Sunday, July 5, 2020

मनोज शर्मा


मनोज शर्मा एक एक्टिविस्ट कवि हैं। इनका शब्द संस्कार जनान्दोलनों के सामूहिक सपनों से पैदा हुआ है। जन्‍म और शिक्षा भले ही पंजाब में हुई होजम्‍मू कश्‍मीर के साथ इनका संबंध अलग ही है। संस्‍कृति मंच की स्‍थापना हो या फिर पोस्‍टर कविताओंनुक्‍कड़ नाटकों या व्‍यक्तिगत संबंधों के आधार पर युवाओं को जोड़नामनोज शर्मा की भूमिका अपनी मिसाल आप हैंं। रियासत की पहली हिंदी दैनिक निकालने में भी मनोज का अहम रोल रहा है। कई सालों तक सांस्‍कृतिक स्‍तंभ 'फिलहाल' लिखा। रंगमंच के अलावा रेडिया और दूरदर्शन से भी जुड़े रहे और मुंबई प्रवास के दौरान जन संस्‍कृति मंच के मुंबई चैप्‍टर की स्‍थापना की। लगभग भी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। कविताओं का डोगरीपंजाबीमराठीउर्दू और अंग्रेजी में अनुवाद। कविता संग्रह यथार्थ के घेरे में, यकीन मानो मैं आउंगा, बीता लौटता है(पुरस्‍कृत) और ऐसे समय में’ प्रकाशित।

मेरी मनोज शर्मा से मुलाकात कोई पंद्रह साल पहले जम्‍मू कश्‍मीर की कलासंस्‍कृति और भाषा अकादमी के जम्‍मू स्थित अभिनव थिएटर के बाहर हुई थी। उसी दिन से उनके साथ ऐसा रिश्‍ता कायम हुआ जो समय के प्रभाव से परे है। यह उनका प्रेम ही है कि चाहे तीन या चार महीने बाद भी बात होहमारे बीच कोई औपचारिकता नहीं होती। उनका व्‍यक्तित्‍व विनोद और गंभीरता, प्रेम और विद्रोह का दुलर्भ मिश्रण है। उनकी कविता पंक्ति में खड़े आखिरी व्‍यक्तिसमय के यथार्थसाजिशों को बेनकाब करनेप्रेमसाहसविद्रोह की कविता है। हालांकि कुछ कविताएं अतिरिक्‍त समय की मांग भी करती हैं। हार्दिक आभार और अनंत शुभकामनाओं सहित 'खुलते किबाड़' पर प्रस्तुत हैं अग्रज मनोज जी की कुछ कविताएँ।


प्रेत


यह रात अंधियारी है

 जड़ों तक फैली हैं बड़ की शाखाएं 

और एक प्रेत उलटा लटका राहगीरों से पूछ रहा है सवाल 

पूछता है जानते हो मुझे 

मैं क्यूं हूं प्रेत... 

और यह भी मुझसे बचकर कहां जाओगे...? 


लोगों को जानने के 

मेरे ये पहले-पहले दिन थे 

मुझे केवल दोस्त,भाई,बहन,माता-पिता समझ में आते थे

 मैं केवल कहानियों में ही डर सुना करता था 

मुझे बताया गया था 

प्रेत एक खास तरह का ज़ोखिम होता है 

जो अपनी ज़िंदगी छोड़ 

ज़िंदगी आपकी में आना चाहता है

और इसे जीता-जीता 

आपको ही दरकिनार करना चाहता है 


अंधियारी है रात 

चांद पंद्रह दिन बाद फूटेगा

 कूक रहे हैं सियार 

तथा उलटा लटका प्रेत पूछ रहा है 

आप हैं कौन... मैं हूं कौन...? 


दरअसल हम अचानक भूल से

 प्रेत के इलाके में चले आते हैं 

और फिर

उसकी मारक गिरफ्त में आ जाते हैं 


प्रेत जीता है भूत 

यहां एक घातक गंध है 

उसके नथुने महकाती 

मौत खोले रहती है केश 

और सन्नाटे की सबसे मशहूर नाईन

 तेल झंसती जाती है 


प्रेत पूरा दिन, पूरी रात दरख्त पर लटके उलटे 

कहानियां बुनता है 

जिन्हें अमूमन कोई नहीं सुनता है

दरख्त की शाखाएं उसे उकसाती हैं 

फैलती जाती हैं... 


साथियो! 

मेरे सगे-संबंधों के सामने है प्रेत 

और मुझे अपने तमाम डर झटक

आज ही सोचना है 

कैसे किया जाए पलटवार 

हुआ जाए कैसे इसकी पीठ पर सवार... 


मैं दास नहीं हूं 


बहुत सारे भाषण हैं

और एक मैं हूं


जैसे बहुत सारा झाड़-झंखार है

और धरती है

जैसे बहुत सी प्यास है

और मीठा जल भी है,यहां-वहां

जैसे आकाश है फैला हुआ

और एक मोची

पूरे मनोयोग से जूता सी रहा है


मेरे बेटी ने पूछा

यह चुनाव क्या होता है...

