Friday, May 31, 2013

भगवती देवी



जन्म : घगवाल , साम्बा में
माँ    :  सुश्री कमला देवी
पिता  :  श्री सतपाल
शिक्षा :  जम्मू वि० वि० में  एम० फिल० हिन्दी की शोधार्थी 
लेखन :  इन्हीं कविताओं से शुरुआत 
अन्य :  हिन्दी विचार मंच , जम्मू की सक्रिय कार्यकर्ता

संगठन और सामूहिक सपनों को लेकर भगवती से संवाद अनिवार्य सा हो गया है। इनका आक्रोश और प्रतिबद्धता साथियों को प्रेरित करने वाली है। इन्होंने ये कविताएँ झिझकते हुए सुनाई और कहा ये कविताएँ नहीं बस एक बयान हैं। ऐसे बयान को सलाम। अनंत शुभकामनाओं और इस डगर पर स्वागत के साथ प्रस्तुत हैं इनकी तीन कविताएँ।



पृथ्वी का बयान
 
रबड़ के हाथ में रबड़ था

मेरे देखते ही देखते
रबड़ के हाथ
अकाश तक फैल गए
मुझे घेर कर खड़े हो गए
मैं देखती रही

देखते ही देखते
मेरी बच्ची की और बढ़ने लगे
अपना मंतव्य पूरा करने लगे
वह रोती रही
चिल्लाती रही ...

रबड़ के हाथ में इंजेक्शन थे
जिसे वे मेरी बच्ची की नस नस में
रोप देना चाहते थे
मैं असहाय मूक बन देखती रही।

रबड़ के हाथ में
मेरी बच्ची का जिन्दा गोश्त है
देखते ही देखते
निर्वासित स्त्रियों का समूह
क्रोध की ज्वाला उठाए
विवेक की मशाल जलाए
रबड़ के पास आ रहा है
रबड़ के हाथ का धर्म सिकुड़ने लगा है


समूह और पास आ रहा है।




मुझे नफरत है
मुझे नफरत है इस दुनिया से
क्यों आवाज़ उठाती नहीं
अन्याय के प्रति
मुझे नफरत है अव्यवस्था से
जो गले में फूलों का हार पहनाकर
आदमी को बुत बना रही है
क्यों सूखती आंतड़ियों में आक्रोश पैदा होता नहीं।

मैं चाहती हूँ
अव्यवस्था के लिए बनाना एक गटर
चुनना सूखी लकड़ियाँ
एक तिली
या धमाकेदार ब्लास्ट ...

मैं जानती हूँ
इन बुतों में से कुछ लोग
जिन्दाबाद के नारे लगाते - लगाते
इन्कलाब के नारे लगाने लग जाएँगे
मंच से धड़ नीचे गिरने लग जाएँगे
जिनको गिद्ध भी नोचने नहीं आएँगे

कैसे खाएँगे

गिद्ध भी हक की कमाई खाते हैं।
 



युद्ध

कभी था  वह ज़माना
जब था हस्तिनापुर में एक द्रोणा
आज शहर - शहर  में हैं  उसके वंशज
ये काट रहे  हैं पूरे हाथ अपने अर्जुनों  के लिए ...

हे कटे हाथ वाले एकलव्यों !
अपनी कोहनियों को करो पैना
रक्त को बना दो रसायान -

युद्ध सिर्फ हाथों से नहीं लड़े जाते। 



सम्पर्क : -
 गाँव व डाक - घगवाल , नरसिंह मंदिर कॉलोनी
 तहसील  व जिला -  साम्बा , जे० एंड के० {१८४१४१}
  ई मेल - parul1286@gmail.com


 (सारे चित्र गूगल से साभार लिए गए हैं)




प्रस्तुति : -
 




कमल जीत चौधरी
गाँव व डाक - काली बड़ी , साम्बा {जे० एंड के०}
ई मेल -   kamal.j,choudhary@gmail.com
दूरभाष -   09419274403 



Friday, May 24, 2013

हरभजन सिंह हुन्दल



जन्म - 10 मार्च 1934
शिक्षा - एमए, बीटी
संप्रति - पंजाब शिक्षा विभाग के स्कूल में अध्यापन से सेवानिवृत्त
रचनात्मक योगदान - कविता, गद्य और संस्मरणों की सत्तर से ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित। सितंबर 1993 से पंजाबी त्रैमासिक 'चिराग' का संपादन। मायकोवस्की, पाब्लो नेरूदा, नाजिम हिकमत, महमूद दरवेज की कविताओं का अनुवाद।
उर्दू में 'पाकिस्तान विच दस दिन' और 'जंगनामा पंजाब' प्रकाशित। अंग्रेजी कविताओं की दो पुस्तकें प्रकाशित।
राजनैतिक वामपंथी आंदोलन में भी सक्रिय। इमरजेंसी में गिफ्तार किए गए।



महमूद दरवेश के नाम!

तुम भी अजीब चीज हो
महमूद दरवेश!

मैं पूछता हूं
'तुम्हारा गांव कहां है...
और कौन सा देश है
तुम्हारा?

कहां हैं तुम्हारी बहनें
और मां...
तुम्हारा माल-भंडार तुम्हारे खेत
तुम्हारी पुश्तैनी जायदाद?

तुम्हारे घर का नंबर क्या है...
गली का नाम
फोन नंबर...
कहां हैं तुम्हारी किताबें
तुम्हारा पासपोर्ट
कंधे से लटकता कारतूसों का झोला
तुम्हारी बंदूक?

क्या तुम्हारे पास संभालने लायक
कोई भी चीज नहीं है?

हां, तुम्हारे पास कविताएं हैं
विविधता से भरीं
जूझतीं
शहीद होतीं!

सच मानना
तुम सच में दरवेश कवि हो
मेरे पास तुम्हारी कविताएं
कई भेस बदल कर
गुरिल्ले-मित्रों की तरह पहुंचती हैं

कहते हैं-
'दरवेशों का कोई घर नहीं होता
प्रत्येक लंबी उदासी * के समय
वे कुछ भी
पल्लू में बांधकर
नहीं चलते!'

बताना जरूर
कि इस समय तुम लंदन में हो
या पेरिस में?
बेरूत में हो, या कि बसरा में या
बगदाद में...?
कुछ याद नहीं!

जहां कहीं भी हो
मेरी आवाज पर कान देना
कविता की रोशनी में
मुझे तुम्हारे रूबरू होना है
गुलाब की बात करनी है
सच की हाजिरी भरनी है
क्या है तुम्हारा और मेरा रिश्ता?
मैं जो अपनी जुबान का
एक गुमनाम कवि हूं

पर ऐसा लगता है मुझे
कि तुम तो
मेरी ही बोली के कवि हो
सूफी दरवेश
'बुल्ला' और 'बाहू'

कहां हैं तुम्हारे जैतून की शाखाएं...?
जख्मी परिंदे की गीत...

लहू भीगी, पैबंद लगी कमीज
तुम्हारे घर की दहलीज?
तंबू के सामने
चूल्हे पर खदकती दाल
जिसे खाते थे चाव के साथ तुम

तुम जिस शहर, महानगर में हो
मुझे आवाज देना
मैंने तुमसे कई राज
साझे करने हैं
मैं जो अपने ही प्यारे वतन में
निर्वासितों की तरह रहता हूं
देश का बागी बाशिंदा हूं
दूषण की काली बरसात में
भीगता परिंदा हूं

मुझे पूछना है तुमसे
कि कैसे मकई के आटे की तरह
तुम शायरी और सियासत को
गूंथकर पकाते हो
कैसे अपने दर्द को
खो गए वतन की पीड़ा में घोलकर
पीते हो, पिलाते हो?

कैसे जिंदा रहते हो?
कैसे जूझते हो?
कैसे मरते हो?

