Sunday, February 4, 2024

फ़िलहाल 6 - निदा फाजली


... प्रिय ! 
जानती हो ...
मीलपत्थरों का नहीं होता
कोई भी अंत
और जिन्हें समझते हैं हम खनिज जीवन के
वे सभी पा लिए जाने के बाद भी/
हमें अपनी कथाओं से मुक्त नहीं करते हैं...


****
अबकि, कुछ श्रृंखलाएं संस्मरण आधारित। क्रम चलता रहेगा। **** 

'कुछ भी बचा न कहने को हर बात हो गई,
आओ कहीं शराब पिएं रात हो गयी ।' ( निदा फ़ाज़ली ) 

वह एक हसीन सी शाम थी। रेडियो कश्मीर, जम्मू ने 'अखिल भारतीय मुशायरे' का आयोजन किया था। कई नामचीन हस्ताक्षर उपस्थित थे। मुंबई से 'निदा फ़ाज़ली', 'सरदार अली जाफ़री' और शेष राज्यों से भी बड़े- बड़े कवि। मुशायरा देर से शुरू हुआ। अंत में निदा जी आए और महफ़िल लूट ली। रात उरूज पे थी। वे, इस बीच अपने किसी पटियाला के शागिर्द से शराब के इंतजाम के बारे में बोल चुके थे, शायद उसे पैसे भी दिए थे। मैं किसी काम से हॉल से बाहर आया था।अचानक एक आदमी हांफते हुए मेरे पास आया तथा शराब की दुकान तक ले चलने के लिए बोला। मैंने पूछा, "क्यों" तो कहने लगा कि निदा जी के लिए शराब खरीदनी है। उन दिनों जम्मू में रात के ठीक 9 बजे शराब की तमाम दुकानें बंद हो जाती थीं। मैंने स्कूटर स्टार्ट किया व 'ज्यूल चौक' आया। 9 बजने ही वाले थे। उसने पता नहीं किस ब्रांड का अधिया (हाफ़) खरीदा तथा मुझसे कहा कि उसे भी पीनी है। जम्मू में खुलेआम शराब- नोशी की सख़्ती से मनाही थी। मैं एक परिचित ढाबे वाले के पास गया और चिरौरी करके उस आदमी के लिए गिलास-पानी जुटाया। देखते-देखते वह पूरा अधिया गटक गया तथा साधिकार स्कूटर की पिछली सीट पर सज गया। मैं हतप्रभ। बहरहाल, वापस अकादमी आए। मुशायरा बाकमाल रहा था।
रात गहरा चुकी थी। रेडियो-स्टेशन के निदेशक बेहद भद्र युवा सज्जन थे- मुस्लिम, जो शराब को हराम मानते थे। अकादमी के दरवाज़े से बाहर आते ही, निदा जी ने चारों ओर निगाह घुमाई। शागिर्द का कहीं अता- पता ही न था।उन्होंने, स्टेशन-डायरेक्टर से पूछा, "शराब का क्या इंतज़ाम है? "उसे तो जैसे सांप सूंघ गया हो। निदा जी का पारा चढ़ने लगा, वे गुस्से में थे। सारे श्रोता निकल चुके थे। मैं एक ओर खड़ा था और निदा जी की बगल में वरिष्ठ पत्रकार/चिंतक 'बलराज पुरी' जी खड़े थे। वे धीमे से बोले, " मेरे घर में स्कॉच पड़ी है।आपको ऐतराज़ न हो तो मेरे साथ चलें।" पुरी जी ने अपना लँब्रेटा स्कूटर अकादमी की पार्किंग में लगाया हुआ था। ईद आने वाली थी तथा रोज़े चल रहे थे। निदा जी और सरदार साहिब के ठहरने का इंतज़ाम जम्मू - यूनिवर्सिटी के गैस्ट- हाऊस में था। सरदार साहिब चले गए थे। एक कोई और व्यक्ति निदा जी के साथ था, जिसने रोज़े रखे थे।