"तब सही मायनों में होगी पहचान
जब दोस्त चला जाएगा
दोस्त के जाने के बाद
चाय के कप से उठती भाप के साथ
शायद बहस न उठ पाए इस बार
सड़कें करें याद
आवारगी में सराबोर पाँव
बेशक
मुश्किल हो उठेगा
एक झटके से हमेशा की तरह
पूरे संसार को पकड़ लाना अपने तक
कि ज़िंदगी को नथ डालने का सुरूर लेना ..."
जम्मू में नौकरी करने की जो उपलब्धियां रहीं, उनमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है, पंजाबी साहित्यकार/संस्कृतिकर्मी महिंद्र सिंह 'रंजूर' से मैत्री। औसत कद -काठी का अधेड़ पुंछी सिक्ख, जो अपनी कर्मठता की बदौलत, प्रत्येक संस्कृतिकर्मी की धमनियों में गूंजता । 'पंजाबी लेखक सभा' को निर्बाध गति से चलाने व इस संस्था का भवन बनाने की मशाल उठाए, वह जहाँ बैठता -बोलता, लोग सुनने को मजबूर हो जाते। मार्क्सवाद का एकनिष्ठ कारकून। जब इप्टा, जम्मू में दोहरे चेहरे वालों का बोलबाला हो गया तो उसके ही प्रयासों से 'संस्कृति मंच, जम्मू (समज )' की नींव रखी गयी। यह नाम भी उसी का दिया है।
वह मूलतः कहानीकार था। कविताएँ कम लिखीं, पर जो लिखा पत्थर पे लकीर। मध्यम किसानी परिवार से बावस्तगी रखता, वह एनसाइक्लोपीडिया रहा। हर जगह हाज़िर। उसकी चुप्पी भी बोलती। मुझे याद है, जब पहली बार मेरे दफ़्तर आकर मिला तो मैंने अपना पहला कविता-संग्रह भेंट किया। मैं, अपने कवि होने पर मुग्ध था। संग्रह गवर्नर -हाऊस में रिलीज हुआ था। उसने संग्रह लिया, कुछ नहीं बोला और चला गया। सच्चे कम्युनिस्ट लड़ीवार काम करते हैं। वह इसी की कोई श्रृंखला पकड़े था। मैं विद्यार्थी जीवन के स्टूडैंटस- स्ट्रगल का अभ्यस्त।कोट के कॉलर पर फख्र से मार्क्स-एजेल्स का बैच लगाए घूमता। यह तो कालान्तर में सिद्ध हुआ कि ऐसा बैच रूह पर लगता है।
मेरे और उसके जो सम्बन्ध रहे, वे शब्दातीत हैं। हमने मिलकर बहुत काम किया। सड़कों से लेकर दीवारों तक क्रांतिकारी स्लोगन लिखे। नुक्कड़ों/चौराहों पर गीत गाए, नाटक खेले, कविताएँ पढ़ीं। अखबारों में कॉलम लिखे। गाँव-गाँव लोगों के बीच गए, रहे। कई आयोजन किए आयोजनों में शामिल रहे। गदरी मेलों में दर्जनों बार 'शहीदे आज़म' भगत सिंह व 'पाश' से सम्बन्धित पोस्टर लगाए। जम्मू में पोस्टर-कविता को 'समज' के आयोजनों में प्रासंगिक बनाया। युवाओं को साथ जोड़ा, इत्यादि। उस समय कई पंजाबी-लेखक, रंजूर को पसंद नहीं करते थे। इसके पीछे की धार्मिक रूढ़िवादिता पर वह केवल हँसता।
जब मैं मुंबई में था, वह चला गया। दोस्त चिल्लाए, तुम विलाप नहीं करते। क्यों रोयूँ? वह अपनी शैली मुझे दे गया है।
अधिक नहीं, उसके जाने पर लिखी कविता; 'हमारा वसंत' पढ़ें।
| हमारा वसंत |
तुम्हें कहाँ से पकडूं रंजूर^
कहाँ से शुरू करूँ - कसम ले लो यार!
बिल्कुल नहीं रोया हूँ
चली गई है तुम्हारी देह
फोन पर दोस्तों ने बताया बार-बार
तुम्हारा अंतिम संस्कार
फूट-फूट बिलखता सामने खड़ा है घर-परिवार
नहीं रोया हिचकियां नहीं बंधी हैं
गश भी नहीं आया
यार मुर्दा होते समय की छाती के बीचों-बीच
जो जिंदगी का परचम हमने फहराया
उसे चूम-चूम आती
सहलाती रही हवा, हर बार
पूरा दिन बीता शीशा ताकते,
निहारते आंखों से माँगी भीख,
बेशक दो बूंद आँसुओं की
कंठ को वास्ते दिए
दोस्ती से लवरेज-आवारगी के
जग से छुपाए
मुलायम और फेनिल रहस्यों के
सच्ची यार!