जरा बताना तो
सूली की नोक पर तुम्हें
कविता कैसे सूझती है?

ठोकरें खाते
चलते हुए
तुम्हारी कल्पना की कलम
कोरे कागज पर
कैसे चलती है?

{* गुरुनानक ने अपने जीवन में लंबी यात्राएं कीं। उन्हें दरवेश भी कहते हैं और उनकी ऐसी यात्राओं को बाबे की उदासियां लेना कहा जाता है} - अनुवादक
(अनुवाद - मनोज शर्मा, 17-10-2003 )


 

परीक्षा

मेरी प्रिय
सोना कुठारी में पड कर शुद्ध होता है
तो लोहा भट्टी में पड़ कर
गुलाब की रंगत भी रातों-रात नहीं चमक उठती
सरोपे लेने के लिए जवानी अर्पित करनी पड़ती है

कविता दिलों में ज्यों ही नहीं
बर्छी की तरह उतर जाती
बाल धूप में ही सफेद नहीं होते
आग के दरिया में कूदना कोई खेल नहीं
मान-पत्रों के पीछे वर्षों की कमाई होती है
जलती लाट में हाथ रखना कल्पना की बात नहीं

हमारी बोली में हथेली पर शीश रखना
सिर्फ मुहावरा ही नहीं

मेरी प्रिय
यदि मैं तुम्हारी नजर के काबिल हुआ हूं
तो तुम्हारी मेहरबानी
मैं तो अभी और भी प्रतीक्षा कर सकता हूं
(अनुवाद - तरसेम गुजराल )





पंजाब - एक बिंब

मैं शासकों की दाढ़ के नीचे कड़कती हड्डी हूं
समुद्री लुटेरों की प्रार्थनाओं पर मिला
सुनहरा मौका
घर में जन्मे हुए लोगों की कमअक्ली का
मुंह बोलता प्रमाण हूं।
देश की दुःखती हुई रग हूं
नीम-हकीमों का जानबूझकर बिगाड़ा हुआ मरीज हूं।
फौजी बूटों के नीचे कुचली हुई गेहूं की बाली
हत्यारे की गोली से मरा हुआ मासूम हूं
पुतलियों का तमाशा हूं
बेबसी के मुख से निकली चीख हूं
धारावाहिक पेश किया जा रहा दुःखांत नाटक हूं।
सड़क पर पड़ी लावारिस लाश हूं
पत्रकारों के लिए गर्मागर्म खबर हूं।
शासकों की आयु को लंबा करने का बहुत अच्छा नुस्खा हूं
मैं जो आज रिसता हुआ जख्म हूं
पहले से तो इस तरह नहीं था।

 






शेर की मूंछ

रात होते ही वह चौबारे की छत पर जा चढ़ता
बांस की सीढ़ी को ऊपर खींचकर
छत पर रख लेता
फिर वह सारे गांव को ललकारता
और कहता
है कोई माई का लाल तो बाहर ‌आए
शेर की मूंछ को छूकर दिखाये।

शरीक सारे दरवाजे पर खड़े
ललकारते
और कहते -
अगर सूरमा है तो आ नीचे
पर वो इतना बेवकूफ नहीं
कि अनचाही मौत का स्वागत करे
थक-हार कर लोग लौट जाते हैं अपने घर।

इस तरह हर दूसरे-तीसरे दिन
शौर्य का अभ्यास करता है वह
कई बार जीता
और कई बार मरता है।






अच्छे दिन भी लौटेंगे

अधिक नहीं चलेंगे ऐसे दिन

छंट जायेंगे भय के बादल
मिट जाएगी आतंक की गर्द
प्रतिदिन सुर्खिओं में नहीं होगी
निर्दोष हत्याओं की खबर
उत्तेजित युवा हाथ
कब तक दागते रहेंगे गोलियां
मुस्कुराते चेहरे
फिर लौटेंगे सड़कों पर
फरीद की पंक्तियां
बतायेगी नमाज का समय
बुल्लेशाह के लयात्मक गीत
फिर मुग्‍ध कर लेंगे श्रोताओं को
और गुरुनानक पूछेंगे
पंजाबियों से
किसने बहकाया है तुम्हें
शांत-घरों को
कसाई-खाने में बदलने के लिए
'इंकलाब जिंदाबाद'
भगत सिंह का नारा
दस्तक देगा हर दरवाजे पर
और पूछेगा पंजाबियों से
'क्या अभी तक आपने नहीं की
सही दुश्मनों की पहचान'
भाईयों के खून में
हाथ धोने के दिन समाप्त हो जाएंगे
सीमाओं की दीवारों के किनारे
खिलेंगे लाल गुलाब और
दादी मां सुनायेगी बच्चों को
परियों की कहानियां और
कहेगी,
बच्चो! दीर्घजीवी हो
मेरी उमर तुम्हे लग जाए।



संपर्क -
गांव- फत्तू चक्क, पोस्ट ढिलवां
जिला- कपूरथला (144804)
फोन - 01822-273188 


(इस्तेमाल किए गए कुछ चित्र गूगल से साभार लिए गए हैं)



Saturday, May 18, 2013

ध्यान सिंह




जन्म - दो मार्च 1939 को घरोटा (परताड़ा)
शिक्षा - एमए (इतिहास, राजनीति शास्त्र), बीएड शिरोमणी। सेवानिवृत्त जिला शिक्षा योजना अधिकरी, जम्मू (31-03-1997)
संस्थापक प्रधान - डुग्गर संस्कृति संगम बटैह्ड़ा, जम्मू (1986)

ध्यान सिंह डोगरी साहित्य के लिए जाना माना नाम है। बारह के करीब रचनाएं छप चुकी हैं जिनमें फिलहाल, सिलसला, रूट्ट-राह्डे, पढ़दे गुढ़दे रौहना, सरिशता, सोस, रमजी मिसल, ज्ञान-ध्यान, पिंड कुन्ने जोआड़ेआ, झुसमुसा, अबज समाधान, परछामें दी लोs आदि शामिल हैं। इसके अलावा अनुवाद कल्हण भी चर्चा में रहा। डोगरी के साथ साथ दबे और हाशिए पर खड़े इंसान की बात जोर से करते हैं। डोगरा संस्कृति को बचाने में अहम भूमिका निभा रहे। अहम डुग्गर पर्वों पर अपने स्तर पर कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं। पाठकों के लिए उनकी तीन रचनाएं पेश कर रहा हूं।


(मेरे वह दोस्त जो डोगरी नहीं जानते हैं का सुझाव है कि डोगरी या अन्य भाषा की रचनाएं देते समय अगर उनका हिंदी में भावार्थ दिया जाए तो रचनाओं को ज्यादा लोग समझ पाएंगे और इन भाषाओं  के साहित्यकारों की सोच, चिंताओं, चुनौतियों समेत अन्य पहलुओं से रूबरू हो पाएंगे। इसलिए इस बार डोगरी रचनाओं का उनका हिंदी भाषा में भावार्थ भी दे रहा हूं। यह सिलसिला आगे भी जारी रहेगा।)




ऐगड़ (भेड़ों का झुंड)

