Thursday, December 25, 2014

शायक आलोक


शायक आलोक कैमरे से कविताई और कविताई से जीवन के विविध रंग देखते हैं.वे युवा हिन्दी कविता के सशक्त हस्ताक्षर हैं. इनकी कविता कोरी भावुकता, खोखले राजनीतिक नारों और कवि होने के प्रयास से मुक्त सिर्फ और सिर्फ कविता है. सघन संवेदना, मौलिकता और सहजता ही इनकी पहचान है. इसी को इनका एक बड़ा पाठक वर्ग पसन्द करता है . आप भी पढ़ें और अपनी राय रखें. शायक आलोक को धन्यवाद व शुभकामनाओं सहित प्रस्तुत हैं उनकी तीन कविताएँ -




सर्दी और एक ट्रेन यात्रा

1.
[ ट्रेन की खिड़की से बाहर झांकते हुए ]

मुझे ठण्ड लग रही है
और मेरी उँगलियाँ सर्द हो गयी हैं
कल की ही तरह
आज भी
घिर आई है शाम
और मेरे हिस्से का आकाश
सिकुड़ता जा रहा है..
कुहासे की पतली चादर
चीरती महानंदा एक्सप्रेस
जब भी सिहरती है
चरवाहे बच्चे तालियाँ बजाते हैं
घर को लौट जाओ बच्चों
गोबर का बोरसी सुलगाये
इन्तजार में होगी माँ....


2.
[लेमनचूस वाला बच्चा]

उसे घर नहीं लौटना
किसी जल्दबाजी में नहीं है
गोती बांधे किसी मंगोल सेनानायक सा दिखता है वह
खिड़की से अभी अभी टकराई सर्द हवा
उसे थर्रा गयी है
लेमन्चुस्स्स्सस्स्स्स...
लेमनचूस बेचने वाले बच्चे की आवाज़ सर्द हो गयी है
अपनी महँगी जैकेट में
थोडा और सिकुड़ आया हूँ मैं
मुझे घर की याद आ रही है
क्या उसे नहीं आती ?


3.
[बोरियत और किर्र किर्र ]

मैं इन्तजार में हूँ ..
अभी अभी गुजरा है
भूले बिसरे गीत गाने वाला भिखारी
मेरे चेहरे पर जमी सर्दी की तरह
जमे हुए हैं चाय वाले
पिछले डब्बे की मछली रोटी की गंध
मेरे डब्बे तक आ रही है
आधी गंजी पर दुपट्टा डाली नेपाली लड़की
पांच बार थूककर सो गयी है
सनपापरी वाला नौगछिया में उतर गया
मेरी खिड़की से उलटी दिशा में भागते पेड़
अब भी भाग रहे हैं
..वह अब तक नहीं आई
मैं इंतजार में हूँ ...
उबासी में खुद से ही पूछा है मैंने
क्या सर्दियों में नहीं बिकता
किर्र किर्र वाला खिलौना ?


4.
[लौट आना घर को ]

सुबह के ३ बजे भी रिक्शा चलता है
मेरी ही तरह साढ़े पांच फुट का एक इंसान चलाता है उसे
मेरी ही तरह उसकी आँखें लाल होती हैं
उसकी भी एक मोटी चादर होती है
वह भी मनमोहन और अन्ना को जानता है
उसे भी बुर्जुआ सर्वहारा का मार्क्स संघर्ष पता होता है
उसे भी मेरी ही तरह ठण्ड लगती है
मेरी ही भाषा भी बोलता है वो
......
अपने गर्म बिस्तर में घुस आया हूँ मैं
वह अब भी सड़क पर है ..





मरे हुए बच्चे

मैं तुम्हारी ही उम्र का हूँ
तुम मेरी भाषा समझ सकते हो
मेरे साथ खेल भी सकते हो
तुम अपनी गेंद मेरी ओर उछालोगे
और मैं उसे वापस तुम्हारी ओर फेंक दूंगा
हम देर तक यूँ खेल सकते हैं
अब मुझे स्कूल जाने की जल्दी नहीं होती
मैं पेशावर का मृतक बच्चा हूँ
मैं अपनी कब्र में लेटा रहता हूँ
मैं तुम्हें ख़त लिख रहा हूँ क्योंकि
मेरे बाकी सब दोस्त भी मेरे साथ कब्र में लेटे हैं
और हमें खेल के लिए जिंदा बच्चे चाहिए
जवाबी ख़त मिला
जिस दिन तुम मरे
उस दिन से नहीं लौटे हैं पिता मेरे
लिया गया उनसे मौत का बदला
मैं गेंद जेब में लिए यहाँ छुपा बैठा हूँ
कब्र सी ठंडक, अँधेरा है यहाँ
और अम्मी कहती है
डूब गया है हमारी धरती का सूरज
कि यह खेल अब बंद होना चाहिए.


