जन्म : कठुआ के कटली गाँव में 10 जनवरी 1991 को माँ : सुश्री राजकुमारी पिता : बंसीलाल शर्मा शिक्षा : जम्मू वि० वि० से हिन्दी विषय में परास्नातक लेखन : 2008 में कविताओं से शुरुआत अन्य : लोक मंच जम्मू से जुड़े हैं
हिन्दी कविता पर शोध कर रहे नरेश शर्मा की कुछ नयी कविताएँ मिली। अच्छा लगा पढ़कर। यहाँ विचार नहीं आत्मीय भाव सुखद हैं . इसका ध्यान कवि को विशेष तौर पर रखना होगा। बिना किसी पृथक मुहावरे के भी इस बात की आश्वस्ति है कि अभाव , सच और प्रेम को जीता कवि प्रतिबद्ध दिखाई देता है। यह प्रतिबद्धता बनी रहे। इसी कामना के साथ प्रस्तुत हैं इनकी कविताएँ
यह फूल किसके लिए है
मैं अक्सर जिसे तोड़ लेता था तुम्हारे लिए आज मैंने फिर तोड़ लिया है वह लाल फूल आओ तुम वैसे ही पूरे हक़ से जैसे पहले आती थी छीन लेती थी भरी महफ़िल में मेरे हाथों का फूल
वैसे ही पूछो मेरी किताब के हाशिये पर लिखकर यह फूल किसके लिए है ...
सचमैंने जब भी बोलना चाहा सच तुमने मेरे होठों पर उंगली धर दी पर तुमने ही सिखाया है झूठ बोलना बुरी बात है ...
सच मेरा स्वभाव बन गया है ऐसा सच जो प्लेटो द्वारा कविता में तीसरी जगह बताया गया मैं उसी जगह से बोल रहा हूँ सच तुम मुझे रोक नहीं सकते कैसे रोकोगे तुम्हारी अपनी सचाई जा दुबकी है कई परतों में तुम भावशून्य मुखौटे पहनकर बड़े मंच से बोल रहे हो -
तुम नेता अभिनेता धर्मनेता हो अमन चमन स्वर्ग की बातें करते हो पर आईने से डरते हो इसलिए मुझे बार बार सकुरात चेताते हो !
माँ के लिए
मेरी झोपड़ी में लट्टू नहीं जलती थी ढिबरी हवाओं से डरती ...
खाना परोसते - परोसते माँ कितनी ही बार ढिबरी को हाथों से ढक बुझने से बचाती थी डगमगाती रोशनी में माँ मुझे 'क' से कबूतर 'ख' से खरगोश पढ़ाती थी
झोपड़ी आज मकान हो गई है रंग बिरंगे बल्ब टयूब लाइट्स हैं ढिबरी न जाने मकान की नीव या दीवार की किस ईंट के नीचे दब चुकी है जिसकी रोशनी में मैंने सीखा 'क' से कबूतर और लिख रहा हूँ 'क' से कविता मुझे कविता लिखता देख माँ खुश है झुर्रियों भरे चेहरे पर कुलांचे भरती हँसी को देख मेरा कवि हृदय मुग्ध है मैं सौभाग्यशाली हूँ अभी सलामत हैं मुझे रोशनी देने की खातिर हवाओं से संघर्ष करते हाथ !
पड़ोसी के लिए
उसके चूल्हे आग जली मेरे कलेजे ठण्डक पड़ी ...
सम्पर्क :- नरेश कुमार खजुरिया गाँव व डाक - कटली तह० - हीरानगर , जिला - कठुआ जम्मू व कश्मीर [१८४१४४] दूरभाष - ०९८५८२४७३२९ प्रस्तुति :- कमल जीत चौधरी काली बड़ी , साम्बा [१८४१२१] दूरभाष - ०९४१९२७४४०३ ई मेल - kamal.j.choudhary@gmail.com
(सभी चित्र गूगल की मदद से विभिन्न साइट्स से साभार लिए गए हैं)
जन्म- 10 जनवरी 1977, अखनूर (जम्मू व कश्मीर) शिक्षा- यूनिवर्सिटी आफ जम्मू से फाइन आर्ट्स में पांच वर्षीय प्रोफेशनल डिग्री पहचान- जर्नलिस्ट और कालमनिस्ट दैनिक कश्मीर टाइम्स को सन 1994 में पत्रकार के रूप में ज्वाइन किया। सन 1998 में साप्ताहिक कालम 'दस्तक' को शुरू किया। उसके बाद सन 1996 से 1999 तक सब एडिटर के तौर पर कार्यरत रहे। सन 1999 में दैनिक जागरण के साथ पत्रकार के तौर पर काम भी किया। फ्रीलांसर के तौर पर जम्मू से जुड़े मामलों और अनुभव कई पत्रिकाओं जैसे आटउलुक और द संडे इंडियन आदि में सन 2004 से साझा कर रहे।