चिट्टी काली भिड्डें दा
(सफेद काली भेड़ों का)
बैह्कल ऐगड़
(व्याकुल झुंड)
कुत्तें दे पैहरै च
(कुत्तों के पहरे में)
धुन्ध भरोची काली पक्की छिड़का पर
(धुंध से भरी काली पक्की सड़क पर)
सज्जै खब्बै आपूं चं खैरदे
(दाएं बाएं आपस में टकराते हुए)
बज्जा सज्जा टुरदा
(बंधे बंधाए चलता)
जा करदा ऐ बूचड़ खाने
(बूचड़खाना जा रहा है)
दलाल रबारे बलगता दे जित्थे
(दलाल अगुआ जहां इनका इंतजार कर रहे हैं)
इंदा अपना कोई मुल्ल नहीं
(इनका अपना कोई मूल्य नहीं)
होन्द दा अह्सास बी नेईं
(अस्तित्व का अहसास भी नहीं)
त्रिंबा द्रुब्बां चुग्घने कारण
(घास-दूब चुगने के कारण)
इन्दी मुंडी ढिल्ली रेही थल्ले
(इनकी गर्दन नीचे ढीली रही)
जीने दा कदें हक्क जतान एह्
(कभी यह जीने का हक जताएं)
भगयाड़ें गी नत्थ पान एह्
(भेडियों को ये नकेल डालें)
ऐहड़ बैह्कल बैत्तल होई जा
(व्याकुल भेड़ों का समूह विद्रोही हो जाए)
हर बूचड़खान्ना करन तबाह्।
(हर बूचड़खाने को तबाह कर दें)







जकीन करो (यकीन करो)

रुख अपने
(पेड़ अपने)
पीले भुस्से पत्तर
(पीले मुरझाए पत्ते)
तुआरी जार'दे न
(उतारते जा रहे हैं)
पत्तर भुज्जां दे पैर बंदी
(पत्ते जमीन के पांव छू कर)
शीरबाद लै दे न
(आशीर्वाद ले रहे हैं)
पौन पुरै दी बी तौले
(पुरवाई भी जल्दी)
पत्तर झाड़ा दी ऐ
(पत्ते झाड़ रही है)
रुख नंगे मनुंगे
(नंगे पेड़)
सुच्चे होई
(शुद्ध हो कर)
धुप्प शनान करा दे न
(धूप स्नान कर रहे हैं)
डाहलियां काहलियां
(डालियां कलियां)
डू.र खुंडा दियां न
(अंकुरित हो रही हैं)
जकीन करो
(यकीन करो)
पौंगर पवा दी ए
(कोंपलें फूट रही हैं)
जकीन करो ब्हार अवा दी ऐ
(यकीन करो बहार आ रही है)
थकेमा तुआरने आस्तै
(थकावट उतारने के लिए)
राह् राहून्दुयें गी
(रास्ते पर निकले राहगुजारों को)
घनी छां थ्योनी ऐ
(घनी छाया मिलनी है)
जकीन करो
(यकीन करो)
फुल्ल बी ते खिड़ने न
(फूल भी तो खिलेंगे)
खश्बोs भी तो बंडोनी ऐ
(खुशबु भी तो बंटनी है)
पक्खरुएं डुआरियां भरनियां न
(पक्षियों ने उड़ान भरनी है)
जनौरें छड़प्पे लाने न
(दीवानों ने नाचना है)
जकीन करो
(यकीन करो)
सुर संगम दी लैहरें बिच
(सुर संगम की लहरों के बीच)
ब्हार पक्क औनी ऐ
(बहार जरूर आएगी)
जकीन करो
(यकीन करो)
असें-तुसें नंद लैना ऐ
(मैंने-आपने आनंद लेना है)
सारें ई नंद थ्होना ऐ
(सभी को आनंद मिलेगा)
जकीन करो
(यकीन करो)
ब्हार पक्क औनी ऐ
(बहार पक्का आएगी)







चन्नै बनाम (चांद बनाम)

न्हेर मनेहरै चन्न चढ़ेआ
(अंधेरे गुप्प अंधेरे में चांद निकला)
तां उसगी पुच्छेआ
(तब उसको पूछा)
चन्न दिक्खेया ई?
(चांद देखा है?)
किन्ना शैल दिक्ख हां उप्पर
(कितना सुंदर देखो तो ऊपर)
तां ओह् दिखदे सार गै आक्खै
(तब उसने देखते ही कहा)
मक्कें दा ऐ पीला ढोडा!
(यह मक्की की पीली रोटी है!)
सही कीता जे ओह् भुक्खा ऐ
(मालूम हुआ कि वह भूखा है)
में झट-पट अंदर जाई
(मैंने झट-पट अंदर जा कर)
ढोडा उसी पूरा खलाया
(उसको मक्की की पूरी रोटी खिलाई)
ते गलाया चन्न कैसा ऐ
(फिर कहा चांद कैसा है)
तां उसने अग्गी दा गोला गलाया
(फिर उसने आग का गोला कहा)
तां मे उसकी ठंडा पानी पलाया
(इसलिए मैंने उसको ठंडा पानी पिलाया)
ते फ्ही पुच्छेया चन्न कैसा ऐ
(तब फिर पूछा चांद कैसा है)
उन्ने झट सुखना गलाया
(उसने झट से सपना सा कहा)
तो मैं झट उसी सुआली दित्ता
(तब मैंने उसे झट सुला दिया)
बाकी ढोडा जां अग्ग लब्भै उसगी
(बची मक्की की रोटी या आग दिखे उसको)
में सुखने ने मन परचाया
(मैंने सपने से मन को संतुष्ट किया)
सुखने नै गै मन पत्याएआ
(सपने ने ही मन को बहलाया)
 


संपर्क-
ग्राम- बटैह्ड़ा (अखनूर रोड)
तहसील और जिला- जम्मू
मोबाइल-0-94-192-59879
 

 
(इस्तेमाल किए गए कुछ चित्र गूगल से साभार लिए गए हैं)

 

Monday, May 13, 2013

रिपुदमन परिहार


जन्म १ फरवरी १९८९  को गाँव नालीभोंजवा किश्तवाड़ में
माँ -     सुश्री गीता देवी
पिता -   श्री चमन लाल परिहार
शिक्षा -   जम्मू वि० वि० से जीवविज्ञान में परास्नात्तक
लेखन -   २००३ में  कविता से लेखन  शुरू किया
प्रकाशित - शीराज़ा और कुछ दैनिक पत्रों में
अन्य -     आकाशवाणी से कविताओं का प्रसारण , अनेक मंचों से कविता पाठ, अभिनय से भी जुड़े हैं।

रिपुदमन परिहार अंतरमुखी स्वभाव के युवा हिन्दी कवि हैं। कविता के संस्कार इनको पाठ्यक्रम की कविताओं से मिले।  इन्होंने कविताएँ बहुत कम पढ़ी हैं। यह अपने इर्द-गिर्द को ध्यान से पढ़ते हैं। उसी को लिखते हैं। जहाँ तक इनकी कविताओं का सवाल है, ये अभी कचास के दौर से गुज़र रही हैं पर यहाँ संवेदनशीलता की कमी नहीं  दिखाई देती है। रिपुदमन जैसे युवा जब सामाजिक सरोकारों को अपनी कविता में जगह देते हैं तो अच्छा लगता है।  ' गुबारे ' के रूप में वायु संग दुम हिलाने का बिम्ब इनकी  मजबूरी और डर को कलात्मक ढंग से प्रस्तुत करता है। 'टुकड़े के भूखे' कविता में वे  भ्रष्टाचारी नेताओं , अधिकारियों पर व्यंग्य करते हैं। आशा है आने वाले दिनों में इनकी दृष्टि और भी साफ होगी। ढेरों शुभकामनाओं के साथ प्रस्तुत हैं  रिपुदमन की तीन कविताएँ।



गुब्बारा

मैं गुब्बारा हूँ
एक बेबस गुब्बारा
देखकर लटका सूली पर
खुश होता ज़माना सारा
एक तरफ हूँ रस्सी से बँधा
दूसरी और भरी है हवा
अब वायु लहर संग
दुम न हिलाऊं तो करूँ क्या
न रस्सी कटवा सकता हूँ
न हवा निकलवा सकता हूँ
न वायु से भिड़ सकता हूँ
मेरी यही मजबूरी है
तभी तो हर बात से डरता हूँ ...

