'चतुर कवि तो कविता में गाल बजाएगा
नदी का मर्सिया तो पानी ही गाएगा'
केशव तिवारी हिंदी - कविता के सशक्त हस्ताक्षर हैं। 04 नवम्बर, 1963 में प्रतापगढ, अबध में जन्मे , उनके चार कविता - संग्रह, "इस मिट्टी से बना", "आसान नहीं विदा कहना", " तो काहे का मैं ", "नदी का मर्सिया तो पानी ही गाएगा ", प्रकाशित हुए हैं । अन्य भारतीय भाषाओं में कविताएं अनूदित होकर प्रकाशित हुई हैं / हो रही हैं ।
उनके इस संग्रह ( नदी का मर्सिया तो पानी ही गाएगा ) की कविताएं परिपक्व तो हैं ही, ये जीवन में व्याप्त तमाम तरह की उठा - पटक, सालों - साल के सहन - दर -सहन के बावजूद, लेखन की ताकत को साधिकार पाठक के हक में खींच लाती हैं। इस संग्रह की भाषा, प्रत्येक कोण से इसे मौलिक बनाती है। यह एकालाप का नहीं, संवाद का संग्रह है। इसमें कवि मात्र बखान नहीं, स्थिति - विशेष को पाठक तक ले जाने के उपक्रम रचता है। उनकी शैली का जादू यह भी है कि इसे मात्र आभास नहीं समझ सकते। पाठक यहां , सोच व विचार को अपनी तरह से देखता - परखता है । यहां एक देशज भाषा का आलोक व्याप्त है ।
" पाठा में चैत "
गली- गली अटी पड़ी है
महुआ की महक
उतर रही है
पहली धार की
घोपे के पीछे------
***
' ... दुःखों की गांठ
और कसती जा रही है
फागुन के उद्धत होते
लाल गमछे से
चैत पोंछ रहा है
अपने पसीने में डूबा धूसर माथ ...'
***
' चूल्हे पर चढ़ी खाली बटुई - सा
धिक रहा मन
रात से ...'
***
' रात खेतों पर मचानों पर सोती है
दिन कहीं मेड़ -डाँड़ खटता है ...'
इस संग्रह की रेखांकित करने वाली खूबी यह भी है कि यहां उन विषयों को छुआ गया है , जो अभी तक अछूते रहे । जैसे कि यहां महानद चंबल साक्षात विद्यमान है ।
' ... चंबल की घाटियों में
तुम्हारा विचरना
तुम्हारी बाँकी चाल
बुंदेलखंड की प्यास से तुम्हारा
क्या रिश्ता है
पुराणों का दर्शाण
हमारी धसान
हमारे रक्त
हमारी जिह्वा में घुला है
तुम्हारा नमक ...,'
' उर्मिल ' , ' जेमनार ' जैसी कई अन्य कविताएं भी इसी की गवाही देती मिलती हैं ।
हमारे वर्तमान की शिनाख़्त करता यह संग्रह कतरा - कतरा हमारी धमनियों में उतरता चला जाता है।
' ...एक शराबी पुलिया पर बैठा
शिकायत कर रहा था
उसे भी किसी ख़ास शाम का इंतज़ार था ...'
***
' इंतज़ार की रस्सी में लटका
एक मुल्क था
जिसे बस एक नट के इशारे का इंतज़ार था ।'
***
' ...जिसे जो दिख रहा है
वो औरों को दिखा नहीं पा रहा है ...'
इसी तथ्य को और गहराई से आंकने के लिए , ' डोर टू डोर सामान बेचती लड़कियां' में स्पष्ट: देखा जा सकता है :
' ये किसी महानगर से नहीं
किसी आसपास के कस्बे से आकर डोर टू डोर
बेच रही हैं सामान
जिस बाज़ार ने इन्हें वस्तु बनाया
उसी ने दी है यह आज़ादी...'
अब देखें की निचली कविता हमारे समाज की कैसी तर्जुमानी कर रही है :
' चीज़ें दूर ही नहीं थी
वे दूर और दूर होती जा रही हैं
उन्हें पाने की इच्छाएं प्रबल और प्रबल
जो ज्ञान उन्होंने जीवन से अरजा था
वह बड़ी चतुराई से लगभग पुराना
और व्यर्थ साबित किया जा चुका था
जीना किसी को था
उम्र कोई और तय कर रहा था ...'
इस संग्रह की कुछ और बेहद ज़रूरी कविताएं हैं , 'ये आवाज़ें' और 'एक कवि के पास' ।
अब कवि 'छूटने' को ही किन - किन अर्थों में रचता है, यहां उनके कहन के कमाल को प्रत्यक्ष: देखा जा सकता है।यहां ऐसा संश्लेषण, ऐसा गुंफन है, जो पाठक को अपने साथ बहा ले जाता है ।
'अनुवाद में जैसे कभी - कभी
शब्दों के मोह में
कुछ अर्थ छूट जाते हैं
कटे गेहूं के खेत में सीला बीनते
कुछ बालें कुछ दाने छूट जाते हैं ...'
इस संग्रह की कविताएं फोटोजेनिक बिंब भी रचती हैं, इसी के साथ यहां एक भौगोलिक संकल्पना मूर्त होती है ।
"आवाज़ "
' रनगढ़ पर उतर रही है शाम
नीचे प्राचीर पर पीठ टिकाए
बैठे हैं हम ...'
यह संग्रह कविता के विद्यार्थियों के पुस्तकालय में बेहद ज़रूरी है।
केशव तिवारी जी को हार्दिक बधाई ।
प्रकाशक :
हिन्द युग्म ,सी - 31 ,सेक्टर 20 ,नोएडा ( उ. प्र .)
पिन - 201301
फोन : 91-120- 4374046
— मनोज शर्मा
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