एक चीख तक नहीं निकली
कैसे लूं, साधू कैसे ---
फरवरी के इस महीने को
वसंत भरे तेवर
हम जो पीते, सुड़कते रहे उम्र तमाम
अकेला, बेबस कर ही नहीं रहे
यही वे दिन हैं न
जब फुंकी देह दीप* की और
हमने चिता को ज़ोरदार सैल्यूट किया
लोगों ने उस रोज़
तवी** को हमारी आँखों से देखा
पसरी भयावह हुँआ-हुँआ में
उदास दिनों को खोल डालने का दम खम
हमारे ही माथों पर
मणि बन खिलता रहा है
यह हमारा ही वसंत रहा है
यहाँ, जोगियों ने जब छेड़ा तरन्नुम
समझदारों को तौफीक हुई
यहीं रची गईं बहारें नई-नई
ठठाकर, नौजवानों ने अंगड़ाई ली
नुक्कड़ों के ढाबे फूले-फले
और कच्ची-पकी रोटियों ने
भूख की तमीज हासिल की
तो इस सबको आज इकहरा जानूं क्यों
चुक चुका हमारा वसंत
मानूं क्यों ---
धुआं नहीं लग रहा है
श्मशान में वनस्पतियों को
तुम्हारी जलती देह का
नहीं हैं कहीं प्रेत-आत्माएं
सन्नाटा नहीं है
नहीं है निर्जन, उचाट, बियाबान
विलाप नहीं है
घूम रही है धरती निर्धारित कोण
पर दूर खारे महानगर में, मैं
तुम्हारे साथ
तुम मेरे साथ, रंजूर
ठीक उसी तरह
ओढ़े वसंत।
रंजूर^: मार्क्सवादी संस्कृतिकर्मी, पंजाबी लेखक
दीप*: मार्क्सवादी चिंतक, पत्रकार, डोगरी-ग़जल के गालिब
तवी** : जम्मू की प्राचीन नदी
दोस्तो, रंजूर आज भी साथ हैं। इधर उनकी हस्तलिखित एक सुन्दर कविता मिली, कुछ और दस्तावेज़ भी। कविता का अनुवाद हुआ, आपके लिए प्रस्तुत है:
| घर और सावन |
~ महेंद्र सिंह ' रंजूर '
~ महेंद्र सिंह ' रंजूर '
मेरे और घर वालों के लिए
सावन जब भी आया है
डर व ख़ौफ़ के काले बादल
साथ अपने लाया है
मेरे परिचित, संगी-साथी
इसी ऋतु वजूद में आएँ
झूम-झूम गीत सुनाएँ
वाह-वाही में डूबते जाएँ
शायद मोर ख़ुशी के अन्दर
पंख फैलाएँ नाचते आएँ
कोयलें आम की डाली से
चहचहाते गीत सुनाएँ
शायद, विरह की मारी
नई-नवेली दुल्हन
परदेसी पिया की याद में
मस्ती भरी अंगड़ाई लेती
आँखों में ही रात गुजारे
प्यारा उसका पर न आए
जब भी अंबर पर
सावन के बादल छाए हैं
मेरे घर वाले
बेहद घबराए हैं
निर्बल; बूढ़ा बापू
बदनसीबी की छत चढ़कर
किस्मत के दाने भूने है
अनहोनी कोई मेरे घर को
तबाह न कर दे
मौसम रहित माता मेरी
आस की कच्ची दीवार की दरारों का
मजबूरी सने कीचड़ के तोड़ निवाले
पेट भरे है
बिना लय आशाएँ देखती
सांस छोड़ती, बिन कुछ खाए
थकी-मांदी ही सो जाती है
और सोए भी बुदबुदाती है
मुआ सावन अभी न आए
मेरे, घर वालों के लिए...
बच्चा जन उठी मेरी बीवी
पीली, ज़र्द, डूबी आँखों से
देह अलसाई घसीट-घसीट कर
लहू की लोथ झोली में रखकर
छिपाए हुए छाती के नीचे
बादल की अँधेरी वेला में
सारी-सारी रात जागती
यही बोल, बोलती जाए
छत से टपकता पानी कहीं से
नवजात की देह पर पड़ न जाए
होंठ फिर उसके बुदबुदाएँ
मुआ सावन कभी न आए
कभी न आए...
सिम-सिम वर्षा का पानी
घर की छत पर
अजब नक्काशी उभार रहा है
कहीं मेरी गरीबी का हाथी
अडोल खड़ा, सूंड लटकाए
कहीं ज़रूरतों के सांप बैठे, फन फैलाए
कहीं साहस का शेर
भूखा-प्यासा भी मायूस नहीं है
इन्हें देखता वर्षों से, सो जाता हूँ
और जब आशा की पहली किरण
दीवार के छेदों से झांके
नई आस का पल्लू पकड़े
इक उम्मीद दिल में लेकर
घर से बाहर आ जाता हूँ
कैसे कहूँ फिर, सावन आ जाए
जहाँ देश के ज़्यादा लोग
कच्चे घरों में रहते
बाप मेरे से सारे बापू
बूढ़ी माँ सी सभी माताएँ
पत्नी, लड़कियां, सहमे बच्चे
डर, ख़ौफ की जून हैं भोगें
तो क्यों चाहें
मुआ सावन आ जाए
मेरे, घर वाले सभी...!
(रंजूर का चित्र वरिष्ठ पंजाबी साहित्यकार, फिल्मकार डा. बलजीत रैना ने अपनी पंजाबी पत्रिका "आबरू" के माध्यम से उपलब्ध कराया है। उनका हार्दिक आभार।)
सम्पर्क: 78894 74880