Monday, October 20, 2025

छत्तीसगढ़ की दीपावली : सुरहुती

दीवाली भारत का  महत्वपूर्ण त्योहार है जो अपनी मूल परम्परा में खेती की सफलता और पशुपालन का त्योहार है।  इस मूल परम्परा के दर्शन हमें छत्तीसगढ़ की दीवाली जिसे यहाँ देवारी कहा जाता है, उसमें आज भी दिखाई देता है। यह परम्परा सुआ गीत,  ग्वालिन स्थापना, सुरहुति, खिचड़ी (अन्नकूट), मातर मड़ई,  और जेठोनी के रूप में महीने भर में सम्पन्न होती है। जहां छत्तीसगढ़ के उत्तरी हिस्से सरगुजा में यह सोहराई परब है वहीं दक्षिणी हिस्से बस्तर में दिवाड़ है जिसमें ‘हुलकिंग पाटा’ की धूम रहती है। मध्य छत्तीसगढ़ में लक्ष्मीपूजन की रात इसरदेव (संभू) और गौरा (पार्वती) का बिहाव होना है। इसी बिहाव के निमंत्रण और आयोजन हेतु धन धान्य का संग्रह करने लड़कियां और महिलाएं घर-घर के लिए निकलती हैं और सुआ गीत गाती हैं।  गौरतलब है कि लक्ष्मीपूजन की रात यहां शिव पार्वती का विवाह हो रहा है अर्थात छत्तीसगढ़ की मूल परम्परा में देवशयनी नहीं है क्योंकि देवउठनी के पहले ही स्वयं आदिदेव शिव का विवाह हो रहा है। विवाह की यह रात छत्तीसगढ़ में ‘सुरहुति’ कहलाती है। इस विवाह पर डॉ. भुवाल सिंह ठाकुर का यह लेख ‘छत्तीसगढ़ की दीपावली : सुरहुति’  प्रस्तुत है -

-पीयूष कुमार

 छत्तीसगढ़ की दीपावली : सुरहुती


सुरहुत्ती अर्थात गौरा गौरी के विवाहोत्सव और दीपदान का दिवस। कार्तिक अमावस्या के दिन जब पूरा देश लक्ष्मी पूजन करता है उस दिन छत्तीसगढ़ में लक्ष्मी पूजन के साथ एक विशिष्ट लोकपर्व भी मनाया जाता है जिसे 'गौरी गौरा विवाह लोक उत्सव' कहा जाता है।

गौरा अर्थात् शिव और गौरी से आशय है पार्वती। गौरी -गौरा विवाहोत्सव हालांकि लक्ष्मीपूजन की रात्रि सम्पन्न होता है लेकिन इसकी मूल स्वरूप में यह पर्व गौरी और गौरा के जन्म,विवाह और विसर्जन तक के संस्कार तक विस्तारित है। गौरा -गौरी विवाहोत्सव की तैयारी  लक्ष्मीपूजन के 9 दिन पहले ही शुरू हो जाती। कहीं कहीं पर इसकी शुरुआत 3 या 4 दिन पहले भी शुरू होती है। यह पर्व मुख्य रूप से आदिवासी समाज के निर्देशन में सम्पन्न होता है। ख़ासकर छत्तीसगढ़ के मैदान में गोंड एवं कंवर जनजाति द्वारा लेकिन छत्तीसगढ़ के मैदानी क्षेत्र के गांव में अगर दोनों जनजाति के निवासी नहीं है तो गांव का कोई भी समुदाय इस पर्व को मिलजुलकर सम्पन्न करते हैं।ध्यान देने वाली बात यह है कि लक्ष्मीपूजन के दिन छत्तीसगढ़ के लगभग हर गांव में गौरी गौरा की बारात निकलती है। यह छत्तीसगढ़ लोक की विशिष्टता है।


गौरी गौरा लोक उत्सव की शुरुआत लक्ष्मीपूजन के 9 दिन पहले हो जाती है। इसकी शुरुआत से जुड़े लोकरस्म भी है। गांव में गौरा चौरा के पास महिलाएं (मुख्य रूप से आदिवासी) एकत्रित होकर गड्ढे में तांबे का टुकड़ा, मुर्गी का अंडा और पांच प्रकार के फूल को कुटकर अर्पित करते हैं। तत्पश्चात बोरझरी के कांटे गौरा चौरा को समर्पित किये जाते हैं। वे महिलाएं टोकरी में फूल लेकर लोकगीत गाती हुई लोकनृत्य करती है। इसमें गौरा और गौरी का आह्वान किया जाता है। इस प्रक्रिया को "फूल कुचरना"कहा जाता है। नृत्यरत महिलाएं गाती हैं-

एक पतरी रैनी भैनी राय रतन हो दुरगा देवी

तोरे शीतल छांव चौकी चंदन हो पीढूली

गौरी के होथय मान जईसे गौरी हो मान

तुम्हरे तइसे कोरवा के डार पाने ल खाथव हो

फुले पहिरथय खेलत सगरी के पार...

