Thursday, December 26, 2024

फिलहाल - महिंद्र सिंह 'रंजूर'


 
"तब सही मायनों में होगी पहचान
जब दोस्त चला जाएगा
दोस्त के जाने के बाद
चाय के कप से उठती भाप के साथ
शायद बहस न उठ पाए इस बार
सड़कें करें याद
आवारगी में सराबोर पाँव
बेशक
मुश्किल हो उठेगा
एक झटके से हमेशा की तरह
पूरे संसार को पकड़ लाना अपने तक
कि ज़िंदगी को नथ डालने का सुरूर लेना ..."

जम्मू में नौकरी करने की जो उपलब्धियां रहीं, उनमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है, पंजाबी साहित्यकार/संस्कृतिकर्मी महिंद्र सिंह 'रंजूर' से मैत्री। औसत कद -काठी का अधेड़ पुंछी सिक्ख, जो अपनी कर्मठता की बदौलत, प्रत्येक संस्कृतिकर्मी की धमनियों में गूंजता । 'पंजाबी लेखक सभा' को निर्बाध गति से चलाने व इस संस्था का भवन बनाने की मशाल उठाए, वह जहाँ बैठता -बोलता, लोग सुनने को मजबूर हो जाते। मार्क्सवाद का एकनिष्ठ कारकून। जब इप्टा, जम्मू में दोहरे चेहरे वालों का बोलबाला हो गया तो उसके ही प्रयासों से 'संस्कृति मंच, जम्मू (समज )' की नींव रखी गयी। यह नाम भी उसी का दिया है।

वह मूलतः कहानीकार था। कविताएँ कम लिखीं, पर जो लिखा पत्थर पे लकीर। मध्यम किसानी परिवार से बावस्तगी रखता, वह एनसाइक्लोपीडिया रहा। हर जगह हाज़िर। उसकी चुप्पी भी बोलती। मुझे याद है, जब पहली बार मेरे दफ़्तर आकर मिला तो मैंने अपना पहला कविता-संग्रह भेंट किया। मैं, अपने कवि होने पर मुग्ध था। संग्रह गवर्नर -हाऊस में रिलीज हुआ था। उसने संग्रह लिया, कुछ नहीं बोला और चला गया। सच्चे कम्युनिस्ट लड़ीवार काम करते हैं। वह इसी की कोई श्रृंखला पकड़े था। मैं विद्यार्थी जीवन के स्टूडैंटस- स्ट्रगल का अभ्यस्त।कोट के कॉलर पर फख्र से मार्क्स-एजेल्स का बैच लगाए घूमता। यह तो कालान्तर में सिद्ध हुआ कि ऐसा बैच रूह पर लगता है।

मेरे और उसके जो सम्बन्ध रहे, वे शब्दातीत हैं। हमने मिलकर बहुत काम किया। सड़कों से लेकर दीवारों तक क्रांतिकारी स्लोगन लिखे। नुक्कड़ों/चौराहों पर गीत गाए, नाटक खेले, कविताएँ पढ़ीं। अखबारों में कॉलम लिखे। गाँव-गाँव लोगों के बीच गए, रहे। कई आयोजन किए आयोजनों में शामिल रहे। गदरी मेलों में दर्जनों बार 'शहीदे आज़म' भगत सिंह व 'पाश' से सम्बन्धित पोस्टर लगाए। जम्मू में पोस्टर-कविता को 'समज' के आयोजनों में प्रासंगिक बनाया। युवाओं को साथ जोड़ा, इत्यादि। उस समय कई पंजाबी-लेखक, रंजूर को पसंद नहीं करते थे। इसके पीछे की धार्मिक रूढ़िवादिता पर वह केवल हँसता।

जब मैं मुंबई में था, वह चला गया। दोस्त चिल्लाए, तुम विलाप नहीं करते। क्यों रोयूँ? वह अपनी शैली मुझे दे गया है। 
अधिक नहीं, उसके जाने पर लिखी कविता; 'हमारा वसंत' पढ़ें।


| हमारा वसंत |


तुम्हें कहाँ से पकडूं रंजूर^
कहाँ से शुरू करूँ - कसम ले लो यार! 
बिल्कुल नहीं रोया हूँ 
चली गई है तुम्हारी देह

फोन पर दोस्तों ने बताया बार-बार 
तुम्हारा अंतिम संस्कार 
फूट-फूट बिलखता सामने खड़ा है घर-परिवार

नहीं रोया हिचकियां नहीं बंधी हैं 
गश भी नहीं आया 
यार मुर्दा होते समय की छाती के बीचों-बीच 
जो जिंदगी का परचम हमने फहराया 
उसे चूम-चूम आती 
सहलाती रही हवा, हर बार

पूरा दिन बीता शीशा ताकते, 
निहारते आंखों से माँगी भीख, 
बेशक दो बूंद आँसुओं की 
कंठ को वास्ते दिए

दोस्ती से लवरेज-आवारगी के 
जग से छुपाए 
मुलायम और फेनिल रहस्यों के 
सच्ची यार! 
एक चीख तक नहीं निकली

कैसे लूं, साधू कैसे --- 
फरवरी के इस महीने को 
वसंत भरे तेवर 
हम जो पीते, सुड़कते रहे उम्र तमाम 
अकेला, बेबस कर ही नहीं रहे

यही वे दिन हैं न 
जब फुंकी देह दीप* की और 
हमने चिता को ज़ोरदार सैल्यूट किया 
लोगों ने उस रोज़ 
तवी** को हमारी आँखों से देखा

पसरी भयावह हुँआ-हुँआ में 
उदास दिनों को खोल डालने का दम खम 
हमारे ही माथों पर 
मणि बन खिलता रहा है 
यह हमारा ही वसंत रहा है

यहाँ, जोगियों ने जब छेड़ा तरन्नुम 
समझदारों को तौफीक हुई 
यहीं रची गईं बहारें नई-नई 
ठठाकर, नौजवानों ने अंगड़ाई ली 
नुक्कड़ों के ढाबे फूले-फले 
और कच्ची-पकी रोटियों ने 
भूख की तमीज हासिल की