दूरदर्शन जम्मू, श्रीनगर और दिल्ली के लिए नो वृतचित्रों को लिख चुके। आकाशवाणी के भी कई कार्यक्रमों में शिरक्त।
छपे साक्षात्कार- वीपी सिंह, डा. असगर वजाहत, निदा फाजली, उस्ताद अहमद हुसैन, उस्ताद मोहम्म्द हुसैन, पद्मा सचदेव, अमृता प्रीतम, मधुकर, पंडित शिव कुमार शर्मा, जगजीत सिंह, उमर अब्दुल्ला, सईद अली शाह गिलानी, राजेंद्र यादव आदि
परिचर्चा- राम जेठमलानी, डा. फारूक अब्दुल्ला, उस्ताद अल्लाहरखा खान, उस्ताद जाकिर हुसैन, नक्श लायलपुरी, रामानदं सागर, डा. कर्ण सिंह, खुशवंत सिंह, महीदा गौहर आदि।
चिनाब के किनारे बसे खूबसूरत और ऐतिहासिक शहर अखनूर निवासी कुंवर शक्ति सिंह को पढ़ना या सुनना अपने आप को आइने में देखने जैसा है। सरल लहजे में सीधी और सटीक बात अपने अलग मुहावरे में कहना विशेषता है। इनकी कविताओं का अपना अलग मिजाज और महक है। यह शायद चिनाब के पानी की देन है। शक्ति सिंह की कविताएं साहस के साथ कई कठोर सवाल खड़े करती हैं। ऐसे सवाल जिनसे अकसर लोग पीछा छुड़ाना या जान कर भी अंजान बने रहना चाहते हैं। जब अंधी राष्ट्रभक्ति के नाम पर कुछ भी किया जा सकता हो या किया जा रहा हो, जब देश प्रेम की परिभाषा सत्ता के केंद्र में बैठे कुछ लोग तय कर रहे हों, जब राजनीति ने धर्म, जातियों, रंग, भाषाओं और क्षेत्रवाद का लबादा ओढ़ रखा हो, जब सच्ची बात कहने पर जीभ और होंठ काट लिए जा रहे हों, जब राजनीति की चालों पर सवाल करना अपराध माना जा रहा हो, जब किसी को भी राष्ट्रद्रोही, आतंकवादी या माओवादी का लेबल चिपका कर सलाखों के पीछे ठोका जा रहा हो, ऐसे इस दौर में शक्ति सिंह की कविताएं ऐसे क्रूर समय से आंख मिलाती, दो दो हाथ करती, मनोबल बढ़ातीं और विद्रोह का बिगुल बजाती हैं। सच्ची बात और हाशिए पर खड़े व्यक्ति के साथ खड़े होने का संस्कार कुंवर शक्ति सिंह को उनके कवि (डोगरी के प्रसिद्ध साहित्यकार) पिता स्व. पद्मदेव सिंह निदोर्ष और माता कृष्णा ठाकुर से मिला हुआ है।
'खुलते किबाड़' पर पहली बार सहर्ष उनकी कविताएं प्रस्तुत कर रहा हूं
नबील अहमद के लिए
मेरे दोस्त, पाकिस्तान! मैंने हमेशा तुम्हें चाहा है दिल की गहराईयों से और इन गहराईयों की टूटती सांसों से
जब मैं बहुत छोटा था दादी ने बारादरी की छत्त से दिखाई थीं जुगनुओं की तरह टिमटिमाती मुनावर की सड़कें दादी सियालकोट की थीं जहां अब मेरा दोस्त नबील अहमद रहता है जिसका कई महीनों से फोन नहीं आया यार नबील! तुम्हारे लहजे-तुम्हारी जवानी की कसम तुम से जब मिला था तो तुम में नजर आई थी एक मुक्कमल संस्कृति। भारत की जमीन पर पांव रखते ही भले ही कस्टम वालों ने तुम्हारा लैपटाप खाली कर दिया था मगर तुम्हारी सबसे अहम चीज फिर भी तुम्हारे साथ रही
कई बार सोचता हूं मैं क्यों भुला दूं नबील को सियालकोट को या तुम्हें पाकिस्तान? मैं क्यों भुला दूं मेहदीं हसन, फहमिदा रियाज या मुल्लिका पुखराज को?