लोक की महिलाएं गौरी और गौरा की प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि हे वंदनीय हम सभी महिलाएं पत्तल में पुष्प रूपी लोकरतन लाये हैं हे गौरा रूप दुर्गा देवी तुम्हारे शीतल छाया रूपी आशीष के कारण हम सबके जीवन में उजाला है। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि लोक नारियां सोना, चांदी, हीरे जवाहरात गौरा को अर्पित नहीं कर रही है बल्कि अपने आसपास मौजूद पुष्प और वनस्पति उसे अर्पित कर रही हैं जिसे वे रतन कहती हैं। मनुष्य और प्रकृति के सहजात संचरण के साथ अपने लोकदेव को बिना अतिरिक्त प्रदर्शन के प्रणाम भाव का अनूठा पक्ष है गौरा गौरी पर्व।

शुरुआत के 9 दिन जिस 'फूल कुचरना संस्कार' की बात हो रही है वह निराकार गौरा- गौरी का है। सभी महिलाएं अपने मनोनुकूल अपने आराध्य को देख रही है। यह रूप भगवान को चारदीवारी में बांधने की बंदिश से जुदा है। आगे छत्तीसगढ़ की नारियां समवेत स्वर में कहती है -  हे गौरी देवी हम आपको अपने सूखे लकड़ी से निर्मित पीड़हा में अपने शुभ प्रतीक बनाकर उसमें स्थान ग्रहण करने के लिए आमंत्रित करते हैं। यहां आदिवासी समाज की महिलाएं सूखे लकड़ी से पीड़हा (आसन) बनाये है न कि वृक्ष को काटकर। यह उनके लोककारीगरी के साथ उनके जागृत बोध में लबरेज़ श्रम के सौंदर्य का पता देता है। ये महिलाएं इस प्रकार गौरी को मान दे रही है।


वे आगे कहती है- हे गौरी जैसे हम तुम्हारे मान रखेंगे वैसे ही तुम हमें अपने कोरा (गोद) में हमें स्थान देती हो। आगे भक्त और भगवान दो न रहकर एक हो जाते हैं। गौरी अभी जन्म नहीं ली है सिर्फ उसकी परिकल्पना यहाँ की गई है। लोक स्त्रियां गौरी को अपने जीवनचर्या के उल्लास से परिचित करा रही हैं- हे गौरी हम सब पान खाते हैं। पान लालिमा का प्रतीक है। स्त्री जीवन के सहज उल्लास का भी। वे स्त्रियां फूल पहनती है अर्थात् फूलों का शृंगार करती है और सागर अर्थात् तालाब के पार (किनारे) पर खेलती है। छत्तीसगढ़ में विशाल तालाब को सागर भी कहा जाता है। यहां ऐसा लग रहा है मानो कोई सखी अपने से दूर रहने वाली सखी का अभिनन्दन करने के लिए उसे अपने विविध जीवन प्रसंगों को सविस्तार बताकर आमंत्रण दे रही हो।यह आमंत्रण लोक नारियों द्वारा गौरा-गौरी को है। निमंत्रण के साथ ही लोकनारियां समस्त जनसमुदाय और देवी देवताओं का आह्वान करती है-