रोशन गगन
दमकता है हम पर
जैसे उड़ती है खुशबू
हवा के दम पर
इसी हौंसले का लिफाफा
लपेटता हूँ गम पर

कभी रूठता हूँ
कभी खुद को मनाता हर कदम पर ...

यह दास्ताँ सिर्फ मेरी नहीं
है हर किसी की
लटक रहा है जो
धरती और आकाश के बीच।  

        





टुकड़े के भूखे बेशर्म

कभी चौक पर
कभी दफ्तर में
कभी गलियों में धन्धा चलाते हैं
बड़े बेरहम हैं
जालिम हैं
लाचार मानव का खून सुखाते हैं

लड़ते भी झगड़ते भी
पर नहीं छोड़ते टुकड़ा
मरते - डरते भी  नहीं बदलते
चाहे काला हो जाये मुखड़ा

छोटा टुकड़ा मिले
छुप के निगल जाते
बड़ा टुकड़ा मिले
आपस में भिड़ जाते
उस टुकड़े को लेकर
गुमनाम जगह पहुँच जाते
कौन कितना खायेगा
यह तरकीब बनाते ...
कैमरे के सामने मासूम बनकर
झूठी ख़बरें फैलाते -

 टुकड़े के भूखे

एक ही बोली
एक ही क्रिया
एक ही कर्म
शहर में फैल चुके हैं

ऐसा कर्म
कैसा धर्म
किसको शर्म
ये टुकड़े के भूखे बेशर्म
मेरे देश को चलाते हैं
महान कहलाते हैं।













कब हुआ कहाँ हुआ कैसे हुआ
 
बारिश हुई
मगर बारूद की
फुंकार मारता तूफान
कितनों को लील गया
कितनो को प्राणहीन बना गया ...

मिलने पहुँचा मैं
इक जिन्दा लाश से
पड़ी हुई थी जो
नंगे पेड़ की छाया में
झुर्रियों से भरा था
तीता अनुभव
सूखी आँखों से
टपकती पीड़ा की बूँदे
भूख थी नहीं
प्यास भी नहीं
था अचेत अस्तित्व
तभी वीरान वादियों से
निकली गहरी साँस
उमड़ पड़ा
खामोश समन्दर में उफान -
' बहरा कर गई मुझे
अपने बच्चों की आखिरी चीखें
छीन गई मेरे नेत्रों से उजाला
वो आग की तेज लपटें
एक साथ जलती हुई पाँच चिताएँ
मोम की तरह पिघला गई
मेरे जीने के प्रश्न को '

कितनों को उड़ा गया वो तूफान
कितनी बस्तियां बन चुकी शमशान
स्वपन टूटा और खुद को पाया
लोगों की भीड़ में
उमड़ पडी थी जो
शमशान की चौखट पर
हर कोई यही पूछता था -

कब हुआ कहाँ हुआ कैसे हुआ ?

 

सम्पर्क:-
द्वारा - आर०  सी० खन्ना 
हाउस नंबर - १/४२ , पंधोका कॉलोनी
पलोड़ा , जानीपुर , जम्मू


(इस्तेमाल किए गए कुछ चित्र गूगल से साभार लिए गए हैं)


प्रस्तुति :- 




कमल जीत चौधरी
गाँव व डाक - कली बड़ी , साम्बा ,[ जे० एंड के० ]
ई मेल - kamal.j.choudhary@gmail.com
दूरभाष - 09419274403

Friday, May 10, 2013

हिमांशु शेखर



मूलतः मिथिला के मधुबनी जिले में जन्म। पढ़ाई और फिर रोजगार की तलाश बेगूसराय जनपथ से शुरू। दादा जी (स्व. पंडित नागेंद्र मिश्र) राज घराना (दरभंगा महाराज) में पंडित थे। लिखने पढ़ने का शौक वंशानुगत मिला। पिताजी संस्कृत विद्यालय में किरानी और मां मिडिल स्कूल की शिक्षिका। एक बड़ी बहन और एक छोटा भाई कुंदन कुमार मिश्रा (सेना में धर्म गुरु) है। दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर के बाद अमर उजाला में उप-संपादक के पद पर कार्यरत।





माँ और बच्चा

जन्म लेने से पहले ही
पेट मे लात मारता है बच्चा
बिना परवाह किए
अपना हिस्सा लेता है बच्चा।
जन्म लेने के बाद 
माँ की छाती से चिपकता है बच्चा
जिंदा रहने के लिए 
माँ का दूध पिता है बच्चा।

वर्णमाला सीखने से पहले
माँ बोलता है बच्चा
माँ सामने नहीं देखकर
रोता है बच्चा।
माँ की दो अंगुलियाँ थामकर
धरती पर पग धरता है बच्चा
रिश्ते नाते भी
माँ से ही सीखता है बच्चा।
इमदाद के लिए 
माँ पुकारता है बच्चा
जब दौड़ती है माँ तो
खिलखिलाता है बच्चा।

बच्चे को तैयार कर
स्कूल भेजती है माँ
हल्की चोट लगने पर 
रोने लगती है माँ।
भूख प्यास सबकी
चिंता करती है माँ

बच्चे को हर पल बड़ा
होता देखती है माँ
देर से घर आने को
खूब समझती है माँ।
सच बोलने में 
झूठ पकडती है माँ
ठेस पहूँचाने पर भी
गले लगाती है माँ।

घर मे  बहू आने पर
चितचोर होती है माँ
अपनी अनदेखी पर भी
चुप रहती है माँ।
अब चार शाम की जगह
दो शाम खाना खाती है माँ
स्वर्ग जैसे घर की जगह
ओल्ड ऐज होम में दिखती है माँ।
चेहरे पर शून्य भाव लिए
राम नाम भजती है माँ
बेटा-बहू  की लड़ाई का
मर्म जानती है माँ।



कोर्ट में हिंदी का बयान

हुज़ूर, माई-बाप
दुहाई है सरकार
पता नहीं,
क्या है मेरा अपराध.
कई भाषाओं को
दिया है मैंने जन्म
दिया उन्हें संसार में
फैल जाने का ज्ञान
फिर भी, मुझे
सहना पड़ रहा है अपमान.
यहाँ इस कठघरे में
खड़ी मैं
सोच रही हूँ
जीवित रहने का उपाय
वहां मेरे पोषक
पहना रहे मुझे
फूलों का हार
मेरी इज्जत को बार-बार
करते हैं तार-तार
साल के पूरे दिन
मैं रहती उनके साथ
हुज़ूर, माई-बाप.
दुहाई है सरकार


मैं जो कहूँगी
सच कहूँगी
सच के सिवा
कुछ नहीं कहूँगी
मुझे याद नहीं
किसी भाषा का जन्मदिन
न ही मुझे याद
किसी भाषा की सालगिरह
हाँ, शुभ कर्मों के लिए
लोग उलटते हैं पंचांग
देखते हैं दंड और पल
फिर भी,
आज मैं खड़ी हूँ निर्बल.
कोई सहारा नहीं देना चाहता
बस यूं ही
कागज पर पड़ा देखना चाहता
अस्पताल में उस मरीज की तरह
जो अंतिम साँस के लिए
कर रहा हो जिरह
हुज़ूर, माई-बाप
दुहाई है सरकार.

मैं मरना नहीं चाहती
बेमौत
पर, सजा मिलने से पहले
पूछना चाहती हूँ कि
कब भारत और इंडिया
में मिटेगा भेद
कब लोगों का
हिंदी से ही भरेगा पेट.




