Sunday, July 26, 2020

रोहित ठाकुर


जन्म तिथि: 06/12/ 1978

विभिन्न प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं हंस , आजकल , वागर्थ , इन्द्रप्रस्थ भारती, बया,  दोआब, परिकथा, मधुमती, तद्भव, कथादेश आदि  में कविताएँ प्रकाशित 

मराठी, पंजाबी में कविताओं का अनुवाद प्रकाशित 

कविता कोश , भारत कोश  तथा लगभग 100  ब्लॉगों पर कविताएँ प्रकाशित। हिन्दुस्तान, प्रभात खबर, अमर उजाला आदि समाचार पत्रों में कविताएँ प्रकाशित। विभिन्न प्रतिष्ठित आयोजनों में काव्य पाठ

वृत्ति:  शिक्षक 

रूचि :  हिन्दी-अंग्रेजी साहित्य अध्ययन, विश्व सिनेमा

पत्राचार : C/O – श्री अरुण कुमारसौदागर पथ

काली मंदिर रोड हनुमान नगर कंकड़बाग़

पटनाबिहार (800026)

मोबाइल नम्बर : 6200439764

मेल आईडी : rrtpatna1@gmail.com

हार्दिक शुभकामनाओं के साथ खुलते किबाड़’ पर पहली बार सहर्ष प्रस्तुत हैं उनकी कुछ रचनाएं।



बुद्ध

 

घर से बाहर निकलता हूँ

घड़ी देखता हूँ

नहीं

समय देखता हूँ

सोचता हूँ  - कितना पहर बीत गया

बदहवास सा लौटता हूँ घर

बच्चों की तरह पूरे घर में दौड़ लगाता हूँ

मैं चाहता हूँ  - कोई घर छोड़ कर नहीं जाये |


 

घर की भीत पर निशान छोड़ जाएगा पानी

 

इस साल पानी घर की भीत पर

निशान छोड़ जाएगा

महुआ का पेड़ झुक गया है

घर के दरवाजे पर

बारिश होती रही दिन - रात

कुल बारह दिन

माँ  दीवार पर रेखाएँ खींच देती है

घर के लोग गिन कर सिहर उठते हैं

हमारी स्मृतियों में

नाव उलटने के कई किस्से हैं

कोई न कोई बह जाता था आस - पड़ोस का

बारिश की आवाज कितनी भी तेज हो

सुन ही लेते थे रोने की आवाज

पानी में गर्दन तक डूबा एक आदमी

आवाज दे रहा है

हम उस आदमी को बचा नहीं पाए

उसकी आवाज कभी-कभी

हमारे पैरों में लिपट जाती है

हम डूबने लगते हैं पानी में  |

 


भाषा के पहाड़ के उस पार एक आदमी मौन बैठा है 

 

कितने लोग खाली हाथ घर लौटते हैं

इस धरती पर

कितना तूफान मचा रहता है उनके अंदर

किसी देश का मौसम विभाग

इस तूफान की सूचना नहीं देता है

एक थके हुए देवता की परिक्रमा करते हुए

एक अनिश्चित तिथि के लिए

कौन वरदान मांग रहा है इस समय

पानी ढोने वाली औरतें जानती हैं

इन्तज़ार करना

उनके जीवन में शामिल है

पत्थरों से पानी निकलने का इन्तज़ार करना

भाषा के पहाड़ के उस पार

एक आदमी मौन बैठा है इस हताशा में

किसी हथियार से नहीं भाषा से उसकी हत्या होगी  |

 


शब्दों के अरण्य में

मैं सही शब्दों की तलाश करूँगा

लिखूँगा एक मौसम

एक सत्य कहने में

दुःख का वृक्ष भी सूख जाता है

घर जाने वाली सभी रेल विलंब से चल रही है

छिलके उतार रहा हूँ मूँगफली के दानों की

यह मेरे लिए सबसे सूक्ष्म श्रम है

मैं आदमी से नहीं

शहर से पीछा छुड़ाने के लिए कविताएँ लिखता हूँ

मैंने प्रेम कविताएँ लिखी और पटना को धोखा दिया

दीवार पर धूप के टुकड़े की याद में रोता आदमी

घर से दूर आत्मीयता के किसी क्षण में

एक भीगते पत्ते की तरह हिलता है   |



कवि

आकाश को निहारते हुए

 चिड़िया हो जाना 

धरती को निहारते हुए फूल

मनुष्य को निहारते हुए

 अनाज का दाना 

भाषा को नहीं दुःख को समझना

बहस में नहीं प्रेम में शामिल होना

और

हो सके तो हो जाना कवि |

 


