Sunday, August 7, 2022

दिल्‍ली ने बहुतों को खराब किया है

सन 2010 की बात है। मौका था जम्‍मू कश्‍मीर की कला, संस्‍कृति और भाषा अकादमी के केएल सहगल हाल पर आयोजित होने विमोचन समारोह का। किताब थी अशोक कुमार के संंपादन में छपने वाले काव्‍य संग्रह 'तवी जहां से गुजरती है' और विमोचन समारोह में मुख्‍य अतिथ‍ि थे नामवर सिंह। यह मेरा दूसरा मौका था जब मैं नामवर सिंह को सुनने वाला था। इससे कुछ साल पहले (साल याद नहीं) नामवर सिंह जम्‍मू यूनिवर्सिटी में आयोजित होने वाले एक कार्यक्रम में मुख्‍य वक्‍ता के रूप में उपस्थित थे। साइंस का छात्र होने और उर्दू साहित्‍य के साथ लगाव के चलते मुझे नामवर सिंह के बारे में कुछ पता नहीं था। वह वही समय था जब मैंने अमर उजाला को पत्रकार के तौर पर ज्‍वाइन किया था और जम्‍मू यूनिवर्सिटी मेरी बीट थी। मैं उस कार्यक्रम में थोड़ी देर बैठा और चला आया।  शाम को आफिस पहुंचा। तत्‍कालीन संपादक ने जब कार्यक्रम के फोटो देखे तो मुझे पूछा कि क्‍या मैंने नामवर सिंह से अलग से बात की है। जब मैंने ना कहा तो संपादक ने मुझसे पूछा कि नामवर सिंह के बारे में जानते हो या नहीं। मैंने कहा नहीं, अगर जानता होता तो जरूर अलग से बात कर लेता। उसके बाद संपादक ने अपने कैबिन में अपने सामने बिठा पहली बार मुझे नामवर सिंह के नाम से रूबरू करवाया। 2010 में यह दूसरा मौका था।

केएल सहगल हाल में 'तवी जहां से गुजरती है' के विमोचन समारोह के मौके पर अपने संबोधन में नामवर सिंह ने खुलकर अपने विचार रखे और दिल्‍ली व महानगरों से बाहर लिखने वाले कवियों का उत्‍साह बढ़ाया। उनके संबोधन का कुछ हिस्‍सा पाठकों के समक्ष रख रहा हूं- 


छोटी पगडंडी निकालना ज्‍यादा बढ़ा काम

साफ साफ कहना चाहूं तो जिस बात से मुझे आकृष्‍ट किया वह यह है कि बनी बनाई पक्‍की सड़क पर चलने की अपेक्षा उससे हट कर छोटी पगडंडी निकालना ज्‍यादा बड़ा काम है।

हर दौर की कविता का एक मुहावरा बन जाता है। अच्‍छे या बुरे लोग देर तक उसे चलाते हैं और वह चल पड़ता है। जैसे छायावाद हुआ, प्रगतिवाद हुआ, प्रयोगवाद हुआ, नई कविता हुई। जैसे हिंदी में री‍त काल में दोहे लिखे गए। आप देखेंगे कि उनमें चीनियों के चहरे की तरह पहचनना मुश्किल होता है, कौन क्‍या लिखा है। जैसे उर्दू गजल का एक मुहावरा बना हुआ है। हर कोई मीर और गालिब तो नहीं हो सकता है। लेकिन आप देखेंगे तो सारी गजलें एक ही जैसी मालूम होती हैं। बहुत मुश्किल काम होता है रास्‍ता निकालना। यह काम जम्‍मू कश्‍मीर के हिंदी कवियों ने किया है। गौरतलब है कि 'तवी जहां से गुजरती है' में जम्‍मू के 13 कवियों की कविताएं शामिल हैं। इनमें मनोज शर्मा, महाराज कृष्‍ण संतोषी, कमल जीत चौधरी, शेख मोहम्‍मद कल्‍याण, राज जम्‍वाल, अशोक कुमार, अमिता मेहता, शकुंत दीपमाला, डा. पवन खजूरिया, संजीव भसीन, कपिल अनिरुद्ध, सुधीर महाजन और कुमार कृष्‍ण शर्मा की कविताएं शामिल हैं।   