समाज की कसौटी

लाज के मारे झुकी हुई आँखें
पूरे मुखड़े को ढका हुआ
सिर पर चढ़ा पल्लू
चढ़ी हुई कांच की सतरंगी चूड़ियाँ
पैर की अंगुलियों में
कसी हुई चमकती बिछिया
हमारी सभ्यता की सांचे में
कसी हुई नारी की
यही परिभाषा है.
पर, इन्हें देखने वालों का
कुछ नजरिया भी अलहदा है
मुलायम कूचियों से
खिची गई रेखा
चेहरे पर अंगूठे
के सहारे बनाया दाग
हाथ के छिटकने से
तस्वीर पर पड़ी छीटें
कहीं आँखों में लगे
मोटे काजर को पसारते
मानों दर्द के ढबकने से
बाहर आते-आते रह गए।
किसी एक ने देखा तो
दर्द को महसूसते
चित्रकार को बधाई दी
प्रदर्शनी देखने आई भीड़ भी
मर्दानगी का दामन
छोड़ नहीं पाई
दबी, कुचली और फिर
वारांगना या वारवधू
कहने पर भी "ना' मर्दों का
मुंह बंद नहीं करा पायी।   

 

पता -
शिवपुरी मुहल्ला, वार्ड नंबर-37, बेगूसराय, बिहार (851101)
मोबाइल - 0-72980-01575



Saturday, May 4, 2013

मनोज शर्मा


हिंदी साहित्य के लिए मनोज शर्मा कोई नया नाम नहीं है। 'बीता लौटता है'  इनका बहुचर्चित काव्य संग्रह है। उनकी प्रकाशित और अप्रकाशित कविताओं पर समय समय पर लेख पढ़ने को मिलते रहे हैं। जम्मू कश्मीर के युवा हिंदी कवि कमल जीत चौधरी ने भी मनोज शर्मा की रचनाओं पर आधारित एक लेख लेह से खासतौर पर भेजा है। लेख सहर्ष पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है। उम्मीद है कि लेख पाठकों को मनोज शर्मा के काव्य कर्म के साथ साथ उनकी विचारधारा, चिंताओं और व्यक्तित्व के  और पास ले जाएगा। 



मनोज शर्मा : आटा पकने की गंध सा बेखौफ कवि



केदारनाथ सिंह की छोटी सी कविता ' दिशा ' से बात शुरू करते हैं -
हिमालय किधर है ?
मैंने उस बच्चे से पूछा जो स्कूल के बाहर
पतंग उड़ा रहा था
उधर उधर उसने कहा
जिधर उसकी पतंग भागी जा रही थी
मैं स्वीकार करूँ
मैंने पहली बार जाना
हिमालय किधर है !
 

यह कवि का आत्मस्वीकार है। जब यही आत्मस्वीकार पाठक और आलोचक का भी हो जाए तो समझिये कविता सार्थक है।  मनोज शर्मा की कविताएँ पढ़ते हुए आप जान जांएगे की हिमालय कहाँ है। बड़े अफसोस की बात है की हिन्दी की शीर्षस्थ साहित्यिक पत्रिकाओं के सम्पादक और तथाकथित समीक्षक - आलोचक भी नहीं जानते की हिमालय किधर है। कहानी  को केन्द्रीय विधा बताकर कविता के हिमालय को खारिज किया जा रहा है। कविता को आज हाशिए पर बताया जा रहा है। उस में  गतिरोध की बातें की जा रही हैं। यह सुविधाजनक है। केंद्र तथा सत्ता प्रतिष्ठानों में खड़े रहना आसान है। हाशियों पर चलना खतरे तथा साहस का काम है। कविता आज हाशिये पर नहीं हाशिये आज कविता में हैं। यही कविता की दशा है यही सही दिशा भी। मनोज शर्मा इस कम जगह पर खड़े होकर विपरीत हवाओं को रोकने वाले हिमालय को बनाने में लगे हैं।
हिन्दी कविता के प्रसिद्ध हस्ताक्षर  मनोज शर्मा एक एक्टिविस्ट कवि हैं। इनका शब्द संस्कार जनान्दोलनों के सामूहिक  सपनों से पैदा हुआ है। यही कारण है की वे किसी तरह के झुण्ड का झंडा लेकर नहीं चलते। भीड़ में एकांत के लिए लड़ते  हैं। अपने पत्थरों से वे एक सेतु बनाते हैं। यह सेतु अलग-अलग हाशियों को जोड़ता केंद्र की टोह लेता है। यहाँ खड़े होकर देखा जा सकता है कि आज़ादी के बाद कितना पानी बोतलों में बंद कर दिया गया है। यही से पता चलता है कि छाया में कौन साधिकार सुस्ता सकता है।

समाज अलग - अलग कोणों से समय का रूप धारण करके इनकी कविताओं में आता है। एक बानगी देखें -
कानफोड़ शोर के बावजूद
चुप मत बैठो कभी
गाओ कुछ , कैसा भी
गाओ अपनी माँ को करते  याद
गाओ बेसुरा से बेसुरा
अपने कंठ से गाओ कुछ भी
सृष्टि की लय के कर्ज़दार हो तुम
साँसों की धौंकनी ताकती है तुम्हे
मत चुप रहो
मुहँ जुठारो समय के सब्र का
और उचारो अब
अपना सबद।
 


यहाँ कवि सृष्टि की लय के साथ गाने की बात कर रहा है।  कवि  यह गाना किसी  टैलेंट हंट  , गीत -  संगीत  प्रतिस्पर्धा  या रियल्टी शो की अपेक्षा किसी खेत , मेढ़ , पगडंडी , चौपाल , रेहड़ी- खोमचे से सुनना चाहता है। यही से अनहद नाद पैदा होता है। इनकी कविताओं में समकालीन कविता के तत्व अपनी मौलिकता संग आते हैं। इनकी कविता में वाम विचार पूरी संवेदना के साथ कवि  को डीक्लास करते  हैं। प्रचलित गढ़े हुए मुहावरों से इनकी कविता अलग है। वे भली भांति जानते हैं कि लेखन की धरती कहाँ है और  धरती का लेखन क्या है। अस्तित्व को खींचकर कविता लिखना और कविता को खींचकर अस्तित्व बनाने में जो फर्क है। उसे आज पाठक समझ रहा है। वातानुकूलित कमरों में बैठकर लिखी जा रही किसी दिल्ली की कविता महँगे कालीन और तपती या बर्फीली  धरती में फर्क  महसूस नहीं कर सकती। मनोज शर्मा  जैसे गँवई चाल के  कवि यह फर्क भी महसूस करते हैं और अंगूठों से धरती कैसे मापी जाती है यह भी जानते हैं।





वे बदलते समय की चरमसीमा को गहरे में जाकर गम्भीरता से पकड़ते हैं। छटपटाहट का आलम यह कि गुस्सा भी गुस्से की तरह नहीं आता। वे अपने परिचित के खुलकर हँसने को भी शंका से देखने लगते हैं।यह हमारे समय की विडम्बना है। 'परिवर्तन' कविता में वे  समय के परिवर्तन को बड़ी सूक्ष्मता से अभिव्यक्त करते हैं। बदलती प्रतिबद्धताएँ तथा दायित्वबोध दर्शाते हुए वे लिखते हैं -
युग के सफेद कागज़ पर
विचारधाराएँ हस्ताक्षर करने से मुकर गई हैं
वक्त बदल गया है।


वक्त बदलने को वे मुर्गों - मुर्गियों के हलक तक देखते हैं। वे जानते हैं कि कविता, कहानी, उपन्यास की तो बात छोड़िए डायरियाँ तक री - राईट करके लिखी जा रही हैं। इसका पर्दाफाश करते वे लिखते हैं - " सन  दो हजार के बाद के आखिरी महीनों का कोई भी दिन / साल में एक बार ही डायरी पूरी कर जाने का / सिद्धस्त जानकर / आजकल नहीं चूकता। " ऐसे में तथाकथित डायरियों पर कौन विश्वास करेगा।