द प्रपोजल

उसने शादी के लिए नहीं पूछा
नहीं बैठा घुटने के बल और
नहीं निकाल लाया हीरे जड़ी अंगूठी
नहीं कहा उसने कि कि रखूँगा संभाल कर
तुम्हारा दिल
उम्र भर मेरे शहद भरे अंतरात्मा के भीतर
कुछ नहीं बुदबुदाया
चिल्ला कर कहा भी नहीं कि
करता हूँ तुम्हें जहाँ भर का प्रेम
उसने नहीं कहा हिंदी फ़िल्मी तर्ज पर कि
चलो मेरी माँ चाय के बहाने देखेगी तुम्हें
उसने इधर उधर देखा
आसमान से लिए शब्द उधार
या अपने ही कलेजे को खंगाल कुछ हर्फ़ जुटाये
और जितना बेतरतीब था वह उतने ही सलीके से
कहा उसने उसे है अब खुद की जगह की तलाश
कि उसे चाहिए अब अपना एक घर
जिसमें हो वाकई एक अदद रसोई भी
और लड़की ने मुस्कुराकर 'हाँ' कह दिया.



शायक आलोक इतिहास व मनोविज्ञान के छात्र रहे हैं. कस्बाई पत्रकारिता से जुड़े रहे. उनकी कविताएं कहानियां कुछ प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं.
सम्प्रति :- दिल्ली में रहकर स्वतंत्र लेखन व फोटोग्राफी करते हैं. आजीविका के लिए अनुवाद का कार्य करते हैं.
दूरभाष :- 85270-36706 
ई मेल :- shayak.alok.journo@gmail.com



प्रस्तुति :- 
 
कमल जीत चौधरी
काली बड़ी , साम्बा { जे० & के० }
दूरभाष - ०९४१९२७४४०३

ई मेल - kamal.j.choudhary@gmail.com

(सभी चित्र गूगल की मदद से विभिन्न साइट्स से साभार लिए गए हैं)