एक गिलहरी एकटक देखती है मुझे

 

घर की सीढ़ियों तक आती है धूप

कभी - कभी

दुःख आता है बार - बार

लौटती है धूप 

दुःख नहीं लौटता

सहमति और असहमति के बीच

 जो कोलाहल है

उसके बीच एक सुंदर घटना घटती है

एक गिलहरी

 एकटक देखती है मुझे   |

 


मेरे पढ़ने की प्राथमिकता में दोष है

 

मैंने उन लेखकों को पढ़ना चाहा

जो उन देशों में रहते थे जिसकी दिशा का ज्ञान मुझे नहीं है

उन तमाम लेखकों के बारे में

मैं  कितना जानता हूँ

मैं तो ठीक - ठीक कई नामों का उच्चारण नहीं कर सका

आधी उम्र बीत गयी

 

पढ़ना घर की दीवारों को पढ़ना

पिता ने कान में कहा था

हाथ पकड़कर माँ ने कहा था

उन तमाम चीजों को पढ़ने के लिए जो पिता नहीं कह सके

 

मैं चाह कर भी नहीं पढ़ सका उन तमाम लेखकों को

जिनका नाम लेते हुए तुम्हारा चेहरा नितांत पराया सा दिखता है

 दरवाजे पर खड़े पेड़ को पढ़ना 

आँगन में आती चिड़ियों को पढ़ना

इतना ही कहाँ पढ़ सका

 

न पढ़ने की विफलता महसूस की है इन दिनों

घर में काम करने वाली उस औरत को कहाँ पढ़ सका

कुल नौ सौ के भाड़े पर रहती थी

पाँच घरों में काम करती थी

पटना छोड़ कर गया चली गयी

 

मेरी पढ़ने की प्राथमिकता में जो दोष है

मुझे कौन माफ़ करेगा इस देश में  |

 

अकाल मृत्यु को रोते हुए

 

मैंने जान बूझ कर नहीं कहा

बस मुँह से निकल आया -

सूख जाये तो सूख जाये पेड़ - पौधे

खेती सूख जाये

पर

मनुष्य के शरीर का पानी न सूखे

अकाल मृत्यु

 को रोते हुए आदमी से 

ऐसी गलती हो जाती है  |

 


चूकने के लिए मुझे अकेला मत छोड़ो

 

चिड़िया आओ

बनाओ घोंसला मेरी आत्मा में

बरग़द आओ

उगो मेरी पीठ पर

ताल - तलैया आओ

शरीर का पानी बनो

चूकने के लिए मुझे अकेला मत छोड़ो |

  


आलोचना के शिल्प में नहीं

 

शिकार करने नहीं

बात करने गया

चिड़ियों के पास

कितनी बार तरल हुईं आँखें

दुनिया भर की बातें हुईं

आलोचना के शिल्प में नहीं 

चिड़ियों की तरह देखा संसार

और

उड़ान भरी देश की आकाश में

थक कर उस पेड़ पर बैठा

जिसकी कोई जाति नहीं थी  |

 

पृथ्वी को सबसे अधिक जानती है रेलगाड़ी

 

पृथ्वी की असीम पीड़ा में

पेड़ निरपेक्ष खड़े हैं

चिड़िया नहीं जानती है

मनुष्यों की भाषा में दुःख के गीत

पृथ्वी को सबसे अधिक जानती है रेलगाड़ी

रेलगाड़ी में बैठकर कोई दुःख से पार पाता है

कई पुलों से गुज़र कर सुख के छोर को छू कर

दुःस्वप्न की तरह

पृथ्वी की पीठ पर खड़ी है रेलगाड़ी

चलती-फिरती रेलगाड़ी के किस्से जीवन का शुक्ल पक्ष है  |


 

