Wednesday, September 30, 2015

जावेद अख्तर

कहां से जन्म लेती है यह नफरत



ज्यादातर लोग, खासकर मीडिया से जुड़े लोग, फतवे को ज्यादा महत्व देते हैं। वे किसी भी बयान को फतवा बता देते हैं। लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि फतव का वास्तविक अर्थ क्या है। यह एक परंपरा है कि यदि आप किसी योग्य काजी (न्यायाधीश) के पास किसी मामले को लेकर जाते हैं, तो आपको लिखित में उनसे पूछना होता है कि इस मुद्दे पर आपकी राय क्या है और इस्लाम के मुताबिक क्या करना सही होगा। वह आपको जवाब देगा और अंत में लिखेगा, ′मेरी राय यह है, लेकिन खुदा बेहतर जानता है।′ आप उस मुद्दे को लेकर दूसरे काजी के पास जा सकते हैं और वह अलग राय दे सकता है। इसलिए हमें फतवों को लेकर इतना चिंतित नहीं होना चाहिए।
तथ्य यह है कि रजा अकादमी ने ए आर रहमान के खिलाफ (माजिद मजीदी की फिल्म मोहम्मद में संगीत देने के कारण) जो फतवा जारी किया है, वह बेतुका है। अकादमी फतवा जारी करने के योग्य नहीं है। एक संगठन होने के नाते वे केवल बयान जारी कर सकते हैं। एक टीवी चैनल ने स्टिंग के जरिये बताया था कि कैसे कुछ काजी महज दस हजार रुपये के लिए फतवा जारी करने को तैयार हो गए। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि जो बात 18 करोड़ लोगों को प्रभावित कर सकती है, उसे बाजार में दस हजार रुपये में बेच दिया गया!
मैंने फेसबुक पर ए आर रहमान की प्रतिक्रिया पढ़ी। यह साहित्य का अद्भुत नमूना है। मैं रहमान को व्यक्तिगत रूप से जानता हूं और वह अद्भुत इंसान हैं। मैं तर्कवादी और नास्तिक हूं, लेकिन यदि लोग रहमान की तरह धार्मिक हैं, तो मुझे धर्म से कोई समस्या नहीं होगी। उनके लिए धर्म और आस्था बेहद निजी मामला है। वह इबादत करते हैं और तीर्थस्थलों पर जाते हैं। लेकिन एक व्यक्ति, एक संगीत निर्देशक और कलाकार के रूप में वह धर्मनिरपेक्ष हैं। तो फिर मुझे क्यों परेशान होना चाहिए कि वह कैसे इबादत करते हैं और कितनी बार करते हैं? जब तक लोग धर्म को स्वयं तक सीमित रखते हैं और उसे दूसरों पर नहीं थोपते या समाज में उथल-पुथल पैदा नहीं करते, तो हमें उससे क्यों परेशानी होनी चाहिए? आखिरकार धर्म व्यक्तिगत पसंद की चीज है।
रहमान की तरह मैं खुद अतीत में कट्टरपंथियों के निशाने पर रहा हूं। मैं उन लोगों में से हूं, जिन्हें ट्विटर पर हिंदू और मुस्लिम, दोनों तरह के कट्टरपंथी गाली देते हैं। मुल्क के मौजूदा हालात मुझे डराते हैं। कट्टरपंथी और प्रतिक्रियावादी दिनोंदिन निडर होते जा रहे हैं। लोग हमेशा कहते हैं कि प्राचीन भारत का समाज शांतिप्रिय था। यह एक मिथक है, जो झूठ है। यह उसी तरह झूठ है, जैसे मुस्लिम कहते हैं कि इस्लाम हमेशा शांतिप्रिय धर्म रहा है। ज्ञात इतिहास में, मात्र दो देसी धर्मों, बौद्ध और जैन ने अहिंसा का प्रचार किया। भारत हमेशा से ही हिंसक समाज था। यदि आप वर्ण व्यवस्था को बनाए रखना चाहते हैं, तो हिंसा का प्रयोग करना ही होगा। यदि आप समाज के एक बड़े हिस्से को अस्पृश्य और अमानवीय बनाए रखना चाहते हैं, तो आप बिना हिंसा के इस व्यवस्था को कायम नहीं रख सकते।
इतिहास के हरेक मोड़ पर विभिन्न संप्रदायों के कट्टरपंथी प्रगति विरोधी, सुधार विरोधी, वैचारिक रूप से अनुदार साबित हुए हैं। मगर अच्छी बात यह है कि अंत में उनकी हार ही हुई है।
रहमान के खिलाफ फतवा जारी करना बेतुका है। रजा अकादमी फतवा जारी करने योग्य नहीं है।

(अमर उजाला से साभार)

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