दोनों
दोनों साथ खड़े हैं पुरी के समुद्र तट पर
वे समुद्र को देख रहे हैं मैं उन्हें देख रहा हूँ
दोनों कितने स्थिर हैं कितने पास-पास
क्या पता वे नाप रहे हों समुद्र से गहरे अपने प्रेम को
वे क्या यह कहने आये हैं समुद्र को -
जब हम दूर होते हैं एक- दूसरे से तो समुद्र की तरह ही अशांत हो जाता है हमारा हृदय
मैं उन दोनों प्रेमियों के बीच कोई हस्तक्षेप नहीं करना चाहता
चाहता हूँ असंख्य बरसों तक ये दोनों आते रहें इसी तरह
मैं उन दोनों प्रेमियों पर लिख सकता हूँ असंख्य कविता
अगर वे इसी तरह प्रेम में डूबे आते रहें
और
मुझे दिखाईं दें
दिल्ली- कलकत्ता- सूरत कहीं भी मिल सकते हैं प्रेम में डूबे लोग
बहुत छोटी जगहों पर मसलन बस्ती - दरभंगा- कौसानी में
एक ही आकाश के नीचे मिलते हैं
सबसे बेखबर ये प्रेम करने वाले |
मज़दूर की कमीज़
मजदूरों का एक समूह कई महीनों से एक निर्माण कार्य में लगा है
वे गर्मी के दिनों में आये बरसात में रहे और इस जाड़े के बाद भी शायद कुछ दिनों तक रुकें
उनके समूह में कई लड़के हैं
वे किसी दिन गीत गाते हुए काम करते हैं और हँसते हैं
शाम को आती है उनसे मिलने उनकी औरतें
ये लड़के साफ और नये फ़ैशन के कपड़े पहनते हैं
घूम आते हैं साथ आस-पास के बाज़ार
औरतें लौट जाती हैं
देर रात खाना पकाते हैं और कपड़े साफ करते हैं ये नये लड़के
कई दिनों तक चुपचाप काम करते हुए दिखते हैं
मैं इन्तज़ार करता हूँ इनकी हँसी की इनके गीतों की
अचानक एक दिन वे फिर हँसने लगते हैं गाते हैं कोई गीत
वह शाम कितनी देर से आती है कितनी देर से आती है उनकी औरतें |
कोरोमंडल एक्सप्रेस
कोरोमंडल एक्सप्रेस पटरी से उतर कर पलट गई है
बहुत साल पहले की एक बात अचानक याद आती है
पिता मद्रास इसी रेलगाड़ी से जाते थे
हम बहुत छोटे थे
उस समय पटना तक दक्षिण से कोई रेलगाड़ी नहीं आती थी
पिता कहते थे दौड़ती हुई कोरोमंडल एक्सप्रेस के डब्बे में
किसी यात्री के लिए खड़ा रहना बहुुत मुश्क़िल काम था
बचपन में सपने में कई बार कोरोमंडल एक्सप्रेस में बैठा
कई बार रात में डर से नींद खुल जाती थी
पिता को गुजरे हुए कई बरस हो गए
कोरोमंडल एक्सप्रेस को भूल गया मैं
पटरी से उतर गई है कोरोमंडल एक्सप्रेस
न तो पिता बैठे थे और न ही सपने मे मैं जाकर बैठ गया था
फिर भी कल से कई बार रूलाई छूटती है
हर आदमी से कहे फिर रहा हूँ-
किसी रेलगाड़ी को पटरी से उतर कर पलटनी नहीं चाहिए |
कविता एक सार्वजनिक जगह है जहाँ हम मिल सकते हैं
मेरी कविता तक जो आया वह मेरा शत्रु कैसे है
कविता तो मेरा घर है
जो घर आया वह मेरा शत्रु कैसे है
कविता में मैं कामना कर सकता हूँ कि जो मेरे घर आयें
वे आबाद रहें
मेरी कविताओं की तरलता उनकी मनुष्यता को सूखने न दे
कविता की रोशनी में कोई भी आधी रात को भी मेरे घर आ सके
इतनी रोशनी हो कि किसी को चलते हुए ठेस न लगे
कविता प्रेम और आन्दोलन के लिए एक रास्ता है
जिस पर ज़रूरत पड़ने पर सब चलें
कविता एक सार्वजनिक जगह है जहाँ हम मिल सकते हैं।