तो इस सबको आज इकहरा जानूं क्यों 
चुक चुका हमारा वसंत 
मानूं क्यों ---

धुआं नहीं लग रहा है 
श्मशान में वनस्पतियों को 
तुम्हारी जलती देह का 
नहीं हैं कहीं प्रेत-आत्माएं 
सन्नाटा नहीं है 
नहीं है निर्जन, उचाट, बियाबान 
विलाप नहीं है

घूम रही है धरती निर्धारित कोण 
पर दूर खारे महानगर में, मैं 
तुम्हारे साथ 
तुम मेरे साथ, रंजूर 
ठीक उसी तरह 
ओढ़े वसंत।

रंजूर^: मार्क्सवादी संस्कृतिकर्मी, पंजाबी लेखक
दीप*: मार्क्सवादी चिंतक, पत्रकार, डोगरी-ग़जल के गालिब
तवी** : जम्मू की प्राचीन नदी



दोस्तो, रंजूर आज भी साथ हैं। इधर उनकी हस्तलिखित एक सुन्दर कविता मिली, कुछ और दस्तावेज़ भी। कविता का अनुवाद हुआ, आपके लिए प्रस्तुत है:  

| घर और सावन
~ महेंद्र सिंह ' रंजूर ' 


मेरे और घर वालों के लिए
सावन जब भी आया है
डर व ख़ौफ़ के काले बादल
साथ अपने लाया है

मेरे परिचित, संगी-साथी
इसी ऋतु वजूद में आएँ
झूम-झूम गीत सुनाएँ
वाह-वाही में डूबते जाएँ

शायद मोर ख़ुशी के अन्दर
पंख फैलाएँ नाचते आएँ
कोयलें आम की डाली से
चहचहाते गीत सुनाएँ
शायद, विरह की मारी
नई-नवेली दुल्हन 
परदेसी पिया की याद में
मस्ती भरी अंगड़ाई लेती
आँखों में ही रात गुजारे
प्यारा उसका पर न आए
जब भी अंबर पर
सावन के बादल छाए हैं
मेरे घर वाले
बेहद घबराए हैं

निर्बल; बूढ़ा बापू
बदनसीबी की छत चढ़कर
किस्मत के दाने भूने है
अनहोनी कोई मेरे घर को
तबाह न कर दे
मौसम रहित माता मेरी
आस की कच्ची दीवार की दरारों का
मजबूरी सने कीचड़ के तोड़ निवाले
पेट भरे है
बिना लय आशाएँ देखती
सांस छोड़ती, बिन कुछ खाए
थकी-मांदी ही सो जाती है
और सोए भी बुदबुदाती है
मुआ सावन अभी न आए
मेरे, घर वालों के लिए...

बच्चा जन उठी मेरी बीवी
पीली, ज़र्द, डूबी आँखों से
देह अलसाई घसीट-घसीट कर
लहू की लोथ झोली में रखकर
छिपाए हुए छाती के नीचे
बादल की अँधेरी वेला में
सारी-सारी रात जागती
यही बोल, बोलती जाए
छत से टपकता पानी कहीं से
नवजात की देह पर पड़ न जाए
होंठ फिर उसके बुदबुदाएँ
मुआ सावन कभी न आए
कभी न आए...

सिम-सिम वर्षा का पानी
घर की छत पर
अजब नक्काशी उभार रहा है
कहीं मेरी गरीबी का हाथी
अडोल खड़ा, सूंड लटकाए
कहीं ज़रूरतों के सांप बैठे, फन फैलाए
कहीं साहस का शेर 
भूखा-प्यासा भी मायूस नहीं है

इन्हें देखता वर्षों से, सो जाता हूँ
और जब आशा की पहली किरण
दीवार के छेदों से झांके
नई आस का पल्लू पकड़े
इक उम्मीद दिल में लेकर
घर से बाहर आ जाता हूँ
कैसे कहूँ फिर, सावन आ जाए

जहाँ देश के ज़्यादा लोग
कच्चे घरों में रहते
बाप मेरे से सारे बापू
बूढ़ी माँ सी सभी माताएँ
पत्नी, लड़कियां, सहमे बच्चे
डर, ख़ौफ की जून हैं भोगें
तो क्यों चाहें
मुआ सावन आ जाए
मेरे, घर वाले सभी...!

(रंजूर का चित्र वरिष्ठ पंजाबी साहित्यकार, फिल्मकार डा. बलजीत रैना ने अपनी पंजाबी पत्रिका "आबरू" के माध्यम से उपलब्ध कराया है। उनका हार्दिक आभार।)



प्रस्‍तुति-


मनोज शर्मा
सम्पर्क: 78894 74880

Saturday, September 14, 2024

फिलहाल: सदी का बेजोड़ कवि–सुरजीत पातर



(सन 2022 में  पंजाबी यूनिवर्सिटी पटियाला में आयोजित एक कार्यक्रम में हिस्‍सा लेने पहुंचे सुरजीत पातर। )


'ये जो धमनियों में उलीके धुल जाएँगे
जो संगमरमर पे खुदे हैं मिट जाएँगे
जलते हाथों ने जो हवा में लिखे
शब्द वही हमेशा लिखे जाएँगे।'

पातर, नक्सली - लहर से उठे कवियों में से हैं। इसी लहर में पंजाबी - कवि; लाल सिंह दिल, संतराम उदासी, पाश, अमरजीत चंदन, दर्शन खटकड़ आते हैं, किंतु पातर का एक अपना स्वर भी है। 

