आतंकवाद पर खलती है यह चुप्पी
वामपंथी राजनीति को मैं बचपन से ही पसंद करती थी। इस विश्वास में विश्वासी होकर बचपन में मैं सबके लिए रोटी, कपड़ा और मकान की मांग करती थी। अकाल पीड़ित लोगों की मदद करती थी। मेरे बड़े मामा कम्युनिस्ट और नास्तिक थे। मैं उनसे बहुत डरती थी। मेरे लिए जुलूस में जाना और बहसों में हिस्सा लेना तो मुमकिन नहीं था। हां, किताबें पढ़ने का नशा था। फिर समता और समान अधिकार के लिए मैंने लिखना शुरू कर दिया।
मैं वामपंथ में विश्वास करती हूं। पर मेरे लेखन की शुरुआत से ही वामपंथियों ने मुझे खारिज किया है। महिलाओं की बराबरी के बारे में जब मैं लिखती थी, तब ये लोग मुझे टोकते थे। कहते थे, तुम सिर्फ वर्गशत्रु को चिह्नित करो। कम्युनिस्टों के सत्ता में आने पर महिलाओं को बराबरी का अधिकार तो मिल ही जाएगा। पर जहां भी कम्युनिस्ट सत्ता में आए, वहां महिलाओं को समान अधिकार नहीं मिला। कहां के पोलित ब्यूरो में कितनी महिलाएं हैं, जरा बताइए तो!
बाद में वामपंथियों ने एक अजीब-सी वजह से मुझे दोष देना शुरू किया। बांग्लादेश में हिंदुओं के साथ जो अत्याचार हो रहा था, उसका विरोध करते हुए मैंने लज्जा नाम से एक तथ्य आधारित उपन्यास लिखा था। जब भारत में भारतीय जनता पार्टी मेरी बगैर अनुमति के लज्जा की नकल छाप-छापकर रेल, बस और फुटपाथ पर थोक के भाव बेचने लगी, तब कम्युनिस्टों ने मुझे दोषी ठहराना शुरू किया। भारत में दक्षिणपंथी मेरा समर्थन कर रहे थे, इसके लिए मैं ही दोषी थी! आज भी वामपंथी मुझे लज्जा लिखने का दोषी ठहराते हैं। उनका आरोप था कि लज्जा के जरिये मैंने भारत के दक्षिणपंथी कट्टरवादियों के हाथों में हथियार थमा दिया है। भारत के वामपंथी अल्पसंख्यकों पर अत्याचार होने की स्थिति में उनके साथ खड़े होते हैं, जबकि बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों पर होने वाले अत्याचारों के खिलाफ मैं खड़ी हुई, तो मैं दोषी हूं! मैंने लज्जा बांग्लादेश में बैठकर लिखा था, भारत में नहीं। फिर भी दोषी थी, क्योंकि बांग्लादेश के कम्युनिस्ट तो कट्टरवादियों के साथ हैं। अपने संगी-साथियों के खिलाफ कोई बात वे भला कैसे सुन सकते थे?
कम्युनिस्टों ने मेरे जीवन का सबसे बड़ा नुकसान तब किया, जब उन्होंने भारत में मेरी किताब पर प्रतिबंध लगा दिया। आत्मकथा का तीसरा खंड द्विखंडितो भारत में प्रतिबंधित है, क्योंकि इसमें मैंने इस्लाम की आलोचना की है, जिससे उनकी धार्मिक भावना पर आघात लगने का आरोप है। जबकि किसी भी मुस्लिम ने मेरी इस किताब को प्रतिबंधित करने के लिए आवाज नहीं उठाई थी। इसके बावजूद पश्चिम बंगाल की कम्युनिस्ट सरकार ने आगे बढ़कर मेरी किताब पर प्रतिबंध लगाया। इस प्रतिबंध के बाद भारतीय उपमहाद्वीप में मेरा जीवन पूरी तरह बदल गया। इसकी वजह यह है कि कम्युनिस्ट सरकार ने मुझे इस्लाम-विरोधी बताकर कट्टरवादियों के हाथ में एक हथियार थमा दिया। मुस्लिम कट्टरवादी आज भी मेरे खिलाफ इस हथियार का इस्तेमाल कर रहे हैं।