Friday, November 21, 2014

तस्लीमा नसरीन

कहां ले जाएगी यह कट्टरता


बांग्लादेश के पूर्व डाक और दूरसंचार मंत्री अब्दुल लतीफ सिद्दीकी ने पिछले दिनों कहा कि वह हज और तबलीगी जमात के विरोधी हैं। इस तरह की टिप्पणी के बाद स्वाभाविक ही उनका मंत्री पद चला गया है। उनके खिलाफ बांग्लादेश की सड़कों पर कट्टरवादियों के जुलूस निकले हैं। उनकी फांसी की मांग की गई है, और उनका सिर कलम करने की कीमत पांच लाख टाका रखी गई है। सिद्दीकी की लानत-मलामत करने में बांग्लादेश की राजनीतिक पार्टियां भी पीछे नहीं हैं। वे कह रही हैं कि लतीफ सिद्दीकी को बांग्लादेश में घुसने नहीं दिया जाएगा। वहां का मीडिया भी उन्हें निशाना बना रहा है।
बांग्लादेश की नब्बे फीसदी आबादी मुस्लिम है। इनमें से ज्यादातर का मानना है कि लतीफ सिद्दीकी ने मुसलमानों की धार्मिक भावना को चोट पहुंचाई है। किसी व्यक्ति को ऐसी टिप्पणी नहीं करनी चाहिए थी, जिससे किसी की भावनाओं को चोट पहुंचे। मंत्री पद पर होते हुए तो व्यक्ति से और भी संवेदनशीलता की उम्मीद की जाती है। पर उनके खिलाफ सड़कों पर अचानक जो भीड़ उमड़ आई, उसके बारे में क्या कहें, उसे किस तरह जायज ठहराएं? मुस्लिम कट्टरवादी पत्थर मारकर महिलाओं की हत्या कर दे रहे हैं। एक वार में लोगों का सिर धड़ से अलग कर दे रहे हैं, और उसे दुनिया भर में लाइव दिखा भी रहे हैं। ट्राउजर पहनने के जुर्म में लड़कियों पर कोड़े बरसाए जा रहे हैं। कार चलाने के जुर्म में महिलाओं को पीटा और दंडित किया जा रहा है। पूरी दुनिया के लोग इस बर्बरता के साक्षी हैं। एक समय पूरे विश्व में इस किस्म की बर्बरताएं थीं। पर कमोबेश सभी जगह इन्हें गैरकानूनी घोषित किया गया है।
कोई माने या न माने, लेकिन सच यह है कि पिछले दो दशकों में कट्टरवादियों और आतंकवादी संगठनों की संख्या चिंताजनक रूप से बढ़ गई है। तालिबान, अल कायदा, लश्कर-ए-तैयबा के बाद बोको हराम और आईएस जैसे अनेक छोटे-बड़े आतंकी संगठनों ने अपनी जड़ें जमाई हैं। ये संगठन पूरी दुनिया को दारूल इस्लाम बनाने का ख्वाब पाले हुए हैं। इस दारूल इस्लाम में सिर्फ मुसलमान रहेंगे, दूसरे मजहबों को मानने वालों के लिए इसमें जगह नहीं होगी! प्यू रिसर्च की ताजा रिपोर्ट बता रही है कि दुनिया के अधिकांश मुसलमान शरिया कानून चाह रहे हैं। आज पूरी दुनिया में मुस्लिमों के प्रति एक अजीब किस्म की धारणा बन रही है। मुसलमानों के साथ दोस्ती करने, उन्हें नौकरी देने, उन्हें कारोबार में भागीदार बनाने या उनके साथ सामाजिक रिश्ते रखने के मामले में एक किस्म की हिचक देखी जा रही है। पूरे विश्व में मुस्लिम समुदाय के प्रति अविश्वास जन्म ले रहा है। चूंकि पश्चिमी देशों में मानवाधिकार कानून सख्त हैं, इसलिए मुसलमान वहां अपने रीति-रिवाजों का पालन करते हुए भी रह पा रहे हैं। मानवाधिकार कानूनों का यह सहारा नहीं होता, तो पश्चिम में मुस्लिम समाज का क्या हश्र होता, इसकी सिर्फ कल्पना की जा सकती है।


