युवा शायर पुलकित शर्मा 28 साल के हैं और अमृतसर(पंजाब) से नाता रखते हैं। पुलकित पुणे में एक आईटी कंपनी में बतौर सीनियर साफ्टवेयर इंजीनियर कार्यरत हैं। पुलकित ने 2018 से ग़ज़लें, नज़्में कहना शुरू किया है और अदब के जानकारों से, अदीबों से उन्हें बहुत मुहब्बत मिली है। पुलकित अब तक पुणे, मुम्बई और पंजाब में कई जगह कविता पाठ कर चुके हैं।
पुलकित अपने अंदर शायरी की कला के होने का श्रेय अपने पूज्य पिता जी को देते हैं और इसे अपने पिता जी का आशीर्वाद ही मानते हैं। पुलकित के पिता जी, स्वर्गीय "पंडित किशोर शर्मा जी" एक थिएटर कलाकार थे जिन्होंने अपने जीवनकाल में कई पंजाबी और हिंदी फ़िल्मों में बतौर अभिनेता काम किया था।
पुलकित से मेरी मुलाकात लुधियाना के हरदिल अजीज शायर मुकेश आलम के घर पर हुई थी। सादा तबयित, बेहद मिलनसार और बहुत संवेदनशील पुलकित की कुछ रचनाएं अनंत शुभकामनाओं के साथ आपके साथ साझा कर रहा हूं। गजल और नज्म से पहले उनके कुछ अशआर
चारागर इक अर्ज़ करूँ मैं? मेरी नब्ज़ न देख..
तेरा इल्म सलामी लाएक़, मेरा ज़ख़्म फ़रेब
देख के अपनी चादर पैर पसारे मैंने
एक फटी चादर थी, ख़ैर पसारे मैंने
राम लिखो पत्थर पर तो पानी क़ाबू में रहता है
ऐसा ही इक पत्थर मेरी आँख पे रख दो आज के आज
क़ब्ल इसके ज़िन्दगी से राब्ता हरगिज़ न था
मौत देखी घर में जब तो ज़िन्दगी महसूस की
साँस अपनी दौड़ती है उम्र भर
मुँह के बल जब गिर पड़े तो मौत है
गजल
काम चलाया कुछ दिन मैंने जैसे तैसे
दिल न लगाया कुछ दिन मैंने जैसे तैसे
दिल मेरा हिज्राँ में रोया छटपट छटपट
चुप न कराया कुछ दिन मैंने जैसे तैसे
ज़ीस्त खड़ी थी डमरू, डफ़ली, चिमटा लेकर
नाच दिखाया कुछ दिन मैंने जैसे तैसे
ख़ुश होकर जिस तन्हाई को दूर किया था
पास बुलाया कुछ दिन मैंने जैसे तैसे
मुझको पाना सब के बस की बात नहीं थी
दाम घटाया कुछ दिन मैंने जैसे तैसे
खेल रहे जो इतना तनकर खेल रहे..
जाने आख़िर किस की शह पर खेल रहे..
खेल था क्या ये इनके बाबा दादा का ?
कौन हैं जो यूँ अफ़सर बनकर खेल रहे ?
कुर्सी पर तशरीफ़ न रख दे नस्ल नयी
कुर्सी वाले कितना जमकर खेल रहे..
इस रस्ते पे वो जो थोड़ा आगे हैं
पिछलों को बस ठोकर देकर खेल रहे..
बाहर वाला अंदर कैसे आएगा ?
अंदर वाले अंदर-अंदर खेल रहे..
काश होता 'चुटकियों से', चुटकियों में खेल ऐसा
याद घर की जब भी आती चुटकियों में जा पहुँचता
मन मिरा क़ाबू से बाहर मनचला हो घूमता है
काश सातों चक्र खुलते मन का दरिया पार होता
बाँध पट्टी आँख पर मुझको ख़ुदा को ढूँढना है
गर ख़ुदा मुझ को घुमाकर खेल में वापिस न लौटा ?
काश होते 'तुम' कहानी में मिरी किरदार कोई !
काश मेरी ज़िन्दगी का एक नाटक पेश होता..
काश 'मैं' हर इक कहानी में बनूँ किरदार कोई !
हाँ अगर ऐसा हुआ, मेरा ख़ला का रोल होगा..
गजल
आँख नम थी, ग़मज़दा थी, सिसकियाँ लेने लगी
पतझडों में एक तितली, सिसकियाँ लेने लगी
अब तलक जो ख़ुश बहुत थी रौनकों को देख कर..
गुम हुई मेले में, बच्ची, सिसकियाँ लेने लगी
फिर लबालब इक समंदर वहशतों से भर गया
और इक सहमी सी कश्ती, सिसकियाँ लेने लगी
हम हुए आज़ाद, दोनों ही तरफ़ लाशें थीं बस
लाश ढोती.. रेल-पटरी, सिसकियाँ लेने लगी
एक शायर बज़्म में इक शेर कहता रो पड़ा
साथ उसके बज़्म सारी सिसकियाँ लेने लगी
गजल
दरिया का मन 'भरा हुआ' तो क्या होगा ?
गर मैं उस में 'डूब गया' तो क्या होगा ?
रक़्स करें हैं जो यह 'लहरें' दरिया पर..
दरिया 'इन में' डूब गया तो क्या होगा ?
'सहरा', जिसके हर ज़र्रे में रेत बसी..
इसने गर चोला बदला तो क्या होगा ?
रेत कहे सहरा में तन्हा रहती है..