पंजाबी - साहित्य पर; विशेषकर पंजाबी - कविता पर 1967 से लेकर 1972 - 73 तक के कालखंड ने मानवीय मूल्यों, दृष्टिकोण, एस्थेटिक - सेंस इत्यादि को गहराई से प्रभावित किया। यह कविता काफी वाद - विवाद का विषय भी रही। पश्चिमी  - विचारधारा से उपजे व्यक्तिवादी दर्शन के समर्थकों ने इस प्रखर - बोध का खुला विरोध किया। फिर भी यह कविता आम नागरिक के हक में स्थापित होती चली गयी। यह सृजन - प्रक्रिया का भी नया दौर सिद्ध हुआ। जहाँ कविता में समस्याएँ उठाकर बिलखा नहीं जाता; बल्कि एक नयी तरह की काव्य - भाषा संग उनसे टकराया जा सकता है। इस कविता ने सिद्ध किया कि कैसे नया सौन्दर्य - बोध रचा जा सकता है। इसने व्यक्तिवाद को पूरी तरह से नकार दिया व पूंजीवाद के प्रचलन को तार - तार कर दिया। पंजाब में 'हरित - क्रांति' ने जो धनाढ्य ज़मींदार - बड़े किसानों को और बलशाली बनाया था, वहाँ यह लहर, आर्थिक - सामाजिक - राजनैतिक स्तर पर एक ज़बरदस्त रूझान लेकर उठी। वर्ग - संघर्ष मुखर हुआ। इस दौर की  पंजाबी - कविता ने पुराने रोमांटिसिज्म को भंग करके, नयी मौलिक भूमिका की संरचना की।

सुरजीत पातर इस प्रवृत्ति की कविता के मुख्य स्वरों में से एक रहे हैं। वे शोषक और पीड़ित, तानाशाही व मानवता, लूट - खसूट व मूल्य - बोध को आमने - सामने रखकर एक निरपेक्ष पड़ताल करते कवि हैं। वे प्रकृति को औज़ार के रूप में उठाकर, अपनी कविता को जन - साधारण की सोच में उतारते गए।

'मैं बनाऊँगा हज़ारों बांसुरियां
मैंने सोचा था
देखा तो दूर तक बांस का जंगल जल रहा था
आदमी की प्यास कैसी थी कि सागर कांपते थे
आदमी की भूख कितनी थी कि जंगल डर गया था।'

कहना न होगा कि जैसे पंजाबी - कवि 'पाश' विश्व - कविता में अपना विशेष स्थान रखते हैं, वैसा ही स्थान ' पातर ' भी बनाते हैं। जहाँ उनकी शुरूआती कविताएँ पीड़ित जन - समाज को एक चित्रात्मक भाषा में बुनती हैं, वहीं कालांतर में उनकी कविता में व्यक्ति का अकेलापन, पंजाब से रोज़ी - रोटी की तलाश में विदेशों में भटकते युवक, उनका वापस लौटना व बेबसी, उदासी वगैरह मुखर होने लगते हैं। वे मूलतः गीत / प्रगीत के कवि हैं और इस कविता में वृक्ष, राह, कब्रें नया मेटाफर सृजित करते हैं। वे 'स्व' को भी अपनी तरह से परिभाषित करते, निजता को नवीनता प्रदान करते हैं।

'मेरा सूरज डूबा है तेरी शाम नहीं है
तेरे सर पे तो सेहरा है, इल्ज़ाम नहीं है।'

इस तथ्य को पुनः रेखांकित करना बनता है कि वे, गहन यथार्थ - बोध के कवि हैं। संघर्षशील संकल्प के दौर ने उन्हें जो चेतना दी, वहाँ जीवन की त्रासदी, उनकी कविता में ऐसा तनाव रचती है, जो जीवन को अर्थबोध तो प्रदान करता ही है, परिवर्तन की ओर भी अग्रसर करता है, ऐतिहासिक बनाता है।

वे, मानव - निर्मित बांट का खुलकर विरोध करते ही हैं, इसे एक सामाजिक - सांस्कृतिक संकट भी मानते हैं। वे इसके परिणाम दूर तक देखते हुए, आने वाली उथल - पुथल की ओर बाकायदा इंगित करते हैं।

'तब वारिश शाह को बांटा था
अब शिव कुमार की बारी है।'

जो नयी काव्य - भाषा हमें इस काल की कविता में मिलती है, वहाँ भी पातर, कुछ अलग हो स्थापित होते हैं। यह मानवता के साथ, प्रकृति के साथ, सच के साथ गहन जुड़ाव के कारण संभव होता है।

'मैं तो सड़कों पे बिछी वृक्ष की छाँव हूँ,
मैंने नहीं मिटना सौ बार निकल मसल कर।'

उनकी स्मृति को बार - बार नमन।

("उदभावना" से साभार)

|| साईं जी || 

धूनी साईं जी के आगे नहीं, अन्दर सुलगती है
साईं जी, कभी कभी
बेहद उदास आवाज़ में गाते हैं
तो अपनी ही आंतों का साज बजाते हैं
गाते-गाते साईं जी चुप हो जाते हैं
उस चुप्पी में एक साज बजता सुनाई देता है
वह साज दिखता तो नहीं
पर सुनें तो महसूस होता है
कब्र से लेकर अँधेरे आसमान तक
लम्बी, काली, स्याह तारें हैं
तारों में घूमते तारे आपस में टकराते हैं
चाँद गूँजता है
हज़ारों मर गए जीते मुँहों का आलाप जागता है
कभी कभी यूँ लगता है
वृक्ष जामुनी फूलों से भर गए हैं
माताएँ अपने शिशुओं को छाती से लगाए
मर्द कांधे से
रात काट रहे हैं
फिर लगता है
किसी का चाँद धरती पर पड़ा है
वैसे वहाँ पर किसी की दुःखी देह झुकी है
उदास कई छातियां उठी हैं
खिन्न दूध की बूंदों से
क्रंदन के आसुओं में लिप्त
लोरियों व विलाप से भरे पड़े हैं
और सड़ चुके हैं फल

