Sunday, May 12, 2024

ललन चतुर्वेदी

जन्म: मुजफ्फरपुर (बिहार) के पश्चिमी इलाके में नारायणी नदी के तट पर स्थित बैजलपुर ग्राम में 
शिक्षा: एम.ए. (हिन्दी), बी एड., विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की नेट जेआरएफ परीक्षा उत्तीर्ण 

प्रकाशित कृतियाँ : प्रश्नकाल का दौर (व्यंग्य संकलन), ईश्वर की डायरी तथा यह देवताओं का सोने का समय है (कविता संग्रह)  एवं साहित्य की स्तरीय पत्रिकाओं तथा प्रतिष्ठित वेब पोर्टलों पर कविताएं एवं व्यंग्य प्रकाशित। 
संप्रति : राजभाषा हिन्दी एवं अनुवाद कार्य में संलग्न और सेवारत।

लंबे समय तक राँची में रहने के बाद पिछले पाँच वर्षों से बेंगलूर में निवास ।



|| घर || 

- एक -

भी कहीं से 
लौटता हूं तो लगता है
माँ अपनी बाहों में भर रही है।  

- दो -

सुंदर महानगर 
भव्य इमारतें 
मनोरम पार्क या 
जिसे हम कहते हैं दुनिया का स्वर्ग 
उनमें बिचडरते हुए 
जिसे मैं नहीं भुला पाता 
वह अपना घर ही तो है। 

- तीन -

ब से छुटा है
तब से कितने शहरों के कितने मकानों में
ढूंढता रहा हूं घर
हमेशा महसूस हुआ
घर ढूंढना दुनिया का बहुत कठिन काम है
और घर यदि मिल भी जाए तो
घर बसाना उससे भी कठिन काम है
जैसे ही घर बसने को होता है
आंधी ठीक उसी समय आती है
उजड़ जाता है बसा- बसाया घर
और फिर घर ढुंढना शुरू हो जाता है
इतना ही समझा
घर हमारी कल्पनाओं में बसता है
या बसता है हमारे सपनों में
घर खोजने की असफल कोशिश में
तन-मन जब पूरी तरह थक जाता है
कोई दूर से पुकारता है-
शाम होने को है,आओ अपने घर चलो। 


|| समय || 


प बड़े हो सकते हैं
इसका यह अर्थ नहीं कि
दूसरा कोई आप से छोटा है

आप खरे हो सकते हैं
इसका यह मतलब नहीं कि
दूसरा कोई निहायत खोटा है

समय ने अपनी कसौटी पर
अनगिनत लोगों को परखा है
अनगिनत लोगों को जाँचा-तोला है

समय बड़ा निर्मम है, निर्भय है
इसने बड़ी-बड़ी हस्तियों का
बीच बाजार में भेद खोला है।


|| अकारण || 


कारण किसी का जन्म नहीं होता
मौत भी नहीं होती अकारण
अकारण फूल भी नहीं खिलते
अकारण काँटे भी नहीं उगते
गौर से समझो निरर्थक का अर्थ
वहाँ भी अर्थ छुपा बैठा होता है
अगर ढूँढोगे तो पाओगे

प्रेम की सरिता में धो लो कालुष्य
अकारण क्यों घृणा करते हो मनुष्य?

|| कैसे बच पाएगा संसार || 



कैसे बच पाएगा संसार
यह धरती
जो घूम रही है अहर्निश सदियों से
कहाँ रूकती है, कब थकती है
तुम उसे रौंद रहे हो

यह फूल
जो खिलखिला कर हँस रहा है
कंटकों की सेज पर लापरवाह
तुम उसे तोड़ रहे हो

यह पवन
जो निरंतर डोल रहा है
तेरी साँसों में अमृत घोल रहा है
तुम उसमें जहर घोल रहे हो
ये धरती, फूल, पवन
क्या कभी कुछ माँगते हैं
क्या अपनी सीमाओं को लाँघते हैं
तुम तो कर गए सारी सीमाएँ पार
बताओ कैसे बच पाएगा संसार?
             

