Sunday, March 24, 2013

शालू प्रजापति

    

      माँ :   सुश्री  नीता 
      पिता :   श्री देव राज
      जन्म :   १ ५  मार्च  १ ९ ९ ४  को
      शिक्षा :   स्नात्तक दूसरे वर्ष की छात्रा हैं ।
      लेखन :   अब तक सिर्फ १ ५ -२ ० कविताएँ ही लिखी हैं।
      प्रकाशित : ' आते हुए लोग ' और अपने महाविद्यालय की पत्रिका में
      अन्य :  पर्यावरण प्रेमी हैं और श्रम को शाश्वत सौन्दर्य मानती हैं

      इनकी कविताओं में भाव , संवेदना और विद्रोह का सुन्दर संयोजन है।  सरल शब्दों में कहने का ढंग पाठक को मोह लेता है।
      सच्चे अर्थ में यह स्त्री मन की अभिव्यक्ति है। मानवीय  और प्रेम से परिपूर्ण। ढेरों शुभकामनाओं के साथ प्रस्तुत हैं शालू की कुछ कविताएँ।
     
 





      मन करता है 


     मन करता है
     कुल्हाड़ियों में बदल दूँ
     उन कोठरियों को
     जिनको लकड़ी नसीब नहीं होती ...
     कच्ची सड़कों को
     बाढ़ में बदल
      मोड़ दूँ
     महलों की तरफ

     लिख दूँ
     उज्ज्वल भविष्य
     फुटपाथ के माथे पर ...
     मन करता है
     भले साध  न पाऊँ
     पर जीवन में उतार लूँ कविता।


   
  

      डायरी 

     एक कोरी
     डायरी को भी
     तुम भर सकते हो
     मेरे पास
     जो स्याही है
     उसे लेकर
     कुछ उकेरना तो शुरू करो
     तुम जान जाओगे
     तुम्हारे हाथों में
     डायरी को किताब बनाने का हुनर है।


   



     मैं और तुम 


     मैं सड़क किनारे
     उग आई कंटीली झाड़ी हूँ-

     तुम मुझे गले लगाती हुई धूल।






     कुंभ स्नान 


     खोजने निकली
     उड़ान भरती चिड़िया
     जले हुए पंख मिले
     विषैले साँपों के डंक मिले ...
     बाल खुले छोड़
     धरती मातम मना रही है
     चिड़िया के मरने का
   
     हम कुंभ स्नान कर रहे हैं।







      हम यूँ एक हैं


      हम यूँ एक हैं -

      रात दिन
      दीवारों से टकराते
      घावों पर पट्टी बाँधते
      उनको समझते हुए
      जो काटते  हैं
      हमारे पाँव तले की ज़मीन
      सामने रख देते हैं
      सजाकर रोटी के टुकड़े ...
       हम एक हैं।



      सम्पर्क : द्वारा - देव राज
       गाँव व डाक - काली बड़ी , साम्बा
      ( १ ८ ४ १ २ १ )  जम्मू व कश्मीर

    ( यह प्रस्तुति चर्चित युवा हिन्दी कवि कमल जीत चौधरी द्वारा की गई है। )


Tuesday, March 19, 2013

नरेश कुमार




दस जनवरी 1991 को जन्मे नरेश कुमार मौजूदा समय में जम्मू विश्वविद्यालय से हिंदी विषय में पीजी कर रहे हैं। उनकी कविताओं को पढ़ कर साफ होता है कि उनके अनुभव उनकी अपनी उम्र से ज्यादा हैं। उनकी रचनाओं में एक अलग संवेदना और सूक्ष्मता है। नरेश का मानना है कि कविता सोच कर या फिर घंटों कागज कलम लेकर बैठने से नहीं लिखी जाती। नरेश युवा हिंदी कवि और हिंदी विचार मंच जम्मू के सह-संयोजक कमलजीत चौधरी को अपनी प्रेरणास्रोत मानते हैं। हिंदी विचार मंच जम्मू के सदस्य नरेश कुमार कुछ एक मंचों से अपनी कविताओं को पढ़ चुके हैं।