एक सच्चा कवि ताउम्र कविता की तलाश में अभिशप्त रहता है। अपनी साढ़े तीन दशक की काव्य यात्रा के बाद भी रचनाकार की निरन्तर तलाश उन्हें सार्थक बनाती है। इनकी यात्रा किसी राजमार्ग का तथाकथित पर्व नहीं है। यह यात्रा जम्मू-कश्मीर के विस्थापन , पंजाब के आंतकवाद , खेतों - मेढ़ों , कुओं , रहट , लाले की हट्टी , बचने दिहाड़ीदार की चौखट से होते हुए चौपाल पर हेक लगाती है। उत्तरकाशी के पहाड़ों , संथालों के कबीले से होते हुए नक्सलवाद का यथार्थ दिखाती है। मुंबई जैसे महानगर  में जाकर भी वापिस अपने लोक में आती है। निरन्तर गतिशीलता वह भी प्रगतिशीलता के साथ इनके यहाँ मौजूद है। इनका रचना फलक अति विस्तृत है। प्रतिकूलताओं में वे अधिक जीवनानुभवों से भरे खड़े हैं। सुप्रसिद्ध पत्रकार , व्यंग्यकार , कवि , आलोचक विष्णु नागर ने लिखा है कि सबसे अच्छी कविता बुरे वक्त में पहचानी जाएगी। कबीर , ब्रोत्लेत ब्रेख्त, लोर्का , नाजिम हिकमत, नज़रूल इस्‍लाम, फैज़  अहमद फैज़ , गोरख पाण्डेय , धूमिल , कुमार विकल , अवतार सिंह पाश, बाबा नागार्जुन आदि आज सबसे ज्यादा इसलिए याद आते हैं क्योंकि जनतांत्रिक , और मानावाधिकारिक मूल्यों को फिर खतरा है।  अमेरिकावाद , उपभोक्तावाद , आर्थिक उपनिवेशवाद , उदारीकरण , अपसंस्कृति के इस दौर में जिसे बचने की चाह नहीं होगी वास्तव में वही बचेगा। न बचने की चाह रखने वाला ही कोई यह पूछेगा या लिखेगा कि एक सौ तीन देशों में अमेरिका के सात सौ आठ सैनिक शिविर क्यों हैं? लोकतंत्र में लोक कहाँ है ? स्त्री , दलित , किसान , मजदूर , सैनिक कहाँ हैं ? कश्मीर , पूर्वभारत , नक्सलवादी क्षेत्रों में कब तक  राजनीतिक  चालें अपने  घिनोने चेहरों के साथ खून की होली खेलेंगी ?  धरती का लोह छड़ों से बलात्कार कौन कर रहा है ?  देश का खनिज कहाँ जा रहा है ? साम्प्रदायिकता की जड़ें  कहाँ हैं ? दस - दस देशों की नागरिकताएँ किसे पास हैं ? अपने ही देश में नागरिकता से कौन वंचित है? क्यों है? सवाल और भी हैं। इनसे जूझे बिना कोई भी कवि/लेखक बड़ा नहीं हो सकता। मनोज शर्मा की कविताएँ ऐसे प्रश्नों को कलात्मक ढंग से उठाती हैं। कश्मीरी विस्थापित, बस्ता, नंदू संथाल, पंजाब, चीख आदि कविताओं में इनके सरोकार समझे जा सकते हैं। जनतांत्रिक मूल्यों की तलाश में नंदू संथाल के माथे के बीचो बीच/एक घुड़सवार/पिछली पहाड़ियों से निकलता है/जो बदचलन शान्ति से अलगाना चाहता है/रोशनी को पाना चाहता है।
कुमार विकल की एक कविता है ' अगली गलती की शुरुआत '  जिसमें शोषित के बिस्तर  में दुबक कर रोने को ही कवि सबसे बड़ी गलती मानता है। यही बात मनोज शर्मा अपने अंदाज़ में यूँ कहते हैं -  " माँ चीखती है / बाप चीखता है / भाई-बहन/साथी-दोस्त/पत्नी-बच्चे/सभी चीखते हैं/और मैं भी चीखता हूँ/सम्पूर्ण घर चीखता है/गली, मोहल्ला, शहर चीखता है/और चीखकर बिस्तरों में दुबक जाता है। " इस शोर में हम मौलिक और हक की चीख भूल जाते हैं। हड़तालें, चक्का जाम, आमरण अनशन , जनसभाएँ आदि चीख ही हैं परन्तु वह चीख नहीं कि ' फिर चीखना न पड़े ' , हमारे इर्द - गिर्द कारपोरेट मीडिया, प्रायोजित जानान्दोलन हैं। इसकी शिनाख्त होनी चाहिए। एक दहशतगर्द , सीमा आज़ाद , इरोम शर्मिला , कोबार्द गांधी, विस्थापक , निर्वासित के पैदा होने  की पड़ताल करना  ज़रूरी है। झुण्ड में दावत उड़ाते  मठाधीशों को उनके मठ , विमर्श , काव्यान्दोलन मुबारक।  समूह में विश्वास करने  वाले रचनाकारों आप राजमार्ग से इतर कोई पगडंडी तलाशो। छोटी - छोटी लड़ाई लड़ते जन के सामने सामूहिक सपने का सपना रख कर ही हम दुनिया को सुन्दर बना सकते हैं। आचार्य राम चन्द्र शुक्ल जी ने लिखा था कि जैसे- जैसे समय बीतता जाएगा काव्यकर्म कठिन होता जाएगा। आज ऐसा ही है।  अपना प्रतिद्वन्दी , रकीब , शत्रु , शोषक या मित्र कौन है यह सही-सही उकेरते हुए कविता लिखना आज सबके बस की बात नहीं है।





मनोज शर्मा लोक में शपथ का महत्व जानते हैं। उनको पता है कि  कितनी ऊँचाई के बाद ढलान शुरू हो जाती है। वे डर को जांघ में दबा कर उसकी औकात पूछने की इच्छा रखते हैं। कविता के मोरपंख से सीमेंट और रेत का चारा बन चुकों का पसीना पोंछना चाहते हैं। वे जानते  हैं कि हमारे हक में कौन खड़ा है। मिची आँखों से बूढ़ी कहानियाँ सुनाते  लोगों , खुले में सोने वालों, सपनों में चाँद उतारने वालों ,  बहता जल अच्छा लगने वालों ,  मछलियों को आटा डालने वालों, कमर पर हाथ रख कर खांसने वालों, हांफने वालों पर मनोज शर्मा विश्वास करते हैं। कवि  उन  लोगों की एकता में हैं जिनके पास महान स्मृतियाँ उलीकते गीत हैं।
इन्ही लोगों के कारण वे दुनिया को किसी दूसरे  कोण से देखते हैं। बदलाव की बयार इन्ही से आयेगी।  इनकी कविताएँ बाज़ार के बीच अंगद पाँव हैं। इसे कोई दशानन हिला नहीं सकता। जब वे यह लिखते हैं - ' जब दीवारों पे फड़फड़ाते कैलेण्डर तक/ गाहक-गाहक चिल्लाते, उकताए लटके हैं/रोशनी और अन्धकार के मध्य/जब लोगों के समीप/अपनी पसन्द का कहने को कुछ नहीं बचा।' तब मनोज को बचे खुचे पर यकीन है। वैसे कैलेण्डर पर मॉडल के वस्त्र मौसमी हवा से नहीं पंखे से उड़ाए जा रहे हैं। यह बाज़ार की चाल है। आज संचार क्रान्ति में आदमी आदमी से ही नहीं घर में साधिकार  रहने वाली चिड़िया भी हमसे दूर हो गईं है। बाज़ार और सत्ता के पोषक धर्म पर गहरे कटाक्ष इनके यहाँ मिलते हैं। यहाँ लोक की आस्थाएँ और जीवनसौंन्दर्य भी है और अंधविश्वास तथा रूढ़ियाँ भी। बकरा शीर्षक से लिखी इनकी कविता में बलि प्रथा को बहुत संवेदनशीलता के साथ मार्मिक बिम्बों से दर्शाया है। बलि के बकरे की पूँछ खींचते हँसते बच्चों की हँसी बनाए रखने की कामना वास्तव में कवि की गहराई को दर्शाती है। शोरबे में पोर - पोर डूबी मेल की उँगलियों के बीच वे पूछते हैं-
सभी हैं , कौए भी
सभी की उपस्थिति दर्ज हो रही है
देवता तुम कहाँ हो अंतता: ?