किताब पर प्रतिबंध लगाने के बाद कट्टरवादियों ने मेरे खिलाफ फतवा जारी किया। मेरे सिर की कीमत लगाई। मुझ पर हमले किए। मेरे खिलाफ जुलूस निकाले गए। इसी दौरान कम्युनिस्ट सरकार ने पश्चिम बंगाल से मुझे निकाल बाहर किया। मुझे भगाने का कारण वोट था। मैं इस्लाम विरोधी हूं, मुझे भगाने से मुस्लिम मतदाता वाम मोर्चे को वोट देंगे, इस उम्मीद में मुझे बाहर किया गया।
जब एक राज्य ने मुझे भगाया, तो दूसरे ने इसी नीति का अनुसरण किया। कोई सरकार वोट खोने का जोखिम नहीं ले सकती थी। पश्चिम बंगाल से मुझे राजस्थान भेज दिया गया। लेकिन राजस्थान की तत्कालीन भाजपा सरकार ने मुझे वहां छह घंटे भी नहीं रहने दिया। राजस्थान से मैं दिल्ली आई। केंद्र की तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने भी मुझे वहां से बाहर करने की कोशिश की, पर ऐसा नहीं हुआ।
मैं वामपंथ में विश्वास करती हूं। पर मेरे लेखन की शुरुआत से ही वामपंथियों ने मुझे खारिज किया है। महिलाओं की बराबरी के बारे में जब मैं लिखती थी, तब ये लोग मुझे टोकते थे। कहते थे, तुम सिर्फ वर्गशत्रु को चिह्नित करो। कम्युनिस्टों के सत्ता में आने पर महिलाओं को बराबरी का अधिकार तो मिल ही जाएगा। पर जहां भी कम्युनिस्ट सत्ता में आए, वहां महिलाओं को समान अधिकार नहीं मिला। कहां के पोलित ब्यूरो में कितनी महिलाएं हैं, जरा बताइए तो!
बाद में वामपंथियों ने एक अजीब-सी वजह से मुझे दोष देना शुरू किया। बांग्लादेश में हिंदुओं के साथ जो अत्याचार हो रहा था, उसका विरोध करते हुए मैंने लज्जा नाम से एक तथ्य आधारित उपन्यास लिखा था। जब भारत में भारतीय जनता पार्टी मेरी बगैर अनुमति के लज्जा की नकल छाप-छापकर रेल, बस और फुटपाथ पर थोक के भाव बेचने लगी, तब कम्युनिस्टों ने मुझे दोषी ठहराना शुरू किया। भारत में दक्षिणपंथी मेरा समर्थन कर रहे थे, इसके लिए मैं ही दोषी थी! आज भी वामपंथी मुझे लज्जा लिखने का दोषी ठहराते हैं। उनका आरोप था कि लज्जा के जरिये मैंने भारत के दक्षिणपंथी कट्टरवादियों के हाथों में हथियार थमा दिया है। भारत के वामपंथी अल्पसंख्यकों पर अत्याचार होने की स्थिति में उनके साथ खड़े होते हैं, जबकि बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों पर होने वाले अत्याचारों के खिलाफ मैं खड़ी हुई, तो मैं दोषी हूं! मैंने लज्जा बांग्लादेश में बैठकर लिखा था, भारत में नहीं। फिर भी दोषी थी, क्योंकि बांग्लादेश के कम्युनिस्ट तो कट्टरवादियों के साथ हैं। अपने संगी-साथियों के खिलाफ कोई बात वे भला कैसे सुन सकते थे?