 प्रस्तुति व फोटोग्राफ: कुमार कृष्ण  शर्मा



Sunday, July 19, 2020

स्‍वामी अंतरनीरव

स्‍वामी अंतरनीरव सुच्‍चा कवि है। उनकी कविताएं ही उनका परिचय है। वह चाहे स्‍वामी का व्‍यक्तित्‍व हो या उनकी रचनाएं, हर चीज सच्‍ची, सुच्‍ची है। पंजाबी और पहाड़ी के साथ कभी कभी हिंदी में भी लिखते हैं। भारत और पाकिस्‍तान के अलावा विश्‍व में जो भी पंजाबी और पहाड़ी जानने वाले लोग हैं, वह स्‍वामी का नाम जानते हैं। उनके शब्‍द रूह को छूते हैं। उनकी कविताएं ग्‍लोबल होने के बावजूद अपनी मिट्टी का स्‍वाद लिए होती हैं। स्‍वामी कहते हैं कि वह पहाड़ी हैं और पहाड़ों में लोग अकसर मिट्टी खाते हैं। उन्‍होंने भी बहुत मिट्टी खाई है। इसलिए उनमें से मिट्टी की खुश्‍बू आती है। एक और विशेषता जो स्‍वामी की मुझे खींचती है वह है उनका कवित पाठ का तरीका। जब वह कविता पाठ करते हैं तो उनका रोम रोम कविता के शब्‍दों के भावों का अनुवाद करता प्रतीत होता है। ऐसा लगता है मानो कोई मौजी फकीर किसी दरगाह पर नृत्‍य कर रहा हो।

‘खुलते किबाड़’ पर प्रस्‍तुति कविताएं मूलत: पंजाबी में लिखी कविताएं हैं जिनका अनुवाद उनकी बेटी नेहा ने किया है। इसके लिए नेहा का आभार। केवल अंतिम कविता मूल रूप से हिंदी में लिखी गई है।



इन दिनों

मेरे इलाके में
फौजी वर्दी टोपी पेटी और
बड़ा बूट पहन कर ही आ सकते हैं
गौतम बुद्ध

इसा मसीह को
राय दी है
दुआएं सब के काम की नहीं होती
जीवितों के काम की भी नही हैं दुआएं
खाते पीतों का खेल है यह तो

वह हठ करते हैं
यही तो है प्रार्थनाओं की ऋतु

हवा नंगा करती
आग जलाती
पानी बहा देता
एवं बर्फ ढक देती
सब का सब

आग पानी हवा बर्फ
सब के सब है आजकल
मेरे इलाके के हाकिम

पड़ोसी
गुड मॉर्निंग की जगह
अब मुझसे ठाह कहता है

मैं भी उसे
जवाब में
ठाह ही कह देता हूँ

ठाह ठाह ठाह
हम एक-दूसरे से
इसी भाषा में बतियातें है आजकल

सेबों की बातें
इन दिनों
सबके सामने करने योग्य
बातें नहीं है

* ठाह : गोली चलाने की आवाज़


उसने कहा

उसने कहा
घर को कविताओं से
ज़्यादा ,फूल-पौधों की  
ज़रूरत है

मैं
फूल बोऊंगी

मेरी मानो
तुम भी फूल ही बोना

कविता
अपने आप उग आएगी


लिखें

जानता हूँ
लिखने से कुछ नहीं होगा
फ़िर भी लिखें
लिखें
असहमति के गीत
अपने ही पंख कुतर रही नज़्में
भविष्य के अफ़साने
एक रंगे
फ़ूल के भार से 
मर जाएंगे हम, परन्तु
सांस लेते रहेंगे शब्द
लिखें
कि दीवारें कभी 
चीख़ नहीं सुनती
रेत को नम नहीं कर सकते आंसू
कि न्याय बस लोकाचार है
कि दीवान-ए-ख़ास ही
दीवान-ए-आम है
लिखें
कि चुप्प बहरों को नहीं
कान वालों को सुनती है
रात का अर्थ कभी दिन नहीं रहा
रात का अर्थ कभी दिन नहीं रहेगा
अपनी ही मिट्टी से
अब ख़ुशबू नहीं आती
लिखें
कि सड़क पर चलती 
भेड़िया भीड़ मे
हर शख़्स एक मेमना है
लिखें
कि पहले से लिखा
खोद रहा नेईं खबरें
कि राजा ग़ल्त था
ग़ल्त है, ग़ल्त रहेगा
लिखें
कि शब्द मनुष्य की पहचान हैं
शब्द का होना मनुष्य का होना है
शब्द की नीयति मनुष्य की नियति है
बस लिखें


उदासी

जब उदास होती हूँ
चिड़ियों की ओर
कान लगाती हूँ

छत पर दाना पानी रख
उन के आने की
प्रतिक्षा करती हूँ

जब 
वह उदास होता है
बंदूक उठाकर निकल जाता है

संध्या को वह
ख़ुश होता है

मैं और उदास


बदबू

रक्त से
कभी ख़ुश्बू नहीं आई

रक्त से
कभी ख़ुश्बू नहीं आती

यदि आप को
सीमा पर बहे रक्त से
ख़ुश्बू आती है

आप हत्यारे हैं।


क़तबा

मैं क़तबा
इस कब्र पर
इसके
मरने के संग
जन्मा था
मुझपर देखो पढ़ो
यह जन्मा मरा कब हैं