यदि मनुष्य को अभिव्यक्ति का अधिकार न मिले, तो लोकतंत्र का अर्थ नहीं है। और समाज को बदलने के लिए लोगों की सोच और भावनाओं को भी कई बार निशाना बनाना पड़ता है। राष्ट्र से धर्म को अलग करने और महिला-विरोधी कानूनों को खत्म करने के क्रम में भी लोगों और संस्थाओं की सोच पर चोट करने की जरूरत पड़ती है। बल्कि इतिहास के आईने में देखें, तो समाज के हित में उठाए गए ज्यादातर कदम धर्म को निशाना बनाने के बाद ही संभव हुए। यूरोप में धर्म का वर्चस्व खत्म करते समय भी कई लोगों की धार्मिक भावनाओं को आघात लगा था। गैलीलियो की स्थापनाओं और डार्विन के निष्कर्षों ने भी धार्मिक भावनाओं को आहत किया था। विज्ञान ने तो अंधविश्वासों को लगातार आघात पहुंचाया है। पर यदि हम समाज के आहत होने की चिंता कर अभिव्यक्ति पर रोक लगा दें, विज्ञान के आविष्कार और उसके इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाकर सभ्यता के पहिये को रोक दें, तो हमारा समाज बंद तालाब जैसा हो जाएगा।
मजहबी कट्टरता आज बांग्लादेश में खूब फल-फूल रही है। कट्टरवादियों की इसमें पौ बारह हैं। जब-जब वे सड़कों पर उतरकर किसी की फांसी की मांग करते हैं, कुछ लोगों की संपत्ति और घर नष्ट करने की शुरुआत करते हैं, तब-तब सरकार उनका पक्ष लेकर भिन्न धर्मावलंबियों का उत्पीड़न शुरू करती है। ऐसा करके जहां कट्टरवादियों के हाथ मजबूत किए जाते हैं, वहीं समाज को दशकों पीछे धकेल देने का काम किया जाता है। मेरे मामले में भी सरकार ने तब यही किया था। अगर तत्कालीन खालिदा जिया सरकार तब कट्टरवादियों का पक्ष नहीं लेती, तो उनका दुस्साहस आज इतना नहीं बढ़ता, और मैं भी अपने वतन में रह पाती। बांग्लादेश की मजहबी कट्टरता के लिए सिर्फ मौलवी नहीं, सरकारें भी जिम्मेदार हैं। अगर प्रधानमंत्री शेख हसीना ने लतीफ सिद्दीकी को बर्खास्त नहीं किया होता, तो वह वतन लौट सकते थे। लोगों का गुस्सा भी धीरे-धीरे ठंडा हो ही जाता। तब मजहबी कट्टरवादियों को भी यह एहसास होता कि शेख हसीना के दौर में उन्हें अपनी मर्जी के मुताबिक चलने की छूट नहीं मिल सकती। इससे बाहर भी बेहतर संदेश जाता।
लतीफ सिद्दीकी के बारे में मुझे किसी ने अच्छी बात नहीं बताई। हो सकता है, वह अच्छे आदमी नहीं हों। यह भी हो सकता है कि सरकार में रहते हुए उन्होंने अच्छा काम नहीं किया हो। हालांकि सत्ता से बाहर होने पर किसी की छवि खराब करने में भला कितना समय लगता है! इसके बावजूद लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का इस्तेमाल कर उन्होंने गलती नहीं की थी। उनकी टिप्पणी से असहमति थी, तो उसे अभिव्यक्त करने का भी लोकतांत्रिक तरीका है। लेकिन उसका इस्तेमाल न कर उनकी फांसी की मांग करने या उनके सिर की बोली लगाने का इस आधुनिक सभ्य युग में क्या कोई औचित्य है?
लतीफ सिद्दीकी की टिप्पणी से यदि असहमति थी, तो उसे अभिव्यक्त करने का लोकतांत्रिक तरीका है। मगर उसका इस्तेमाल न कर उनकी फांसी की मांग करने या उनके सिर की बोली लगाने का आधुनिक युग में क्या औचित्य है?

(अमर उजाला से साभार)

(चित्र गूगल की मदद से विभिन्न साइट्स से साभार लिए गए हैं)

Wednesday, October 22, 2014

नील कमल


जन्म :- १५ अगस्त १९६८ को वाराणसी के भलेहटा गाँव में
शिक्षा :- गोरखपुर वि० वि० से प्राणी विज्ञान में परास्नातक
संग्रह :- हाथ सुन्दर लगते हैं , यह पेड़ों के कपड़े बदलने का समय है
अन्य :- महत्वपूर्ण ब्लॉग ' बीच बहस में कविता ' का संचालन करते हैं, महत्वपूर्ण ब्लॉगों और पत्र - पत्रिकाओं में कविताएँ कहानियाँ और आलेख प्रकाशित होते रहते हैं

हुत ज़रूरी युवा कवि नील कमल को मैं केवल उनकी कविताओं से जानता हूँ .ऐसा जानना आज बहुत ज़रूरी है . कम ही लोग ऐसा जानना चाहते हैं . साहित्यिक मठाधीशों और चमचावाद को ठेंगा दिखाने वाले नील कमल की कविताओं पर दस्तख़त कर सकते हैं . उनको जान भी सकते हैं . वे प्रतिबद्ध और परिपक्व हैं .इनके यहाँ कला जीवन के लिए और कला कला के लिए, दोनों सिद्धांतों में क्रमशः ईमानदारी और मौलिकता हैं . इनकी कविताएँ विचार को जनेऊ की तरह धारण नहीं करती . वे जानते हैं कि कविता की रचना प्रक्रिया के बहाने सुन्दर दुनिया को कैसे दिखाया जा सकता है . सपना यही से शुरू होता है .जो बदलाव की पहली शर्त है . गुलेल को खतरनाक और निर्दोष बताने वाली दृष्टि साँड को भी नया सौन्दर्य देती है . ऋत्विज प्रकाशन से प्रकाशित उनके काव्यसंग्रह ' यह पेड़ों के कपड़े बदलने का समय है ' की दस्तक सीधे पाठकों के दिलों पर पड़ी है . इसके लिए उनको हार्दिक बधाई . पूरे संग्रह पर फिर कभी ... फिलहाल आभार सहित यहाँ प्रस्तुत हैं उनकी कुछ कविताएँ -