गौरा जागे मोर गवरी जागे, जागे सहर के लोग

बाजा बाजे मोर ईसर औ नचनियां  जागे गवइया लोग

बैगा जागे,मोर बैगिन जागे,जागे सहर के लोग…

लगातार फूल कुचने के रस्म के बाद लक्ष्मीपूजन के दिन सभी स्त्रियां और पुरुष गौरा-गौरी की प्रतिमा निर्माण के लिए मिट्टी लाने जाते हैं। गढ़वा बाजा छत्तीसगढ़ की विशेष पहचान है जब गौरा -गौरी के लिए ग्रामीण जन तालाब या नदी के किनारे समूह में जाते हैं उस समय गढ़वा बाजा की लोकधुन नई स्वरलहरियां बिखेरती है। इस अवसर के लिए छत्तीसगढ़ के वाद्य कलाकारों ने विशेष रूप से गौरा -गौरी पार (लोकधुन) का निर्माण किया है। जिसमें विशेष प्रकार की गति और उत्सवधर्मिता का बोध होता है। गौरी गौरा निर्माण के लिए डिलवा (ऊंचे स्थान) से मिट्टी लाने का रिवाज है। यह ऊंचा स्थान शिव के निवास कैलाश पर्वत का प्रतीक है। मिट्टी कोडने के दौरान विभिन्न लोकरस्म अदा की जाती है। कोड़े गए मिट्टी को कुंवारी मिट्टी कहा जाता है। कुंवारी मिट्टी के गौरा वाले भाग को नए डलिया में  डालकर कुँवारा लड़का उठाता है और गौरी वाले भाग को कुंवारी लड़की। मिट्टी कोड़ने के दौरान जो लोकगीत छत्तीसगढ़ में गाये जाते हैं वह ईश्वर के मानवीकरण का अद्वितीय रुप है-

राजा हिमांचल गोंडे राजा

माटी कोड़ें बर जात हे हो

कहां अउ गौरा रानी जाति

जनमल कहां लिए अवतार हो

डिलवा के माटी मोरा जाति जनमल

राजा हिमांचल घर लेहे अवतार हो...

हाथे झन लागय भाई गोंडे झन लागय

मैं नारफुल सहित हादों डिलवा म

नागिन नाग रखवार हो

एक कली जिरत है चुलमाटी

दूसर कली गौरा रानी ल भरत हे हो

डहर डहर आवत हे गोडे राजा

राजा हिमांचल घर आत हे हो…


छत्तीसगढ़ लोक में गौरी और गौरा को मिट्टी से उत्पन्न माना जाता है। उनके रूप के सिरजनहार भी मनुष्य होते है। भगवान को भक्त सिरजे यह अद्भुत उत्सव छत्तीसगढ़ की अपनी विशेषता है। स्त्रियां सामूहिक स्वर में गा रही हैं कि राजा हिमांचल मिट्टी कोड़ने जा रहे हैं। स्त्रियां गौरा रानी से प्रश्न कर रही हैं कि आप कहां अवतार लेती हो? गौरा उत्तर देती है हिमांचल राजा के घर। यहां हिमांचल का घर लोक नरनारियों का गांव है। जहां कोई महल नहीं बल्कि प्राकृतिक ऊंचे नीचे उठान लिए मिट्टी है जहां गौरा जन्म ले रही है। लोक नारियों की वात्सल्यजनित पुकार दर्शनीय है मिट्टी कोड़ने वाले पुरुषों से वे कह रही है कि इस डिलवा के नीचे गौरी शिशु रूप में है इसलिए प्रेम से धीरे धीरे इस मिट्टी को हटाओ। किसी का हाथ और पैर शिशु पर नहीं लगना चाहिए। नारफुल सहित जैसे शिशु मां के गर्भ से जन्म लेता है उसी प्रकार नारफुल सहित गौरी मिट्टी के डिलवा से निकाला जा रहा है। वात्सल्य का ऐसा लोक रूप गौरी गौरा पर्व की विशेषता है। इस संस्कार में मिट्टी का मनुष्य द्वारा मानवीकरण दुनिया में अनूठी है। मिट्टी के प्रति वात्सल्य का यह रूप आगे बढ़ता है। स्त्रियां मिट्टी रूपी नारफुल में लिपटी गौरी को टोकरी में स्थान दे रहे हैं। जनसमुदाय अपनी बेटी गौरी को हिमांचल बनकर गांव के बीच में ले जा रहे हैं।

मिट्टी के रूप में गौरा-गौरी गांव के उस स्थान पर लाया जाता है जहां अब प्रतिमा निर्माण का कार्य सम्पन्न होना है। अधिकांश गांवों में गौरी गौरा के लकड़ी सम्बन्धी सजावट बढई द्वारा और मिट्टी सम्बन्धी सजावट और मूल प्रतिमा निर्माण लोहार (विश्वकर्मा) या कुम्हार जाति के लोग करते हैं लेकिन जहां इस जाति के लोग नहीं रहते वहां कोई भी जानकार व्यक्ति इस कार्य को सम्पन्न करता है। अगर गौरी गौरा के लिए मिट्टी कोडाई उनका शिशु रूप है तो प्रतिमा निर्माण उसका युवा रूप। गौरी गौरा की प्रतिमा को मूल रूप से लाई गई कुंवारी मिट्टी का बनाया जाता है। सजावट के लिए इस समय खेतों में मौजूद धान की बालियां, मेमरी, सिलयारी आदि प्राकृतिक वनस्पतियों का उपयोग किया जाता है। साथ ही अब गौरी गौरा को रंगबिरंगे कागजों (सनपना) और अन्य साधनों से भी सजाया जाता है।