 

|| काठ की कुर्सी || 


काठ की कुर्सी
नहीं होती निरा काठ निर्जीव
काठ के उल्लू को भी बना देती है चैतन्य
बदल देती है उसका पूरा ठाट-बाट
बैठते ही इस पर‌ अधिकांश लोग
बन जाते हैं कठमुल्ला
धँसते जाते हैं नीचे, नीचे और नीचे
बहाने लगते हैं उल्टी गंगा
घोषित करते हैं स्वयं को भगीरथ
जबकि उन्हीं की कुर्सी के ठीक नीचे
बहती रहती है भ्रष्टाचार की बैतरणी
धीरे-धीरे उनकी चेतना पर जम जाती है काई
सचमुच कुर्सी पर बैठने के बाद लोग काठ हो जाते हैं
वे भूल जाते हैं कि कुर्सी की भी कोई उम्र होती है
और कुर्सी से उतरने के बाद कोई मातमपुर्सी भी नहीं करता।
           

|| अपराध और दंड || 


पराध की सारी सूचनाएँ
दर्ज नहीं हो पाती थाने में
मामले पहुँच नहीं पाते अदालत तक
लेकिन जब लगती है मन की अदालत
मुजरिम खुद को पाता है कटघरे में
बड़ा दारूण होता है वह क्षण
जब उसे अपने खिलाफ
लेना पड़ता है फैसला
इस फैसले के खिलाफ
कहीं अपील नहीं हो सकती
असंभव है जिसके खिलाफ सुनवाई
अपराधी कहाँ समझ पाता है कि
हर अपराध के पीछे
परछाईं की तरह चलता है दंड
पर वह उसे देख नहीं पाता
और सुन नहीं पाता उसकी पदचाप।


|| सर्वहारा हंसी || 


से हँसने की फुर्सत नहीं थी
और रोने की की इजाजत नहीं थी
फिर भी वह हँसना चाहता था
पर उसे हँसी नहीं आती थी

हँसते हुए चेहरे
उसके लिए कौतूहल के विषय थे
हालाँकि हँसने वाले चेहरों से
उसका दूर दूर का रिश्ता नहीं था
वह उनकी हँसी का राज जानना चाहता था
पर उसे इतनी हिम्मत नहीं थी कि
उनसे उनकी हँसी का राज पूछे
उसे यह भी आशंका थी 
कि शायद उसके प्रश्न का नहीं मिले माकूल जवाब
और वह खुद बन जाए सब की हँसी का पात्र

ले देकर एक घरवाली ही थी
जिससे वह अपना दुख-दर्द बाँट सकता था
मौके-बेमौके किसी बात पर डांट सकता था
एक शाम उसने पत्नी से
पूछा लोगों के हँसने का राज
भोली-भाली पत्नी भला कैसे दे इस कठिन सवाल का जवाब
कभी पूरा नहीं हो पाया था जिसका एक भी ख्वाब

फिर अपनी बुद्धि का कर इस्तेमाल
कोने में रखे गुल्लक की ओर किया उसने इशारा
कहा- इसी में छुपाया है मैंने हँसी का राज
बरसों से तुम्हारी मजदूरी से बचाकर चवन्नियाँ
भर कर रखा है मैंने गुल्लक
कल बाजार जाना
इन्हें नोटों में बदलकर
नए कपड़े और मिठाइयाँ लाना
मिल बैठकर खायेँगे बच्चों के साथ
फिर पहन-ओढ़ कर घूमने चलेंगे पार्क
देखेंगे रंग-बिरंगे फूल
उन्हीं से पूछेंगे खिलने और खिलखिलाने का राज

रात उसकी पलकों में कटी
सुबह जब वह गया बाजार
साहुकारों ने दिया उसे टका सा जवाब
चवन्नियाँ बाजार से गायब हो गई है जनाब!

मुँह लटकाए वह चल दिया नदी की ओर
गुल्लक को कर दिया नदी में समर्पित
सहसा खुल गए उसके होंठ
और चेहरे पर फैल गई
एक सर्वहारा हँसी। 
          

|| कबीरा || 


मेरी निगाह में हर आदमी में
थोड़ा-बहुत वेश्यावृत्ति है
किसी में कम, किसी में ज्यादा
होती इसकी आवृत्ति है
इसे ठीक से समझो साधु !
जो नहीं समझे वह मूढ़मति है। 