साईं जी
सुबह हो गई
चलें, स्कूल जाकर शिक्षा के जिज्ञासुओं को पढ़ाना है
लगता है आज नहीं जाओगे
यही सोचते हो न, जाकर क्या पढ़ाओगे...
उगते उदास पौधों में पानी पाओगे
मुरझाते फूलों को कर्तावाचक व कर्मवाचक ढंग सिखाओगे
अँधेरे की पुस्तक के किसी पन्ने को खोल
उसमें
दिल की कालिख मिलाओगे
सच बताना, साईं जी यही सोचते हो न 
लगता है आज मुझसे भी न बोलोगे
वैसे बोलने को रहा भी क्या है
हमें तो प्रतीक्षा ही रही
कि आप सुलगते हो तो एक दिन
लपटों से जलोगे भी
मशाल उठाकर चलोगे
राह दिखाओगे
उदासी की कैद से रिहाई पाओगे
अन्य लाखों को मुक्त कराओगे

पर लगता है
आप बेड़ियों, हथकड़ियों संग ही चले जाओगे
पीछे रह जाएँगी
खून से लिखी पंक्तियाँ
आप स्याही से
माथे के उजाले लिखते हो
ख्यालों को कुछ तो सुलझाओगे
दुःख के गर्भ से बाहर आओगे

इस तरह साईं जी, बड़ी देर
अपने आपको कोसते रहे
फिर चल पड़े, स्कूल की ओर
वहाँ, जहाँ शिक्षार्थी ज्ञान के कोरे कागज़ से थे
भोली, जिज्ञासु आँखें थीं 
और साईं जी ने कहा
प्यारे बच्चो, लिखो
अपनी जान का खौफ
शिशुओं के चेहरे
अपने नाम का मोह
व, नाशवान इच्छाएं
फिर चारदीवारी, जो उम्र भर व्यक्ति को
कैद में रखती है

नहीं! यह काट दो
लिखो, हमारा निज़ाम ऐसा है
कि इसमें व्यक्ति को
अपनी हज़ारों ख्वाहिशों का
दमन करना पड़ता है
यह दमन की ही उदासी है
यही दहशत है, लिखो

नहीं, यह भी नहीं
यह लिखो
फिर, साईं जी बड़ी देर, कुछ न बोले
शायद वह अपने मन की बावड़ी की
सीढ़ियां उतरने लग पड़े थे
जहाँ, उदास माताओं के आँसुओं का पानी था
वह, साईं जी का तीर्थ था
उनकी दरगाह!
जब साईं जी उदास
दरगाह से लौटेंगे
तो उदास गीत गाएँगे
फिर गाते गाते चुप कर जाएँगे

उनकी चुप्पी में
वह साज बजता सुनाई पड़ेगा
जो दिखाई तो नहीं देता
पर सुनाई पड़ता है
उस साज की
कब्र से लेकर, अँधेरे आसमान तक
लम्बी काली स्याह तारें हैं
तारों में घूमते सितारे टकराते हैं
चाँद गूँजता है
हज़ारों मृत पड़े हैं
जीवित मुँहों का आलाप जागता है।
  

|| अब घरों को लौटना मुश्किल है || 


ब घरों को लौटना बहुत मुश्किल है
हमें कौन पहचानेगा...

माथे पर मौत दस्तख़त कर गई है
चेहरे पर यार, पावों के निशान छोड़ गए हैं
शीशे में से कोई और झांकता है 
आँखों में कोरी चमकाहट है
किसी ढह गए घर की छत है
आती रौशनी सी

डर जाएगी माँ 
मेरा पुत्र मुझसे बड़ी उम्र का
कौन से साधु का श्राप
किस शरीकन* चंदरी के टूने** से हुआ
अब घरों को लौटना ठीक नहीं है

इतने डूब चुके हैं सूरज
इतने मर चुके खुदा
जीवित माँ को देख
अपने या उसके प्रेत होने का भ्रम होगा
जब कोई मित्र पुराना मिलेगा
अंतस तक से बेहद याद आएगा
अर्से का मर चुका मोह
रोना आएगा तो फिर याद आएगा
आँसू तो मेरे दूसरे कोट की जेब में रखे ही रह गए

जब ईसरी चाची
आशीषों से सर सहलाएगी
अपनी ही लाश ढोता आदमी
पति की जलती चिता पर मांस पकाती औरत
किसी हैमलेट की माँ
सर्दियों में व्यक्तियों की चिता सेंकने वाला रब्ब

जिन आँखों ने देखें हैं दुःख 
अपने बचपन की तस्वीर से
कैसे मिलाऊँगा आँखें
अपने छोटे से घर में
शाम को जब मड़ी^ पर दीपक जलेगा
गुरुद्वारे में शंख बजेगा
वह बहुत आएगा याद
वह कि जो मर गया है
जिसकी मौत का 
इस बसी बसाई नगरी में
केवल मुझे पता है

यदि किसी ने अभी मेरे मन की तलाशी ले ली
बहुत अकेला रह जाऊँगा
किसी दुश्मन देश के जासूस की तरह
अब घरों में रहना आसान नहीं है

चेहरे पर यार निशान छोड़ गए हैं
पाँवों के निशान
शीशे में से कोई और झांकता है
कौन हमें पहचानेगा!
  
*शरीकन- सम्बन्धी, जो ज़मीन, जायदाद के कारण शत्रु बन जाते हैं।
**टूना-जादू-टोना
^मड़ी- कब्र

|| शहीद ||


सने कब कहा था : मैं शहीद हूँ।
उसने केवल यह कहा था 
फाँसी का रस्सा चूमने से कुछ दिन पहले :
कि मुझसे बढ़कर कौन होगा भाग्यशाली
मुझे आजकल नाज़ है अपने आप पर
अब तो बेताबी से
अंतिम परीक्षा की प्रतीक्षा है मुझे।

वह अंतिम परीक्षा में से
वह इस शान से उत्तीर्ण हुआ
कि माँ को अपनी कोख पर फख्र हुआ

उसने कब कहा था : मैं शहीद हूँ।
शहीद तो उसे सतलुज की गवाही पर
पाँचों दरियाओं ने कहा था
गंगा ने कहा था
ब्रह्मपुत्र ने कहा
शहीद तो उसे वृक्षों के पत्ते पत्ते ने कहा था

आप अब धरती से झगड़ पड़े हो
आप अब दरियाओंं से लड़ पड़े हो
आप अब वृक्षों के पत्तों से संग्राम कर रहे हो
मैं बस आपके लिए दुआ ही कर सकता हूँ
कि ईश्वर आपको धरती की बद्दुआ से बचाए
महानदों के श्राप से 
वृक्षों के अभिशाप से!
  
