इतना तो हक़ रखती है
यार ! मय्यत को सलीक़े से उठाया जाए

ख़ाली जेबें हैं खिलौने न दवा ले पाया
कौन सा मुँह लिए घर लौट के जाया जाए

आबला-पा भी तेरी सम्त चले आएँगे
शर्त ये है कि मुहब्बत से बुलाया जाए

उसकी तस्कीं का तक़ाज़ा है कि मैं चूमूँ फ़लक
और फिर मुझको बुलंदी से गिराया जाए

अपने होने का कुछ एहसास दिलाया जाए
शेर अच्छा लगे तो खुल के बताया जाए



गजल

जब तलक हमने सहा है
तब तलक रिश्ता रहा है

ख़ुद कहन से क़ीमती है
कब कहाँ किसने कहा है

आँखें जब बंजर हुई हैं
इश्क़ नदियों में बहा है

पहले खिसकीं थीं दीवारें
घर तो आख़िर में ढहा है

अब हमारी चुप को समझो
अब सुख़न की इंतिहा है



गजल

ऊपरी तह तो मख़मली होगी
फिर ज़मीं सख़्त-ओ-खुरदरी होगी

इश्क़ वो जंग है नए लड़को
फ़तह होगी न वापसी होगी

जब दीवारों के कान होते हैं
खिड़कियों की तो आँख भी होगी

क़त्ल करती है बेबसी लेकिन
दर्ज काग़ज़ पे ख़ुदकुशी होगी

पाँव चादर में ही रखोगे तो
चादर अगले बरस बड़ी होगी

उसके आने पे इस बग़ीचे ने
उसकी तस्वीर खींच ली होगी

जब भी सिगरेट नई जलाता हूँ
सोचता हूँ ये आख़री होगी



गजल

कड़कती धूप में भी रात रानी याद रखते हैं
उदासी लाख हो हम शादमानी याद रखते हैं

विरासत है हमारी ख़ानदानी याद रखते हैं
मुहाजिर लोग हैं चोटें पुरानी याद रखते हैं

हमें उसकी ख़ुमारी में बहुत आसान है जीना
सुलगती रेत पर चलते हैं पानी याद रखते हैं

किनारे साथ होने का भरम हो ही नहीं सकता
कि हम दरिया हैं सो अपनी रवानी याद रखते हैं

भुला सकते हैं दुश्मन की ख़ताएं लाख हम लेकिन
हम अपने दोस्तों की मेहरबानी याद रखते हैं

मुकम्मल हो नहीं पाया वो शेर-ए-ज़िंदगानी पर
कहीं पर भी रहें हम अपना सानी याद रखते हैं

ज़रा हमदर्दी से पेश आते हैं वो नौजवानों से
बुढ़ापे में जो लोग अपनी जवानी याद रखते हैं

हमारी शायरी के यूँ तो वो क़ायल नहीं लेकिन
हमारे शेर सारे वो ज़ुबानी याद रखते हैं



गजल

उसने दस्‍तक दी मेरे दरवाज़े पर
रंग लौट आया मेरे दरवाज़े पर

आज़माकर सब को बारी बारी वो
फिर चला आया मेरे दरवाज़े पर

मेरी मैं, फिर उसपे दुनिया की हया
यानी, दरवाज़ा मेरे दरवाज़े पर

पुरसुकूँ था तपती दोपहरी के दिन
तेरा रुक जाना मेरे दरवाज़े पर

मैं ख़ुदी के रक्स में मख़मूर था
जब ख़ुदा आया मेरे दरवाज़े पर

बदनसीबी ! आज मैं ख़ुश हूँ बहुत
फिर कभी आना मेरे दरवाज़े पर

'ग़म-गुसारों के लिए फ़ुर्सत नहीं'
मैने लिख डाला मेरे दरवाज़े पर

मैंने सच की राह पकड़ी थी 'अज़ीज़'
लग गया ताला मेरे दरवाज़े पर


अमन जोशी 'अज़ीज़'

