सन 2007 के जनवरी माह के सर्दियों के दिन थे। मुझे खबर मिली कि प्रो रहमान राही जम्मू में किसी परिचित के घर ठहरे हुए हैं। थोड़ी छानबीन के बाद पता चला कि वह गांंधी नगर में उनके परिचित किसी कश्मीरी पंडित परिवार के घर पर रुके हुए हैं। मैं उस समय समाचार पत्र अमर उजाला को अपनी सेवाएं दे रहा था। फिर क्या था। बाइक लेकर बताए पते पर चल दिया। जब मैं उस घर में पहुंचा तो दुबले पतले रहमान राही बाहर लॉन में 'फिरन' पहने घूप में बैठे हुए थे। मैं भी दुआ सलाम के साथ उसके साथ लाॅन में ही लगी दूसरी कुर्सी पर बैठ गयाऔर बातचीत के सिलसिले को शुरू कर दिया। बताता चलूं कि प्रो. रहमान राही को सन 2007 (सन 2004 के लिए) में उनकी कश्मीरी काव्य संग्रह "सियाह रूद जेरन्य मंज़ " (काली बारिश की फुहारों में) के लिए ज्ञानपीठ दिया गया था। वह एकमात्र कश्मीरी साहित्यकार हैं जिनको इस पुरस्कार से सम्मानित किया गया है।
मेरा नहीं, पूरी कश्मीरियत का सम्मान
ज्ञानपीठ मिलने पर रहमान राही का कहना था कि यह उनका नहीं बल्कि पूरे कश्मीर, उसकी जुबान और पूरी कश्मीरियत का सम्मान है। उनको इस बात की कुछ संतुष्टि है कि आखिर उनकी मेहनत को पहचाना गया। अपने सफर के बारे में उनका कहना था कि हर सामान्य व्यक्ति की तरह उनका जीवन भी उतार चढ़ाव वाला रहा है। यहां तक बात कश्मीरी भाषा की है तो यह भाषा भीअन्य स्थानीय भाषाओं की तरह मौजूदा समय में कई चुनौतियों से गुजर रही है। हर भाषा एक पूरी संस्कृति का आइना होती है। अगर कश्मीरी भाषा नहीं होगी तो कोई कश्मीरी नहीं होगा। कोई कश्मीर नहीं होगा। भाषा यहां एक ओर संवाद का माध्यम है तो वहीं दूसरी ओर यह लाेगोंं को आपस में जोड़ती भी है। यह पहचान का काम करती है। कश्मीरी भाषा की चुनौतियों को लेकर उनका कहना था कि कश्मीरी भी कई चुनौतियों का सामना कर रही है। उर्दू और अंग्रेजी बहुत तेजी से अपना स्थान बना रही हैं और समय के साथ कश्मीरियों का भी कश्मीरी जुबान के प्रति रुझान भी बदला हैै। हम पर एक प्रकार से सांस्कृतिक हमला हो रहा है, ऐसे में हमें अपनी भाषा बचानी होगी। इसका अर्थ यह नहीं है कि हम दूसरी भाषाओं से नफरत करें। हमें दूसरी भाषाओं काे भी सीखना होगा। दुनिया और तकनीक की अनदेखी नहीं की जा सकती। इसके अलावा हमारी शिक्षा व्यवस्था भी ऐसी होेनी चाहिए जो मातृभाषा का प्राथमिकता दे। उन्होंंने अनुवाद के महत्व को भी खास तौर पर रखा।
तब आती है कश्मीरी होने पर शर्म
प्रो राही से विदा लेते समय मैंने उनसे ऐसा सवाल पूछा जो मैं आफिस से निकलते समय सोच कर निकला था। मैंने पूछा कि आपको कब भारतीय होने पर गर्व होता है और कब कश्मीरी होने पर शर्म आती है। यह सवाल सुनते ही प्रो राही के शांत और मुस्कुराते चेहरे के हाव भाव बदल गए और बोले- यह बहुत तीखा सवाल है। फिर थोड़ी देर सोच कर उनका कहना था कि मैं गांधी के देश का हूं, यह मेरे लिए गौरव की बात है और जब भी कश्मीर में किसी बेगुनाह का लहू बहता है तो उनको अपने कश्मीरी होने पर शर्म आती है। एक ओर घटना का जिक्र मैं विशेष रूप से करना चाहूंगा। बात सन 2008 की है। पूरी रियासत श्री अमरनाथ भूमि विवाद की आग में जल रही थी। पूरी रियासत दो पक्षों में बंट चुकी थी। हमारे संपादक चाहते थे कि रियासत के महत्वपूर्ण सााहित्यकारों से बात कर इस विषय पर लेख छापा जाए। इसका जिम्मा मुझे दिया गया। मैंने सबसे पहले दिल्ली फोन कर साहित्यकार पदमा सचदेव से बात कर लेख तैयार किया जो अखबार के संपादकीय पेज पर छपा। उसके बाद मैं चाहता था कि इस विषय पर कश्मीरी साहित्यकार से बात की जाए। मैंने श्रीनगर प्रो राही के घर फोन मिलाया और फोन भी संयोग प्रो राही ने ही उठाया। मैंने कहा कि पूरी रियासत के जो हालात है, मैं उनसे इस विषय पर विस्तार से बात करना चाहता हूं। उस पर उन्होंने अपनी असमर्थता व्यक्त करते हुए कहा कि ऐसे हालात में कुछ भी कहना उनके लिए उचित नहीं रहेगा। खैर, उस समय घाटी के हालात भी बहुत ज्यादा संवेदनशील थे। मैंने भी शुक्रिया करते हुए रिसीवर को नीचे रख दिया।
जम्मू कश्मीर के श्रीनगर में छह मई 1925 को पैदा हुए कश्मीरी कवि, अनुवादक और आलोचक प्रो रहमान राही का निधन नौ जनवरी 2023 को 97 साल की आयु में हुआ।
प्रस्तुति: कुमार कृष्ण शर्मा
94191-84412
( फोटो गूगल की मदद से विभिन्न साइट से साभार लिए गए हैं)
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