मूल (पंजाबी) : सुरजीत पातर 




अनुवाद 
(हिन्दी) 
: मनोज शर्मा 
संपर्क: 7889474880

Tuesday, June 11, 2024

ग्रामीण-चेतना के कवि : भानु प्रकाश रघुवंशी


'न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन' ने ' समकाल की आवाज़' श्रृंखला के अंतर्गत, हमारे समय के एक ज़रूरी कवि, 'भानु प्रकाश  रघुवंशी' की चयनित कविताएँ प्रकाशित की हैं। आज इसी पर बात करूँगा। आलोच्य कवि का जन्म 01 जुलाई 1972 को गाँव 'पाटई' (जिला अशोकनगर) में हुआ। भानु सभी महत्त्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर छपे हैं। इसके अलावा अनेक साझा संकलनों में इनकी कविताएँ दर्ज़ हैं। विगत वर्ष इनका कविता-संग्रह, 'जीवन राग' आया, इस पर बात होनी चाहिए। भानु प्रकाश 'इप्टा' व 'प्रलेस' से जुड़े हैं। स्वयं भी अभिनय करते हैं। इस सब के आलोक में इनके संग्रह से गुजरना हुआ। इस गुजरने के उपरांत, एक तथ्य स्पष्ट रूप से उभरता है कि भानु प्रकाश की कविताएँ चाक्षुष हैं। यहाँ संवेदना की बारीकी व्याप्त है। वे धरतीपुत्र हैं। सामान्य जन के कवि हैं। यही उनका वर्ग-चरित्र-बोध है। यहाँ एक ग्रामीण साहस हुंकार भरता है तथा जीवन का ओज, अपने ठेठ व स्थानीयता में मिलता है।

'एक उड़ान में न पहुँची हो हज़ारों मील
पर चिड़िया चुनौती देती है वायुयान को
पहाड़ की दुर्लभ चोटियों पर
चीटियां पहुँच गई रेंगते हुए
आँधी में उठकर ही सही
कीट-पतंगों ने छू लिया आसमान
सदियों से चूहे बगैर उकताए
खोद रहे हैं पाताल पहुँचने के लिए सुरंग...' 
(चुप रहना शालीनता नहीं)

वे अपने आत्मकथ्य में लिखते हैं, "मेरे जेहन में यह बात कभी नहीं आई कि मुझे आत्मकथ्य भी लिखना चाहिए। जो धरती की पीठ पर हल की नोक से जीवनराग लिखता हो, जिसे अन्न के दानों की महक से सुख-दुःख का आभास होता हो उसका कैसा आत्मकथ्य... मुंशी प्रेमचंद जी ने आज़ादी के पूर्व के जिस ग्रामीण भारत की जागृति के लिए साहित्य-सृजन किया; वह ग्रामीण-भारत आज भी उसी दमघोंटू आवोहवा में सांस ले रहा है। ज़मींदारी चली गई, ज़मींदार मर गए पर उनके वंशज तो अब भी यहीं हैं। श्रमिक-वर्ग आज भी उपेक्षित है। आज भी एक विद्यार्थी अपने शिक्षक के मटके से पानी पीने की सज़ा पाता है। ... कोई कवि या रचनाकार अपनी लेखनी से दुनिया को नहीं बदल सकता पर इतना तो ज़रूर कर सकता है कि वह लोगों को नई सोच, नई दृष्टि प्रदान करे। लेखक कुछ हद तक विपक्ष की भूमिका निभाता है। ..."

"... तुम्हारे हृदय की घिनौची पर रखे
उदारता के घड़े रीत चुके हैं
तुम्हारी रसोई में
हमारे पसीने से ही गूंथा जा रहा है आटा
चुराई जा रही है दाल
और सिर्फ़ तुम जानते हो
यह राज की बात
कि गन्ने की तरह निचोड़ी गई
हमारी देह के नमक से
बढ़ती जा रही है तुम्हारे रक्त में
शूगर की मात्रा
जबकि दुनिया की तमाम सेठानियों को भी
रोटियां चबाते हुए नहीं आया
हमारे पसीने का स्वाद
नमकीन सा, खारा... खारा..."
(इस सत्य को कभी स्वीकारा नहीं गया)

भानु जी के पास 'प्रेम' के विविध शेड्स भी मिलते हैं। कहना न होगा कि जो कवि प्रेम करना जानता है, वही सामाजिक-मुक्ति का सपना देख सकता है। वरिष्ठ आलोचक अरविंद त्रिपाठी लिखते हैं, "एक ऐसे दौर में जब प्रेम करने का ठेका कसाई ने ले रखा है, तब कवि की ही आवाज़ शेष बची है...।" (कवियों की पृथ्वी)

भानु कहते हैं : 

"... अब,
मैं पीपल के पत्तों पर प्रेम-पत्र लिखकर
नदी में बहा देता हूँ हर रोज़
सुना है तुम समुद्र बन गई हो
अनन्त गहराइयों में छुपा लिया है
हमारा प्रेम"
(पुराने घर का प्रेम)


***

"एक दिन उसने
कुछ तारे टांक दिए
मेरी कमीज़ में
चाँद को उसने
बालों में सजा लिया
उस रात
आसमान छप्पर में उतर आया
जब अलगनी से उतार कर
धरतीं को बिछाया हमने।"
(उस दिन)