पिता के खेत

पिता सुनाते हैं

खेत की कथा

कहते हैं-

वहां बस

कंटीली झाड़ियां थीं

जहां आज

चमकती थाली से

लहलहाते खेत हैं।


पिता सुनाते हैं

दो बैलों काला-गौरा की कथा

और अपना

मिट्टी से रिश्ता

बताते हैं-

तब ट्रैक्टर नहीं थे

मशीनें नहीं थीं

थे केवल दो हाथ

हाथों का रिश्ता था

बैल, मिट्टी और बीज से।


पिता सुनाते हैं अतीत

वर्तमान को बल मिलता है

मैं जोतता हूं खेत/पढ़ता हूं खेत/लिखता हूं खेत

यथार्थ में खेत/स्वप्न में खेत

खेत से मेरे रिश्ते को देख

पिता को बल मिलता है।


पिता इन दिनों उदास हैं

कहते हैं-

हाथ का खेत से रिश्ता वही है

बीज, मिट्टी, बैल और सपने वही हैं

पता नहीं फिर भी

क्यों बिक रहे हैं खेत।




देवता की ओर

 वह फुफकारता है

तुम्हारी दिनचर्या पर

कर जाता

तुम्हें

अपने से बेखबर

पर

तुम्हें खत्म करना

उसका मकसद नहीं

है केवल तुमको भ्रमित करना।


इस कद्र उसने तुम्हें

भ्रमित कर डाला है

तुम खो चुके हो

पहचान

कौन सफेद-कौन काला है।


वह तली पर

सरसों जमाता

भड़काता

तुम्हें ही नोच-नोच खाता

तुम बौखलाए हुए

भ्रमाए हुए

सड़कों पर उतर

सिर्फ अनुमान लगाते हो

तुम लाठी को सांप

सांप को देवता कहते हो

जो फुफकार जाता है

तुम्हारी शांति

सुख समृद्धि पर

और तुम

देखते रहते हो

देवता की ओर।



घुड़सवार

उनकी

यह दलबंदी

कितनी है गंदी

कैसे फूटी दीवारों पर

छत्त खड़ी होगी

घास कैसे बड़ी होगी।

हमारे पाले घोड़ों को

हमारी ही फसलों पर

वे दौड़ाते हैं

घुड़सवार कहलाते हैं।




कविता ने कहा

सफेद पोशाक में

खड़ा

वह मंच पर डटा

अपने प्रतिद्धंदी को

गंदा ही नहीं

कीचड़ से भर देना चाहता

भोले भाले

लोगों ने उसे

नेता कहा

अपना नेता।

कविता ने उसे

अपने सफेद चश्मे से देखा

और उसे

व्यवस्था की चादर पर

धब्बा कहा

सभी चुप हो गए

दांतों तले अंगुली दे दी

मैंने तय कर लिया

उसने भी, इसने भी

सबने तय कर लिया

हम भी चश्मा बदल लेंगे।


कविता ने कहा

परख

चश्मा बदलने से नहीं

नजरिया बदले से होगी

सबकी अंगुलियां

फिर दांतों तले चली गईं

लोग सोचने लगे हैं...




शब्दवाण

बुद्धि की सान पर

नुकीले कर-कर के बाण

छोड़ते रहे मुझपर

तुम कस-कस कर कमान

कई मजबूरियों तले

दब कर 'ना' जो कर दी थी मैंने...

बंजर-मरुस्थल

कहते रहे मुझे तुम

...यह पत्थर

कभी कर ही नहीं सकती प्रेम...


मैं मूक

सब सुनती रही

सहती रही

बहती रही

तुम सिर्फ

बक्‍ते रहे

ढाई-आखर प्रेम

देखो-

मैं आज भी बह रही हूं

अपनी कल-कल में

छल-छल में

तुम्हारे प्रेम की कह रही हूं

कविता

तुम्हें निरखते हुए, परखते हुए

और तुम

फिर तलाश रहे हो

कोई शब्द बाण

प्रेम नहीं....



पता - गांव/डाकखाना कटली, तहसील हीरानगर, जिला कठुआ, जेएंडके (184144)

मोबाइल - 0-98-582-47329