अब समय आ गया है हम जो चाहते हैं उसे खुल कर बयां किया जाए हम नहीं चाहते दो एक जैसे पहाड़ों के बीच के फासले को समझा जाए अंतरराष्ट्रीय सीमा या अमन और मिलन का भविष्य टिका हो राजनीति की गंदी चालों पर या चंद जलती हुई मोमत्तियों पर हमें लड़ना चाहिए अब हम लड़ना चाहते भी हैं अब हर हथियार से दिल्ली और इस्लामाबाद में लहराते अधरम के विरुद्ध वैसे भी हमारे बुजुर्गां ने कहा है 'अपने हक के लिए लड़ना जायज है' या 'जंग और इश्क में सब जायज है' सरहद पर बीड़ियां बदलते दो किसानों की खातिर फैज की गजलों और लाहौर की गलियों की खातिर अगर मैं कह भी दूं पाकिस्तान जिंदाबाद तो लोगों को क्यों लगे कि मैंने भारत को गाली दी है।
अंधेरे से सनसेट तक, एक मुक्ति यात्रा
सदी के जितनी लंबी गहरी सुनसान रात में रोशनी का एक छेद हो गया समय! जिसकी खबर ही नहीं थी जमी बर्फ में से निकले लगा निकल आया मैं भी उस कारावास से मालूम नहीं था किधर है जाना! मुक्ति के लिए किधर होता है जाना पिंजरे से आजाद पक्षी किधर है जाता कच्चे चूल्हों का धुआं किधर है जाता
एक टूटी फूटी सड़क के किनारे ठिठुरते हुए कुछ लोग बस का इंतजार कर रहे थे सोचा, इन्हें पूछूं - जाना है किधर? फिर रहने दिया यह जो घड़ियाल लटका है मंदिर के भीतर कहीं गिर न जाए पुजारी के सिर पर सोचा, बता दूं, फिर रहने दिया रहने दिया सारा काम अधूरा ही रात, जो रातभर अपने दुपट्टे से आसमान पौंछती रहती रहने दी।
कहते हैं जहां वास्तव में होता है सन-सेट वहीं समाया है समय का भेद कई जलसमाधियों और अग्निसमाधियों से होता हुआ उतर आया हूं इस जगह यहां एक साथ होते रहते हैं कईं सन-सेट।
शहर जब सो जाता है
शहर जब सो जाता है मैं सुबह तक पढ़ता हूं तेरे खत किस्सों के पुतले बनाकर रखता हूं सामने और दिल से कहता हूं तुम्हारा न कहा हर शब्द
जिंदगी इसे ही कहते हैं तो एक टेढ़ी-मेढ़ी लंबी-छोटी लकीर अगर कोई बच्चा ही खींच दे तो क्या करें खुदाओं का
शहर जब सो जाता है मैं तब सच से पीठ लगाए देखता हूं झूठ शहर जब जाग जाता है मैं तब एक सड़क होता हूं।
अंतिम गृहयुद्ध
इस भारत की कसम जो हमें कभी हजम नहीं हुआ भले ही हम मुट्ठी भर बच गए हैं कभी हाथ नहीं खड़े करेंगे तुम्हारे किसी भी तंत्र के आगे हमारा विचार सड़ा गला देगा तुम्हारी व्यवस्था, तुम्हारा युग
इस भारत की कसम जो भगत सिंह के बाद मर गया हमारा कोई मसला नहीं हम किसी मसले का हल नहीं चाहते हम चाहते हैं सर्वनाश जिस तरह किसान नई फसल से पहले आग लगाता है अपनी जमीन को ताकि धरती सजरी हो और इस पर हो नया जीवन इस भारत की कसम जिसका सफेद साहफा रौंद दिया है संसद की तरफ जाती गाड़ियों ने कामरेड कोई विंटेज कार नहीं तुम्हारी खिलाफत से भरा परमाणु हथियार है जो बना है किसानों के जत्थों से भूख के तांडव से धिक्कार और अपमान की जुल्मत से कभी तो होगा अंतिम गृहयुद्ध कभी भी हो सकता है अंतिम गृहयुद्ध
अब यहां नहीं रहता
कईं भजन, गंगा जल और पूजा के फूल थे उसकी आंखों में बांसुरी की एक तान के जैसी थी उसकी पूरी उम्र, उसका अस्तित्व उसका जिस्म था जैसे हवा में उड़ता रंग रुहानी उसका हर प्रेमी अज्ञातवास में मोक्ष पा लेता था अजीब जादुई किरदार था सबको अपनी मंजिल सा लगता था डूबते हुए सूरज की कोई किरण तोड़ लेता था रात भर के लिए सपनों की पूरी दुकान थी उसकी और सांसें किराए पर देता था कोई कहता है लाहौर की गलियों से आया था वो कोई कहता है बनारस के घाट से आया था यहीं इसी जगह रहता था अब यहां नहीं रहता
लोग कहते हैं जिन्न था, लौट गया चिराग में कोई कहता है दिल्ली की झिलमिलाती सड़क पर स्ट्रीट लाइट के नीचे खड़ा दिखा था
समय के निर्वात से धूल तो उतरे तलाश जारी है!
संपर्क हाउस नंबर 48, वार्ड नंबर 2 अखनूर- जम्मू व कश्मीर मोबाइल - 94196-31196 ई-मेलः dastak.kt@rediffmail.com
(सभी चित्र गूगल की मदद से विभिन्न साइट्स से साभार लिए गए हैं)