फ़िलहाल 3- अनुवाद, किसी रचना में उतरना है

अनुवाद, किसी रचना में उतरना है। निस्संदेह यह कार्य रचना का पुनर्जन्म, पुनर्लेखन भी है। लेकिन, पुनर्लेखन इस मायने में किंचित अलग तरह का है कि इसमें मूल अपनी तमाम मौलिकता सहित रहता है ,अंग-संग ही नहीं, अनुवाद के केंद्र में, आत्मा में विद्यमान होता है। कविता का अनुवाद कुछ कठिन, किंचित दूभर रचना-कर्म है। किसी भी कविता का कोई भी अनुवाद ऐसा नहीं माना जा सकता कि अब इसका और अनुवाद संभव नहीं। मुद्दा यह है कि कविता का अनुवाद करते हुए किसी अनुवादक को कितनी छूट लेनी होती है। क्या अनुवादक कविता के अनुवाद के साथ ही उसका रचयिता हो सकता है? मूल से बढ़कर अनुवाद को अंततः अनुवादक अपना मौलिक मानने लगे तो यह मतिभ्रम है। हालांकि, एक जगह मिखाइल बाख्तिन ज़ोर देकर कहते हैं, "कोई भी अर्थ लेखक-केंद्रित नहीं है और पीढ़ियां अपने अर्थों की पुनः प्राप्ति करती हैं ...यदि कविता एक तरह का संवाद है तो उसका अनुवाद दूसरी तरह का संवाद ।" 

हमारे पास हिंदी में धर्मवीर भारती, विष्णु खरे, केदारनाथ सिंह, मंगलेश डबराल, असद ज़ैदी, विजय कुमार, विनोद दास जैसे वरिष्ठ महत्त्वपूर्ण हिंदी कवि हैं जिन्होंने विश्व-कविता के ज़रूरी हस्ताक्षरों के कई-कई अनुवाद किए हैं। भारतीय क्षेत्रीय भाषाओं से भी बहुत सुधीजनों ने बेहतरीन हिंदी अनुवाद किए हैं। हिंदी से अन्य भारतीय भाषाओं में भी निरन्तर अनुवाद हो रहे हैं; जो उपर्युक्त धारणाओं के निकट हैं। कहना न होगा सोवियत- संघ सहित अन्य  विदेशी साहित्य अनुवाद के माध्यम से ही हमारे पास पहुंचा। रूस के पास तो अपनी पत्रिकाओं के भारतीय भाषाओं में अनुवाद हेतु पूरी मशीनरी रही। मैंने बहुत से रूसी उपन्यास पंजाबी में पढ़े हैं। 

प्रश्न वही है कि अनुवादक को कितनी सृजनात्मक छूट लेनी चाहिए? किसी कवि के सांस्कृतिक परिवेश को पकड़े बिना अनुवाद अधूरा रहेगा। समस्या यह है कि हमारे पाठक के निकट प्रचुर मात्रा में अनुवाद नहीं पहुंचता कि इतना होता ही नहीं। आश्चर्य यह है कि इसके लिए भाषा-विभाग, साहित्य अकादमी, विश्वविद्यालय, ज्ञानपीठ दिलचस्पी नहीं लेते। कोई प्रोजेक्ट नहीं, साहित्यिक अनुवाद सीखने के लिए कोई स्कूल नहीं। अब इस सभी के मद्देनज़र इसकी ज़रूरत को आँकें। हमारे हिंदी कवियों ने चाहे थोड़ा ही सही, विश्व-कविता से हमारा परिचय कराया है और निरंतर करा रहे हैं। इसी के साथ - साथ जिस तादाद में तमिल, असमिया, बांग्ला, उड़िया या अन्य भारतीय भाषाओं की कविता हम जानना / पढ़ना चाहते हैं,उन तक कैसे पहुंचे?

कविता का अनुवाद इसलिए भी जटिल माना जाता है कि कविता का संप्रेषण/अर्थ वहां भी है जहां जगह छोड़ी गयी है, दो पंक्तियों के बीच भी। कविता शब्दों को उलांघ जाती है, उनका एक हद तक अतिक्रमण करती है।कविता का कहन व कथन एक ऐसी संवेदना है, जिसमें विविध ध्वनियां, अर्थछायाएं होती हैं। अनुवाद वह क्रिया है जिसमें रूपांतरण के बावजूद मूल का आस्वाद बना रहे, वही ध्वनि शेष रहे। मूल दूसरी किसी भाषा में ढलकर भी सुरक्षित है। ऐसा प्रत्यारोपण जिसमें बिगाड़ या काटछांट की कतई गुंजाइश नहीं। यह भावानुवाद भी हो सकता है, शब्दानुवाद भी ; किंतु यहीं अनुवादक की सजगता काम करती है। मूल कृति की भाषा और स्रोत भाषा की प्रमाणिक जानकारी ज़रूरी है। प्रत्येक शब्द की अपनी महत्ता है , इसे भूलना नहीं चाहिए। यह उचित तर्क है कि  काव्यानुवाद में हम मूल का रस नहीं ले सकते, लेकिन यह भी तो सत्य है कि कोई पाठक विश्व की सभी भाषाओं का जानकार नहीं हो सकता। यदि विश्व- कविता सहित क्षेत्रीय कविता हमारे पास पहुंची है तो मात्र अनुवाद के ही ज़रिए।

इन सभी बातों के साथ-साथ,कविता का अनुवाद करते हुए अनुवादक को मूल अपनी स्मृति में, अंतस में इस तरह  उतारना लाज़िमी है कि जब वह अनूदित कर रहा हो तो अनुवाद- भाषा की अर्थ -छवियां, मुहावरे, उपमाएं, कियाएं सायास ला सके। वह अनुवाद लगे ही न, जबकि है तो अनुवाद ही। यही किसी श्रेष्ठ अनुवाद की उपलब्धि है ।

मनोज शर्मा

संपर्क: 7889474880

2 comments:

  1. अनुवाद के विभिन्न डैमेंशनज को सपष्ट करता बहुत ही महत्वपूर्ण लेख।

    ReplyDelete
  2. सुन्दर आलेख। कवि अग्रज मनोज जी ने पंजाबी से हिन्दी में काफी अनुवाद किए हैं। यहाँ एक अच्छे अनुवादक का अनुभव और समझ साफ दिखती है। साथी कृष्ण जी, भाई मनोज जी से आग्रहपूर्वक लिखवाते रहें। ज़िंदाबाद!
    - कमल जीत चौधरी

    ReplyDelete