ग्रामीण-जन को हर रोज़ कैसी-कैसी मुश्किलों से जूझना पड़ता है, इसे नागर परिवेश के अभ्यस्त नहीं जान सकते। उनके कष्ट, उनकी चिंताएँ , उनकी आशाएँ, उनके सपने हमारे महादेश के उस सच से साक्षात्कार कराते हैं, जिसके लिए एक किताबी सा मुहावरा प्रचलित है कि भारत, गावों में बसता है। भानु प्रकाश ने उच्च-शिक्षा प्राप्त करने के बावजूद किसानी-जीवन का वरण किया। तभी साधिकार कहा जा सकता है कि वे सामाजिक विडंबना के कवि हैं। वे; समय के भदेस, क्रूरता, अमानवीयता के बरक्स असहमति बुनने का हौंसला उठाते हैं।

"धूप इतनी तेज़ की कपड़ों से
उतर रहे हैं रंग
मेरे गोरेपन पर चढ़ गई गेंहुआ परत
माँ कुएँ की तलहटी में झांककर
देख अपने तलवों की बिवाइयों का अक्स खाली घड़ा उठाए लौट आई है।..."

यही साधारणता उन्हें हिंदी-कविता में विरल स्थान देती है। इस संग्रह में वे कई बार अपनी विशिष्ट मनोभूमि को शब्दों में आकार देते हैं। एक नयी आस्था की ओर अग्रसर होते मिलते हैं। ग्रामीण मिट्टी की ख़ुशबू, उनमें सम्बन्धों की सुगंध का संचार करती है। इसीलिए उनके पास प्रकृति अपने तमाम ओज सहित आती है और वे जीवन को घूंट-घूंट भरते हैं। वे; प्रतीकों के ज़रिए, स्थितियाँ स्पष्ट करते, महासवाल की मशाल दहकाते हैं।

"अनवरत बहता झरना
जो सूख चुका है
किसान के आँसुओं की तरह
बारिश के इंतज़ार में
कुछेक गड्डों में भरा पानी
रहस्यमयी आईने की तरह रहा
बच्चों के लिए
आसमान इन्हीं में झांकता रहा
कनखियों से, सबसे गर्म दिनों में..."
(बारिश के ठीक पहले का दृश्य)

कवि का देसीपन महज़ सहानुभूति ही नहीं जगाता, अनुभूति के उस तीखेपन का अहसास भी कराता है, जो गाँव-गाँवका नँगा सच है। यहाँ यातनाओं की दर्जनों निर्मित शाखाएं हैं। संग्रह में कवि इन पीड़ाओं, संत्रास, सत्ता के दोगलेपन को बिना किसी स्लोगन या घोषणा के पाठक के बोध में सरकाता, उसे अपनी यात्रा में शामिल कर लेता है।

"बालियों में पक चुके अन्न के दानों की महक से
लहकने लगा है पूरा गाँव
कमर में हंसिया खोंस
होली के गीत गाते चैतुआ
टोलियों में जा रहे हैं, खेतों की ओर
आंगनबाड़ी बिल्डिंग के अहाते में
एक बच्चा भूख से बिलख रहा है
दूसरा आँसू पोंछ रहा है
फटी कमीज़ की बांह से

...
फ़सल कटाई के पहले दिन ही
चील गिद्धों की तरह तपने लगे हैं
राशन चोरों के कान
कई चँदा चोर और भंडारा आयोजकों की
बांछें खिल उठी हैं अन्न के दानों की महक से
बाहरी लोगों का आना-जाना काफी बढ़ा है
इन दिनों, गाँव में..."

भानु प्रकाश, ग्रामीण-संस्कारों में व्याप्त भाषा को साधिकार अपनी कविता में स्थान देते है। 'खीसा', 'ओंठ पपड़ा जाते', 'नदी बिला गयी है' जैसी अनेक उक्तियां/ शब्द यहाँ मिलते हैं। गर्मी के फैलते हाहाकार में, एक खेतीहर कवि सुचेत करता है: 

"कई ग़ैर-ज़रूरी रिवाज़ों को छोड़
किसी के जन्मोत्सव या मृत्यु-दिवस पर
पेड़ लगाने के रिवाज़ को
कायम रखने की वकालत
करते रहे मरते दम तक
पिता जानते थे पेड़ों की कीमत ... "
(पिता जानते थे)

इन कविताओं की रेखांकित करने वाली यह बात भी है कि कवि फोटोजेनिक, दृश्यबंध बनाता है। वे, हमें उन रंगों, रूपों-भावों तक पहुँचाते हैं, जो जैसे सामने-सामने घटित हो रहे हैं: 

"... सारी भिन्नताओं के बीच भी एक समानता देखी जाती है
कि जब धरती पर मारी जाती है एक भी चिड़िया
शोक में, विलाप में
वे सब एक साथ होती हैं
शिकारियों के ख़िलाफ़ विद्रोह में...। "
(अनेकता के भाव) 

***

"कविताएँ, दुःख के समय में
पुराने मित्र की तरह आती हैं
गले मिलते ही रो पड़ते हैं हम
वे सांत्वना देती हैं
सहारा देती हैं खड़े रहने का...।"
(कविताएँ)

यूँ तो, उनकी सभी कविताएँ पढ़े जाने की माँग करती हैं, मगर 'तुम परमा को नहीं जानते', 'बचे रहना एक कला है', 'पिता को याद करते हुए' के पाठ ने मुझे बार-बार आमंत्रित किया। 

समापन करते हुए, दोहराता हूँ कि यह कविता आम के ओज व सौंदर्य-बोध की कविता है। यहाँ कवि तमाम उपस्थिति की विसंगतियों के ख़िलाफ़ ग्रामीण-चेतना में शिल्प रचता हुआ, जूझने का जोखिम उठाता है। प्रासंगिक यह है कि कवि ख़ुद को किसी भी तरह से अकेला नहीं पाता। सामूहिकता की इस भावना को सलाम: 

