फ़िलहाल 1- कमल जीत चौधरी का नया संकलन 'दुनिया का अंतिम घोषणापत्र'

' चिड़िया, मछली और हिरण लिखेंगे

दुनिया का अंतिम घोषणापत्र'

कमल जीत चौधरी, तेज़ी से मूल्यहीन होते जाने वाले लोकतंत्र पर कविताओं के ज़रिए मनन करते मिलते हैं। उन्होंने बिना किसी आकर्षक शब्दावली के हाशिए पर खड़े भारतीय जनमानस के अन्तःकरण की नक्काशी की है और इसे कतई प्रचारात्मक नहीं बनाया अपितु सामाजिक -राजनैतिक विडम्बनाओं की गुत्थियां खोली हैं। कविता में उतरते उनके तर्क व संवाद अप्रत्याशित ख़ुलासे संग मूर्त हो रहे हैं।यहां प्रतिपल कवि यह भरोसा दिलाता है कि आम में भी जो बेहद आम है,वह उसके पक्ष में खड़े हैं तथा पूरी ज़िम्मेदारी से खड़े हैं।कहना न होगा कि यह कविता अपने सच्चे अर्थों में 'समय की गवाही' देती हुई कविता है। यह कविता कमज़ोर होती सामाजिकता के बरक्स मूल्यों को तो खड़ा करती ही है, यथास्थितियों से टकराती भी है, तथ्यात्मक है, निर्भीक हस्तक्षेप रचती है और फासिस्ट-साम्राज्यवादी मुखौटों को खींच-खींच डालती है।
'घोषित शांतिकाल में
शहादतें बढ़ जाती हैं
सरकार
कर्फ़्यू लगा देती है
शिक्षण संस्थान बंद कर देती है
........
अघोषित युद्धकाल में
विजयी घोषित मुद्राओं में
जनता को अघोषित आज़ादी दे दी जाती है'
कमल की कविता में आते आमजन के संदर्भ में मुझे पोलैंड के चर्चित कवि 'हबेरते' का स्मरण हो रहा है:
'कंकड़ का एक संपूर्ण जीवन है
अपने आप के बराबर
वह सजग अपनी सीमाओं के बारे में
भरा हुआ पूरी तरह
अपने कंकड़ होने के अर्थ में...'*
कमल की कविताओं में रोमान, धरती, नदी, राग व लौकिकता की जीवंत भूमिका है। इनका गुम्फन, कविताओं को एक ओर तो ममत्व से भरता है,दूसरी ओर करूणा की ओर खींच ले जाता है। कवि में प्रकृति निरन्तर धड़कती है। वे यहां प्रत्येक तरह के अनिष्ट को धराशायी करते हैं।
'जो प्यार में होते हैं
चाँद उनकी शाम में बिखरे पत्तों से निकलता है
और उठकर खेतों में चला जाता है'
विनाश,घृणा व विस्थापन के जिस नैरेटिव को वे कविता में बुनते हैं, वह कतरा-कतरा धमनियों में उतरता चला जाता है। हां! इस सृजन में भी, वे कहीं गहरे में राजनैतिक चेतना को नहीं भूलते।
'इस बार वसंत बंदूक लेकर आया है
फूलों पर पैर रखता हुआ
रास को ठेलता हुआ
इस बार कपास
चरखे के लिए नहीं
किसी दीये के लिए नहीं
मरहम के लिए बोई जाएगी'
ठीक प्रख्यात इस्रायली कवि 'यहूदा अमीखाई' की तरह :
'मुझे जीवन के लिए न्यौता दिया गया
पर देखता हूं मेरे मेज़बान कुछ थके-थके परेशान से हैं...'*
और यूनानी कवि 'यानिस रितसोस की भी तरह :
'मैं बहुत साधारण सी वस्तुओं की ओट में छिपता हूं
ताकि तुम मुझे पा जाओ
जब तुम मुझे नहीं पाओगे,तुम वस्तुओं को पाओगे
तुम छुओगे उसे जिसे मेरे हाथों ने छुआ है और हमारे हाथों के निशान एकरूप हो जाएंगे'
(*सन्दर्भ: खिड़की के पास कवि/विजय कुमार)
कमलजीत की कविता के ब्लर्ब में लब्धप्रतिष्ठ कवि-आलोचक 'शरीष कुमार मौर्य' एक जगह लिखते हैं,"...मुहावरे की तलाश जिसे मैंने कहा,वह कवि का अपने भाषा-भूगोल में रहवास का प्रसंग है और भाषा में कवि-व्यक्तित्व के निर्माण का भी..."

कमल की कविता-भाषा में अपनी माटी ,अपनी क्षेत्रीयता महकती है। (तारती,ओसियां, छेक, न्हारी) ऐसे अनेक शब्द हैं।वे अपने दादा से लेकर अपनी संतान,पत्नी को कविता में स्थान देते हैं, जो सुखद है। वे अपने शिल्प-विधान में अलग तरह से रेहतरिक को भी लाते हैं। समग्रता का बोध करातीं इन कविताओं में कुछेक को तो अलग से रेखांकित करना बनता है। जैसे,'सिवाए कविता के', 'सफ़ेद खरगोश', 'आपके जूते बहुत सुंदर हैं', 'जिसने बंदूक बनाई', 'वैसे मैं कहना यह चाहता हूं' ,'एक बात बताओ', 'नवम्बर 2017', 'यकीनन', 'छोटे बड़े', 'बाजी को याद करते हुए' ।
अपनी बात को ' कमलजीत चौधरी' के ही इस वक्तव्य से समेटता हूँ: "ये कविताएं उस 'अमरता' के खिलाफ हैं,जो जीवन को छोटा बनाने के प्रयास में हैं।"

प्रकाशक: दख़ल प्रकाशन
ईमेल: dakhalprakashan@gmail.com
मूल्य रू 175/-


प्रस्‍तुति:
मनोज शर्मा
संपर्क: 97805-24251, 78894-74880

1 comment:

  1. बहुत ज़रूरी। खुलते किवाड़ पर जगह देने के लिए बहुत बहुत आभार 🙏

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