सत्ता , धर्म और बाज़ार की पोल खोलते हुए वे लिखते हैं -
हमने
पत्तों से लेकर पत्थरों तक को पूजा है
जानवरों तक को भगवान् बनाया है
पुरातन के तर्कों से पीढ़ियों को अभ्यस्त बनाया है
भरपूर श्रद्धा से
परिवार को बू मारता चरणामृत पिलाया है
बहुत कुछ किया है हमने
कि चीख पैदा न हो


अन्धविश्वास और आस्था में फर्क करते वह लिखते हैं - ' आस्था तो वह है/जो रंगों तक की मर्यादा निर्धारित करती है/पापियों को खदेड़ती है। '

तीज - त्यौहार , व्रत , पर्व , मेले , शादी , जन्म - मरण , ही नहीं कबड्डी के इस देश में खेलों का भी बाजारीकरण हो गया है। सब कुछ बिक रहा है। राष्ट्रीय खेल हॉकी का क्या हाल है किसी से छुपा नहीं है। साम्राज्यवादी खेल क्रिकेट की पोल खोलते हुए मनोज शर्मा लिखते हैं - 
 ' उदास समय में/उपनिवेश बने मुल्कों ने/आका देश का खेल/उनके ही साथ खेलते हुए/वाहवाही  लूटी। '
 

क्रिकेट का नशा इस देश में ऐसा है कि पाकिस्तान से एक मैच जीत कर हम भूखे सो सकते हैं। यह वृत्ति घातक है। यह आँखों पर पट्टी बांधती है। मीडिया की भूमिका इसमें सबसे अधिक घिनोनी है। राष्ट्रीयता के झंडेवाद में सबसे अधिक हनन राष्ट्रीयता का ही हुआ है। राष्ट्रवाद का परचम फहराने वाले यह बताएँ कि राष्ट्रभाषा का क्या हाल है? मोर कहाँ नाच रहा है? कमल कहाँ पर खिले? तालाब किसने भर दिए हैं? वाघ कहाँ जा रहे हैं? ऐसा क्यों है कि केवल राष्ट्रगीत अथवा राष्ट्रध्वज के लिए शोर मचाया जाता है। अन्य राष्ट्रचिन्हों पर हम चुपी क्यों ओढ़ लेते हैं? खैर।

थोड़ा नीचे उतरने पर इनकी कविता में एक बच्चा खेलता नज़र आता है।  ' बस्ता ' शीर्षक से लिखी इनकी कविताओं में बच्चे के रूप में  इनके अपने जीवनानुभव हैं। कवि के बस्ते  में बिना बिरादरी का टिफिन बॉक्स भी है , ब्लेड भी और नया संसार भी है। एक बानगी -
' बस्ते बन जाते हैं शस्त्र/बच्चों की लड़ाई में/बस्ते प्रहार की/ढाल बनने की अदभुत क्षमता रखते हैं। '  बस में सफर करते हुए एक बच्चे के रूप में किसी की दुनिया में प्रवेश करना इनकी कविताई को सार्थक बनाता है।




इनकी कविताओं में दुनिया के अन्दर दुनिया है जैसे भारत के अन्दर इंडिया। एक फटेहाल, अभाव की चादर ढांपता सर ढकता है तो पाँव नंगे हो जाते हैं। पाँव ढकता है तो सर नंगा हो जाता है। दूसरा मखमली गलीचों पर पसरा है। एक के बच्चे का जन्मदिन याद नहीं रहता दूसरे के कुत्ते का जन्मदिन अखबार-न्यूज़चैनल की सुर्खी बन जाता है। ' बचे खुचे का बजूद' , 'बंटी दुनिया के लोग', 'दूसरी सृष्टि' जैसी कविताएँ ऐसी ही दुनिया को दर्शाती हैं। शाम की आवारगी में झोपड़पट्टी, पुलियों, खोमचों, रेहड़ियों, फुटपाथ से बतियाने का ही परिणाम है कि वे अमीर कोठी से गरीब झोपड़ी को नहाते हुए देखने को पकड़ लेते हैं।  काम पर जाते हुए मजदूर पति की थाली में महकते हुए भात संग सूरज परोसते हैं। वे जानते हैं कि इनकी छपरैल से ही चाँद ताका जा सकता है। इतिहास के रूप में वे जानते हैं कि बाँसुरी की धुन किसे सुनाई पड़नी बंद हो गई है। अपने ही घर का रास्ता कौन भूल गया है। इतिहास को गाने वाले भी हैं। बनाने वाले भी हैं। कवि मनोज शर्मा पूछते हैं - ' बुजुर्गो-सियाने लोगों/आपको भी ऐसा ही/सुझायी पड़ता है क्या ... '

इतिहास कभी सत्ता से टकराने वाले का नाम स्वर्णिम अक्षरों में नहीं लिखता। पहाड़ी पर खड़े होकर और सुदूर नीचे खड़े होकर पतंग उड़ाने में बहुत अंतर है। पतंग को काटना उससे भी कठिन। एक बानगी देखें -
' बोला बेटा
पतंग लूटने वाले का नाम नहीं है
लिखा वहाँ
क्या उतरते होंगे इसी खाई में
अपने बाँस , झाड़ , धागों के सिरों पर
लटकते पत्थर लेकर
और राजा तो
कट जाने परएकदम बनवा लेते होंगे
नया पतंग
पर , उनसे पेंच कौन लड़ाता होगा पापा ? '


पतंग बनाने तथा बनवाने वाले आज भी हैं। बनवाने वाले आज बदले हुए चेहरों के साथ ब्रान्डेड पतंगे बनवा रहे हैं। इनसे पेंच लड़ाने वालों की कमी नहीं है। ये लड़ रहे हैं।
जीवन संघर्ष को प्रेरित करती इनकी कविताएँ हथियार नहीं आदमी का विवेक बनती है। यही ज़रूरी भी है। बन्दूक की राजनीतिक संस्कृति को बताते लिखते हैं - ' कितना छोटा है बन्दूक का कद/कभी नहीं चल पाएगी/किसी भी और की बन्दूक/अपना आप। ' वे आने वाली पीड़ी को हथियार नहीं रोटी देना चाहते हैं।   मनोज शर्मा विरासत में अपने बेटे को आर्चिस गैलरी से खरीदे उपहार की अपेक्षा अपने भाव और संस्कार देना चाहते हैं। वे लिखते हैं-
' तुम
इस समय पर सोचते हुए
अपने पुरखों के बारे में ज़रूर सोचना
और पेड़ों , पहाड़ों , नदियों व उन तमाम
जीव - जंतुओं के बारे में भी 
जो मनुष्यों के हितैषी रहे हैं।'