दिल्‍ली ने बहुतों को खराब किया है

इस समय कविता जो शहरों में रहने वाले लोग लिख रहे है, ठप्‍पा लगी हुई कविताएं हैं। खासतौर पर दिल्‍ली में कवियों की बस्‍ती है। जितने पच्‍चीस तीस दिखते हैं, सब एक ही बोली बोलते है। कई खराब हुए हैं दिल्‍ली आ कर। दिल्‍ली ने बहुतों को खराब किया है। हम जानते हैं, पालिटिक्‍स को तो खराब कर ही रही है दिल्‍ली, साहित्‍य को भी खराब किया है। अच्‍छी कविताएं दिल्‍ली के बाहर के लोग ही लिखते हैं।

'तवी जहां से गुजरती है' और इस दमखम के साथ कि तवी जहां से गुजरती है, तुम गुजरे हो वहां से या नहीं। गुजरों तो देखों, तवी कहां से गुजरती है। कविता की तवी। एक नई भाषा, एक नया मुहावरा, नया निखार। यह देख कर खुशी हुई। जो कविताएं मुझे सुनाई गईं, आपने पहचाना होगा कि यह पक्‍की सड़क पर चलने वाली हिंदी कविताओं से अलग है। जिसकी भाषा, जिसके मुहावरे, जिसकी कविता कहने का अंदाज ही बहुत अलग है।

बुरे दौर में लिखा गया अच्‍छा साहित्‍य

कविता का इतिहास दखें, पढ़ें तो चीजें साफ हो जाएंगी। गालिब का जमाना कोई शानदार जमाना नहीं था। मुगलिया सल्‍लनतन करीब करीब खत्‍म हो रही थी। अंधेरा था उस समय। कबीर का जमाना कौन सा शानदार जमाना था। दिल्‍ली सल्‍लतनत का जमाना था। लोगों की आर्थिक स्थिति बहुत अच्‍छी नहीं थी। सच पूछिए तो भारतीय भाषाओं को भी सर्वोत्‍तम साहित्‍य लिखा गया, वो गुलामी के दौर में लिखा गया। इसलिए रियासत के कवियों की रचनां उस चुनौती का जबाव हैं और यह रोशनी की तरह हमारे सामने आता है। जरूरी नहीं है कि बेहतर कविताएं महानगरों या देश की राजधानी में लिखी जाए।

मैं अकसर महसूर करता हूं अगर कभी बड़ी जगहों से, मशहूर जगहों से हटकर हम जाएं, देखें तो यह महसूस होता है यह वरजिन सॉयल है जो बड़ी जगहो की खराबियों से बची रही हैं। इन जगहों में जिन लोगों ने लिखा है, वह बड़े नाम नहीं हैं, लोकल हैं, लेकिन यह जो प्रतिभाएं हैं ने हर कविता में अपने को दोहराया नहीं है।


दिल काला है, इसलिए उम्‍मीद है

मुझे लगा जम्‍मू, जो वरजिन सॉयल है, अभी जोती नहीं गई है, की प्रतिभाएं बूढ़ी नहीं हैं। यह पके लोग नहीं हैं। बाल सफेद नहीं हुए है। अभी इन लोगों का दिल काला है और इसलिए उम्‍मीद है। जिस दिन बाल सफेद हों या नहीं हों, दिल सफेद हो जाएगा, कविता नहीं लिख पाएंगे। इसलिए जो काला दिल है, उसे बचा कर रखो। उससे कविताएं निकलेंगी। जो कच्‍चापन यहां की कविता में है, वही उसकी खूबी है। पका फल सड़ जाता है। अगर बड़ी बनी ठनी कविता हो तो संभावना नहीं है। बहुत सी कविताओं में खुरदरापन है या ज्‍यादा लंबी हो गई छोटी हो सकती थी आदि। अब उस्‍ताद का जमाना गया। अब आप खुद अपने उस्‍ताद है और रास्‍ता आपको खुद तय करना है।


प्रस्‍तुति: कुमार कृष्‍ण शर्मा 

94191-84412

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