गोदना

सबसे महफूज पनाहगाह
हूँ मैं
बोलती है एक स्त्री की त्वचा
गोदना गुदवाते हुए

दुनिया के तमाम मर्द
जब कहीं नहीं पाते ठौर
तो शरण पाते हैं मुझमें

और जोर देकर कहती है
जो दमक रहा है
मेरी त्वचा के भीतर
उसे सिर्फ काली सियाही
न समझा जाए .



सुना आपने

कभी आप विचार को
जनेऊ की तरह धारण करते हैं

कभी आप जनेऊ को
विचार की तरह धारण करते हैं

दोनों ही स्थितियों में सुविधानुसार
विचार को कान पर टाँग लेने की सुविधा है
कविता की दुनिया में बस यही सुविधा नहीं है

फिलहाल
कविता के कान पर
टंगा हुआ है एक धागा
ख़ता मुआफ़ हो मेरे दोस्तो
आप जो बनते हैं कविता के हिमायती
सबसे ज्यादा साँसत में कविता की जान
आप से .. हाँ आप ही से है ..सुना आपने ?



माचिस

मेरे पास एक
माचिस की डिबिया है
माचिस की डिबिया में कविता नहीं है

माचिस की डिबिया में तीलियाँ हैं
माचिस की तीलियों में कविता नहीं है

तीलियों की नोक पर है रत्ती भर बारूद
रत्ती भर बारूद में भी नहीं है कविता

आप तो जानते ही हैं कि बारूद की जुड़वा पट्टियाँ
माचिस की डिबिया के दाहिने - बाँए सोई हुई हैं गहरी नींद
ध्यान से देखिये इस माचिस की डिबिया को
एक बारूद जगाता है दूसरे बारूद को कितने प्यार से
इस प्यार वाली रगड़ में है कविता.



गुलेल

यह
रोमन लिपि का
पच्चीसवाँ वर्ण है
हिन्दी की हथेली में कसा हुआ

दो उँगलियों  के
फैलाव में बना वह
विजय सूचक चिन्ह है
जिसे संसद की हर बहस के बाद
दिखाते हैं जनप्रतिनिधि

एक खिंची हुई प्रत्यंचा हैं
एक कसा हुआ विवेक
चुटकी में कसमसाता

एक गोली बराबर पत्थर
तना हुआ किसी एक आँख
किसी एक सर पर

सिर्फ गोपियों की मटकी
ही नहीं फोड़ती है गुलेल
वह तोड़ती है पेड़ पर पका
सबसे मीठा आम ..

कितनी खतरनाक है गुलेल
फिर भी कितनी  निर्दोष .

  





साँड

उसे
सचमुच नहीं
मालूम , कि यह
है शांत हरा रंग , और
वह लाल रंग भड़कीला

उसे दोनों का फर्क तक
नहीं पता , यकीन जानिए

वह निर्दोष बछड़ा है
किसी निर्दोष गाय का
जिसके हिस्से का दूध
पिया दूसरों ने हमेशा

वह बचता बचाता
आ गया है सभ्यता के
स्वार्थलोलुप चारागाह से
जहां बधिया कर दिए गए तमाम
बछड़े , खेतों में जोते जाने के लिए ,
उन्हें पालतू मवेशी में बदल दिया गया

साँड को बख्श दीजिए
अफ़वाहें न फैलाइए कि
भड़क जाता है वह लाल रंग देखकर

यह कैसा भाषा - संस्कार है आप का
कि जिसमें बैल कहलाए , जो पालतू हुए , और
जिन्हें पालतू नहीं बना सके आप , वे साँड कहलाए .