||  दूसरों के कहने पर || 


रास्ते पर चल रहा हूँ
अपनी समझ से रास्ता भी सही है
कोई कहता है -
राह भटक गए हो
अपना रास्ता बदल लो
दूसरे रास्ते से जाओगे
आसानी से मंजिल पर पहुँच जाओगे
कोई कहता है -
बंधु बड़ा कठिन है रास्ता
थक गए हो, सुस्ता लो
कोई कहता है -
रास्ता तो तुमने सही चुना है
लेकिन कोई तुम्हारे साथ नहीं चलेगा
कोई दुष्ट दुस्साहसी कभी-कभी
रास्ता रोककर भी खड़ा हो जाता है
क्षण भर के लिए ठिठक जाता हूँ
परंतु यह यात्रा रुकने वाली नहीं है
सारी आवाजें खो गई है घाटियों में
मैं कुछ भी नहीं सुनना चाहता
जो स्वयं अपना रास्ता चुनता है
वह भला कब किसी की सुनता है
और उसे सुनना भी नहीं चाहिए
अगर कुछ करना है अपने लिए
या दुनिया के लिए भी
तो दूसरों के कहने पर
रास्ता चुनना भी नहीं चाहिए। 


|| जूते के बिना यात्रा || 


पांव में जिनके जूते नहीं होते
वह भी करते हैं यात्रा
और लंबी यात्रा के लिए
हरगिज जरूरी नहीं होते जूते
मैंने वैसे लोगों को देखा है
जो लंबी यात्रा में पांव से जूते निकाल
हाथ में पहन लेते थे
या डाल लेते थे लेते थे झूले में
कोई जरूरी नहीं है कि
यात्रा पर निकलने के पूर्व
खरीद लिए जाएं जूते
या बिना जूते के स्थगित कर दी जाए यात्रा
चलना जिनका स्वभाव है
वे जूते का ख्याल नहीं रखते
उनके लिए जरूरी नहीं होते जूते
जरूरी होती है यात्रा।


|| तारीफ आपकी || 


हा
थ मिलाया
गले लगाया
बांधे प्रशंसा के पुल
पहुंच गए वह मंच पर
बदल गए सारे उसूल
खरी खोटी सुनते हुए मैं
खड़ा रहा जमीन पर
कायम रहा अपनी जमीर पर
खो गया मैं कहीं भीड़ में
वह प्रशंसकों के बीच
हो गए बेसुध विभोर
करता रहा मैं जिसकी तारीफ
वही पूछते हैं मुझसे
तारीफ आपकी? 


संपर्क:
सी एस टी आर आई, सेंट्रल सिल्क बोर्ड
तृतीय तल,हिन्दी अनुभाग,बी टी एम लेआउट 
मडिवाला,बेंगलूर-560068   
ईमेल: lalancsb@gmail.com 
मोबाइल नं : 9431582801 

Tuesday, May 7, 2024

फ़िलहाल - गति का भी वर्तमान है

 'चतुर कवि तो कविता में गाल बजाएगा
नदी का मर्सिया तो पानी ही गाएगा'

केशव तिवारी हिंदी - कविता के सशक्त हस्ताक्षर हैं। 04 नवम्बर, 1963 में प्रतापगढ, अबध में जन्मे , उनके चार कविता - संग्रह, "इस मिट्टी से बना", "आसान नहीं विदा कहना", " तो काहे का मैं ", "नदी का मर्सिया तो पानी ही गाएगा ", प्रकाशित हुए हैं । अन्य भारतीय भाषाओं में कविताएं अनूदित होकर प्रकाशित हुई हैं / हो रही हैं ।

उनके इस संग्रह ( नदी का मर्सिया तो पानी ही गाएगा ) की कविताएं परिपक्व तो हैं ही, ये जीवन में व्याप्त तमाम तरह की उठा - पटक, सालों - साल के सहन - दर -सहन के बावजूद, लेखन की ताकत को साधिकार पाठक के हक में खींच लाती हैं। इस संग्रह की भाषा, प्रत्येक कोण से इसे मौलिक बनाती है। यह एकालाप का नहीं, संवाद का संग्रह है। इसमें कवि मात्र बखान नहीं, स्थिति - विशेष को पाठक तक ले जाने के उपक्रम रचता है। उनकी शैली का जादू यह भी है कि इसे मात्र आभास नहीं समझ सकते। पाठक यहां , सोच व विचार को अपनी तरह से देखता - परखता है । यहां एक देशज भाषा का आलोक व्याप्त है ।

" पाठा में चैत "

गली- गली अटी पड़ी है
महुआ की महक
उतर रही है
पहली धार की
घोपे के पीछे------ 

*** 

' ... दुःखों की गांठ
और कसती जा रही है
फागुन के उद्धत होते
लाल गमछे से
चैत पोंछ रहा है
अपने पसीने में डूबा धूसर माथ ...' 

