जन्म :- ३ फ़रवरी १९६३ कश्मीर में
शिक्षा :- मनोविज्ञान ,हिन्दी ,उर्दू विषयों में परास्नात्तक और बी० एड०
प्रकाशित
:- अक्षर अक्षर रक्त भरा- १९९७ (कविता संग्रह –जम्मू व् कश्मीर राज्य में
आतंकवाद के विरुद्ध किसी भी भाषा में लिखी गई पहली पुस्तक ) समकालीन
तीसरी दुनिया , सृजन सन्दर्भ , पहल , उदभावना , हंस , शीराज़ा आदि पत्रिकाओं
में कविताएँ तथा डायरी अंश प्रकाशित
संपादन :- दैनिक मांउटेन विव का संपादन
अनुवाद :- साहित्य अकादमी के लिए कश्मीरी कविताओं का हिंदी अनुवाद
पुरस्कार
:- केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय ,भारत सरकार द्वारा हिन्दीतर भाषी
हिन्दी लेखक पुरस्कार ,हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा साहित्य
प्रभाकर ,मैथिलीशरण गुप्त सम्मान ,शिक्षा मंत्रालय जे० के० सरकार की ओर से
राज्य पुरस्कार
अन्य :- अनेक मंचों से कविता पाठ , फेस बुक पे साहित्यिक रूप से अति सक्रिय
विशेष
:-पण्डितों के विस्थापन के बाद कश्मीर में हिन्दी की अलख जगाये रखने वाले
महत्वपूर्ण अकेले कवि हालाँकि इनके साथी सतीश विमल भी हिन्दी में लिख रहे हैं।
एक मलिन युग में रहते हुए महसूस करता हूँ कि सच्ची कविता कीचड़ में
कमल समान होती है। श्रम का शाश्वत सौन्दर्य इसकी पहचान है। इस पर कोई देवी - देवता नहीं इन्द्रधनुषी आकाश तले बैठा आम आदमी होता है । यह कविता आठवें रंग की चालबाजियों को समझती है ...
निदा
नवाज़ डल झील में झाँकते हुए इसी कमल को तलाश रहे हैं। पीछे क्रूर चाबुक
पीठ छील रहा है। पीठ पर बोई ज़ख्मों की फसल पर विश्वास करते हुए वे आश्वस्त
हैं। यह आश्वस्ति आने वाले समय के लिए है। कश्मीर में रहकर कविता लिखने
और कश्मीर पर कविता लिखने में बहुत अन्तर है। निदा नवाज़ पिछले बीस-पच्चीस सालों से लगातार कश्मीर को तीसरे कोण से देख रहें
हैं। खतरा यही है। उनके हाथ में न पत्थर है न तिरंगा। है तो सिर्फ पीड़ा और
भयावह दृश्यों की सच्ची अभिव्यक्ति। इनकी कविता गली - चौराहों और सड़कों की
कविता है। जहाँ खून , चप्पलें , पोस्टर , नकाब , झण्डे और बन्दे आठवें रंग
से पुते हैं। इनकी कविताओं में क्रेकडाउन, हड़ताल, कर्फ्यू, आँसूगैस, गोली, पत्थर, ज़ख्म, फैले खून, उड़ते पँख, बिखरी चप्पलों के दृश्य
हैं। कविता में आकर ये दृश्य कलात्मक रूप ले लेते हैं। संवेदना से भरपूर इनकी कलात्मकता
जीवन की पक्षधर है। बिम्ब सृजन , प्रतीक और प्राकृतिक उपमाएँ इनकी कविता
की ताकत तो हैं पर कई बार निदा मौलिक गढ़ने के चक्कर में स्वाभाविकता से
दूर चले जाते हैं। इसी कारण ' कायरता ' नामक कविता में सम्प्रेषणीयता
भंग होती है। ' एक नन्हा घोंघा ' इनकी मार्मिक कविता है। नन्हा घोंघा सागर
को पिता नहीं माँ कहकर मासूम संवाद करता है। माँ किसी बच्चे को अपने
हाथों से बाहर फेंक सकती है ? पिता कहकर विरोध जताया जा सकता था। घोंघा कब
जानेगा कि युद्ध में बजाया जाने वाला शंख उसी का बनाया है ? कवि को
घोंघे पर विश्वास करना ही होगा। क्रान्ति यही लाएगा। कविताई की दृष्टि
से मिलन कविता मिलन की चरम सीमा से आरम्भ होकर अंत में कमजोर हो जाती है। इसे
आठवीं पंक्ति पे खत्म हो जाना चाहिए था। कमाल हैं ये पंक्तियाँ। 'लहरों
की वेला पर वसंत की छिपकलियाँ' और 'सूखी बदली का गर्भ ठहर जाना' इनके प्रेम
की पराकाष्ठा है। ' कर्फ्यू ' और ' अँधेरे की पाजेब ' सत्ता के दमनकारी
चरित्र को दर्शाती कविताएँ हैं। हवा के सर्प, टहनियों का डर, चुप्पी की
डायन, डर, मौत का नृत्य , दरवाज़े पर आहट, अँधेरे को किसी खबरिया चैनल के
कैमरे नहीं पकड़ते। निदा की कविता इनको पकड़ती है। इनके खींचे चित्र दिल्ली
जाती रेलों में डालने चाहिए ...