शोक मनाओ इसके मरने का
जश्ऩ मनाओं अपने जीने का
अफ़सोस मनाओ अपने मरनेे का
अपना क़तबा घढ़ने का
मुझकों देख अहसास करो
अपना क़तबा पढ़ने का

सदियों से मैं यहाँ खड़ा हूँ
कई लोगों को आते देखा
कई लोगों को जाते देखा
अब तो बूढ़ा कतबा हूँ मैं
मेरे आगे पीछे के तो
सब क़तबे जवान खड़े हैं
उनकों पढ़ना कितना आसान 
मुझको पढ़ना कितना मुश्किल
मैं तो हूँ अब मरने वाला
मैं भी इक दिन मर जाऊंगा
तुम मेरे क़तबे पर लिखना
बूढ़े क़तबे मर जाते हैं


संपर्क: 
निवासी: निहाालपुल सिंबल कैंप ( रख्‍ख के पास)
गांव व पोस्‍ट आफिस: सिंबल कैंप
तहसील: आरएस पुरा, जम्‍मू (181104)
मोबाइल: 9419110232



प्रस्तुति व फोटोग्राफ: कुमार कृष्ण  शर्मा

Sunday, July 12, 2020

ऐसे सुर की है तलाश जो अमन ला दे

08 सितंबर 2005स्‍थान- सरकारी गेस्‍ट हाउस, जम्‍मू

सुबह के नौ बज रहें होंगे। कुछ ही समय पहले बारिश रुकी थी। मैं अपने फोटोग्राफर साथी संजय गुप्‍ता के साथ गेस्‍ट हाउस के उस कमरे के बाहर खड़ा था जिसके अंदर जीते जी किवदंती बन चुका एक व्‍यक्ति आराम कर रहा था। वह शख्‍स जो उस समय कमरे के अंदर था, वह देश की गंगा जमुनी तहजीब का दूसरा नाम है। वह नाम जिसको पूरी दुनिया के लोग पूरे अदब और मोहब्‍बत से लेते हैं। शहनाई का जिक्र होते ही जिस इकलौते शख्‍स का नाम जेहन में आता है, अंदर उन्‍हीं भारत रत्‍न बिस्मिल्‍लाह खान से मिलने का मौका मुझे कुछ देर बाद मिलने वाला था, जो पहली और अंतिम बार जम्‍मू आए हुए थे।

 

एक दिन पहले, 07 सितंबर, 2005, स्‍थान- अमर उजाला आफिस, जम्‍मू

देर शाम मैं अपने कंप्‍यूटर पर काम कर रहा था। तभी इंटरकाम पर संपादक अपने कैबिन में आने को कहते हैं। । रवींद्र श्रीवास्‍तव जी वही संपादक हैं जिन्‍होंने मुझे पत्रकारिता में अंगुली पकड़ कर चलना सिखाया है। श्रीवास्‍तव जी का कहना था कि कल जब भी मेरी बिस्मिल्‍लाह खान से मुलाकात हो, तो मैं उस्‍ताद जी के पांव को हाथ लगा कर आशीर्वाद जरूर ग्रहण करूं। श्रीवास्‍तव जी का जोर देकर कहना था कि याद रखना, असली कलाकार और मनमौजी फकीर में ज्‍यादा अंतर नहीं होता है। दोनों के चरणों में रहोगे तो कुछ न कुछ जरूर लेकर आओगे। इसके अलावा उन्‍होंने कुछ सवाल भी सुझाए जो बिस्मिल्‍लाह खान जी से पूछे जा सकते थे।

08 सितंबर 2005, स्‍थान- सरकारी गेस्‍ट हाउस, जम्‍मू

लगभग पंद्रह मिनट के बाद मुझे कमरे में बुलाया गया। अब मैं उस शख्‍स के सामने खड़ा था जिसको बचपन से केवल रेडिया और टीवी पर सुनते देखते आए थे। जिस ग्‍लैमर की मैंने कल्‍पना की थी, ठीक उससे उल्‍ट एक बेहद सादा बुजुर्ग हल्‍की सफेद दाढ़ी लिए बेड पर बैठा हुआ था। पास जाते ही मैंने उनके पांव छू लिए। उन्‍होंने मेरा हाथ पकड़ मुझे अपने साथ बेड पर ही बिठा लिया। बिस्मिल्‍लाह खान के साथ उनके बैड पर उनकी ही बगल में बैठना सच में मेरे लिए गौरव की बात है।

