Wednesday, June 17, 2015

तस्लीमा नसरीन

मैं भगोड़ी नहीं हूं



वायरस की तरह यह खबर पूरी दुनिया में फैल गई है कि मैं भारत छोड़कर अमेरिका चली गई हूं। क्यों? अंसारुल्लाह बांग्ला टीम के जिन हत्यारों ने अभिजीत-वाशिकुर-अनंत की हत्या कर दी है, वे मुझे भी मार डालेंगे, इस डर से। अगर मैं इतनी ही भयभीत होती, तो यूरोपीय नागरिक होते हुए, अमेरिका की स्थायी नागरिकता हासिल कर चुकने के बाद भी बांग्लादेश लौटने की इतनी कोशिश क्यों कर रही हूं? फिर क्यों मैं भारत में इतने साल न सिर्फ रहती रही, बल्कि वहां रहने के लिए लड़ती भी रही? इन्‍हीं दो देशों में तो जीवन पर खतरा सर्वाधिक है, इन्‍हीं दो देशों में मेरे खिलाफ जुलूस निकले हैं, मुझ पर शारीरिक हमले हुए हैं, और मेरे खिलाफ फतवा जारी हुआ है, मेरे सिर की कीमत लगाई गई है, और इन देशों में कट्टरवादी मुझे मार डालने के लिए तैयार रहते हैं। इतने समय तक जीवन का खतरा मोल लेकर जिंदा रहने की अभ्यस्त मैं अब भला डरकर भागूंगी? भगोड़ी मैं कभी थी नहीं।
पिछले करीब 21 वर्ष से मैं निर्वासन में हूं। पहले जब मेरी चर्चा थी, और कट्टरवादी मेरी जान लेने पर तुले हुए थे, तब यूरोप की सरकारों से लेकर गैरसरकारी संगठन तक मुझसे पूछते थे-आपकी किस तरह सहायता करूं? मैंने उन सबको कहा था, मेरी नहीं, बांग्लादेश की गरीब लड़कियों की मदद कीजिए। मुझे जब देश निकाला दे दिया गया, तब कुछ दानदाता देशों ने कहा था कि वे बांग्लादेश का अनुदान बंद कर देंगे। तब मैंने कहा था, ऐसा न करें। आपकी मदद बांग्लादेश की गरीब लड़कियों को जीवित रखेगी।
नहीं, मैं अपने लिए नहीं सोच रही। इस बार मैं अमेरिका आई हूं, तो उसकी कई वजहों में से एक वजह है, सेक्यूलर ह्यूमनिस्ट कॉन्फ्रेंस में बांग्लादेश के लेखकों की भयभीत मानसिकता पर बोलना और उनकी जान बचाने के लिए यूरोप-अमेरिका की सरकारों-संगठनों से गुजारिश करना। अमेरिका में मेरे लिए जो फंड तैयार हो रहा है, वह बांग्लादेश के लेखकों को विदेश ले आने और उनके रहने-खाने पर खर्च होगा।
बीती सदी के आखिरी दशक में मैंने कट्टरवादियों के अनेक जुलूस देखे हैं, जिनमें मुझे फांसी देने की मांग की जाती थी। उन्हीं कट्टरवादियों के बेटे आज बांग्लादेश के प्रतिभाशाली लेखकों की हत्या करते हैं, पीछे से उनकी गर्दन पर वार करते हैं। बांग्लादेश में कट्टरवादियों के निशाने पर आज अनेक ऐसे लेखक हैं, जो धर्म में नहीं, विज्ञान में विश्वास करते हैं, जो शरिया पर नहीं, औरतों को बराबरी का अधिकार देने पर यकीन करते हैं। पर डर के मारे उन लेखकों ने आज लिखना बंद कर दिया है, वे घरों में छिप गए हैं, भय से देश छोड़ना चाहते हैं, हेल्मेट लगाकर घर से निकल रहे हैं। डरे हुए कुछ लेखक शहर छोड़कर गांवों में चले गए हैं, चेहरा बदलकर वे लोगों की भीड़ में मिल गए हैं।
बांग्लादेश में लगभग हर महीने एक आदमी कट्टरवादियों का निशाना बन रहा है। धमकियों के बाद कुछ लेखक पुलिस के पास गए, लेकिन उनकी रिपोर्ट नहीं लिखी गई। उन्हें कहा जा रहा है, जिंदा रहना है, तो देश से बाहर जाओ। हत्यारों की गिरफ्तारी नहीं हो रही। पूछने पर बताया जाता है, ऊपर से निर्देश नहीं है। यह दुर्दशा केवल लेखकों या ब्लॉगरों की नहीं है। राजशाही विश्वविद्यालय के अध्यापक शफीउल इस्लाम को कट्टरवादियों ने पिछले दिनों मार डाला। उनका जुर्म यह था कि उन्होंने छात्राओं को बुर्के में आने से मना किया था। उनका कहना था, बुर्के से मुंह ढके रहने से पढ़ाने में असुविधा होती है।