संपर्क:- 98142-98099


प्रस्‍तुति और फोटोग्राफ:- कुमार कृष्‍ण शर्मा

94191-84412

Tuesday, September 20, 2022

पुलकित शर्मा

युवा शायर पुलकित शर्मा 28 साल के हैं और अमृतसर(पंजाब) से नाता रखते हैं। पुलकित पुणे में एक आईटी कंपनी में बतौर सीनियर साफ्टवेयर इंजीनियर कार्यरत हैं। पुलकित ने 2018 से ग़ज़लें, नज़्में कहना शुरू किया है और अदब के जानकारों से, अदीबों से उन्हें बहुत मुहब्बत मिली है। पुलकित अब तक पुणे, मुम्बई और पंजाब में कई जगह कविता पाठ कर चुके हैं।
पुलकित अपने अंदर शायरी की कला के होने का श्रेय अपने पूज्य पिता जी को देते हैं और इसे अपने पिता जी का आशीर्वाद ही मानते हैं। पुलकित के पिता जी, स्वर्गीय "पंडित किशोर शर्मा जी" एक थिएटर कलाकार थे जिन्होंने अपने जीवनकाल में कई पंजाबी और हिंदी फ़िल्मों में बतौर अभिनेता काम किया था।
पुलकित से मेरी मुलाकात लुधियाना के हरदिल अजीज शायर मुकेश आलम के घर पर हुई थी। सादा तबयित, बेहद मिलनसार और बहुत संवेदनशील पुलकित की कुछ रचनाएं अनंत शुभकामनाओं के साथ आपके साथ साझा कर रहा हूं। गजल और नज्म से पहले उनके कुछ अशआर 
 

चारागर इक अर्ज़ करूँ मैं? मेरी नब्ज़ न देख..
तेरा इल्म सलामी लाएक़, मेरा ज़ख़्म फ़रेब

देख के अपनी चादर पैर पसारे मैंने
एक फटी चादर थी, ख़ैर पसारे मैंने

राम  लिखो  पत्थर  पर  तो  पानी  क़ाबू  में  रहता  है 
ऐसा ही इक पत्थर मेरी आँख पे रख दो आज के आज

क़ब्ल इसके ज़िन्दगी से राब्ता हरगिज़ न था
मौत देखी घर में जब तो ज़िन्दगी महसूस की

साँस अपनी दौड़ती है उम्र भर
मुँह के बल जब गिर पड़े तो मौत है




गजल

काम चलाया कुछ दिन मैंने जैसे तैसे
दिल न लगाया कुछ दिन मैंने जैसे तैसे

दिल मेरा हिज्राँ में रोया छटपट छटपट
चुप न कराया कुछ दिन मैंने जैसे तैसे

ज़ीस्त खड़ी थी डमरू, डफ़ली, चिमटा लेकर
नाच दिखाया कुछ दिन मैंने जैसे तैसे

ख़ुश होकर जिस तन्हाई को दूर किया था
पास बुलाया कुछ दिन मैंने जैसे तैसे

मुझको पाना सब के बस की बात नहीं थी
दाम घटाया कुछ दिन मैंने जैसे तैसे



गजल

खेल रहे जो इतना तनकर खेल रहे..
जाने आख़िर किस की शह पर खेल रहे..

खेल था क्या ये इनके बाबा दादा का ?
कौन हैं जो यूँ अफ़सर बनकर खेल रहे ?

कुर्सी पर तशरीफ़ न रख दे नस्ल नयी
कुर्सी वाले कितना जमकर खेल रहे..

इस रस्ते पे वो जो थोड़ा आगे हैं
पिछलों को बस ठोकर देकर खेल रहे..

बाहर वाला अंदर कैसे आएगा ?
अंदर वाले अंदर-अंदर खेल रहे..




गजल

काश  होता  'चुटकियों से',  चुटकियों में  खेल ऐसा
याद घर की जब भी आती चुटकियों में जा पहुँचता

मन  मिरा  क़ाबू  से  बाहर  मनचला  हो  घूमता  है
काश सातों चक्र खुलते मन का दरिया पार होता

बाँध  पट्टी  आँख  पर  मुझको  ख़ुदा  को  ढूँढना  है
गर ख़ुदा मुझ को घुमाकर खेल में वापिस न लौटा ?

काश होते 'तुम' कहानी में मिरी किरदार कोई !
काश मेरी ज़िन्दगी का एक नाटक पेश होता..

काश 'मैं' हर इक कहानी में बनूँ किरदार कोई !
हाँ अगर ऐसा हुआ, मेरा ख़ला का रोल होगा..



गजल

आँख नम थी, ग़मज़दा थी, सिसकियाँ लेने लगी
पतझडों में एक तितली, सिसकियाँ लेने लगी

अब तलक जो ख़ुश बहुत थी रौनकों को देख कर..
गुम हुई मेले में, बच्ची, सिसकियाँ लेने लगी

फिर लबालब इक समंदर वहशतों से भर गया
और इक सहमी सी कश्ती, सिसकियाँ लेने लगी

हम हुए आज़ाद, दोनों ही तरफ़ लाशें थीं बस
लाश ढोती.. रेल-पटरी, सिसकियाँ लेने लगी

एक शायर बज़्म में इक शेर कहता रो पड़ा
साथ उसके बज़्म सारी सिसकियाँ लेने लगी




गजल

दरिया का मन 'भरा हुआ' तो क्या होगा ?
गर मैं उस में 'डूब गया' तो क्या होगा ?

रक़्स करें हैं जो यह 'लहरें' दरिया पर..
दरिया 'इन में' डूब गया तो क्या होगा ?

'सहरा', जिसके हर ज़र्रे में रेत बसी..
इसने गर चोला बदला तो क्या होगा ?