मेरी गीली कमीज को देख कर पूछा की भीगते हुए आए हो। मैंने कहा हां, घर से बाइक पर निकला तो तेज बारिश शुरू हो गई थी। मैं लगभग बारह किलोमीटर भीगता हुआ आया था। मैंने हंसते हुए कहा, आप से मिलना भी तो था। उसी समय उन्‍होंने मेरे और संजय के लिए चाय लाने का हुक्‍म दे दिया।

 

यह है मेरी दिली तम्‍मना

चाय पीने के साथ ही सवालों का सिलसिला शुरू हो गया। मेरा पहले सवाल के जबाव में उनका कहना था कि उन्‍होंने जीवन में वह सब कुछ हासिल कर लिया है जिसकी ख्‍वाहिश एक आम आदमी करता है। फिर भी एक दिली इच्‍छा बाकी रह गई है। दिली तम्‍मना है ऐसे सुर की तलाश जो दूरियां मिटा दे। मैं एक ऐसा सुर बजाउं जो धर्म, जातियों और इलाकों के नाम पर लड़ने लड़ाने वालों को एक कर दे। ऐसा सुर मिलते ही मेरी तलाश खुद खत्‍म हो जाएगी।

भरी आंखों से कहा, लकीर खींच देने से देश अलग नहीं होते

जब बात पाकिस्‍तान पर चली तो उस्‍ताद जी भावुक हो गए। उन्‍होंने भरी आंखों से कहा कि लकीर खींच देने से कोई अलग नहीं होता। पाकस्तिान और उसके बाशिंदों को हमवतन कहने वाले उस्‍ताद जी का मानना था कि वह भी हिंदोस्‍तान के एक हिस्‍से के नागरिक हैं।


जम्‍मू कश्‍मीर में चल रही हिंसा ने किया आहत

आतंक और आतंकवादियों के बारे में उस्‍ताद जी का कहना था कि इनके सुर बिगड़ गए हैं। रियासत में डेढ़ दशक से भी ज्‍यादा समय से चल रही हिंसा ने उनको बहुत आहत किया है। जो लोग भी हिंसा से जुड़े हैं वह सारे बेसुरे हैं। प्रेम वही लोग करते हैं जिनको सुरों की पहचान है। अगर ऐसे लोगों को सुर की समझ होती तो वह लड़ते ही क्‍यों। संगीत में ऐसी ताकत है कि लोगों ने इसकी साधना के लिए तख्‍त छोड़ दिए, बंदूक तो कोई चीज नहीं है।


नई पीढ़ी को दिया संदेश

उस्‍ताद जी का कहना था कि संगीत सीखने में काफी दिक्‍कतों का सामना करना पड़ता है। संगीत करतब है। अर्थात पहले कर फिर तब। जब तक रियाज और मेहनत नहीं की जाएगी, तब तक कुछ भी हासिल नहीं किया जा सकता।

 

थोड़ी देरे के लिए बंद किया शहनाई बजाना

शाम को कल्‍चरल अकादमी के अभिनव थिएटर में जब उस्‍ताद जी ने प्रस्‍तुति देना शुरू किया तो प्रेस के फोटोग्राफर लगातार फोटो खींच रहे थे। अंधेरा होने के कारण उनकी फ्लैश लगातार उस्‍ताद जी का ध्‍यान भंग कर रही थी। इस पर उन्‍होंने शहनाई बंद कर फटकार लगाते हुए कहा कि शहनाई वादन की क्‍या जरूरत है। फोटो ज्‍यादा जरूरी हैं। उसके बाद उनका कहना था कि जो भी फोटो खींचने हैं वह अभी खींच लो। जब वह शहनाई बजा रहे हों तो उनका ध्‍यान भंग न किया जाए।

 

[ उस्‍ताद बिस्मिल्‍लाह खान साइसाइटी फार प्रोमोशन आफ इंडियन क्‍लासिक म्‍यूजिक एंड कल्‍चर एमांग यूथ (स्पिकमैके) के जम्‍मू एंड कश्‍मीर चैप्‍टर और जम्‍मू कश्‍मीर कल्‍चरल अकादमी की ओर से आयोजित कार्यक्रम में हिस्‍सा लेने आए हुए थे।]

 

साक्षात्‍कार और प्रस्‍तुति- कुमार कृष्‍ण शर्मा