गौरी को कछुएँ में और गौरा को बैल (नन्दी) की सवारी में बैठाया जाता है। इस प्रकार धूमधाम से गौरा और गौरी को विवाह के लिए तैयार किया जाता है। लोकसमुदाय की सौंदर्यबोध का एक रूप है यह उत्सव। जब गौरी- गौरा की प्रतिमा बनकर तैयार हो जाती है तब गढ़वा बाजा में गौरी गौरा पार (धुन) बजाते हुए गौरी-गौरा के स्वागत के लिए कलसा निकालने हेतु पूरे गांव लोगों और देवी देवताओं को निमंत्रण दिया जाता है-

करसा सिंगारत बहिनी रिगबिग सिगबिग

करसा सिंगारत बहिनी बड़ निक लागे

बहिनी सिंगारत बड़ सुख लागे भईया!


कलसा निकालने के आमंत्रण के बाद समस्त ग्रामवासी शिव (गौरा) के बारात में शामिल होने हेतु प्रतिमा निर्माण स्थल में आते हैं। कुंवारी लड़की गौरी को सिर में उठाती है और कुँवारा लड़का गौरा को फिर बारात निकल पड़ता है। शिव -पार्वती  के बारात का स्वागत छत्तीसगढ़ के लोकजन अनूठे रूप में करते हैं। सर्वप्रथम गौरा गौरी धुन में सब मग्न होकर नाचते हैं। लड़कियां 'देवी चढ़ती' है। देवी चढ़ने के दौरान वे ‘झूपती’ हैं। इसमें वे अपने सिर को हिलाती है और जोर जोर से आवाज करती हुई धरती में लोटती हैं साथ ही स्त्री और पुरुष जलती हुई अग्नि को तेल के रूप में शरीर में गिराती है। इस गर्म तेल को शरीर में गिराने की क्रिया को 'बोड़ा लेना' कहते हैं। कुश की रस्सी को लपेटकर 'सांट' बनाया जाता है। जिसे लड़के और लड़कियां नृत्य के दौरान अपने शरीर में इस सोंटे को मरवाती है। सांट और बोड़ा लेने का सम्बंध मनोकामना सिद्धि हेतु किया गया प्रयत्न है। गौरी गौरा लोकधुन में शरीर का झूमना और धरती पर लोटना लोकसंगीत के मर्मभेदी प्रभाव का अलहदा रूप है।


अब गौरा -गौरी की बारात निकली है। स्त्रियां गा रही हैं -


लाले -लाले परसा

लाले हे खमार

लाले हे इसर राजा घोड़वा सवार...

घोड़वा कुदावत ईसर पैया वो लरकगे

गिर परे माथा घलो फुले हो लाल...

एक तोर बरे बिहईया हो लाल

बरे बिहईया बहिनी सब दिन सब दिन

हम तुम डुमरी के फुले हो लाल...


इस लोकगीत में ईसर राजा से आशय गौरा (शंकर) से है। जिस प्रकार पलाश, खमार और डूमर के फूल लाल होते हैं उसी प्रकार लालिमा से युक्त लोकदेव गौरा घोड़े में बैठकर आगे बढ़ रहे हैं।

बारात के दौरान विवाह सम्बन्धी सभी रस्मों से सम्बंधित लोकगीत गाये जाते हैं। एक प्रकार से लोक की यह उत्सवी त्यौहार देवप्रबोधिनी एकादशी (तुलसी विवाह) से पहले गौरा गौरी का विवाह शास्त्र परम्परा से इतर लोक परम्परा की द्योतक है। दूसरे रूप में है लोकजीवन में व्याप्त विवाह संस्कार से नई पीढ़ी को परिचित कराने का आयाम भी है।

जब गौरा अपने ससुराल के लिए निकल पड़ती है तब लोकनारियाँ उनके लिए विभिन्न प्रकार की शुभकामनाएं व्यक्त करते हुए कहती है-


धीरे धीरे रेंगबे गौरी ओ गोंटी गडी जाही

गोंटी गडी जाही गौरी ओ खड़ा होई जइबे

जाये बर जाबे गौरी ओ फूल टोरी लाबे

फुलवा के टोरत गौरी ओ कनिहा पिराही

कनिहा पिराही गौरी ओ खड़ा होई जाबे

जाय बर जाबे गौरी ओ देइदे असीसे

चुरी अम्मर रहय गौरी ओ जियो लाख बरिसे



बरात समाप्ति के बाद गौरा गौरी को नियत स्थान (गौरा चौरा) ले जाया जाता है। वहां गौरा गौरी को सोने (विश्राम) करने कहा जाता है-


