Thursday, March 12, 2015

तस्लीमा नसरीन

हम उन्हें बचा नहीं पाए


अभिजीत (राय) से मेरा परिचय पंद्रह-सोलह वर्ष पहले हुआ था। तब वह सिंगापुर में रहते थे। थोड़े दिनों की बातचीत और उनके कुछ ब्लॉग पढ़ने के बाद मुझे लगा कि ब्रह्मांड, दुनियावी परिवर्तन, दर्शन, धर्म और अंधविश्वास जैसे मुद्दों पर अभिजीत और मेरी सोच में कोई फर्क नहीं है। हम मूलतः एक ही आदर्श से चालित हैं। अभिजीत मेरी किताबें पहले ही पढ़ चुके थे, इसलिए नारीवाद, मानवतावाद और अस्तित्ववाद के प्रति मेरे नजरिये से वह परिचित थे। उस समय उन्‍होंने मुक्तमना नाम से एक ब्लॉग की शुरुआत की थी। खुली सोच और तर्कवाद का समर्थक कोई भी आदमी उस ब्लॉग में लिख सकता था। खासकर मेरे लिए इससे अच्छी चीज और क्या हो सकती थी, जिसके पास अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार तक नहीं है! तब तक बांग्लादेश के प्रकाशकों ने मेरी किताबें छापना बंद कर दिया था। हालत यह थी कि पश्चिम बंगाल में मेरी किताब आज छपती थी, तो अगले ही दिन बांग्लादेश में वह प्रतिबंधित हो जाती थी। बांग्लादेश से बाहर कर दिए जाने के बाद से ही वहां की पत्र-पत्रिकाओं ने भी एक तरह से मुझे ′निषिद्ध′ कर दिया है। ऐसे में अभिजीत का मुक्तमना मेरे लिए जरूरी प्लेटफॉर्म था। मैं देखती थी कि मुक्तमना में मेरे जैसे अनेक लोग थे। इनमें से ज्यादातर मजहबी सोच के मामले में उदार बंगाली मुसलमान थे। प्रगतिशील सोच के किसी भी व्यक्ति से मुलाकात होने पर मैं उनसे मुक्तमना पढ़ने का अनुरोध करती थी।



अभिजीत मुझसे आठ-नौ वर्ष छोटे रहे होंगे। किंतु स्नेह नहीं, मैं उन्हें श्रद्धा की नजरों से देखती थी। विज्ञान और दर्शन के दुरूह तत्वों को साधारण पाठकों के लिए सरल और उपयोगी बनाकर अभिजीत राय जिस तरह एक के बाद एक किताब लिख रहे थे, वह मेरे लिए कभी संभव नहीं था। उनकी तरह धैर्य मुझमें नहीं है। उनसे मैं रूबरू हालांकि कभी नहीं हुई। लेकिन ऐसा कभी लगा नहीं कि हमारी मुलाकात न हुई हो। अगर एक दूसरे के प्रति विश्वास अटूट हो, तो एक दूसरे से दूर होने पर भी दूरी का एहसास कभी नहीं होता।
विगत दिसंबर में ही जब उनसे फोन पर बात हुई थी, तब मैं न्यूयॉर्क में थी। उस समय उन्होंने मुझे जॉर्जिया के उनके घर पर घूमने आने के लिए भी कहा था। मैंने वायदा किया था कि एक बार वहां जरूर जाऊंगी और अभिजीत के साथ-साथ उनकी पत्नी और बेटी के साथ जमकर बातचीत करूंगी। अभिजीत के साथ मेरी कभी मुलाकात नहीं होगी, वह इस बातचीत के तीन महीने बाद जीवित नहीं रहेंगे, यह मैं भला कैसे जान पाती! अभिजीत के साथ मुलाकात भले न हुई हो, पर उनके पिता अजय राय से मेरी भेंट हुई है, जो ढाका विश्वविद्यालय में भौतिकी के प्रोफेसर थे। कोलकाता के मेरे घर पर भी वह आ चुके हैं। वह मेरे लिए हमेशा चिंतित रहते थे। उनकी चिंता यह थी कि मौका मिलने पर कट्टरवादियों का समूह मुझे काट न डाले। कट्टरवादियों ने काट तो डाला ही, पर मुझे नहीं, मुझसे बहुत अधिक प्रतिभाशाली, ज्ञानी और तर्कबुद्धि-विश्लेषक अभिजीत राय को।
पिछले दो-तीन साल से ही इस्लामी कट्टरवादी अभिजीत को मार डालने की धमकी फेसबुक पर दे रहे थे। फेसबुक से हत्यारों की शिनाख्त कर उन्हें गिरफ्तार करने में बांग्लादेश सरकार को बहुत ज्यादा समय नहीं लगेगा। एक व्यक्ति की गिरफ्तारी जरूर हुई है। लेकिन प्रधानमंत्री शेख हसीना ने इस नृशंस हत्या पर एक शब्द कहना तक जरूरी नहीं समझा। ऐसे में, अभिजीत के हत्यारों को संभवतः सजा भी न हो, आखिर इससे पहले चर्चित लेखक हुमायूं कबीर और ब्लॉगर व शाहबाग आंदोलन के संयोजक राजीव अहमद के हत्यारों को दंडित नहीं ही किया गया है।



करोड़ों लोगों की अंधेरी भीड़ में अभिजीत हाथ में रोशनी लिए खड़े थे। वह अमेरिका में रहते जरूर थे, पर बांग्ला में किताब और ब्लॉग लिखते थे, तथा फेसबुक पर भी सक्रिय थे। वर्षों से वह अशिक्षितों को तर्क और ज्ञान का प्रकाश बांट रहे थे। बांग्लादेश के धर्मांधों को उनका लिखा हुआ समझ में नहीं आता था, लेकिन वहां की सरकार को तो उनके लेखन का महत्व समझना चाहिए था। अभिजीत को सुरक्षा व्यवस्था मुहैया कराना उसका कर्तव्य था। इस बार अभिजीत अपनी मां को देखने, पुस्तक मेला में घूमने और अपनी दो किताबों के लोकार्पण समारोह में हिस्सा लेने बांग्लादेश गए थे। बांग्ला का कोई भी लेखक बंगाल का पुस्तक मेला देखने के लिए ललचा उठेगा। मैं दोनों बंगाल से (बांग्लादेश और पश्चिम बंगाल) बाहर कर दी गई एक बंगाली लेखिका हूं, इन दोनों जगहों में आयोजित होने वाले पुस्तक मेलों में जाने का मुझे कोई अधिकार नहीं है।
अभिजीत की हत्या के बाद बांग्लादेश के कट्टरवादी, सुना है, यह कह रहे हैं कि वह हिंदू होकर मुस्लिम धर्म की निंदा कर रहे थे, इसलिए उसकी हत्या उचित है। पर अब तक तो इन कट्टरवादियों के निशाने पर उनके मजहब के ही लोग रहे हैं। जबकि भारत में कुछ लोगों ने इस हत्या पर टिप्पणी करते हुआ कहा है कि ढाका की सड़क एक हिंदू के खून से रंग गई है। धर्म की बेड़ियों से मुक्त मानवतावादी अभिजीत सच में क्या उस अर्थ में हिंदू थे? नहीं, जिस अर्थ मैं खुद को एक मुस्लिम नहीं मानती। हमारी चिंताओं में संपूर्ण मानवता है।



(अमर उजाला से साभार)

(चित्र गूगल की मदद से विभिन्न साइट्स से साभार लिए गए हैं)

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