रेत कहे सहरा में तन्हा रहती है..
रेत का मन हो रोने का तो क्या होगा ?

पूछ रही बुतकार को मिट्टी सच कहियो..
इतने बुत हैं.. एक घटा तो क्या होगा ?




गजल

हम तितली को हाथ लगाने वाले लोग
या'नी हम हैं बाज़ न आने वाले लोग

हम दीवार बना कर ख़ुश हो जाते हैं
हम रिश्तों से जान छुड़ाने वाले लोग

'इक किरदार' से पूरी उम्र नहीं कटती
हम चेहरों का खेल बनाने वाले लोग

हमसे पूछो कौन ग़लत है फिर देखो
हम उँगली का नाच दिखाने वाले लोग

रंग बना कर.. रब ने हम पर रहमत की..
हम..रंगों से ज़ात बनाने वाले लोग..




नज्‍म

ख़ुदा की चाल

अगर सोचो हक़ीक़त में,
ख़ुदा की चाल निकली तो..
हमारा साँस लेना क्या पता मालूम करना हो !
कि जैसे हम..
हर इक शय जाँचते हैं औ' परखते हैं..
ख़ुदा हमको बनाकर उम्र भर बस देखता हो तो !

अगर उसकी निगाहों में ग़लत शय हम भी निकले तब !
हमारे साँस लेने का कोई मतलब न निकला जब !
ख़ुदा जो देख कर सोचे,
नहीं वो बात रचना में,
तभी साँचा बदल दे वो,
हमें फिर से बनाने को..

किसी दिन रोज़ के जैसे..
भरी लेकिन न छोड़ी तो,
हमारी साँस का पैंडा अधूरा ही रहेगा तब।

मगर जो जी रहे थे हम,
जिसे जीवन समझते थे,
था जीवन ही नहीं वो तो
ख़ुदा का खेल था सारा..

कहे कोई ख़ुदा से ये,
हमें फिर से नहीं बनना,
सफ़र फिर से नहीं करना,
सफ़र में क्या नहीं देखा,
कई रातें भयानक थीं,
कई दिन थे जो क्यूँ ही थे,
सभी रिश्ते, सभी नाते, निभाए हैं मगर अब बस,
ख़ुशी से आज तक ग़म को सहा लेकिन न जाना था,
कि सारे ग़म तो हमको जाँचने का एक ज़रिया थे,
कि हम जो सोचते थे वो ख़ुदा सब नोट करता था,
तभी इक दिन, तभी इक दिन..
हुआ ऐसा कि वो आई जिसे सब मौत कहते हैं..
कि मतलब हम ख़ुदा के टेस्ट में अब फ़ेल होकर फिर..
चले थे दूसरे साँचे..ख़ुदा ने ली नई मिट्टी..नए साँचे में भर कर के..
लगा फिर से मुसीबत को तरीक़े से बनाने वो..

अगर सोचो हक़ीक़त में, 
ख़ुदा की चाल निकली तो..

अगर वो जान कर के..बूझ के.. करता हो ऐसा तो !
पुरानी मिक्स करता हो, नई मिट्टी में तो सोचो,
ज़रुरी तो नहीं उसका हमेशा ही लगे रहना,
उसे क्या फ़र्क पड़ता है, कि हम कैसे भी निकलें.. पर..
उसे करना वही है जो भी उसने सोच रक्खा है..
उसे फिर से बनाना है, हमें फिर से बनाना है, बनाते ही तो जाना है..
किसे मालूम उसको क्या मज़ा आता है ये कर के..
मगर ये भी हो सकता है...कहीं ये बात निकली तो ?
उसे गर बस यही इक काम करने का पता हो तो ?
तो फिर अब बात ऐसी है..
ज़रा सोचो तो सीधी है..
सभी जीवन हमारे बस कटे हैं फ़ेल हो कर के..
ख़ुदा करता नहीं है पास, अपने पेट की ख़ातिर..
चलो इस बात को मानें कि ये जीवन नहीं जीवन..
नहीं होगा कभी कोई हमारा अस्ल में जीवन..
ख़ुदा शतरंज-ए-हस्ती में हमेशा 'चेक' ही देता है,
रखें हम पाँव जिस ख़ाने, वहीं पर मात निश्चित है।

अगर सोचो हक़ीक़त में,
हमारा सोचना ऐसा भी उसकी चाल निकली तो !
ख़ुदा ने सोच रक्खा हो अलग जीवन हमारा तो !
ख़ुदा की सम्त को मंज़र अज़ल ही से तो ऐसा है..
क़लम पकड़े वो हर दम ही ज़मीं की ओर तकता है..
ख़ुदा लेकर के बैठा है,
'पुरानी औ' नई मिट्टी'।


पुलकित शर्मा
अमृतसर, पंजाब
9834923481


प्रस्‍तुति और फोटाेग्राफ- कुमार कृष्‍ण शर्मा
94191-84412