सुतव गौरा मोर सुतव गौरी हो 

सुतव सहर के लोग

सुतव भवइया मोर सुतव बजईया हो

सुतव सुनइया लोग 

हम धनी सुतबो हो मैया के कोरवा

चंदा ल दइबोन असिस… 

विवाह और विश्राम के बाद पुनः गौरी -गौरा को जगाया जाता है। अब समय गौरा -गौरी का विसर्जन का होता है। बरात के समय का उत्साह अब करुण रस में बदल जाता है। पूरे ग्रामवासी बाजे गाजे के साथ गौरा- गौरी को सिर पर धारण कर नदी या तालाब में विसर्जन करने जाते हैं- 


ढेला ढेलौनी जौहर सेनी ढेला ल मारे तुसार

ईसर राजा कातिक नहाये धोतियां ल मारे तुसार…

जनसमुदाय विसर्जन में भी आशा देखता है और कहता है गौरा -गौरी कहीं जा नहीं रहे बल्कि वे कार्तिक स्नान करने आएं हैं। विसर्जन के बाद गौरा गौरी की मिट्टी और सनपना (चमकीली कागज) और विभिन्न वनस्पतियों को एक दूसरे के बीच शुभ भाव के साथ वितरित किया जाता है। छत्तीसगढ़ में मित्र बनाने की अद्भुत परम्परा है जैसे दवना के पत्ते को साक्षी मानकर दवनापान बदना, गंगा जल को साक्षी मानकर गंगाजल बदना, जंवारा को साक्षी मानकर जंवारा बदना, उसी प्रकार गौरा गौरी के सनपना को साक्षी मानकर सनपना भी बदते हैं।

गौरा गौरी का यह विवाहोत्सव लोक द्वारा माटी का उत्सव है। माटी जो जीवन का सच है। माटी जीवन और सृजन का प्रतीक भी। जिस माटी की प्रकृति को अपने कर्म से जोड़कर मनुष्य गौरा -गौरी को मूर्त जीवन बोध देता है वहीं कुम्हार दीपावली के सार दीपक बनाता है। मिट्टी प्रकृति है तो दीपक संस्कृति।

(तस्वीरें : पीयूष कुमार, बागबाहरा, छत्तीसगढ़)


लेखक परिचय

डॉ. भुवाल सिंह ठाकुर

असिस्टेंट प्रोफेसर (हिंदी)

शासकीय नागार्जुन विज्ञान स्नातकोत्तर महाविद्यालय

रायपुर (छत्तीसगढ़)

मोबाइल : 7509322525

 

 

Thursday, October 16, 2025

घोड़ी- लड़के की शादी में गाए जाने वाले डोगरी लोक गीत

 




हिंदी में भावार्थ  


चूरी कचूरी देही में घोली है आओ बेटा खाओ जी

घर पहुंचते ही मां पूछ रही है, सास ससुर कैसे हैं
मेरा ससुर तीन लोकों का राजा है और सास गंगा जल की तरह है

नौ महीने बेटे को गर्भ में रखा, अब जा सास ससुर को सराह रहा है
गुस्सा मत हो मेरी मां दोबारा ससुराल नहीं जाउंगा

चूरी कचूरी देही में घोली है आओ बेटा खाओ जी

घर पहुंचते ही बहन पूछ रही है कि साला साली कैसे हैं
मेरी सालियां चंबे की कलियां हैं और साले की क्या  तारीफ करूं

छह महीने भाई के के साथ गलियों में खेली, अब जा साली साले की प्रशंसा कर रहा है
गुस्सा मत हो मेरी मां दोबारा ससुराल नहीं जाउंगा

चूरी कचूरी देही में घोली है आओ भाई खाओ जी

घर पहुंचते ही भाभी पूछ रही है कि प्रियतम कैसी लगी
सूर्यादय के समय जैसे किरणें फैलती हैं, वो तुमसे ज्यादा सुंदर है

छह महीने देवर को खाना बना कर खिलाया, अब जा तारीफ पत्‍नी की कर रहा है
गुस्सा मत हो मेरी भाभी दोबारा ससुराल नहीं जाउंगा

चूरी कचूरी देही में घोली है आओ देवर जी खाओ जी


गायिका- शीला शर्मा