सम्पर्क :-
२४४ , बाँसद्रोणी प्लेस
कोलकाता - ७०००७०
दूरभाष - ०९४३३१२३३७९
ई मेल - neel.kamal1710@gmail




प्रस्तुति :- 
 
कमल जीत चौधरी
काली बड़ी , साम्बा { जे० & के० }
दूरभाष - ०९४१९२७४४०३

ई मेल - kamal.j.choudhary@gmail.com

(सभी चित्र गूगल की मदद से विभिन्न साइट्स से साभार लिए गए हैं)




Friday, October 3, 2014

तस्लीमा नसरीन

आतंकवाद पर खलती है यह चुप्पी



वामपंथी राजनीति को मैं बचपन से ही पसंद करती थी। इस विश्वास में विश्वासी होकर बचपन में मैं सबके लिए रोटीकपड़ा और मकान की मांग करती थी। अकाल पीड़ित लोगों की मदद करती थी। मेरे बड़े मामा कम्युनिस्ट और नास्तिक थे। मैं उनसे बहुत डरती थी। मेरे लिए जुलूस में जाना और बहसों में हिस्सा लेना तो मुमकिन नहीं था। हांकिताबें पढ़ने का नशा था। फिर समता और समान अधिकार के लिए मैंने लिखना शुरू कर दिया।
मैं वामपंथ में विश्वास करती हूं। पर मेरे लेखन की शुरुआत से ही वामपंथियों ने मुझे खारिज किया है। महिलाओं की बराबरी के बारे में जब मैं लिखती थीतब ये लोग मुझे टोकते थे। कहते थेतुम सिर्फ वर्गशत्रु को चिह्नित करो। कम्युनिस्टों के सत्ता में आने पर महिलाओं को बराबरी का अधिकार तो मिल ही जाएगा। पर जहां भी कम्युनिस्ट सत्ता में आएवहां महिलाओं को समान अधिकार नहीं मिला। कहां के पोलित ब्यूरो में कितनी महिलाएं हैंजरा बताइए तो!
बाद में वामपंथियों ने एक अजीब-सी वजह से मुझे दोष देना शुरू किया। बांग्लादेश में हिंदुओं के साथ जो अत्याचार हो रहा थाउसका विरोध करते हुए मैंने लज्जा नाम से एक तथ्य आधारित उपन्यास लिखा था। जब भारत में भारतीय जनता पार्टी मेरी बगैर अनुमति के लज्जा की नकल छाप-छापकर रेलबस और फुटपाथ पर थोक के भाव बेचने लगीतब कम्युनिस्टों ने मुझे दोषी ठहराना शुरू किया। भारत में दक्षिणपंथी मेरा समर्थन कर रहे थेइसके लिए मैं ही दोषी थीआज भी वामपंथी मुझे लज्जा लिखने का दोषी ठहराते हैं। उनका आरोप था कि लज्जा के जरिये मैंने भारत के दक्षिणपंथी कट्टरवादियों के हाथों में हथियार थमा दिया है। भारत के वामपंथी अल्पसंख्यकों पर अत्याचार होने की स्थिति में उनके साथ खड़े होते हैंजबकि बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों पर होने वाले अत्याचारों के खिलाफ मैं खड़ी हुईतो मैं दोषी हूंमैंने लज्जा बांग्लादेश में बैठकर लिखा थाभारत में नहीं। फिर भी दोषी थीक्योंकि बांग्लादेश के कम्युनिस्ट तो कट्टरवादियों के साथ हैं। अपने संगी-साथियों के खिलाफ कोई बात वे भला कैसे सुन सकते थे?
कम्युनिस्टों ने मेरे जीवन का सबसे बड़ा नुकसान तब कियाजब उन्होंने भारत में मेरी किताब पर प्रतिबंध लगा दिया। आत्मकथा का तीसरा खंड द्विखंडितो भारत में प्रतिबंधित हैक्योंकि इसमें मैंने इस्लाम की आलोचना की हैजिससे उनकी धार्मिक भावना पर आघात लगने का आरोप है। जबकि किसी भी मुस्लिम ने मेरी इस किताब को प्रतिबंधित करने के लिए आवाज नहीं उठाई थी। इसके बावजूद पश्चिम बंगाल की कम्युनिस्ट सरकार ने आगे बढ़कर मेरी किताब पर प्रतिबंध लगाया। इस प्रतिबंध के बाद भारतीय उपमहाद्वीप में मेरा जीवन पूरी तरह बदल गया। इसकी वजह यह है कि कम्युनिस्ट सरकार ने मुझे इस्लाम-विरोधी बताकर कट्टरवादियों के हाथ में एक हथियार थमा दिया। मुस्लिम कट्टरवादी आज भी मेरे खिलाफ इस हथियार का इस्तेमाल कर रहे हैं।
किताब पर प्रतिबंध लगाने के बाद कट्टरवादियों ने मेरे खिलाफ फतवा जारी किया। मेरे सिर की कीमत लगाई। मुझ पर हमले किए। मेरे खिलाफ जुलूस निकाले गए। इसी दौरान कम्युनिस्ट सरकार ने पश्चिम बंगाल से मुझे निकाल बाहर किया। मुझे भगाने का कारण वोट था। मैं इस्लाम विरोधी हूंमुझे भगाने से मुस्लिम मतदाता वाम मोर्चे को वोट देंगेइस उम्मीद में मुझे बाहर किया गया।
जब एक राज्य ने मुझे भगायातो दूसरे ने इसी नीति का अनुसरण किया। कोई सरकार वोट खोने का जोखिम नहीं ले सकती थी। पश्चिम बंगाल से मुझे राजस्थान भेज दिया गया। लेकिन राजस्थान की तत्कालीन भाजपा सरकार ने मुझे वहां छह घंटे भी नहीं रहने दिया। राजस्थान से मैं दिल्ली आई। केंद्र की तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने भी मुझे वहां से बाहर करने की कोशिश कीपर ऐसा नहीं हुआ।