रेडियो स्टेशन की गाड़ी पुरी जी के घर की ओर चल पड़ी। मुझे पुरी जी ने पीछे -पीछे आने को कहा। उनसे प्रगाढ़ संबन्ध थे। ना नहीं कह सकता था। घर पहुंच पुरी जी की पत्नी ने बेहद प्यार से साथ आए आदमी के लिए खाना बनाया। उसने रोज़ा खोला, फिर चला गया। रेडियो स्टेशन की गाड़ी भी जा चुकी थी । रात, रंगीन थी। निदा जी मूड में। रात का डेढ़ बजे चुका था। अचानक निदा जी जाने का कहने लगे। उन्होंने लगभग ज़िद पकड़ ली। पुरी जी अब कुछ नहीं कर सकते थे। मैंने कहा कि मेरे स्कूटर के पीछे बैठ जाएं, आपको छोड़ दूंगा। हम यूनिवर्सिटी पहुँच गए। रात के इस समय, बाहर का ही गेट बंद था। शुक्र है, अंदर के कमरे में कुछ गार्ड बैठे थे। आतंकवाद के उस चरम दौर में किसी ने गेट न खोला। मैंने अपना 'कश्मीर टाईम्स' का रेफरेंस दिया, तो गेट खुला। हम अंदर आए। अंदर गैस्ट-हाऊस का गेट भी बंद था तथा कोई गार्ड भी नहीं था।निदा जी, सरदार साहिब के पास जाने की रट लगाए थे, कि अचानक गेट के जंगले पर चढ़ने लगे। शुक्र है गिरे नहीं। गेट ने न खुलना था और न ही खुला।
रात के दो बज चुके थे। मैंने आग्रह किया कि मेरे घर चलें। अंततः, वे माने। मैं, त्रिकुटा- नगर में किराए के मकान में रहता था। हम दोनों ने खाना नहीं खाया था। एक बात तो भूल गया कि घर की ओर आते हुए मैंने निदा जी से हिंदी-गद्य को लेकर अपना ज्ञान बघारना शुरू किया, वे चुप रहे। घर आकर पत्नी को जगाया, वे बेटे को सुलाते-सुलाते सो गई थीं। बताया कौन आया है...खाना बना। किराए का घर, छोटे कमरे और निदा जी जैसा बड़ा शायर तथा नासमझ सा मैं। सुबह उठे। सर्दी थी। मैंने सर पर लोई लपेटी व निदा जी को ले यूनिवर्सिटी की ओर चल पड़ा। गैस्ट-हाऊस के कमरे में घुसते ही, सरदार अली जाफ़री ने मुझे कैंटीन का कोई कारिंदा समझ, चाय के दो कप लाने का हुक्म दिया। निदा जी मेरा परिचय देने लगे तथा इस परिचय में वे हिंदी-साहित्य, गद्य, कविता पर विस्तार से बोले। मैं भौचक, इतना ज्ञान, ऐसी समझ, कमाल की याददाश्त। मुझे पता चल चुका था, बड़े लोग दरहक़ीक़त क्यों बड़े होते हैं। कुछ साल बीते, निदा जी एकबार फिर मुशायरा पढ़ने जम्मू आए। तब तक मैं उनका प्रिय हो चुका था, तो साधिकार जम्मू- विश्विद्यालय के हॉल के पीछे जाकर उनसे मिला। बेहद खुश हुए। कालांतर में मेरा तबादला मुबई हो गया। निदा जी के साथ गहरी अंतरंगता हो चुकी थी। इसका एक प्रसंग ही काफी है: एक बार, एक प्रकाशक मुंबई मेरे घर आए। निदा जी का लेखन चाहा। उन्होंने, बिना किसी अग्रिम राशि के कंट्रेक्ट साईन कर दिया। उस प्रकाशक ने बाद में भी कोई राशि दी या नहीं, कभी ज़िक्र न किया।उनके साथ मुंबई में एकाधिक महफ़िलें सजीं, जिनमें अक्सर कहते कि, 'उस रात, मुझे लगा तुम कोई आतंकवादी हो, जो मुझे अगवा करके ले जा रहे हो। फिर सोचा, चलो यह अनुभव भी ले लें। 'और गड़ाका मार हँस पड़ते। 

"सिखा देती हैं चलना ठोकरें भी राहगीरों को, 
कोई रस्ता सदा दुश्वार हो,ऐसा नहीं होता ।"
(निदा फ़ाज़ली)


-मनोज शर्मा
7889474880

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