इस कविता को पढ़ते हुए हरिशंकर परसाई जी का ' पहला सफ़ेद बाल ' निबन्ध याद आता है। 






स्त्री संवेदना , प्रेम और दोस्ती इनकी कविताओं में घनीभूत बिम्बों के साथ बहुआयामी स्मृतियों और वर्तमान भूमिकाओं में आती है। स्त्री का विलाप इनके लिए धरती पर सबसे अधिक पीड़ादायक है। इसका चित्र खींचने वाले कैमरे के लैंस पर दरार पड़ने जैसी काव्य पंक्ति लिखकर मनोज सहवेदना का परिचय देते हैं। एक अन्य बानगी देखें - ' ईंट - ईंट कहानियाँ हैं वे , वैसे उन्हें घर भी कहा जाता है। '  दोस्तों पर लिखी कविताएँ रंजूर जैसे कवि, सामाजिक कार्यकर्ता के सानिध्य में ले जाती हैं। यहाँ ढेरों स्मृतियाँ हैं।
अब आते हैं इनके प्रेम पर। प्रेम इनके लिए मात्र एकाधिकार का नाम नहीं है। कामना भी करते हैं तो लिखते हैं - ' आओ ....../ कि आती है जैसे आग में तैरती हुई तपिश ! ' इनका प्रेम समष्टिपरक है। यह दुनिया से घर में नहीं , घर से दुनिया की तरफ जाते हैं। कविता इनके लिए आरामगाह नहीं युद्धक्षेत्र है। वे अपने अंतरंग में बाहरी रंग को नहीं त्यागते। फ़ैज जहाँ यह कहते दिखते हैं कि ' मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरी महबूब न माँग'। वहीं मनोज शर्मा अपने इश्क तथा महबूब को अपने संघर्ष में शामिल कर लेते हैं। वह पूरी तनमयता से उसे सुनती है। यह प्रेम का ही प्रभाव है कि वे ' बन्दूक के सुराख की घोड़े तक गहराई खामोशी की हद' को जानते हैं। इनका रीतापन एक छाननी का रूप ले चुका है। इसमें सम्बन्धों का तरलपन हर बार छन कर गिर जाता है पर वे प्रेम करते रहने से नहीं  चूकते। ' अभी भी ', ' आना ', ' हम साध रहे हैं सत्य ', ' नींद में तुम ', ' संशय ', ' मनौती ', ' उसके लिए, जो शादीशुदा है '  आदि प्रेम कविताओं में कवि का प्रेम पूरे जीवनमूल्यों और सौन्दर्य के साथ दिखाई देता है। ' उसके लिए, जो शादीशुदा है ' कविता में कवि की अनुभूति और अभिव्यक्ति की नैतिकता प्रशंसा की पात्र है। मनोज शर्मा प्रेमिका के लिए मांसल कल्पना करते हैं ,उसे  छूते हैं, प्रेमिका में कोई हरकत न होने पर उसके माथे पर एक जोरदार प्रहार करना चाहते हैं। नायिका में पूरी सामाजिकता घर कर गई है। सीमाओं में बंधी वह इतना ही फुसफुसाती है -' तो अभी तक बोलना शुरू नहीं किया आपने। '

पहाड़ का होना हमारा होना है। आज पहाड़ को खनिज माफिया के चूहे कुतर रहे हैं। सैलानी भी इसके जीवन सौन्दर्य को नष्ट कर रहे हैं। इनकी पहाड़ शीर्षक कविताएँ हमें जीवन से जोड़ती हैं। पहाड़ पर खुरपे का बिम्ब कमाल का है। यह घास से जोड़ता है। घास मवेशी से मवेशी घर के आँगन से। घर के आंगन से पहाड़ अच्छे लगते हैं।
 'नए साल के बधाई सन्देश', 'पतंग', 'काम पर जाती बार गर्ल', 'विलाप करती स्त्री', 'औरत', 'आना', 'बस्ता', 'देह विदेह', 'चित्रकला के बारे में ज़रूरी नोट्स', 'नंदू संथाल', 'बंटी दुनिया के लोग', 'गुफ्तगू', 'प्रवेश', 'एक आस्था और', आदि कविताएँ इनकी बहुचर्चित, बहुपठित, बहुपाठित कविताएँ हैं। सुप्रसिद्ध कवि  केदारनाथ सिंह कहते हैं कि एक नया बिंब भी कविता संग्रह को पढ़ने का कारण हो सकता है। जो इस बात को मानते हैं उनके लिए मनोज सबसे अधिक पठनीय हैं। इनकी कविताओं में बिम्ब मानस पटल पर गहरी छाप छोड़ते हैं। कभी उनकी प्रेमिका के चेहरे पर मटमैला गुंबद दिखता है तो कहीं शब्द के अखरोट टूटते हैं। एक बानगी देखें -
' पुल के ऊपर लैंप - पोस्ट पर 
रात गए कभी चाँद जो अटके
चौकीदार छड़ी अपनी से
अटका चाँद छुड़ा देता है। '


एक जगह और क्या कमाल बिम्ब है -
' मैं ठठोरता हूँ अपनी तुनकमजाजी
तो ठंडी सी एक रात
खिड़की से, तिपुका-तिपुका टपकने लगती है। '


इनके बिम्ब भाव और  संवेदना से भरपूर हैं।  विचार इनकी कविता पर हावी नहीं है। सपाटबयानी से परे कविताई ही इनकी ताकत है। इनके छंदमुक्त में एक आतंरिक लय है। इनकी भाषा पर बात ज़रूर होनी चाहिए। ग्रामीनबोध से भरी इनकी भाषा पंजाबीयत सरदारी ठोकती नज़र आती है। इनका मुहावरा अपनी भाषा और पंजाबीयत रंग से भरे  प्रेम में सामाजिकता होने से अलग पहचाना जाता है। इनकी भाषा में जब सांकल, गुल्लक, हाड़ी, गेड़ा, कंचे, सरकंडे, जातर, दातुन, टालही, गुलेल, भांडे, कंडे, गंडासा, बटेरा, कांगड़ी, हेक, गश आदि शब्द आते हैं तो पूरे संस्कार से पाठक के मन में उतर जाते हैं। पर जब पालतुपने, जीने जोगा, पेंसिली गुलाब, तरेड़, जैसे शब्द आते हैं तो मस्तिष्क में चुभे रह जाते हैं। ऐसे शब्दों का  मोह  भाषा की स्वाभाविकता में विघ्न डालता है।
' स्वपन ' कविता इनकी ताकत है तो ' उतरती हुई हवा ' इनकी कमजोरी। पहली में यह अपना पूरा चाँद देखते हुए पूरी रात करवट नहीं बदलना चाहते हैं तो दूसरी में इनको पुराना चाँद याद आता है और साँस फूलने लगती है, रीढ़ को काठ मार रहा है। यह बदलते समय से, उम्र के रेशों से हारने की पीड़ा है परंतु हार नहीं। यह लेख्‍ान का ‌ह‌िस्‍सा है।

जब भी अलगपन की बात हिन्दी कविता में होगी मनोज शर्मा सामाजिक सरोकारों, अदभुत बिम्बों और पृथक भाषा के साथ उस पंक्ति में खड़े दिखाई देंगे जिसमें आज कम लोग दिखाई दे रहे हैं। उनकी यह पंक्तियाँ आश्वस्त करती हैं -
' मैं आऊँगा और
आटा पकने की गंध सा
प्रत्येक खौफ के विरुद्ध फैल जाउँगा। '


पैंतीस वर्ष से ज्यादा की अपनी काव्ययात्रा में मनोज शर्मा हाथ पर हाथ रख कर नहीं हाथ हवा में लहरा कर कविताएँ लिखते हैं। आज भी उनका यह कर्म जारी है। आशा है कि भविष्य में भी उनकी कलम से जनपक्ष को उकेरा जाएगा। हार्दिक शुभकामनाएँ। 





कमल जीत चौधरी 







सम्पर्क : -

गाँव व डाक - काली बड़ी , साम्बा , जे० एंड के०
ई मेल - kamal.j.choudhary@gmail.com
दूरभाष - 09419274403