बीवी ने जो फूलों की बेल बोयी थी

उस पर

पहले-पहल

दो फूल खिले थे

मुझे समझ नहीं आ रहा था 

बेटी को क्या जवाब दूं...


मैंने घर में लगी बेल को छांटा-काटा

गमले में पानी दिया

पर,जैसे सूरज चढ़ रहा था

वैसे ही भाषण चढ़ रहे थे


महोदय!

यदि यह कोई प्रतियोगिता है

मैं, इससे बाहर होता हूं

यह मैं हूं,आप ही जैसा

तथा आज,अभी होता हूं

दासता से मुक्त.


ऐसे समय में 


ऐसे मौसम में हूं 

कि अपने हाथों से 

अपना चेहरा नहीं छू सकता 

मिलना दूभर है साथियों से 

क्या किसी स्वप्न में हूं...


ऐसे संधी-स्थल पर 

बिना चीं-पुकार 

गिनती बन गए 

मुर्दा जीवन गिनना 

दरअसल 

आते-जाते श्वासों संग

अपनी ही चीत्कारें सुनना होता है


इस समय में 

रगड़-रगड़ धोता हाथ 

अपना होना परखता हूं

ऐसी पतझड़ में 

अपनों की खोज-खबर

भौंडी औपचारिकता रह गयी है 


कहते हैं 

कल चाँद ऐसे खिला   

कि धरती के काफी करीब आ गया 

कल ऐसी सोयी पत्नी 

कि सांझ तक

अपनी नींद को धन्यवाद देती रही 


कल फिर मैंने 

अकेले खाना खाया 

कल फिर मैंने 

मनुष्य होने की पीड़ा सही 


चिरंतन काल से 

एक ताल में बज रही है जिज्ञासा 

किताबों में फड़फड़ा रही है 

और गूँज रहा है 

जीवन, निरंतर 

अपने आगाज़ से ही बस 

जो सीधी-सरल स्पष्टता चाहता है.



कुशल है कोयल

  

अरण्य है और

सन्नाटे में 

कूक रही है 

कोयल


पसरी है जब घोर स्तब्धता 

जब बचा ही नहीं कोई अर्थ 

बचे नहीं हैं न्याय,अन्याय  

तो,कैसे तोड़ रही है एकांत

कूकती कोयल  


स्मृतियों में विचलित करती 

समग्र समय में बेपरवाह 

वह कूक रही है

क्या तुम कोइ दूत हो...


कोयल कूक रही है

जैसे 

ऋषि कर रहा हो अनुष्ठान 

जैसे आदेश, विचार, गणना हो कोई 


सरकता है काल

कह रही है जैसे कूक 

कोरे निर्णयों  और नीतियों को 

तकिया बनाने का युग नहीं है यह

डर 

जब कल्पना से अधिक मारक हो 

तब सुनो/फिर-फिर सुनो

यह मेरी कूक


हमारे मौजूदा सच

हमें कभी भूलने की अनुमति न देंगे 

हम जो जीते हैं हर रोज़ 

उससे अगली ही सांस संग 

मुंह मोड़ लेते हैं 

जैसे भूख

जैसे सगे-संबंधियों की बेबस पड़ी राख 


कूक रही है

कोयल निरंतर 

और वह कुशल से है !



तुम मेरी नदी हो !


हर लम्हा तुम 

हर सपना तुम

हर फूल तुम

तुम मेरी उम्मीद हो 


मेरी रातों में हो तुम

तुम्हीं हो

मेरे आकाश का चाँद

मेरी हंसी में

तुम्हीं ठहाका लगाती हो

तुम मेरी नदी हो


जो आवाज़ 

तमाम शोर में भी सुनाई देती रही

जो कुरेदती रही यादों को 

बजती रही मंदिर की घंटी सी

उसका क्या कहूँ …


मेरी डायरी हो तुम

जिसे रोज़ लिखता हूँ

तुम वो हवा हो

जिसे पल-पल फेफड़ों में भरता हूँ


जब सूरज ढलता है

तुम्हारी आँखों के कोरों से चूता

उदासी का पीलापन

चौतरफा फैली घास को

गीला कर जाता है


तुम दोस्ती का ऐसा मानक हो

जिसे पुस्तकों में दोहराया जाएगा

तुम होती हो जहां भी

माटी प्रामाणिक हो जाती है


जब तुम मिली 

माँ की तमाम लोरियाँ पूरी हो गयीं

होशमंद हुआ तथा लगा

इस दुनिया को

और खूबसूरत बना सकता हूँ

मैं !



संपर्क: 

नाबार्ड,  नाबार्ड टावरनजदीक सरस्‍वती धाम

रेल हैड कांप्‍लेक्‍सरेलवे रोड

जम्‍मू (180012)

मोबाइल: 7889474880

 

प्रस्तुति व फोटोग्राफ: कुमार कृष्ण  शर्मा


No comments:

Post a Comment