Sunday, July 31, 2022

अमरदीप सिंह


युवा उर्दू शायरअमरदीप सिंह से मेरी पहली मुलाकात इसी साल 26 मार्च को पटियाला में हुई। हालांकि पंजाबी के कवि और मित्र स्‍वामी अंतरनीरव से अमरदीप के बारे में बहुत कुछ सुन रखा था। 26 मार्च को जब अमरदीप मुझे और स्‍वामी को मलेरकोटला में आयोजित होने वाले मुशायरे में ले जाने के लिए दोपहर बाद पंजाबी यूनिवर्सिटी पटियाला के पंजाबी विभाग के प्रोफेसर सुरजीत सिंह के आवास स्‍थान पर पहुंचा तो तभी स्‍वामी ने मेरा परिचय अमरदीप से करवाया। अमरदीप इतना सहज, सरल और मिलनसार है कि मुझे लगा ही नहीं कि मैं पहली बार उससे मिल रहा हूं। दोस्‍त ऐसा ही जब उसको पता चला कि हम लुधियाना में 16 जुलाई को हो रहे कार्यक्रम में हिस्‍सा लेने आ रहें हैं तो हमें बिना बताए ही मिलने पहुंच गया। आज पाठकों के सामने अमरदीप की कुछ गजलों को सम्‍मान के साथ पोस्‍ट कर रहा हूं।अमरदीप की गजल का कैनवास इतना बड़ा है कि इसमें गजल के शौकीन लोगों को सभी जरूरी रंगों से रूबरू होने का मौका मिलेगा। शुरूआत इस शे'र के साथ

वो साफ़-गो है मगर बात का हुनर सीखे,
बदन हसीं है क्या बे-लिबास आएगा!



गजल

जो भी था अफ़्लाक पे रक्खा
हम ने उठा कर ख़ाक पे रक्खा

मिट्टी थे हम और फिर हम को
कूज़ा-गर ने चाक पे रक्खा

हम ने सारी दुनिया रक्खी
उस ने हम को धाक पे रक्खा

मेरा सर फोड़ेगा इक दिन
गुस्सा तेरी नाक पे रक्खा

चमक-दमक की मारी दुनिया
ख़ाक न देखे ख़ाक पे रक्खा

इल्म-ओ-अदब की बज़्म में सब ने
ध्यान मेरी पोशाक पे रक्खा

उलझ रहा है कौन-ओ-मकाॅं से
ज़हन हद-ए-इदराक पे रक्खा

दुनिया देखी मगर अक़ीदा
हुस्न-ए-शह-ए-लौलाक पे रक्खा

रहने दे कुछ देर ऐ जानाॅं
हाथ दिल-ए-सद-चाक पे रक्खा

हाथ नहीं आता अब मेरे
ख़ुद ही जीवन ताक पे रक्खा



गजल
ख़ुद अपने ही ख़्वाबों-ख़यालों से भागे
हम अहल-ए-ज़मीं आसमानों से भागे

कभी ग़ैर से जी चुराते रहे हम
बचा कर कभी ऑंख अपनों से भागे

हमें अपने दिल की नदामत पता थी
सो हम उस नज़र के सवालों से भागे

यहाँ मस'अला दूसरों का नहीं था
हम अपने ही वादों-इरादों से भागे

हुए फ़िक्र-ए-फ़र्दा में गुम उस घड़ी हम
कि जब अपने माज़ी की यादों से भागे

है बस तिश्ना-कामी की इतनी हिकायत
शराबों में अटके सराबों से भागे

'अमर' ख़ुद से हो कर परेशान इक दिन
हमें भागना था सो ज़ोरों से भागे



गजल
बुरे दिनों में सलामती की दुआओं जैसा
कहाँ से लाऊँ वो शख़्स जो हो ख़ुदाओं जैसा

मैं दिल से बढ़ कर दिमाग़ से मुत्तफ़िक़ हूँ लेकिन
ये फ़ैसला मुझ को लग रहा है ख़ताओं जैसा