बेटी की चिट्ठियाँ
बेटी जब छोटी थी तो मुझे चिट्ठी लिखा करती थी
मैं घर के एक कमरे में होता था और वह दूसरे कमरे में
कभी हम दोनों एक ही कमरे में होते थे
फिर भी वह चिट्ठी लिखती थी
ऐसा बेटी ही कर सकती है
उन कई चिट्ठियों में वह मेरा रेखाचित्र बनाती थी
उन रेखाचित्रों में कोई समरूपता नहीं थी
पर मैं उन सभी के जैसा होना चाहता हूँ |
दिसंबर की धुंध कितनी निष्पक्ष है
दिसंबर की धुंध कितनी निष्पक्ष है
सब कुछ ढंक लेती है
कुछ भी नहीं दिखाई देता
न आदमी न देवता न दिशा
ओह! जीवन ओस की बूंद की तरह ठंडी
और समय किस तरह निश्चेत पड़ा हुआ है
निस्तेज है उगे सूरज की आभा
एक बस तुम्हारी याद है गतिशील
जो धँसी है मेरी आत्मा में
जल रही है दिसंबर की आग की तरह |
अभी बक्सर दूर है दूर है आरा पटना बहुत दूर है
उदास सर्द रातों में गुजरती है रेल
काँपती है उसकी आवाज सन्नाटे में
सुनाई देती है नींद में
नींद से होकर गुजरती हुई रेल की रोशनी में
मैं बदलता हूँ करवट देखता हूँ घड़ी में समय
अभी बक्सर दूर है दूर है आरा
पटना बहुत दूर है
घर दूर है और दूर हो तुम
दूर रहा नहीं जाता
नींद में गुजरती है घर जाने वाली रेल
बक्सर जाने वाली पटना जाने वाली रेल
सर्द रातों में ठोस लोहे की रेल शीत में भीगती है
हम भीगते हैं ऑंसू में |
रिक्शावाले
जिस शहर में रहा कुछ रिक्शा चालकों से जान-पहचान होती रही
उनसे बात करना हमेशा अच्छा लगा
वे मेहनत की कमाई खाते हैं और घर से दूर घर को याद करते हैं
जैसे मैं दूसरे शहर से आया था उसी तरह वे भी परदेशी थे
कुछ नये रिक्शा चालकों को शहर के कई इलाकों की जानकारी नहीं थी
वे मेरी ईमान पर किराया छोड़ देते थे
एक रिक्शा चालक शर्मिला था जब भी उसके रिक्शा पर बैठता था
वह मुस्कुराता था और कहता था कि वह रिक्शे को बहुत सजाकर रखता है
मैं उसके रिक्शे की तारीफ करता था और वह फिर मुस्कुराता था
रिक्शा खिंचते हुए कई गाते थे
कुछ घर की बात बताते
पर सब के सब अपनी गिरती सेहत और बढ़ती महंगाई को लेकर हताशा से भर जाते
हम कभी साथ चाय पीते और फिर मिलने की बात कह कर शहर में खो जाते ।
नाव नदी की आँखों जैसी लगती हैं
नावों ने नदियों का साथ कभी नहीं छोड़ा
बेतवा को अमावस में जब पार किया तो जान पड़ी बिल्कुल अकेली
एक छोटी सी नाव नदी के साथ डोल रही थी
आत्मा पर जो एक भार था वह जैसे कम हो गया
अकेलापन किसी का भी हो भला नहीं लगता
चंबल नदी में नाव का नाविक जो गीत गा रहा था
उसका चेहरा नदी के बेटे की तरह था
नर्मदा में कईं बार नावों को देखा और इस तरह नर्मदा तक गया कई बार
गंगा को अकेले बहते हुए नहीं देखा है कभी
बनारस और पटना में गंगा को कोई छू सकता है
एक नाव पर यात्रा कर
नदियों को याद करते हुए नाव याद आते हैं
जैसे
तुम्हें याद करते हुए घर की याद आती है
हमारा घर भी एक छोटा सा नाव है
जो डोलता रहता है तुम्हारी हँसी की नदी में |
रोहित ठाकुर
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