कम्युनिस्टों की गलत नीति आज भी खत्म नहीं हुई है। दुनिया भर में वे मुस्लिम कट्टरवादियों के हक में बोल रहे हैंक्योंकि उनका मानना है कि ये लोग अमेरिकी साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ रहे हैं। वामपंथियों की यह बहुत बड़ी भूल है। यदि वे कट्टरवादी अमेरिका के खिलाफ लड़तेतो ह्वाइट हाउस या कैपिटल को निशाना बनातेट्विन टावर को नहीं। ट्विन टावर के ध्वस्त होने से हजारों लोग मारे गएजिनमें अमेरिकी साम्राज्यवाद का खैरख्वाह शायद ही कोई था। इस्लामी आतंकवादी किसी राष्ट्र पर हमला नहीं करतेआम जनता को निशाना बनाते हैं।
तालिबान को अमेरिकी साम्राज्यवाद ने ही पैदा किया है। अनेक कट्टरवादी और आतंकवादी संगठन सऊदी अरब के पैसे से तैयार हुए हैं। सऊदी अरब अमेरिकी साम्राज्यवाद का घनिष्ठ मित्र है। इस्लामी कट्टरवादी दारूल-इस्लाम बनाना चाहते हैंजिसमें दूसरे मजहब को मानने वाले और काफिरों के लिए जगह नहीं होगी। वैसी इस दुनिया में वामपंथियों की जगह तो सबसे पहले खत्म होगी। कम्युनिस्ट नारी के समानाधिकार में यकीन करते हैं। जबकि मुस्लिम कट्टरवादी औरतों को बुर्के में छिपाकर रखते हैं। वे पत्थर मार-मारकर महिलाओं की हत्या करते हैंवे औरतों को पुरुष की संपत्ति समझकर गृहस्थी में कैद करते हैं। फिर कम्युनिस्ट किस तर्क से कट्टरवादियों का समर्थन करते हैं?
किसी अच्छी चीज के खत्म होने से कितनी दुर्गंध निकलती हैयह समकालीन वामपंथियों को देखने से समझा जा सकता है। ईसाइयों या यहूदियों से जो नए मुस्लिम बने हैंवे आईएस जैसे आतंकी संगठनों से जुड़े हैं। वे बगैर किसी दुविधा के किसी की भी गर्दन रेत दे रहे हैं। चाहे आईएस होअल कायदा होअल शवाबबोको हराम या दूसरे कट्टरवादी आतंकी संगठन-वामपंथी इन सबके समर्थन में हैं। ये कट्टरवादी संगठन मनुष्य की हत्या करके अपने ईश्वर को खुश करना चाहते हैं-उस ईश्वर कोजो उन्हें इस काम के लिए ऐशो-आराम की चीजें तो देंगे हीहर आतंकी को बहत्तर हूरों की सौगात भी बख्शेंगे। आश्चर्य है कि ईश्वर में विश्वास  करने वाले वामपंथी इस्लामी कट्टरवाद के इस पक्ष पर कुछ नहीं बोलते।

(अमर उजाला से साभार)