***

' चूल्हे पर चढ़ी खाली बटुई - सा
धिक रहा मन
रात से ...'


***

' रात खेतों पर मचानों पर सोती है
दिन कहीं मेड़ -डाँड़ खटता है ...'

इस संग्रह की रेखांकित करने वाली खूबी यह भी है कि यहां उन विषयों को छुआ गया है , जो अभी तक अछूते रहे । जैसे कि यहां महानद चंबल साक्षात विद्यमान है ।

' ... चंबल की घाटियों में
तुम्हारा विचरना
तुम्हारी बाँकी चाल
बुंदेलखंड की प्यास से तुम्हारा
क्या रिश्ता है
पुराणों का दर्शाण
हमारी धसान
हमारे रक्त
हमारी जिह्वा में घुला है
तुम्हारा नमक ...,
'

' उर्मिल ' , ' जेमनार ' जैसी कई अन्य कविताएं भी इसी की गवाही देती मिलती हैं ।

हमारे वर्तमान की शिनाख़्त करता यह संग्रह कतरा - कतरा हमारी धमनियों में उतरता चला जाता है।

' ...एक शराबी पुलिया पर बैठा
शिकायत कर रहा था
उसे भी किसी ख़ास शाम का इंतज़ार था ...'

***

'  इंतज़ार की रस्सी में लटका
एक मुल्क था
जिसे बस एक नट के इशारे का इंतज़ार था ।'

***

' ...जिसे जो दिख रहा है
वो औरों को दिखा नहीं पा रहा है ...'

इसी तथ्य को और गहराई से आंकने के लिए , ' डोर टू डोर सामान बेचती लड़कियां' में स्पष्ट: देखा जा सकता है : 

' ये किसी महानगर से नहीं
किसी आसपास के कस्बे से आकर डोर टू डोर
बेच रही हैं सामान
जिस बाज़ार ने इन्हें वस्तु बनाया
उसी ने दी है यह आज़ादी...'

अब देखें की निचली कविता हमारे समाज की कैसी तर्जुमानी कर रही है : 

'  चीज़ें दूर ही नहीं थी
वे दूर और दूर होती जा रही हैं
उन्हें पाने की इच्छाएं प्रबल और प्रबल
जो ज्ञान उन्होंने जीवन से अरजा था
वह बड़ी चतुराई से लगभग पुराना
और व्यर्थ साबित किया जा चुका था
जीना किसी को था
उम्र कोई और तय कर रहा था ...'

इस संग्रह की कुछ और बेहद ज़रूरी कविताएं हैं , 'ये आवाज़ें' और 'एक कवि के पास'

अब कवि 'छूटने' को ही किन - किन अर्थों में रचता है, यहां उनके कहन के कमाल को प्रत्यक्ष: देखा जा सकता है।यहां ऐसा संश्लेषण, ऐसा गुंफन है, जो पाठक को अपने साथ बहा ले जाता है ।

'अनुवाद में जैसे कभी - कभी
शब्दों के मोह में
कुछ अर्थ छूट जाते हैं 
कटे गेहूं के खेत में सीला बीनते
कुछ बालें कुछ दाने छूट जाते हैं ...'

इस संग्रह की कविताएं फोटोजेनिक बिंब भी रचती हैं, इसी के साथ यहां एक भौगोलिक संकल्पना मूर्त होती है ।

"आवाज़ "

' रनगढ़ पर उतर रही है शाम
नीचे प्राचीर पर पीठ टिकाए
बैठे हैं हम ...' 

यह संग्रह कविता के विद्यार्थियों के पुस्तकालय में बेहद ज़रूरी है।
केशव तिवारी जी को हार्दिक बधाई ।


प्रकाशक :
हिन्द युग्म ,सी - 31 ,सेक्टर 20 ,नोएडा ( उ. प्र .)
पिन - 201301
फोन : 91-120- 4374046


— मनोज शर्मा