रेत का मन हो रोने का तो क्या होगा ?
पूछ रही बुतकार को मिट्टी सच कहियो..
इतने बुत हैं.. एक घटा तो क्या होगा ?
गजल
हम तितली को हाथ लगाने वाले लोग
या'नी हम हैं बाज़ न आने वाले लोग
हम दीवार बना कर ख़ुश हो जाते हैं
हम रिश्तों से जान छुड़ाने वाले लोग
'इक किरदार' से पूरी उम्र नहीं कटती
हम चेहरों का खेल बनाने वाले लोग
हमसे पूछो कौन ग़लत है फिर देखो
हम उँगली का नाच दिखाने वाले लोग
रंग बना कर.. रब ने हम पर रहमत की..
हम..रंगों से ज़ात बनाने वाले लोग..
ख़ुदा की चाल
अगर सोचो हक़ीक़त में,
ख़ुदा की चाल निकली तो..
हमारा साँस लेना क्या पता मालूम करना हो !
कि जैसे हम..
हर इक शय जाँचते हैं औ' परखते हैं..
ख़ुदा हमको बनाकर उम्र भर बस देखता हो तो !
अगर उसकी निगाहों में ग़लत शय हम भी निकले तब !
हमारे साँस लेने का कोई मतलब न निकला जब !
ख़ुदा जो देख कर सोचे,
नहीं वो बात रचना में,
तभी साँचा बदल दे वो,
हमें फिर से बनाने को..
किसी दिन रोज़ के जैसे..
भरी लेकिन न छोड़ी तो,
हमारी साँस का पैंडा अधूरा ही रहेगा तब।
मगर जो जी रहे थे हम,
जिसे जीवन समझते थे,
था जीवन ही नहीं वो तो
ख़ुदा का खेल था सारा..
कहे कोई ख़ुदा से ये,
हमें फिर से नहीं बनना,
सफ़र फिर से नहीं करना,
सफ़र में क्या नहीं देखा,
कई रातें भयानक थीं,
कई दिन थे जो क्यूँ ही थे,
सभी रिश्ते, सभी नाते, निभाए हैं मगर अब बस,
ख़ुशी से आज तक ग़म को सहा लेकिन न जाना था,
कि सारे ग़म तो हमको जाँचने का एक ज़रिया थे,
कि हम जो सोचते थे वो ख़ुदा सब नोट करता था,
तभी इक दिन, तभी इक दिन..
हुआ ऐसा कि वो आई जिसे सब मौत कहते हैं..
कि मतलब हम ख़ुदा के टेस्ट में अब फ़ेल होकर फिर..
चले थे दूसरे साँचे..ख़ुदा ने ली नई मिट्टी..नए साँचे में भर कर के..
लगा फिर से मुसीबत को तरीक़े से बनाने वो..
अगर सोचो हक़ीक़त में,
ख़ुदा की चाल निकली तो..
अगर वो जान कर के..बूझ के.. करता हो ऐसा तो !
पुरानी मिक्स करता हो, नई मिट्टी में तो सोचो,
ज़रुरी तो नहीं उसका हमेशा ही लगे रहना,
उसे क्या फ़र्क पड़ता है, कि हम कैसे भी निकलें.. पर..
उसे करना वही है जो भी उसने सोच रक्खा है..
उसे फिर से बनाना है, हमें फिर से बनाना है, बनाते ही तो जाना है..
किसे मालूम उसको क्या मज़ा आता है ये कर के..
मगर ये भी हो सकता है...कहीं ये बात निकली तो ?
उसे गर बस यही इक काम करने का पता हो तो ?
तो फिर अब बात ऐसी है..
ज़रा सोचो तो सीधी है..
सभी जीवन हमारे बस कटे हैं फ़ेल हो कर के..
ख़ुदा करता नहीं है पास, अपने पेट की ख़ातिर..
चलो इस बात को मानें कि ये जीवन नहीं जीवन..
नहीं होगा कभी कोई हमारा अस्ल में जीवन..
ख़ुदा शतरंज-ए-हस्ती में हमेशा 'चेक' ही देता है,
रखें हम पाँव जिस ख़ाने, वहीं पर मात निश्चित है।
अगर सोचो हक़ीक़त में,
हमारा सोचना ऐसा भी उसकी चाल निकली तो !
ख़ुदा ने सोच रक्खा हो अलग जीवन हमारा तो !
ख़ुदा की सम्त को मंज़र अज़ल ही से तो ऐसा है..
क़लम पकड़े वो हर दम ही ज़मीं की ओर तकता है..
ख़ुदा लेकर के बैठा है,
'पुरानी औ' नई मिट्टी'।
पुलकित शर्मा
अमृतसर, पंजाब
9834923481
प्रस्तुति और फोटाेग्राफ- कुमार कृष्ण शर्मा
94191-84412
Very nice....loved all ...thnx for sharing kumar..
ReplyDeleteBahut khoob 👏👏 keep it up
ReplyDeleteMubarkbaad krushan....for publishing Pulkit Sharma....he is such a fine and subtle poet...
ReplyDeleteKya bat bhai m proud of u
ReplyDeleteअच्छी जानकारी !! आपकी अगली पोस्ट का इंतजार नहीं कर सकता!
ReplyDeletegreetings from malaysia
let's be friend.
कैसे पुलकित ने अपनी शायरी की शुरुआत की और किन कारणों से इसमें रुचि लिया?
ReplyDeleteVisit us Telkom University