दस जनवरी 1991 को जन्मे नरेश कुमार मौजूदा समय में जम्मू विश्वविद्यालय से हिंदी विषय में पीजी कर रहे हैं। उनकी कविताओं को पढ़ कर साफ होता है कि उनके अनुभव उनकी अपनी उम्र से ज्यादा हैं। उनकी रचनाओं में एक अलग संवेदना और सूक्ष्मता है। नरेश का मानना है कि कविता सोच कर या फिर घंटों कागज कलम लेकर बैठने से नहीं लिखी जाती। नरेश युवा हिंदी कवि और हिंदी विचार मंच जम्मू के सह-संयोजक कमलजीत चौधरी को अपनी प्रेरणास्रोत मानते हैं। हिंदी विचार मंच जम्मू के सदस्य नरेश कुमार कुछ एक मंचों से अपनी कविताओं को पढ़ चुके हैं।
पिता के खेत
पिता सुनाते हैं
खेत की कथा
कहते हैं-
वहां बस
कंटीली झाड़ियां थीं
जहां आज
चमकती थाली से
लहलहाते खेत हैं।
पिता सुनाते हैं
दो बैलों काला-गौरा की कथा
और अपना
मिट्टी से रिश्ता
बताते हैं-
तब ट्रैक्टर नहीं थे
मशीनें नहीं थीं
थे केवल दो हाथ
हाथों का रिश्ता था
बैल, मिट्टी और बीज से।
पिता सुनाते हैं अतीत
वर्तमान को बल मिलता है
मैं जोतता हूं खेत/पढ़ता हूं खेत/लिखता हूं खेत
यथार्थ में खेत/स्वप्न में खेत
खेत से मेरे रिश्ते को देख
पिता को बल मिलता है।
पिता इन दिनों उदास हैं
कहते हैं-
हाथ का खेत से रिश्ता वही है
बीज, मिट्टी, बैल और सपने वही हैं
पता नहीं फिर भी
क्यों बिक रहे हैं खेत।
देवता की ओर
तुम्हारी दिनचर्या पर
कर जाता
तुम्हें
अपने से बेखबर
पर
तुम्हें खत्म करना
उसका मकसद नहीं
है केवल तुमको भ्रमित करना।
इस कद्र उसने तुम्हें
भ्रमित कर डाला है
तुम खो चुके हो
पहचान
कौन सफेद-कौन काला है।
वह तली पर
सरसों जमाता
भड़काता
तुम्हें ही नोच-नोच खाता
तुम बौखलाए हुए
भ्रमाए हुए
सड़कों पर उतर
सिर्फ अनुमान लगाते हो
तुम लाठी को सांप
सांप को देवता कहते हो
जो फुफकार जाता है
तुम्हारी शांति
सुख समृद्धि पर
और तुम
देखते रहते हो
देवता की ओर।
घुड़सवार
उनकी
यह दलबंदी
कितनी है गंदी
कैसे फूटी दीवारों पर
छत्त खड़ी होगी
घास कैसे बड़ी होगी।
हमारे पाले घोड़ों को
हमारी ही फसलों पर
वे दौड़ाते हैं
घुड़सवार कहलाते हैं।
कविता ने कहा
सफेद पोशाक में
खड़ा
वह मंच पर डटा
अपने प्रतिद्धंदी को
गंदा ही नहीं
कीचड़ से भर देना चाहता
भोले भाले
लोगों ने उसे
नेता कहा
अपना नेता।
कविता ने उसे
अपने सफेद चश्मे से देखा
और उसे
व्यवस्था की चादर पर
धब्बा कहा
सभी चुप हो गए
दांतों तले अंगुली दे दी
मैंने तय कर लिया
उसने भी, इसने भी
सबने तय कर लिया
हम भी चश्मा बदल लेंगे।
कविता ने कहा
परख
चश्मा बदलने से नहीं
नजरिया बदले से होगी
सबकी अंगुलियां
फिर दांतों तले चली गईं
लोग सोचने लगे हैं...
शब्दवाण
बुद्धि की सान पर
नुकीले कर-कर के बाण
छोड़ते रहे मुझपर
तुम कस-कस कर कमान
कई मजबूरियों तले
दब कर 'ना' जो कर दी थी मैंने...
बंजर-मरुस्थल
कहते रहे मुझे तुम
...यह पत्थर
कभी कर ही नहीं सकती प्रेम...
मैं मूक
सब सुनती रही
सहती रही
बहती रही
तुम सिर्फ
बक्ते रहे
ढाई-आखर प्रेम
देखो-
मैं आज भी बह रही हूं
अपनी कल-कल में
छल-छल में
तुम्हारे प्रेम की कह रही हूं
कविता
तुम्हें निरखते हुए, परखते हुए
और तुम
फिर तलाश रहे हो
कोई शब्द बाण
प्रेम नहीं....
पता - गांव/डाकखाना कटली, तहसील हीरानगर, जिला कठुआ, जेएंडके (184144)
मोबाइल -
0-98-582-47329
sabhi kavitiae achi lakin pehli our tesree kavita ne sbse jyada prabhavit kiya...
ReplyDeletenaresh ji...apni umer ki tulna mein kahien behter rachnyaie
ReplyDeleteनरेश जी का पहले तो अभिनन्दन ,कविताओं का मौलिक बालपन खूबसूरत है।बाकी सब धीरे धीरे होता जायेगा
ReplyDeletePriya Naresh pahlee do kavitain sashkt . Pita ke khet ki samvendna maarmik hai . Devata kee or kavita ka vyagay aam aadmee par raaj karte mukhoton ka jabardast chitr kheenchta hai . Aapki kavitain padte hue lagbhag chaar saal ho gaye hain is beech aapkee drishti kafee badalee hai . Sujhaav yah ki aap moulikta ka dhyaan rakhen . Dohraav se bachen . Hardik badhai aur shubhkaamnain ....
ReplyDeleteNaresh bhai .... Bahut achhey..... Aapki kavita pdne ka samaye to kamm milta hai par Main zaroor padta hu jab bhi ... Aap aise hi Achha achha likhte rahe ..... Aur dua krte hain ki aap kamyabi k shikhar tak pahunchey
ReplyDelete(Neeraj K. sharma)
Delete(Neeraj K. sharma)
DeleteNaresh bhai .... Bahut achhey..... Aapki kavita pdne ka samaye to kamm milta hai par Main zaroor padta hu jab bhi ... Aap aise hi Achha achha likhte rahe ..... Aur dua krte hain ki aap kamyabi k shikhar tak pahunchey
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