कम्युनिस्टों ने मेरे जीवन का सबसे बड़ा नुकसान तब किया, जब उन्होंने भारत में मेरी किताब पर प्रतिबंध लगा दिया। आत्मकथा का तीसरा खंड द्विखंडितो भारत में प्रतिबंधित है, क्योंकि इसमें मैंने इस्लाम की आलोचना की है, जिससे उनकी धार्मिक भावना पर आघात लगने का आरोप है। जबकि किसी भी मुस्लिम ने मेरी इस किताब को प्रतिबंधित करने के लिए आवाज नहीं उठाई थी। इसके बावजूद पश्चिम बंगाल की कम्युनिस्ट सरकार ने आगे बढ़कर मेरी किताब पर प्रतिबंध लगाया। इस प्रतिबंध के बाद भारतीय उपमहाद्वीप में मेरा जीवन पूरी तरह बदल गया। इसकी वजह यह है कि कम्युनिस्ट सरकार ने मुझे इस्लाम-विरोधी बताकर कट्टरवादियों के हाथ में एक हथियार थमा दिया। मुस्लिम कट्टरवादी आज भी मेरे खिलाफ इस हथियार का इस्तेमाल कर रहे हैं।
किताब पर प्रतिबंध लगाने के बाद कट्टरवादियों ने मेरे खिलाफ फतवा जारी किया। मेरे सिर की कीमत लगाई। मुझ पर हमले किए। मेरे खिलाफ जुलूस निकाले गए। इसी दौरान कम्युनिस्ट सरकार ने पश्चिम बंगाल से मुझे निकाल बाहर किया। मुझे भगाने का कारण वोट था। मैं इस्लाम विरोधी हूं, मुझे भगाने से मुस्लिम मतदाता वाम मोर्चे को वोट देंगे, इस उम्मीद में मुझे बाहर किया गया।
जब एक राज्य ने मुझे भगाया, तो दूसरे ने इसी नीति का अनुसरण किया। कोई सरकार वोट खोने का जोखिम नहीं ले सकती थी। पश्चिम बंगाल से मुझे राजस्थान भेज दिया गया। लेकिन राजस्थान की तत्कालीन भाजपा सरकार ने मुझे वहां छह घंटे भी नहीं रहने दिया। राजस्थान से मैं दिल्ली आई। केंद्र की तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने भी मुझे वहां से बाहर करने की कोशिश की, पर ऐसा नहीं हुआ।
कम्युनिस्टों की गलत नीति आज भी खत्म नहीं हुई है। दुनिया भर में वे मुस्लिम कट्टरवादियों के हक में बोल रहे हैं, क्योंकि उनका मानना है कि ये लोग अमेरिकी साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ रहे हैं। वामपंथियों की यह बहुत बड़ी भूल है। यदि वे कट्टरवादी अमेरिका के खिलाफ लड़ते, तो ह्वाइट हाउस या कैपिटल को निशाना बनाते, ट्विन टावर को नहीं। ट्विन टावर के ध्वस्त होने से हजारों लोग मारे गए, जिनमें अमेरिकी साम्राज्यवाद का खैरख्वाह शायद ही कोई था। इस्लामी आतंकवादी किसी राष्ट्र पर हमला नहीं करते, आम जनता को निशाना बनाते हैं।
तालिबान को अमेरिकी साम्राज्यवाद ने ही पैदा किया है। अनेक कट्टरवादी और आतंकवादी संगठन सऊदी अरब के पैसे से तैयार हुए हैं। सऊदी अरब अमेरिकी साम्राज्यवाद का घनिष्ठ मित्र है। इस्लामी कट्टरवादी दारूल-इस्लाम बनाना चाहते हैं, जिसमें दूसरे मजहब को मानने वाले और काफिरों के लिए जगह नहीं होगी। वैसी इस दुनिया में वामपंथियों की जगह तो सबसे पहले खत्म होगी। कम्युनिस्ट नारी के समानाधिकार में यकीन करते हैं। जबकि मुस्लिम कट्टरवादी औरतों को बुर्के में छिपाकर रखते हैं। वे पत्थर मार-मारकर महिलाओं की हत्या करते हैं, वे औरतों को पुरुष की संपत्ति समझकर गृहस्थी में कैद करते हैं। फिर कम्युनिस्ट किस तर्क से कट्टरवादियों का समर्थन करते हैं?
किसी अच्छी चीज के खत्म होने से कितनी दुर्गंध निकलती है, यह समकालीन वामपंथियों को देखने से समझा जा सकता है। ईसाइयों या यहूदियों से जो नए मुस्लिम बने हैं, वे आईएस जैसे आतंकी संगठनों से जुड़े हैं। वे बगैर किसी दुविधा के किसी की भी गर्दन रेत दे रहे हैं। चाहे आईएस हो, अल कायदा हो, अल शवाब, बोको हराम या दूसरे कट्टरवादी आतंकी संगठन-वामपंथी इन सबके समर्थन में हैं। ये कट्टरवादी संगठन मनुष्य की हत्या करके अपने ईश्वर को खुश करना चाहते हैं-उस ईश्वर को, जो उन्हें इस काम के लिए ऐशो-आराम की चीजें तो देंगे ही, हर आतंकी को बहत्तर हूरों की सौगात भी बख्शेंगे। आश्चर्य है कि ईश्वर में विश्वास न करने वाले वामपंथी इस्लामी कट्टरवाद के इस पक्ष पर कुछ नहीं बोलते।
(अमर उजाला से साभार)
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