इधर की इनकी
कुछ कविताओं में कश्मीरी पण्डितों के विस्थापन और घर छोड़ने की पीड़ा
भी व्यक्त हुई है। अब केवल आतंकवाद नहीं वे हर उस सत्ता का विरोध करते हैं
जो आम कश्मीरी का दोहन कर रही है। यह इनका विस्तार है। कला पक्ष पर बात फिर
कभी।
अग्रज निदा जी को हार्दिक आभार और अनंत शुभकामनाओं सहित प्रस्तुत
हैं उनकी कुछ कविताएँ।
इतिहास का ज़ख़्म
मन की घाटी के बीच
चिनार की छाओं में
सिसकियों की प्रतिध्वनियाँ
मनाती हैं रुदन का उत्सव
मेरे परिचय के नासूर बने...
घाव की पीड़ा
आँखों की आरतियों में
जल रही है दिन रात अकेले
चेतन - अवचेतन की सीमा पर
अश्लील सांझ बाल बिखराए
शताब्दियों से
गा रही है वेदना के गीत
मरियल घास की हथेलियों पर
आँसुओं के अंकुर फूट रहे हैं -
मैं युगों - युगों से
इतिहास की अपमानित सड़क पर
तलवों का ज़ख़्म बना
एक नन्हा घोंघा
सागर ने गुस्से में
आपनी लहरों के हाथों
फेंक दिया है
तट की दहकती रेत पर
एक घोंघा
माँ इतनी क्रूरता से
क्यों किया है मुझ को
अपनी बाँहों से अलग
तुम्हारी गोद में जब
पल सकते हैं
जल सर्प ,झींगे और केकड़े
तो मैं क्यों नहीं माँ
इसलिए कि मैं
लड़ना नहीं जानता
तुम्हारी अल्हड लहरों से...
प्रकृति के नियम अनुसार
जो लड़ सकते हैं
बस वही जी सकते हैं
तो माँ
क्या इस नियम को
बदला नहीं जा सकता
एक नन्हे घोंघे की ख़ातिर।
मिलन
नदी की बाँहों में
समा जाता है
एक विशाल मरुस्थल
लहरों की बेला पर
रेंगती हैं
वसंत की छिपकलियाँ
सूखी बदली का
ठहर जाता है गर्भ
मरी धूप की देह में
लौट आ जाते हैं प्राण
पंछी पहनने लगते हैं
सुरों की पायलें
मेरे मन में फूटती है
किसी आहट की झंकार
फूल करने लगते हैं
अठखेलियाँ
हर दिशा बिखर जाते हैं
ख़ुशबू के झोंके
आकाश की गहराइयों में
मुस्कुराता है इन्द्रधनुष
मेरी ही झील की
अलबेली सिलवटों पर
सिमट आता हे सारा प्रकाश।
कर्फ्यू
चील ने दबोच ली है
अपने पंजों में
शहर की सारी चहल-पहल
सड़कों पर घूम रही है
नंगे पाँव चुप्पी की डायन
गोरैया ने अपने बच्चों को
दिन में ही सुला दिया है
अपने मन के बिस्तर पर
और अपने सिरहाने रखी है
आशंकाओं की मैली गठरी
हवाओं के सर्प
पेड़ों की टहनियों में
भर रहे हैं डर
दूर बस्ती के बीच
बिजली के खम्बे के ऊपर
आकाश की लहरों पर
कश्ती चलाता एक पंछी
गिर कर मर गया है।
कायरता
बटेर ने देख ली है
चिनार के नीचे बनी
चाँद की अनाम कब्र
जिस पर
विलाप कर रही थीं
किरण अप्सराएँ
उनकी पलकों की
टहनियों पर अटक गया
काले नुकीले बादल का
एक टुकड़ा
आँखें बरसाने लगीं
आकाश भर तारे ...