"मेरी उदासी में शामिल होता है
एक, बादल का टुकड़ा
तालाब का किनारा
कुछ अनमने से दूर खड़े दरख़्त
और चाँद
जो मेरे एकांत के छज्जे पर
आ खड़ा होता है उठाए अँधेरे का भार "
(मैं जब भी होता हूँ उदास)
    


चयनित कविताएँ / भानु प्रकाश रघुवंशी
प्रकाशक : न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन, नयी दिल्ली
मूल्य : रू 200 /-
मो.9893886181

- मनोज शर्मा

Sunday, May 12, 2024

ललन चतुर्वेदी

जन्म: मुजफ्फरपुर (बिहार) के पश्चिमी इलाके में नारायणी नदी के तट पर स्थित बैजलपुर ग्राम में 
शिक्षा: एम.ए. (हिन्दी), बी एड., विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की नेट जेआरएफ परीक्षा उत्तीर्ण 

प्रकाशित कृतियाँ : प्रश्नकाल का दौर (व्यंग्य संकलन), ईश्वर की डायरी तथा यह देवताओं का सोने का समय है (कविता संग्रह)  एवं साहित्य की स्तरीय पत्रिकाओं तथा प्रतिष्ठित वेब पोर्टलों पर कविताएं एवं व्यंग्य प्रकाशित। 
संप्रति : राजभाषा हिन्दी एवं अनुवाद कार्य में संलग्न और सेवारत।

लंबे समय तक राँची में रहने के बाद पिछले पाँच वर्षों से बेंगलूर में निवास ।



|| घर || 

- एक -

भी कहीं से 
लौटता हूं तो लगता है
माँ अपनी बाहों में भर रही है।  

- दो -

सुंदर महानगर 
भव्य इमारतें 
मनोरम पार्क या 
जिसे हम कहते हैं दुनिया का स्वर्ग 
उनमें बिचडरते हुए 
जिसे मैं नहीं भुला पाता 
वह अपना घर ही तो है। 

- तीन -

ब से छुटा है
तब से कितने शहरों के कितने मकानों में
ढूंढता रहा हूं घर
हमेशा महसूस हुआ
घर ढूंढना दुनिया का बहुत कठिन काम है
और घर यदि मिल भी जाए तो
घर बसाना उससे भी कठिन काम है
जैसे ही घर बसने को होता है
आंधी ठीक उसी समय आती है
उजड़ जाता है बसा- बसाया घर
और फिर घर ढुंढना शुरू हो जाता है
इतना ही समझा
घर हमारी कल्पनाओं में बसता है
या बसता है हमारे सपनों में
घर खोजने की असफल कोशिश में
तन-मन जब पूरी तरह थक जाता है
कोई दूर से पुकारता है-
शाम होने को है,आओ अपने घर चलो। 


|| समय || 


प बड़े हो सकते हैं
इसका यह अर्थ नहीं कि
दूसरा कोई आप से छोटा है

आप खरे हो सकते हैं
इसका यह मतलब नहीं कि
दूसरा कोई निहायत खोटा है

समय ने अपनी कसौटी पर
अनगिनत लोगों को परखा है
अनगिनत लोगों को जाँचा-तोला है

समय बड़ा निर्मम है, निर्भय है
इसने बड़ी-बड़ी हस्तियों का
बीच बाजार में भेद खोला है।


|| अकारण || 


कारण किसी का जन्म नहीं होता
मौत भी नहीं होती अकारण
अकारण फूल भी नहीं खिलते
अकारण काँटे भी नहीं उगते
गौर से समझो निरर्थक का अर्थ
वहाँ भी अर्थ छुपा बैठा होता है
अगर ढूँढोगे तो पाओगे

प्रेम की सरिता में धो लो कालुष्य
अकारण क्यों घृणा करते हो मनुष्य?

|| कैसे बच पाएगा संसार || 



कैसे बच पाएगा संसार
यह धरती
जो घूम रही है अहर्निश सदियों से
कहाँ रूकती है, कब थकती है
तुम उसे रौंद रहे हो

यह फूल
जो खिलखिला कर हँस रहा है
कंटकों की सेज पर लापरवाह
तुम उसे तोड़ रहे हो

यह पवन
जो निरंतर डोल रहा है
तेरी साँसों में अमृत घोल रहा है
तुम उसमें जहर घोल रहे हो
ये धरती, फूल, पवन
क्या कभी कुछ माँगते हैं
क्या अपनी सीमाओं को लाँघते हैं
तुम तो कर गए सारी सीमाएँ पार
बताओ कैसे बच पाएगा संसार?
             

 

|| काठ की कुर्सी || 


काठ की कुर्सी
नहीं होती निरा काठ निर्जीव
काठ के उल्लू को भी बना देती है चैतन्य
बदल देती है उसका पूरा ठाट-बाट
बैठते ही इस पर‌ अधिकांश लोग
बन जाते हैं कठमुल्ला
धँसते जाते हैं नीचे, नीचे और नीचे
बहाने लगते हैं उल्टी गंगा
घोषित करते हैं स्वयं को भगीरथ
जबकि उन्हीं की कुर्सी के ठीक नीचे
बहती रहती है भ्रष्टाचार की बैतरणी
धीरे-धीरे उनकी चेतना पर जम जाती है काई
सचमुच कुर्सी पर बैठने के बाद लोग काठ हो जाते हैं
वे भूल जाते हैं कि कुर्सी की भी कोई उम्र होती है
और कुर्सी से उतरने के बाद कोई मातमपुर्सी भी नहीं करता।
           

|| अपराध और दंड || 


पराध की सारी सूचनाएँ
दर्ज नहीं हो पाती थाने में
मामले पहुँच नहीं पाते अदालत तक
लेकिन जब लगती है मन की अदालत
मुजरिम खुद को पाता है कटघरे में
बड़ा दारूण होता है वह क्षण
जब उसे अपने खिलाफ
लेना पड़ता है फैसला
इस फैसले के खिलाफ
कहीं अपील नहीं हो सकती
असंभव है जिसके खिलाफ सुनवाई
अपराधी कहाँ समझ पाता है कि
हर अपराध के पीछे
परछाईं की तरह चलता है दंड
पर वह उसे देख नहीं पाता
और सुन नहीं पाता उसकी पदचाप।


|| सर्वहारा हंसी || 


से हँसने की फुर्सत नहीं थी
और रोने की की इजाजत नहीं थी
फिर भी वह हँसना चाहता था
पर उसे हँसी नहीं आती थी