कहीं वो मेरा ही दिल न हो जो पस-ए-फ़लक है
ख़ला में रहने से हो गया जो ख़लाओं जैसा

वो फूल सा इक बदन मुहाफ़िज़ है ख़ुशबुओं का
कि जिस की हसरत में शख़्स है इक हवाओं जैसा

बदलती रुत ने भी आख़िर अपना लिया है जानम
वो बाॅंकपन जो है ऐन तेरी अदाओं जैसा

इस अज्नबिय्यत के दौर में जुर्म है ये शायद
अगर किसी से करो सुलूक आश्नाओं जैसा

मैं ज़ब्त-ए-ग़म के हज़ार दावे करूँ भी लेकिन
न पास मेरे वो दिल न वो सब्र माँओं जैसा


गजल

यही मंज़र मेरी तकमील का है
उदासी ने बदन पहना हुआ है

मुकम्मल कर मेरी अफ़्सुर्दगी को
तू उस से मिल जो तुझ को भा गया है

बहाना चाहिए दिल टूटने का
सभी सामान इकट्ठा कर लिया है

अचानक सामने से मिल गए थे
वगरना कौन किस को पूछता है

हमारी ऑंख से मंज़र निकालो
ये काॅंटा ज़ेहन में चुभने लगा है

हवा बाॅंधी हुई है इस ने वरना
ये पेड़ अंदर से बिल्कुल खोखला है

कोई तदबीर भी करता हूँ ठहरो
अभी तो सिर्फ़ मेरा दिल किया है

हवस-अंगेज़ है तेरी जवानी
मगर ईमान आड़े आ रहा है

जहालत चुप नहीं होती किसी की
किसी का इल्म गूॅंगा हो चुका है

जहाँ ख़ुद को सभी कहते हों मुंसिफ़
वहाँ हर जुर्म का मुजरिम ख़ुदा है

गजल

ये पल ये शब ये माह-ए-तमाम आख़िरी समझ
मुझ से लिपट जा और ये मक़ाम आख़िरी समझ

कोई जवाज़ भी तो नहीं अपने वस्ल का
तू सुब्ह-ए-अव्वलीं मैं हूँ शाम आख़िरी समझ

मुझ को निकालनी है तेरे दिल से अपनी याद
काम आख़िरी है तो ये कलाम आख़िरी समझ

पी कर भी गर दिमाग़ से लेना है काम दोस्त
अच्छा तो अलविदा'अ ये जाम आख़िरी समझ

इक लफ्ज़-ए-कुन ही अब तलक आया नहीं समझ
उस पर ये फ़र्ज़ है कि पयाम आख़िरी समझ

शायद मैं लौट कर न कभी आ सकूँ ऐ दोस्त
मेरे सलाम को तू सलाम आख़िरी समझ

बाद अज़ 'अमर' कोई भी नहीं सरफिरा मज़ीद
शहर-ए-जुनूॅं में बस यही नाम आख़िरी समझ



गजल

मंज़िलों की जुस्तजू में रास्तों से भी गए
मशवरे इतने मिले हम फ़ैसलों से भी गए

रास भी आई न राह-ए-शौक़ उन को दूर तक
हाए वो बद-बख़्त जो अपने घरों से भी गए

ख़ैर ये अच्छा हुआ कुछ रंजिशें तो कम हुईं
ये मलाल अपनी जगह हम दोस्तों से भी गए

इस कदर बे-फ़ैज़ कब थी ज़िंदगी पहले कभी
मौजज़ों के मुंतज़िर हम हादसों से भी गए

और फिर इक रोज़ उदासी भी उन्हें खलने लगी
हाँ वही कुछ लोग अब जो क़हक़हों से भी गए

वो कि जिन पर था यक़ीं मझदार में आ जाएंगे
वक़्त पड़ते ही मगर वो साहिलों से भी गए

चल 'अमर' घर चल कि अब तो रात आधी हो चुकी
लोग उठ-उठ कर सभी अब मै-कदों से भी गए

अमरदीप सिंह
मोबाइल: 9888194765



प्रस्‍तुति:
कुमार कृष्‍ण शर्मा
9419184412

2 comments:

  1. Kya kehne wahh 👏💐❤️

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  2. Bohut badiya hai yuvaaon ka sahitya mein aana .amar deep ko badhai

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