दूर आईने की ओट में
एक भयानक
मुखौटे वाला साया
धो रहा है
अपने ख़ून सने हाथ।
अँधेरे की पाजेब
अँधेरे की पाजेब पहने
आती है काली गहरी रात
दादी माँ की कहानियों से झाँकती
नुकीले दांतों वाली चुड़ैल सी
वह मारती रहती है चाबुक
मेरी नींद की पीठ पर
काँप जाते हैं मेरे सपने
वह आती है जादूगरनी सी
बाल बिखेरती
अपनी आँखों के पिटारों में
अजगर और सांप लिए
मेरी पुतलियों के बरामदे में
करती है मौत का नृत्य
अतीत के पन्नों पर
लिखती है कालिख
वर्तमान की नसों में
भर देती है डर
भविष्य की दृष्टि को
कर देती है अँधा
मेरे सारे दिव्य-मन्त्र
हो जाते हैं बाँझ
वह घोंप देती है खंजर
मेरे परिचय के सीने में
रो पड़ती है पहाड़ी श्रृंखला
सहम जाता है चिनार
मेरे भीतर जम जाती है
ढेर सारी बर्फ़ एक साथ।
क्रांति पुष्प
हमारी पीठ पर
क्रूरता के चाबुक से बोई
ज़ख़्मों की फ़सल को
लहलहाते देख
वे हंस रहे हैं
और हम...
हर घाव की ख़ुशबू में उपजे
विद्रोह को देख कर
आश्वस्त हैं -
आने वाले समय
ख़ुशी से मना पाएंगे हमारे बच्चे
हमारी पीठ के इतिहास पर खिले
क्रान्ति पुष्प के त्योहार।
सम्पर्क :- निकट नुरानी नर्सिंग कालेज ,
एक्सचेंज कोलोनी ,पुलवामा -१९२३०१
दूरभाष :- 09797831595
e.mail :- nidanawazbhat@gmail.com
Blog :- http://nidanawaz.blogspot.com
प्रस्तुति :-
कमल जीत चौधरी
गाँव व डाक -काली बड़ी ,
जिला -साम्बा { १८४१२१ }
प्रदेश -जम्मू व कश्मीर
दूरभाष - ०९४१९२७४४०३
ई मेल - kamal.j.choudhary@gmail.com
(सभी चित्र गूगल की मदद से विभिन्न साइट्स से साभार लिए गए हैं)
मैं भाई कमल जीत चौधरी जी और भाई कुमार कृष्ण शर्मा जी का आभारी हूँ जो उन्होंने मेरी रचनाओं को इस ब्लॉग पर पोस्ट करने योग्य समझा .
ReplyDeleteनिदा जी, आप की नम्रता आपका बड़प्पन है। यह आपका अपना ब्लॉग है। आप सभी के सहयोग के बिना इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है। आप की कविताओं और सहयोग से ब्लॉग समृद्ध हुआ है। उम्मीद करता हूं कि भविष्य में भी आपसे इसी प्रकार से समर्थन और प्रोत्साहन मिलता रहेगा।
ReplyDeleteधन्यवाद
सर्वप्रथम भाई कमलजीत चौधरी को बधाई की उन्होंने बेहतरीन शब्दों के माध्यम से प्रस्तुती की /बकौल कमलजीत '' इनके खींचे चित्र दिल्ली जाती रेलों में डालने चाहिए ...'' किया बात है /वाह .... बाकि निदा भाई की कविताओं का यह दौर भी एक अभिशप्त भूखंड का संत्राप है पहले की तुलना में आज की कवितायेँ अधिक व्यापक हैं/हर ऐसे समय से जूझता आदमी इनकी कविताओं का यथार्थ महसूस कर सकता है /कविताओं पर संक्षेप में अलग से कहूँगा (काव्य ,कला,सृजन इत्यादि पर )........
ReplyDeleteमंगलवार 10/09/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
ReplyDeleteआप भी एक नज़र देखें
धन्यवाद .... आभार ....