हँसते हुए चेहरे
उसके लिए कौतूहल के विषय थे
हालाँकि हँसने वाले चेहरों से
उसका दूर दूर का रिश्ता नहीं था
वह उनकी हँसी का राज जानना चाहता था
पर उसे इतनी हिम्मत नहीं थी कि
उनसे उनकी हँसी का राज पूछे
उसे यह भी आशंका थी 
कि शायद उसके प्रश्न का नहीं मिले माकूल जवाब
और वह खुद बन जाए सब की हँसी का पात्र

ले देकर एक घरवाली ही थी
जिससे वह अपना दुख-दर्द बाँट सकता था
मौके-बेमौके किसी बात पर डांट सकता था
एक शाम उसने पत्नी से
पूछा लोगों के हँसने का राज
भोली-भाली पत्नी भला कैसे दे इस कठिन सवाल का जवाब
कभी पूरा नहीं हो पाया था जिसका एक भी ख्वाब

फिर अपनी बुद्धि का कर इस्तेमाल
कोने में रखे गुल्लक की ओर किया उसने इशारा
कहा- इसी में छुपाया है मैंने हँसी का राज
बरसों से तुम्हारी मजदूरी से बचाकर चवन्नियाँ
भर कर रखा है मैंने गुल्लक
कल बाजार जाना
इन्हें नोटों में बदलकर
नए कपड़े और मिठाइयाँ लाना
मिल बैठकर खायेँगे बच्चों के साथ
फिर पहन-ओढ़ कर घूमने चलेंगे पार्क
देखेंगे रंग-बिरंगे फूल
उन्हीं से पूछेंगे खिलने और खिलखिलाने का राज

रात उसकी पलकों में कटी
सुबह जब वह गया बाजार
साहुकारों ने दिया उसे टका सा जवाब
चवन्नियाँ बाजार से गायब हो गई है जनाब!

मुँह लटकाए वह चल दिया नदी की ओर
गुल्लक को कर दिया नदी में समर्पित
सहसा खुल गए उसके होंठ
और चेहरे पर फैल गई
एक सर्वहारा हँसी। 
          

|| कबीरा || 


मेरी निगाह में हर आदमी में
थोड़ा-बहुत वेश्यावृत्ति है
किसी में कम, किसी में ज्यादा
होती इसकी आवृत्ति है
इसे ठीक से समझो साधु !
जो नहीं समझे वह मूढ़मति है। 

||  दूसरों के कहने पर || 


रास्ते पर चल रहा हूँ
अपनी समझ से रास्ता भी सही है
कोई कहता है -
राह भटक गए हो
अपना रास्ता बदल लो
दूसरे रास्ते से जाओगे
आसानी से मंजिल पर पहुँच जाओगे
कोई कहता है -
बंधु बड़ा कठिन है रास्ता
थक गए हो, सुस्ता लो
कोई कहता है -
रास्ता तो तुमने सही चुना है
लेकिन कोई तुम्हारे साथ नहीं चलेगा
कोई दुष्ट दुस्साहसी कभी-कभी
रास्ता रोककर भी खड़ा हो जाता है
क्षण भर के लिए ठिठक जाता हूँ
परंतु यह यात्रा रुकने वाली नहीं है
सारी आवाजें खो गई है घाटियों में
मैं कुछ भी नहीं सुनना चाहता
जो स्वयं अपना रास्ता चुनता है
वह भला कब किसी की सुनता है
और उसे सुनना भी नहीं चाहिए
अगर कुछ करना है अपने लिए
या दुनिया के लिए भी
तो दूसरों के कहने पर
रास्ता चुनना भी नहीं चाहिए। 


|| जूते के बिना यात्रा || 


पांव में जिनके जूते नहीं होते
वह भी करते हैं यात्रा
और लंबी यात्रा के लिए
हरगिज जरूरी नहीं होते जूते
मैंने वैसे लोगों को देखा है
जो लंबी यात्रा में पांव से जूते निकाल
हाथ में पहन लेते थे
या डाल लेते थे लेते थे झूले में
कोई जरूरी नहीं है कि
यात्रा पर निकलने के पूर्व
खरीद लिए जाएं जूते
या बिना जूते के स्थगित कर दी जाए यात्रा
चलना जिनका स्वभाव है
वे जूते का ख्याल नहीं रखते
उनके लिए जरूरी नहीं होते जूते
जरूरी होती है यात्रा।


|| तारीफ आपकी || 


हा
थ मिलाया
गले लगाया
बांधे प्रशंसा के पुल
पहुंच गए वह मंच पर
बदल गए सारे उसूल
खरी खोटी सुनते हुए मैं
खड़ा रहा जमीन पर
कायम रहा अपनी जमीर पर
खो गया मैं कहीं भीड़ में
वह प्रशंसकों के बीच
हो गए बेसुध विभोर
करता रहा मैं जिसकी तारीफ
वही पूछते हैं मुझसे
तारीफ आपकी? 


संपर्क:
सी एस टी आर आई, सेंट्रल सिल्क बोर्ड
तृतीय तल,हिन्दी अनुभाग,बी टी एम लेआउट 
मडिवाला,बेंगलूर-560068   
ईमेल: lalancsb@gmail.com 
मोबाइल नं : 9431582801