दुनिया भर के प्रचार माध्यमों में मेरे अमेरिका आने से भी बड़ी खबर यह है कि मैंने भारत छोड़ दिया है। भारत छोड़कर मैं कहां जाऊंगी? भारत के उस घर में अब भी मेरी किताब-कॉपियां, कपड़े, असंख्य चीजें और पालतू बिल्ली है। दिल्ली से मैं एक छोटे-से सूटकेस में दो जींस, दो शर्ट और कुछ टी-शर्ट लेकर निकली हूं। लैपटॉप और आईपैड तो हाथ में ही रहते हैं, मैं चाहे जहां भी जाऊं।
मेरा भारत छोड़ना निस्संदेह कोई अच्छी खबर नहीं है। लेकिन मेरे बारे में क्या कभी कोई अच्छी खबर आती है! दो दशक से भी अधिक समय से यूरोप और अमेरिका की विभिन्न सरकारें, विभिन्न विश्वविद्यालय, मानवाधिकार संगठन और नारीवादी संगठन मुझे भाषण देने के लिए जिस तरह बुलाते हैं, इन देशों से मुझे जो इतने सम्मान मिले हैं-इतने पुरस्कार, डॉक्टरेट-उपमहाद्वीप में क्या कभी किसी ने इन सबके बारे में बताया? इसके बजाय यही लिखा जाता है कि कितने पुरुषों से मेरी निकटता रही है, मैंने कितनी शादियां की हैं, किस देश ने मुझे भगाया है, किस राज्य ने मुझे अपने यहां से बाहर किया है, किस राज्य ने अपने यहां मेरी किताब, टीवी सीरियल पर प्रतिबंध लगाया है, कितने लोग मुझसे घृणा करते हैं। मेरे नाम के साथ एक शब्द जोड़ दिया गया है-विवादास्पद। दोनों बंगाल मुझे सिर्फ भगाकर ही चुप नहीं रहे, उन्होंने ऐसी कोशिशें कीं कि मेरी पहचान एक अवांछित नाम, एक निषिद्ध लेखिका के तौर पर हो। इतने दिनों तक जिन लोगों ने मुझसे नहीं पूछा कि मैं कहां हूं, आज वही लोग सवाल कर रहे हैं कि मैंने भारत क्यों छोड़ा। भारत में तुष्टिकरण की राजनीति और लड़कियों की असुरक्षा पर मैं मुंह खोलती थी, तो पुरुषवर्चस्ववादी मानसिकता के लोग मुझे निशाना बनाते थे, भारत छोड़कर बांग्लादेश लौट जाने के लिए कहते थे। बहुतों को आश्चर्य होता था कि भारत में पैदा न होने के बावजूद मैं वहां की अव्यवस्था पर इतनी चिंतित क्यों होती थी।
लेकिन इनसे अलग लोग भी हैं, जो मुझसे प्यार करते हैं। भारत के कितने ही शहरों में कितने ही लोग मेरे पास दौड़े चले आते हैं मेरा ऑटोग्राफ लेने, मेरी तस्वीर लेने, मुझसे लिपटने, मुझे स्पर्श करने, रोने। वह प्यार और सम्मान फिर से पाने के लिए मैं लौटकर जाऊंगी ही। मेरा सब्जीवाला जयंत मेरे लिए प्रतीक्षा करता है। मछली बेचने वाला बनमाली मेरा इंतजार करता है। इसी तरह प्रतीक्षा करता है साड़ी की दुकान का मालिक मजुमदार। यह प्यार ही मेरी सबसे बड़ी सुरक्षा है।
दुनिया भर में मेरे अमेरिका आने से भी बड़ी खबर यह है कि मैंने भारत छोड़ दिया है। भारत छोड़कर मैं कहां जाऊंगी? भारत के उस घर में अब भी मेरी किताब-कॉपियां, कपड़े, असंख्य चीजें और पालतू बिल्ली है।




(अमर उजाला से साभार)

(चित्र गूगल की मदद से विभिन्न साइट्स से साभार लिए गए हैं)

1 comment:

  1. Pahle hi padh chuka hun...Tasleema hokar rahna kisee bhi desh mein asaan nhi hai.

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